त्रिपुरा के दक्षिणी भाग में स्थित पिलक गाँव के प्राचीन हिन्दू और बौद्ध धर्म से जुड़े अवशेषों को देखने के बाद मैं उदयपुर की तरफ़ वापसी की राह पर था । NH-8 पर पिलक से उदयपुर की तरफ़ आगे बढ़ते हुए कई बार दिमाग़ में आया कि बांग्लादेश बॉर्डर के पास स्थित एक दूसरे क़स्बे बेलोनिया की तरफ़ घूम आऊँ । बेलोनिया की तरफ़ जाने के लिए NH-8 से तीन-चार रास्ते निकलते हैं । लेकिन फिर लगा कि बॉर्डर तो आगे भी कई जगह मिलेगा ही, इसलिए मैंने वो विचार त्याग दिया ।चलते-चलते मैं मनु बाज़ार पहुँच गया जहाँ सड़क के किनारे गाड़ियों की लम्बी लाइन लगी हुयी थी । गाड़ियों की भीड़ देखकर मन में कौतुहल जागा, तो मैं वहीं रुक गया । थोड़ा देखने-ताकने पर पता चला कि वहाँ साप्ताहिक बाज़ार लगा हुआ है, जिसमें ख़रीददारी करने के लिए आसपास के इलाक़ों से बड़ी संख्या में लोग आते रहते हैं । मैंने भी स्कूटी एक तरफ़ लगा दी और बाज़ार की रौनक़ देखने चला गया ।
बाज़ार में हर तरफ़ इंसानों का रेला लगा हुआ था । यह बहुत बड़ा बाज़ार है । घुसते ही सबसे पहले सब्ज़ी और फलों की दुकाने दिखती हैं । लोग जगह -जगह रास्ते पर टोकरों में फल और सब्ज़ियाँ लेकर बैठे रहते हैं । थोड़ा आगे रास्ते पर ही इलेक्ट्रॉनिक्स के सामान और प्लास्टिक के बर्तन और रोज़मर्रा की ज़रूरत के सामान बेचती दुकानें दिख जाती हैं ।
दूसरी तरफ़ हर तरह की चीज़ों की अलग-अलग मंडियाँ बना दी गई हैं, जहाँ बीसियों दुकानों पर लोग ख़रीददारी करते दिख जाते हैं, जैसे कपड़ों की मंडी में कपड़े बेचती कई सारी दुकानें, माँस की मंडी में माँस बेचती दुकानें, जूते-चप्पल वाले सेक्शन में जूते-चप्पल की दुकानें, सब्ज़ी मंडी में सब्ज़ी की कई सारी दुकानें इत्यादि-इत्यादि । कपड़े , जूते-चप्पल , सब्ज़ियाँ, फल, ज़िंदा मुर्ग़े, बकरियाँ और सुअर, सूखी मछलियाँ, ताज़ा पकड़ी गई मछलियाँ, मछली पकड़ने वाले जाल; सुअर, बकरी और मुर्ग़ी का माँस, केले के ढेर, प्लास्टिक के समान, ब्लूटूथ हेडफ़ोन, स्पीकर, पेन ड्राइव… इस बाज़ार में सब कुछ बिक रहा था ।
बाज़ार घूमकर मैं फिर उदयपुर की ओर बढ़ गया, बल्कि अब तो मंज़िल सीधे अगरतला थी । रास्ते में गरजी क़स्बे के पास मैंने कर्क रेखा (Tropic of Cancer) को पार किया, जिसके बार में पिछली पोस्ट में ही लिख दिया था । माताबारी के चिरपरिचित इलाक़े से गुज़रता हुआ मैं उदयपुर पहुँच गया ।हर जगह अच्छी स्थिति में मिलने वाले NH-8 पर उदयपुर की सीमा में बड़े ज़ोर-शोर से निर्माण कार्य चल रहा था, इसलिए जिधर देखो उधर बस धूल का ग़ुबार था । क़रीब 4-5 किमी तक यही स्थिति रही और फिर मैं निर्माण कार्य वाले क्षेत्र से बाहर निकल गया ।
जब मैं बिश्रामगंज और बिशालगढ़ पारकर गाकुलनगर (Gakulnagar) के पास पहुँचा, तो सड़क के किनारे एक बड़ा सा गेट दिखा, जिसे देखकर यही समझ आया कि वह रास्ता कमलासागर के पास स्थित प्रसिद्ध काली मंदिर तक जाता है । मैंने सोचा चलो लगे हाथ कमलासागर भी निबटा देते हैं । गूगल मैप में भी चेक करने के बाद मैं उस रास्ते पर कमलासागर की ओर चल पड़ा ।
गाकुलनगर से कमलसागर वाली सड़क पर मुड़ते ही दोनो तरफ़ हरे-भरे चाय बाग़ान नज़र आने लगते हैं । लेकिन पिछले कुछ वर्षों में चाय बाग़ान की इतनी सैर कर ली है कि अब चाय बाग़ान पहले की तरह आकर्षित नहीं करते, कम से कम गुवाहाटी में रहने के कारण चाय बाग़ान को लेकर तो मेरे दिमाग़ में अब कोई उत्साह नही रहा । असम में चंडूबी झील या दरंगा के रास्ते से लेकर काज़ीरंगा के रास्ते तक के चाय बाग़ान; तेज़पुर, लखीमपुर, गोलाघाट, जोरहाट से लेकर डिब्रूगढ़, डिगबोई, मार्गेरीटा, लीडो और डूमडूमा के चाय बाग़ान, पश्चिम बंगाल में दार्ज़ीलिंग और कर्सियांग के चाय बाग़ान, सिक्किम में टेमी चाय बाग़ान से लेकर हिमाचल प्रदेश में काँगड़ा, धर्मशाला के चाय बाग़ान, अपने कई वर्षों के सफ़र में चाय बाग़ानों को मैंने बहुत क़रीब से देखा। हालाँकि किसी चाय फ़ैक्टरी के भ्रमण का मौक़ा मुझे पिछले साल ही मिल पाया । मुझे याद है कि पहली बार जब मैंने हिमाचल प्रदेश में धर्मशाला के पास स्थित कुणाल पथरी माता मंदिर वाली सड़क पर क़रीब से चाय बाग़ान देखे थे, तो मैं जैसे पागल ही हो गया था । लेकिन अब वैसा कोई भी पागलपन नही है । बस यही वजह थी कि ख़ूबसूरत दृश्य होने के बावजूद मुझे गाकुलनगर वाले चाय बाग़ानों में कोई दिलचस्पी नही थी, इसलिए मैं सीधा चलता ही गया । थोड़ा आगे बढ़ने पर मधुपुर नाम का एक क़स्बा मिलता है, जहाँ बाज़ार में बहुत चहल-पहल थी । मधुपुर से आगे रास्ते पर ज़्यादा भीड़भाड़ नहीं नज़र आती, लेकिन रास्ता बहुत सुनसान भी नहीं लगता है ।
आगे बढ़ते हुए मैं कमलासागर के पास स्थित पार्किंग तक पहुँच गया । पार्किंग के सामने ही एक विशाल सरोवर है, जिसको कमलासागर बोलते हैं । सरोवर के दूसरी तरफ़ तारों की बाड़ लगी हुई है । बल्कि तारों की बाड़ कमलासागर को तीन तरफ़ से घेरती है । ऐसा लगता है कि बाद बनाते समय कमलासागर के बीच में आ जाने से बाड़ को सरोवर के तीनों तरफ़ से घुमाकर सरोवर को बाड़ के अंदर ले लिया गया है । यह तारों की बाड़ ही भारत और बांग्लादेश की अंतराष्ट्रीय सीमा बनाती है । भारतीय सीमा में सरोवर के सामने क़रीब 100 मीटर की दूरी पर एक छोटी से पहाड़ी पर भव्य कालीबारी मंदिर बना है । बाड़ के दूसरी तरफ़ बांग्लादेश में हरी छत वाले कुछ मकान नज़र आते हैं । मैं अभी स्कूटी पार्क कर ही रहा था कि अचानक से ट्रेन की सीटी सुनाई पड़ी । कौतूहल से मैंने बांग्लादेश की तरफ़ देखा, थोड़ी देर में ही अंतराष्ट्रीय सीमा के उस पार बांग्लादेश में एक ट्रेन खिसकती हुई नज़र आयी । फ़ोटो खिंचने के लिए कैमरा निकालते-निकालते ट्रेन सामने से गुज़र गयी । बस इतना समझ आया कि वो हरी छत वाले मकान सीमा के उस पार स्थित एक रेलवे स्टेशन का हिस्सा हैं ।
कमलासागर के बिल्कुल पास में सीमा के दूसरी तरफ़ स्थित इस रेलवे स्टेशन का नाम ‘क़स्बा’ है । 1947 के विभाजन के पहले ‘क़स्बा’ और ‘कालीबारी’ एक दूसरे के अभिन्न अंग थे, इसलिए इस क्षेत्र को संयुक्त रूप से ‘क़स्बा कालीबारी’ के नाम से भी जाना जाता है । विभाजन के बाद तारों की एक बाड़ ने क़स्बा को कालीबारी से हमेशा के लिए अलग कर दिया, लेकिन नाम का यह जुड़ाव लोगों की ज़ुबान पर हमेशा बना रहा । क़स्बा कालीबारी से त्रिपुरा के निवासियों का एक और ख़ास जुड़ाव रहा है । विभाजन के बाद इस क्षेत्र की रेलवे लाइन बांग्लादेश में चली गयी । 2009 के आस पास तक अगरतला में रेलवे लाइन ना होने से ट्रेन का संचालन नहीं होता था । 2009 में अगरतला के लिए पहली ट्रेन चली, वो भी मीटर गेज पर ; फिर 2016 में अगरतला को ब्रॉड गेज पर पहली ट्रेन की सौग़ात मिली । 2009 से पहले त्रिपुरा के कई हिस्सों से लोग कालीबारी सिर्फ़ ट्रेन देखने के लिए चले आते थे, जो कि सीमा के दूसरी तरफ बांग्लादेश में चलती थी ।
सरोवर घूमने के बाद मैं मंदिर की ओर बढ़ा । वास्तविक रूप से मंदिर का निर्माण त्रिपुरा के महाराजा धन्य माणिक्य ने 15वीं शताब्दी में करवाया था, लेकिन वर्तमान में मौजूद मंदिर का स्वरूप देखकर लगता है कि मंदिर का भवन अभी नया-नया बनवाया गया है । कमलासागर सरोवर की खुदाई भी महाराजा धन्य माणिक्य ने ही करवाई थी । मंदिर के रास्ते में एक तरफ़ प्रसाद बेचती दुकानों की पंक्ति है तो दूसरी तरफ़ त्रिपुरा टूरिज़्म का गेस्ट हाउस कोमिला व्यू टूरिस्ट लॉज है । भगवान जाने इसका नाम कोमिला व्यू क्यों रखा गया, क्योंकि कोमिला का व्यू तो मेलाघर के पास स्थित सोनामुरा से मिलता है । इस गेस्ट हाउस से तो क़स्बा रेलवे स्टेशन का व्यू मिलता है, हालाँकि ‘क़स्बा’ नाम का क़स्बा बांग्लादेश के कोमिला ज़िले में ही है ।
हर दुकान पर प्रसाद के रूप में मुख्यतः पेड़ा ही मिलता है । मैंने भी प्रसाद लिया और देवी दर्शन के लिए चला पड़ा । मंदिर प्रांगण बहुत ही साफ़-सुथरा है, ऐसा लगता है जैसे नई-नई रंगाई पुताई हुई हो । मंदिर में हर तरफ़ भक्तगण फ़र्श पर बैठे अपनी -अपनी साधना में लीन थे । इस मंदिर में देवी काली की पूजा होती है, इसलिए इसको कालीबारी कहा जाता है । साथ ही साथ इसको क़स्बेश्वरी काली माता और कमलासागर काली मंदिर के नाम से भी जाना जाता है । अंदर स्थित देवी की मूर्ति की जिह्वा से तो यही लगता है कि यह काली माता की मूर्ति ही होगी , हालाँकि विकिपीडिया पढ़ने से पता चला कि दस भुजाओं वाली यह मूर्ति महिषासुरमर्दिनी देवी दुर्गा की है, जिनको क़स्बेश्वरी नाम से देवी काली मानकर पूजा की जाती है । मूर्ति के पैरों के पास एक शिवलिंग भी बना है , जो कि कपड़ों से ढके होने की वजह से दिखाई नही पड़ता ।
देवी दर्शन करके मैंने मंदिर की परिक्रमा लगाई और फिर बाहर बाजार में आ गया । चलते -चलते मैंने थोड़ा बॉर्डर की ओर जाने का सोचा । सीमा के दूसरी तरफ कुछ भवन थे, जिनके बाहर एक बोर्ड लगा था – भारत-बांग्लादेश बॉर्डर हाट । बाज़ार की तरफ़ फ़ोटो खींचने की मनाही है । आसपास पूछने से बस इतना ही पता चला कि वहाँ हर रविवार को एक बाज़ार लगता है ,जिसमें दोनो तरफ़ के स्थानीय निवासी अपने स्थानीय उत्पादों की ख़रीद-फ़रोख़्त करते हैं । इससे ज़्यादा जानकारी वहाँ मिल नही पाई तो मैंने इंटरनेट पर पता किया । साप्ताहिक बाज़ार में आने वाली वस्तुओं की सूची पहले से ही तय होती है और उन्हें ख़रीदने-बेचने वाले लोग भी । सीमा के दोनों तरफ़ कुछ लोगों को इस साप्ताहिक हाट में व्यापार करने का लाइसेन्स दिया जाता है । चूँकि आज से 15-20 साल पहले क़स्बा-कालीबारी के बीच कोई तारों की बाड़ नहीं थी, इसलिए दोनों तरफ़ के लोग बिना किसी रोकटोक के शादियाँ भी कर लेते थे या एक दूसरे के यहाँ आते जाते थे । बाड़ बन जाने के बाद सीमा पार कर पाना कठिन हो गया, और पासपोर्ट-वीज़ा जैसे नियम एक दूसरे से मिलने में बाधा पहुँचाने लगे । यह साप्ताहिक बाज़ार ऐसे लोगों को भी एक-दूसरे से मिलने का एक मौक़ा देता है, जहाँ किसी पासपोर्ट-वीज़ा की झंझट नही है । हालाँकि कुछ महीनों से साप्ताहिक बाज़ार में जाने वालों पर कई तरह के बंधन लग गए हैं, जिससे इस बाज़ार का अस्तित्व ही ख़तरे में पड़ गया है । ऐसा सुना है कि साप्ताहिक बाज़ार में हर रोज़ अब केवल 500 लोग जा सकते हैं, लेकिन वही लोग जो कि दोनो तरफ़ सीमा से 5 किमी तक के निवासी हो । इस तरह के बंधनों की वजह से बाज़ार में लोगों की आवाजाही घट गयी है और साथ ही क्रय-विक्रय की क्षमता भी ।
कमलासागर घूमते-घूमते मुझे देर हो गयी थी, और मुझे अगरतला पहुँचकर उज्जयन्ता पैलेस भी घूमना था । इसलिए मैंने स्कूटी उठाई और निकल पड़ा अगरतला की ओर । रास्ते में बिना कही रुके मैं सीधे उज्जयन्ता पैलेस गया । वहाँ मैंने महल के अंदर बने संग्रहालय में कुछ वक़्त बिताया । वर्ष 2011 तक यह महल त्रिपुरा विधान सभा के रूप में प्रयोग किया जाता था, लेकिन उसके बाद इसे राजकीय संग्रहालय में बदल दिया गया । उज्जयन्ता पैलेस के बाद शाम को मैने अख़ौरा अंतराष्ट्रीय सीमा पर बीटिंग रिट्रीट सेरेमनी देखी । इन सबके बारे में अगले पोस्ट में बात करूँगा।
पब्लिक ट्रांसपोर्ट द्वारा कमलासागर कैसे जाएँ? कमलासागर अगरतला से मात्र 30 किमी की दूरी पर है । अगरतला से कमलासागर जाने के लिए निम्नलिखित विकल्प उपलब्ध हैं :
पब्लिक बस/जीप: अगरतला या उदयपुर से शेयर्ड बस/जीप पकड़कर सीधे गाकुलनगर जा सकते हैं । गाकुलनगर में सड़क किनारे बने गेट के पास ही कई ऑटो खड़े रहते हैं । अगर कोई भीड़भाड़ वाला त्यौहार ना हो तो सीधे कमलासागर तक जाने वाले ऑटो की संख्या कम होती है, लेकिन फिर भी दिन भर में कई ऑटो चलते रहते हैं । कमलासागर की बसें भी उसी मोड़ से मिल जाती हैं, हालाँकि उनकी संख्या और भी कम होती है ।
कमलासागर घूमने के दौरान रुकने के विकल्प : कमलासागर के किनारे स्थित कोमिला व्यू टूरिस्ट लॉज कालीबारी में रुकने के लिए सबसे उत्तम विकल्प है ।त्रिपुरा टूरिज़्म के इस गेस्ट हाउस में 100 रुपए में 6 बिस्तर वाली डोरमेट्री में एक बिस्तर और 800 रुपए एक डबल AC रूम मिल जाता है । इसके अलावा तो कालीबारी में रुकने की और कोई व्यवस्था नही है । अगरतला, उदयपुर, मेलाघर इत्यादि के क़रीब स्थित होने से कालीबारी जाने वाले ज़्यादातर लोग तो दिन में ही वापस हो लेते हैं, इसलिए गेस्ट हाउस में सामान्य तौर पर कमरा मिलने में दिक़्क़त नही होती है । फिर भी कालीबारी में रात्रि विश्राम की व्यवस्था ना हो पाने से वापस अगरतला या उदयपुर में जाकर रुका जा सकता है ।
वाह पहले किसी जमाने में लोग कस्बा सिर्फ ट्रैन देखने आते थे कस्बा और कमलासगर एक झटके में अलग अलग हो गए…आपने बांग्लादेश में चलती ट्रेन भी देख ली….चाय बागान से आपको इतना प्रेम भी नही रहा अब….अगरतला में 2009 में पहले मीटर गेज चली फिर ब्रॉड गेज ऐसा ही था तो पहले ही ब्रॉड गेज बनाना थी लाइन…पहले मीटर गेज बना कर फिर ब्रॉड गेज बनाई….हमेशा की तरह फिर से बढ़िया पोस्ट….