मिस्र के पिरामिडों की तरह ही मानव सभ्यता के क्रमिक विकास का इतिहास एक से बढ़कर एक अजूबों से भरा पड़ा है। यह इंसान की जिजीविषा और अदम्य इच्छाशक्ति का ही परिणाम है , जो उसे सभी प्राणियों में सर्वश्रेष्ठ बनाती है। इतिहास में हर क़दम पर ऐसे अनेकों उदाहरण है, कुछ नकारात्मक, लेकिन बहुत सारे सकारात्मक। विकास का यह क्रम अभी भी जारी है और साथ ही हमारे सीखने का भी। नकारात्मक उदाहरणों ने दिखाया कि कैसे इंसानों ने लालच में आकर एक दूसरे से लड़ाईयाँ लड़ीं, क़त्लेआम किया, धर्म के नाम पर ख़ूनख़राबा किया, विकास के नाम पर विनाश किया, प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुँध दोहन किया और धरती के कई हिस्सों को नर्क बना डाला। लेकिन इंसान की इन्हीं महात्वाकांछाओं ने उसे तरक़्क़ी की नई बुलंदियों पर भी पहुँचाया। यह उसकी इच्छाशक्ति ही थी जो उसने गुफ़ाओं में रहने से लेकर शानदार आलीशान भवनों, नदियों में बाँस की फट्टियों से लेकर बड़े-बड़े हवाई जहाज़ों और धरती के अनजाने किनारों से लेकर मंगल तक का सफ़र तय किया।
लेकिन यह सब रातोंरात नही हो गया। यह सफ़र तो जाने कितनी सहस्त्राब्दियों से बदस्तूर जारी है । सफ़र की इसी कड़ी में प्राचीन मिश्र में पिरामिडों का निर्माण किया गया। पिरामिड, जो हजारों सालों से मिश्र के रेतीले वीरानों में डट कर खड़े हैं। पता नहीं कितने भूकम्प आए, नील नदी में कितनी बाढ़ें आईं, सहारा के रेगिस्तान में रेत के कितने तूफ़ान आए, सनकी राजाओं की कितनी आँधियाँ आईं, लेकिन पिरामिड अपनी जगह से टस से मस नही हुए। उसके सालों बाद बने बेबीलोन के बग़ीचे ख़त्म हो गए, ओलम्पिया में जिऊस की प्रतिमा नहीं रही, आर्टेमिस का मंदिर नहीं बचा, अलेक्जेंड्रिया का प्रकाश स्तंभ भी टूट गया, लेकिन पिरामिड आज भी उसी भव्यता के साथ मिश्र के प्राचीन इतिहास की गौरवगाथा के प्रतीक बने हुए हैं।
पिरामिडों का इतिहास जो भी हो, भले वो प्राचीन फ़राओं की क़ब्रें हों या सूर्य देवता के मंदिर, उनकों बनाने में बँधुआ मज़दूरों का प्रयोग हुआ या वो प्राचीन देश के आर्थिक विकास की धुरी बनें, यह सब बातें बहस का विषय हो सकती है; लेकिन इसमें किसी को शक नही होना चाहिए कि जब इंसान भवन निर्माण का ककहरा सीख रहा तब मिश्र में ऐसी गगनचुंबी संरचनाएँ खड़ी हुयी, जिसने उसकी कीर्ति को अमर कर दिया।
लेकिन पिरामिडों का निर्माण हुआ कैसे? कैसे मिस्र में निर्माणकर्ताओं ने पत्थरों को एक के ऊपर एक रखना शुरू कर दिया? क्या वह सब एक दिन में सोच लिया होगा या इसमें सैकड़ों-हजारों साल लगे होंगे? अपनी मिश्र की यात्रा के दौरान और फिर उसके बाद मैंने प्राचीन मिश्र के इतिहास के बारे में बहुत कुछ पढ़ा, बहुत कुछ समझने की कोशिश की। अपने देश के बाद अगर मुझे कहीं का इतिहास ज़्यादा आकर्षित करता है तो वह मिश्र ही है और फिर उसके बाद मेसोपोटामिया (आज का इराक़, कुवैत, सीरिया और तुर्की ) । भारत के इतिहास को मैं घूम-घूमकर कुरेदता रहता हूँ, मिश्र के इतिहास को भी थोड़ा बहुत देख लिया। मेसोपोटामिया को जानने-समझने की इच्छा पता नही पूरी होगी भी या नही।
जब मैं गीजा के पिरामिडों से थोड़ा दूर हटकर एक जगह से उसको निहार रहा था, तो वहाँ एक सज्जन पहुँच गये। शक्ल से भारतीय लग रहे थे इसलिए तुरन्त बातचीत शुरू हो गयी। पता चला कि वह अमेरिका में एक एन आर आई डॉक्टर हैं और सालों से दुनिया भर में घूम रहे हैं। उन्होंने उस समय सीरिया और इराक़ के अपने भ्रमण के कुछ अनुभव साझा किए, तब जब सीरिया प्राचीन इतिहास में रुचि रखने वालों का एक पसंदीदा गंतव्य हुआ करता था । जब इराक़ और तुर्की में लोग दजला-फ़रात (Tigris-Euphrates) के किनारों में सुमेर सभ्यता के निशान ढूँढ़ा करते थे । समय के साथ वह क्षेत्र कितना बदल गया, कुछ इंसानों के सनकीपन और कुछ इंसानों की महत्वाकांछाओं के कारण। उन्होंने यह भी बताया कि उन दिनों गीज़ा के पिरामिड क्षेत्र के चारों तरफ़ कोई चहारदीवारी नहीं थी । गीज़ा में प्रवेश के लिए कोई शुल्क नही देना होता था । जैसे मन करे और जब मन करे लोग गीज़ा के पिरामिडों को निहार लेते थे। तब गीजा के क्षेत्र में ऐसे ठग और उचक्के भी नहीं हुआ करते थे, जैसे आजकल हैं।
लेकिन पिरामिड के बनने की शुरुआत कैसे हुई? वास्तव में पिरामिड की निर्माण गाथा प्राचीन मिश्र के एक साधारण किंतु अटल विश्वास से शुरू हुई । प्राचीन मिश्र में लोग मानते थे कि मृत्यु के बाद भी जीवन होता है । मृत शरीर तो यहीं रह जाता है, लेकिन आत्मा अमर रहती है। इस आत्मा को उन्होंने का, बा और अख जैसे कई और भागों में बाँटा है। आत्मा को मृत्यु के बाद भी शरीर की ज़रूरत पड़ती है, इसलिए इसको सुरक्षित रखना ज़रूरी है। यही कारण है कि शरीर को सुरक्षित रखने के लिए शरीर सुखाने और लेप लगाने की प्रक्रिया शुरू की गई । आत्मा के दोनों भागों का और बा को मृत्यु के बाद भी खाने-पीने की ज़रूरत पड़ती है, इसलिए मृतक के शरीर के पास खाने-पीने की सामान भी रखे जाते थे। मृत्यु के बाद भी आत्मा को उसकी रोज़मर्रा की ज़रूरत की चीज़ों से दूर ना रहना पड़े, इसलिए मृत शरीर के साथ आभूषण, कपड़े इत्यादि भी रखे जाते थे। उनकी इसी धारणा ने मिश्र के इतिहास के क्रमिक विकास में पिरामिडों को जन्म दिया ।
इन सबकी शुरुआत हुयी मिट्टी में मृत शरीरों को दबाने के साथ । चूँकि मिश्र के लोग अगले जन्म में विश्वास रखते थे, इसलिए मरने के बाद वहाँ मृतक के शरीर को ज़मीन में एक गड्ढा खोदकर दफ़नाने की प्रथा थी । रेतीली ज़मीन में एक चटाई के ऊपर मृत शरीर को रखकर उसे रेत और मिट्टी से ढँक दिया जाता था। रेगिस्तानी धरती में तपती रेत इनके लिए एक प्राकृतिक सुरक्षा कवच प्रदान करती थी और उन्हें सड़ने से बचाती थी । सड़ने के बजाय वो सूख जाते थे । यही मृत शरीरों के ममीकरण का सबसे पहला और प्राकृतिक तरीक़ा था। मृत शरीर के साथ ही उस इंसान की रोज़मर्रा की सारी ज़रूरत की चीज़ों, उसके वस्त्र-आभूषण, खाने-पीने की कुछ चीज़ें इत्यादि भी रख दी जाती थीं। यहाँ कोई शरीर दफ़नाया गया है, इस बात की पहचान के लिए मिट्टी का एक छोटा ढेर बना दिया जाता था। मिट्टी के वो छोटे ढेर ही आगे चलकर पिरामिड में तब्दील हो गए।
मिट्टी के ढेर के साथ दिक्कत यह थी कि जानवर गड्ढे खोदकर मृत शरीरों को नोच खसोट देते थे । इससे बचने के लिए समय के साथ मिट्टी के ढेर थोड़े बड़े होते गए। लेकिन इसी के साथ एक और समस्या शुरू हो गयी। चूँकि जमीन के अंदर रोज़मर्रा की ज़रूरतों के साथ आभूषण भी गाड़े जाते थे, तो ऐसे गड्ढों से आभूषण निकालना चोरों का पसंदीदा काम बन गया । उपद्रवी चोर आभूषण चुराने के चक्कर में तोड़ फोड़ कर देते थे ।
इनसे बचने के लिए कालांतर में मिट्टी की ईंटों और लकड़ी का प्रयोग करके आयताकार शक्ल (एक स्कूल बेंच जैसा) का एक ठोस निर्माण किया जाने लगा, जिन्हें मस्तबा (Mastbah) का नाम दिया गया।। एबाइडस (Abydos) और सकारा (Saqqara) में ऐसे निर्माण देखने को मिलते हैं । कुछ इतिहासकार मानते हैं कि मिस्र में मस्तबा का यह विचार मेसोपोटामिया से आया । अब मृत शरीरों को सीधे जमीन में दफनाने के बजाय ताबूत का प्रयोग होने लगा, जिससे रेत द्वारा प्राकृतिक ममीकरण की प्रक्रिया बन्द हो गई। इस समस्या को सुलझाने के लिए उन्हें अलग तरीक़े से सुखाकर उन पर एक विशेष लेप लगाने का प्रचलन शुरू हुआ । यही लेपयुक्त मृत शरीर आगे चलकर प्राचीन मिस्र की ममी के रूप में प्रसिद्ध हुए।
लेकिन ममी की सुविधा सबको नही प्राप्त थी । मिस्र के समाज में सामाजिक वर्गीकरण बहुत ज़्यादा था। समाज उच्च और निम्न वर्ग में बँटा हुआ था । उच्च वर्ग में राजपरिवार के सदस्यों के अलावा प्रशासनिक अधिकारी और धनाढ़्य लोग (Nobles) शामिल थे। ममीकरण की सुविधा केवल इन्हीं लोगों को उपलब्ध थी। वैसे भी यह प्रक्रिया क़रीब सत्तर दिनों तक चलती थी और निम्न वर्ग के किसान और मज़दूर इस प्रक्रिया का बोझ उठाने में सक्षम नहीं थे। इसीलिए सामान्यतः केवल राजपरिवार के सदस्यों और उच्च अधिकारियों के शवों का ही ममीकरण होता था और उन्हीं के लिए मस्तबा का निर्माण किया जाता था। इनके अलावा कुछ पशु-पक्षियों के शवों का भी ममीकरण होता था, जो कि समाज में किसी देवता के प्रतीक रूप में पूज्य होते थे।
मस्तबा के निर्माण के दौरान जमीन के अंदर गड्ढे खोदकर लकड़ी के खाँचे से कई भाग बनाए जाते थे । लकड़ी के कुछ भागों का उद्देश्य आभूषण चोरों को चकमा देना भी था । यह सब मिस्र के प्राचीन राज्य के पहले और दूसरे राजवंश तक चला । सबसे पहले मस्तबा एबाइडस में बनाए गए, जो कालांतर में उत्तर दिशा में सकारा की तरफ बनाये जाने लगे ।
तीसरे राजवंश में राजा जोसेर (King Djoser) के मकबरे के निर्माण के समय उसके वास्तुकार इमहोतेप (Imhotep) ने मकबरे को भव्य रूप देने के लिए एक के ऊपर मस्तबों की 6 सतह बनाई । हर सतह नीचे वाली सतह से छोटी होती जाती थी । इसके निर्माण में मिट्टी की ईंटों की जगह पत्थरों का प्रयोग किया गया । साधारण सी दिखने वाली पत्थरों की वह इमारत वास्तव में मानव इतिहास में भवन निर्माण की कला के विकास का एक महत्वपूर्ण अध्याय थी। सकारा में खड़ी स्टेप पिरामिड के नाम से प्रसिद्ध यह इमारत पत्थरों से बनी दुनिया की पहली इमारत समझी जाती है। स्टेप पिरामिड के बनने के बाद ही मिस्र के राजाओं (फराओं) में भव्य मकबरों के निर्माण की एक होड़ शुरू हुई, जिसकी परिणीति कालान्तर में गीज़ा के महान पिरामिडों के निर्माण के रूप में हुई ।
चौथे राजवंश में फ़राओं स्नेफ़रू (Snefru) ने स्टेप पिरामिड की परंपरा को आगे बढ़ाते हुए मेइदुम (Meidum) में एक नए पिरामिड का निर्माण करवाया। उस पिरामिड की संरचना भी स्टेप पिरामिड जैसी ही थी, लेकिन बाद में पिरामिड के सीढ़ियों वाले हिस्से को लाइमस्टोन से भरकर उसे एक ठोस आकार प्रदान किया गया। वर्तमान पिरामिडों से मिलती-जुलती संरचना वाला वह पहला पिरामिड था। स्नेफ़रू को पिरामिड बनवाने का कुछ ज़्यादा ही शौक़ था। उसने एक नही चार पिरामिडों का निर्माण करवाया। मेइदुम के पिरामिड के बाद उसने दूसरा पिरामिड दहसूर (Dahsur) में बनवाया।
सकारा के स्टेप पिरामिड के बारे में यहाँ पढ़े: Saqqara Necropolis and Step Pyramid
स्नेफ़रू का दूसरा पिरामिड आज भी बेंट पिरामिड (Bent Pyramid) के रूप में दहसूर के रेगिस्तान में खड़ा है। बेंट पिरामिड के निर्माण में एक आयताकार आधार बनाया गया। फिर चारों दिशाओं से चार त्रिभुजाकार दीवारें उठनी शुरू हुईं, जिन्हें अंत में सबसे ऊपर एक केंद्र पर मिलना था । जब बेंट पिरामिड का निर्माण शुरू हुआ तो उसे सही मायने में पिरामिड की शक्ल ही लेनी थी । लेकिन कुछ ऊँचाई तक बनाने के बाद इसके किनारों को कुछ ज़्यादा ही कोण पर झुका दिया गया, जिसके कारण इसकी संरचना बदल गयी।
बेंट पिरामिड के इस अचानक झुकाव की दो वजहें मानी जाती है। कुछ लोग कहते हैं कि निर्माण शुरू करने के बाद इस पिरामिड के ढाँचे में स्थायित्व को लेकर कुछ समस्या आ गयी। उस समस्या को दूर करने के लिए इसके किनारों को ज़्यादा कोण पर झुकाना पड़ा। जिसके कारण बेंट पिरामिड को उसका वर्तमान स्वरूप प्राप्त हुआ। कुछ लोग यह भी मानते हैं कि स्नेफ़रू के जीवन में ज़्यादा समय ना बचने के कारण उसने तेजी से पिरामिड का निर्माण कार्य ख़त्म करने को कहा और इसलिए जल्दबाजी में पिरामिड की संरचना पूरी करने के लिए उसके किनारों को ज़्यादा झुका दिया गया । ऐसा भी माना जाता है कि बेंट पिरामिड के नीचे और ऊपर के हिस्से निचले मिस्र (Lower Egypt) और ऊपरी मिस्र (Upper Egypt) का प्रतिनिधित्व करते हैं और पिरामिड का ऐसा आकार दोनो हिस्सों की एकता को दर्शाता है ।
दहसूर के बारे में यहाँ पढ़ें : A Visit to Dahsur Pyramids in Egypt
स्नेफ़रू का तीसरा पिरामिड बेंट पिरामिड से थोड़ी ही दूर पर दहसूर के वीराने में ही खड़ा है, जिसे लाल पिरामिड (Red Pyramid) के नाम से जाना जाता है। लाल पिरामिड वास्तव में पहला पिरामिड था, जिसकी संरचना एक पर्फ़ेक्ट पिरामिड के रूप में थी। इस पिरामिड के बाहरी हिस्सों पर सफ़ेद तुरा लाइमस्टोन की परत चढ़ाई गयी थी, लेकिन कालांतर में बाहरी आवरण के निकल जाने से अंदर लाल लाइमस्टोन की संरचना दिखने लगी, जिसके कारण इसे लाल पिरामिड कहा जाता है। लाल पिरामिड चूँकि स्नेफ़रू ने ही बनवाया, इसलिए बेंट पिरामिड के झुकाव की दूसरी वजह कि स्नेफ़रू के पास ज़्यादा समय नही था, गलत प्रतीत होता है। इन तीनो के अलावा स्नेफ़रू ने सेला (Seila) में एक और पिरामिड का निर्माण करवाया । हालाँकि ऐसा माना जाता है कि मृत्यु के पश्चात् स्नेफ़रू के शव को बेंट पिरामिड के ऊपरी हिस्से या फिर लाल पिरामिड में दफ़नाया गया।
लाल पिरामिड के निर्माण के बाद पिरामिड की बाहरी संरचना के वास्तविक प्रकार को लेकर किसी के मन में कोई संशय नही रहा। इसके बाद के राजाओं को फिर केवल पिरामिड की विशालता, भव्यता और अंदरूनी हिस्सों की जटिलता पर ध्यान देना था। पिरामिडों की भव्यता की इसी दौड़ में स्नेफ़रू के बेटे खुफ़ू (Khufu) ने गीजा (Giza) में एक बहुत बड़ा पिरामिड (The Great Pyramid of Giza) बनवाया, जिसे गीज़ा के महान पिरामिड के नाम से जाना जाता है । यह भव्यता की दौड़ का चरम था। ऐसा माना जाता है कि दहसूर के पिरामिड काम्प्लेक्स में ऐसा भव्य पिरामिड बनाने के लिए जगह की कमी पड़ गयी होगी, इसलिए खुफ़ू ने अपने पिरामिड के लिए गीज़ा को चुना। गीज़ा को चुनने की दूसरी वजह यह थी कि गीज़ा की ज़मीन दहसूर की अपेक्षा ज़्यादा ठोस थी, जिससे विशाल पिरामिड के आधार को बल मिला। गीजा का रेगिस्तानी इलाक़ा समीपवर्ती इलाक़ों से थोड़ा ऊँचाई पर भी था, इसलिए पिरामिड दूर तक पूरी भव्यता के साथ नज़र आ सकते थे ।
गीज़ा का महान पिरामिड प्राचीन दुनिया का सबसे पहला बना हुआ अजूबा था । यह भी एक आश्चर्य ही है कि उसके बाद बने प्राचीन दुनिया के बाक़ी सारे अजूबे धूल में मिल गए, लेकिन गीज़ा का महान पिरामिड वैसे ही सिर उठाए खड़ा है। कहानियों, क़िस्सों और रहस्यों से भरा यह पिरामिड सैकड़ों पीढ़ियों से दुनिया भर के शोधकर्ताओं और घुमक्कड़ों को आकर्षित करता रहा है। इस पिरामिड के निर्माण में लगे लाइमस्टोन के बड़े-बड़े टुकड़े की ढुलाई पास से ही की गई। बाहरी आवरण में लगे सफ़ेद लाइमस्टोन के ब्लॉक तुरा से लाए गए। मिट्टी के चौड़े रैम्प बनाकर लकड़ी के लट्ठों द्वारा उन्हें खिसकाकर पिरामिडों के निर्माण स्थल पर एक के ऊपर एक रखा जाता था। निचले हिस्सों में लगे पत्थरों के टुकड़ों का वज़न तीन टन तक है, तो ऊपर के हिस्सों में लगे टुकड़े एक-एक टन वज़नी हैं। राजा के चैम्बर में प्रयुक्त गुलाबी ग्रेनाइट के टुकड़े चालीस से साठ टन तक के वज़न वाले हैं! ग्रेनाइट के कई सारे टुकड़ों को क़रीब 800 किमी दूर स्थित अस्वान से भी लाया गया है।
पिरामिड के अंदर प्रवेश करने के असली रास्ते को पर्यटकों के लिए बंद कर दिया गया है। हालाँकि एक अन्य प्रवेश द्वार, जिसे Robber’s Tunnel कहा जाता है, के ज़रिए राजा के मुख्य चैम्बर तक जाने की इजाज़त है। पिरामिड के अंदर राजा के मुख्य चैम्बर तक पहुँचने के लिए एक संकरे रास्ते पर क़रीब सौ मीटर तक चलना होता है। पिरामिड के अंदर राजा के मुख्य चैम्बर के अलावा रानी का एक चैम्बर, कई सारे संकरे रास्ते, गुप्त कमरे और गैलरी बनी हुई है। राजा का चैम्बर पूरी तरह गुलाबी रंग के ग्रेनाइट पत्थरों से बना हुआ है। एकदम सपाट बनी छत में नौ बड़े-बड़े पत्थर लगे हैं, जिनका कुल वज़न चार सौ टन से ज़्यादा होगा। फिर एक के ऊपर एक ऐसे पाँच चैम्बर बने हैं और सभी का निर्माण इसी सटीकता के साथ किया गया है। चैम्बर की दीवारों में पत्थरों को ऐसी सटीकता के साथ रखा गया है कि उनके बीच ज़रा भी रिक्त स्थान नही है। चैम्बर के अंदर गुलाबी रंग के पत्थर के बड़े से बॉक्स के रूप में खुफ़ू की क़ब्र (Sarcophagus) है । इसी पत्थर के बक्से में राजा के लेपयुक्त शरीर (ममी) को रखा गया था और फिर ऊपर से पत्थर के ही बने स्लैब से ढक दिया गया था। हालाँकि अब वहाँ ना तो पत्थर का वो कवर है और ना ही राजा की ममी। उसके एक किनारे का ऊपरी हिस्सा भी टूटा हुआ है । ऐसा माना जाता है कि लुटेरों ने सेंध लगाकर इस पिरामिड में लूटपाट की होगी।
गीज़ा के पिरामिड कॉम्प्लेक्स के बारे में जानकारी यहाँ उपलब्ध है: The Ancient, Mysterious and Everlasting Pyramid Complex of Giza
खुफ़ू के महान पिरामिड के बग़ल में ही गीज़ा का दूसरा पिरामिड (The Second Pyramid of Giza) खड़ा है, जिसे उसके बेटे खाफ़्रे ने बनवाया। दूर से देखने पर खाफ़्रे का पिरामिड महान पिरामिड से बड़ा प्रतीत होता है, लेकिन वास्तव में इसकी ऊँचाई महान पिरामिड से दस फ़ीट कम है। हालाँकि इसका आधार महान पिरामिड की तुलना में थोड़ी ऊँचाई वाली जमीन पर बना है और इसके ऊपरी हिस्से में तुरा लाइमस्टोन के बाहरी आवरण के कुछ अवशेष दिख जाते हैं, जिसके कारण यह खुफ़ू के पिरामिड से ज़्यादा भव्य लगता है ।
खाफ़्रे के पिरामिड में दो प्रवेश द्वार होने की वजह से ऐसा माना जाता है कि शुरुआती दौर में इसे खुफ़ू के पिरामिड से भी बड़ा और भव्य बनाने की योजना थी। इस पिरामिड में भी गुप्त कमरे, संकरे रास्तों और ग्रेनाइट की चट्टानों के अवरोध बनाकर लुटेरों को दूर रखने की पूरी कोशिश की गई थी, लेकिन इन सबके बावजूद लुटेरों ने सुरंग खोदकर पिरामिड के सुरक्षित हिस्सों तक सेंध लगा ली। ऐसा समझा जाता है कि गीज़ा पिरामिड काम्प्लेक्स के एक हिस्से में स्थित महान स्फ़िंक्स की मूर्ति का निर्माण भी शायद खाफ़्रे ने ही करवाया था।
खाफ़्रे के बेटे मेनकाऊरे (Menkure or Menkaure) ने गीजा का तीसरा पिरामिड (The Third Pyramid of Giza) बनवाया, जो बाक़ी दोनों पिरामिडों की तुलना में छोटा है। इसको बनाने में प्रयुक्त कई सारी ग्रेनाइट की चट्टानों की पॉलिश बाक़ी पिरामिडों की तरह चिकनी और चमकदार नही हैं। इसलिए ऐसा समझा जाता है कि इस पिरामिड का निर्माण अधूरा ही रह गया। हो सकता है कि मेनकाऊरे का समय आते-आते मिस्र के राजवंश में पतन का दौर शुरू हो गया था। तीसरे पिरामिड के बाद गीज़ा के पिरामिड काम्प्लेक्स में कोई विशेष पिरामिड नही बना।
इसके बाद मिस्र के इतिहास में पाँचवें से सातवें राजवंश में राजाओं ने अलग-अलग जगहों पर छोटे-मोटे क़रीब पचास पिरामिड बनवाए, हालाँकि उनमें से कोई भी गीज़ा के पिरामिडों जैसा शानदार नही बना । कई इतिहासकार मानते हैं कि गीज़ा के पिरामिडों में ही देश के ज़्यादातर संसाधन झोंक दिए गए और उसके बाद पिरामिडों के निर्माण में बड़े स्तर पर प्रयोग होने वाले ग्रेनाइट और लाइमस्टोन के पत्थरों का अभाव हो गया। मिस्र के राजा पिरामिडों के निर्माण में अपने सारे संसाधन झोंकने से कतराने लगे थे । एक अन्य कारण था पिरामिडों में लुटेरों का बढ़ता आतंक। सुरक्षा के कई उपाय होने के बावजूद पिरामिडों से गहने चुराने और लूटपाट के प्रयासों में कोई कमी नही आई थी । पिरामिड भव्य थे और अंदर ममी वाले कमरे में पहुँचने से पहले सुरक्षा के कई सारे उपाय किए गए थे, लेकिन उनका अंदरूनी हिस्सा तब भी महफ़ूज़ नही था। ऐसा माना जाता है कि पिरामिडों की सुरक्षा में तैनात लोग भी इन लुटेरों से मिले हुए होते थे । इन सभी वजहों से धीरे-धीरे पिरामिडों को बनाने का फ़ैशन घटता चला गया।
मेनकाऊरे के राज्य के समय से ही मिस्र के राजवंश का पतन शुरू हो गया था। फ़राओं का प्रभाव घटने के कारण मिस्र की एकता खंडित होने लगी । धीरे-धीरे मिस्र में सत्ता के दो केंद्र बन गए, जिसमें पहला था निचले मिस्र में स्थित हेराक्लियोपोलिस (Heracleopolis) और दूसरा था ऊपरी मिस्र में स्थित थेब्स (Thebes) । क़रीब 125 सालों तक दोनों क्षेत्र एक दूसरे से संघर्ष करते रहे। यह वह समय था जब प्राचीन मंदिरों में तोड़फोड़ की गई, कलाकृतियों से छेड़छाड़ हुई और राजनीतिक अराजकता के परिणामस्वरूप राजाओं की मूर्तियों को तोड़ दिया गया या नष्ट कर दिया गया । इसके बाद थेब्स के राजा मेंटहोतेप (Mentuhotep II) ने निचले मिस्र पर अधिकार करके एक बार फिर मिस्र का एकीकरण किया। लेकिन अब सत्ता का केंद्र प्राचीन राजनीति के केंद्र मेंफिस, गीज़ा, सकारा या हेराक्लियोपोलिस से खिसककर आधुनिक लक्सर के पास स्थित थेब्स में चला गया था ।
हालाँकि मिस्र के लोगों में पुनर्जनम के प्रति विश्वास को लेकर आस्था वैसे ही बरक़रार थी। मिस्र के तत्कालीन राजाओं ने अगले उपाय के रूप में अपने मृत शरीरों को सुरक्षित रखने और लुटेरों से बचने के लिए लक्सर के पास की दुर्गम पहाड़ियों में लम्बी, संकरी गुफ़ाओं का निर्माण करवाया। यही क्षेत्र आगे चलकर वैली ऑफ़ द किंग्स (Valley of The Kings) के नाम से प्रसिद्ध हुआ। हालाँकि भविष्य में यह इलाक़ा भी ख़ज़ानों की खोज में लगे लोगों से नही बच सका। इस इलाक़े में भी मिस्र के प्राचीन ममियों के किस्से और दबे पड़े ख़ज़ानों की कहानियाँ बिखरी पड़ी है।
12वीं शताब्दी के अंत में मिस्र के सुल्तान अल अज़ीज़ ओथमैन इब्न सलाह-उद-दिन द्वारा गीज़ा के पिरामिडों को ध्वस्त करने का कार्य शुरू कराया गया , जिसकी शुरुआत तीसरे पिरामिड से हुई। लेकिन आठ महीने के प्रयास के बाद उसे लगा कि पिरामिडों को गिराने का काम उन्हें बनाने से ज़्यादा मुश्किल और खर्चीला है। उसके बाद उसने यह प्रयास छोड़ दिया ।
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इस प्रकार देखा जाए तो मिस्र में पिरामिडों का निर्माण मुख्य रूप से फ़राओं के शरीर को सुरक्षित रखने के लिए एक मक़बरे के रूप में किया गया था। पिरामिडों के बहुत सारे रहस्यों से अभी भी पर्दा नही उठ पाया है और पुरातत्वविदों के शोध जारी हैं । पिरामिडों का इतिहास इतना पुराना है कि उनसे जुड़े बहुत से तथ्यों का केवल अनुमान ही लगाया जा सकता है । पिरामिडों के इस सफ़र की शुरुआत छोटे-छोटे मिट्टी के ढेरों से हुई । फिर मस्तबा, स्टेप पिरामिड, महान पिरामिड से होते हुए इसकी परिणती वैली ऑफ़ द किंग्स की सँकरी गुफ़ाओं में हुई। लेकिन पिरामिड और वैली ऑफ़ द किंग्स की गुफ़ाओं के अंदर की गई चित्रकारी को देखे तो कह सकते हैं कि मिस्र के पिरामिड या गुफाएँ फ़राओं के मक़बरे मात्र नही हैं। इन मक़बरों के अंदर मिस्र के तत्कालीन समाज की संस्कृति, रहन-सहन, आर्थिक परिदृश्य और सामाजिक परिवेश की अच्छी झलक भी मिलती है और ये एक प्रकार से तत्कालीन समाज का एक आईना भी हैं।
भवन निर्माण का ककहरा सीख रहा था तब यह ईमारत वाह क्या तुलना है
सूर्य मंदिर…
वैसे आप मिस्त्र का इतिहास कहा पढ़ रहे थे ?
बहुत रोचक मृत्यु के बाद भी जीवन है
शरीर को सम्हाल कर रखना आभूषण फिर खाना रखना ग़ज़ब…
ग़ज़ब शोध और लेख उम्दा है
ग़िज़ा और बाकी step पिरामिड और बाकि की जगही जहा मस्बा है वो सब दूर है क्या
पिरामिड तोड़ने का खर्चा बनाने से ज्यादा और वक्त भी
कैसे यह इतने शानदार बनाये होंगे इन्होंने उस वक्त
बेहतरीन जानकारी भाई
बहुत ही रोचक और शानदार है मिस्र के पिरामिडों का इतिहास और आपने जिस तरीके से जानकारी प्रदान की है मानों किसी इतिहासकार की कलम लिख रही हो.. बेहतरीन लेख