गुवाहाटी में लगभग तीन साल बीत जाने के बाद भी मैंने मेघालय के पश्चिमी भाग में स्थित गारो पहाड़ियों का सफ़र नही किया था। जिसका एक प्रमुख कारण था- गारो पहाड़ियों में जनजातीय संघर्ष की वजह से दोस्तों द्वारा अकेले ना जाने की सलाह । लेकिन एक दिन फिर रहा नही गया, तो मैंने अपनी मोटरसाइकिल उठायी और निकल पड़ा तुरा के लिए । तुरा (Tura) गारो पहाड़ियों का सबसे प्रमुख केंद्र है और शिलाँग के बाद मेघालय का दूसरा सबसे बड़ा शहर है । तुरा तक के सफ़र के बारे में आपने मेरी पिछली पोस्ट में पढ़ा होगा । अगर नहीं पढ़ा तो यहाँ पढ़ सकते हैं :
तुरा घूमने के बाद मुझे आगे के सफ़र पर बाघमारा (Baghmara) के लिए निकलना था । बाघमारा भारत-बांग्लादेश की सीमा के बिल्कुल पास एक छोटा सा क़स्बा है और मेघालय के दक्षिणी गारो हिल्स (South Garo Hills) ज़िले का ज़िला मुख्यालय है। बाघमारा जाने का एक रास्ता दालू (Dalu) होकर जाता था और दूसरा रास्ता चोकपोत (Chokpot) होकर । चोकपोत वाला रास्ते से होकर निकलने पर मुझे मेघालय के काफ़ी अंदरूनी हिस्सों में सफ़र करना पड़ता, जिसके कारण मन में एक डर सा आ रहा था । काफ़ी सोच विचार करने के बाद मैंने चोकपोत के रास्ते से ही बाघमारा की तरफ़ बढ़ने का निर्णय किया ।
तुरा से चोकपोत का सफ़र
तुरा के मुख्य बाज़ार से निकलकर मैं दालू वाले हाईवे पर आगे बढ़ा। तुरा से क़रीब तीन किमी आगे बढ़ते ही रास्ते की हालत ख़राब होने लगी । पूरा रास्ता मिट्टी और धूल से भरा हुआ था। चौड़ीकरण के नाम पर एक तरफ़ की पहाड़ी और उसपर उगे पेड़ों की अंधाधुँध कटाई हो रही थी। सड़क चौड़ी थी, लेकिन दो किमी और आगे जाते ही स्थिति बदतर हो गई। पहले धूल का ग़ुबार, फिर सड़क पर बिछी गिट्टी, अगर बगल से कोई डंपर तेज़ी से निकलता तो रुकना पड़ता ताकि उड़ती धूल फेफड़ों में ना घुस जाए। वो तो अच्छा था कि बारिश का मौसम नही था, अन्यथा मैं उस रास्ते पर बढ़ते रहने की हिम्मत शायद छोड़ ही देता। अदुग्रे (Adugre or Adugiri) के छोटे से गाँव से होते हुए मैं तुरा से क़रीब 20 किमी दूर दालूग्रे (Dalugre or Dalugiri) पहुँचा। वहाँ से एक रास्ता दालू की तरफ़ जाता है और दूसरा चोकपोत की तरफ़।
हेलमेट के अंदर रहने का फ़ायदा यह था कि स्थानीय लोगों को समझ नही आता था कि सामने वाला बंद बाहरी है या इधर का ही। हालाँकि गाड़ी का नम्बर देखकर तो लोग सोच ही लेते होंगे कि दिल्ली की मोटरसाइकिल इधर क्या कर रही है, लेकिन उसमें भी ऐसा हो सकता था कि बंदा स्थानीय ही हो और दिल्ली नम्बर की मोटरसाइकिल लिए हो। जिन जगहों पर जाने में डर लगता हो, वहाँ दिल को तसल्ली देने वाले ऐसे कई तर्क चलते रहते हैं। दालूग्रे में दो रास्ते देखकर लगा कि चोकपोत वाला रास्ता आ गया, लेकिन फिर भी किसी से पूछने की हिम्मत नही हुयी। एक छोटी सी गुमटी पर चार-पाँच लोग बैठे हुए थे, लेकिन रास्ते की दुविधा के बावजूद मैं एक सड़क पर आगे बढ़ता ही रहा । किसी को यह क्यों जताना कि मैं उस क्षेत्र से अनजान हूँ। क़रीब आधा किमी चलने के बाद थोड़ा एकांत देखकर मैंने मोबाइल निकाला और गूगल मैप में रास्ता देखा तो पता चला कि मैं चोकपोत वाला मोड़ छोड़कर दालू वाले रास्ते पर आगे बढ़ रहा था।
मैंने मोटरसाइकिल घुमाई और एक बार फिर चोकपोत वाले मोड़ पर आ गया। गुमटी पर अभी भी लोग बैठे हुए थे, लेकिन मैं बिना रुके सही रास्ते पर आगे बढ़ गया। चोकपोत क़रीब 36 किमी दूर था। सड़क नई -नई बनी लग रही थी, इसलिए ख़ुशी का ठिकाना ना रहा । लेकिन वह ख़ुशी क्षणिक मात्र थी।बस तीन-चार किमी बाद ही सड़क पर कई सारे मज़दूर निर्माण कार्य में लगे थे। हर तरफ़ गिट्टी बिछी हुई थी और आगे क़रीब दस किमी तक मुझे उसी ऊबड़-खाबड़ रास्ते पर चलना था। एक गाँव के पास मैंने भोगाई नदी (Bhogai River) को पार किया।
पूरा रास्ता सुनसान पड़ा था । कभी-कभी कोई मोटरसाइकिल वाला विपरीत दिशा से आते हुए मिल जाता था । सड़क 4-5 किमी ठीक रहती फिर 6-7 किमी तक कंकड़-पत्थर । मैं भगवान से यही मनाता जा रहा था कि ऐसे रास्ते पर बस मोटरसाइकिल का टायर पंचर ना हो । साथ ही साथ यह प्रार्थना भी थी कि जान सुरक्षित रहे 🙂 । वह क्षेत्र मेघालय के सबसे अंदरूनी इलाक़ों में था और आसपास के घने जंगल उपद्रवियों के छुपने की पसंदीदा जगह। अब से एक-दो साल पहले ही मेघालय के उस इलाक़े में अपहरण, फिरौती, चर्च में लूटपाट जैसी घटनाएँ बहुत होती थी । अभी तो मेघालय से AFSPA (Armed Forces Special Powers Act) हटे हुए मुश्किल से दो साल हुए हैं । सच पूछिये तो चोकपोत के उस रास्ते पर मैं उत्साह के साथ हिम्मत दिखाते हुए बढ़ता तो जा रहा था, लेकिन अंदर ही अंदर बुरी तरह सहमा हुआ भी था ।
छोटे-छोटे गाँवों से गुज़रते हुए मैं आगे बढ़ता जा रहा था । ऐसे रास्तों पर चलने का एक फ़ायदा यह होता है कि आपको ग्रामीण जीवन की अच्छी झलक देखने को मिल जाती है। सुपारी के पेड़ हर जगह साथ दे रहे थे । सड़क किनारे खेतों में धान की फ़सल कट चुकी थी और सूखे पौधों की जड़ों के साथ खेत वीरान पड़े थे । किसी गाँव में बच्चे स्कूल में पढ़ने में व्यस्त थे, तो कहीं छोटे से बाज़ार में लोग अपनी रोज़मर्रा की ख़रीददारी में मशगूल थे। छोटी-छोटी नदियों में लोग कपड़ा धोने, नहाने, बर्तन धुलने जैसे कामों में लगे पड़े थे। नदियों पर ज़्यादातर जगह लकड़ी के पुल बने हुआए थे । थोड़ी दूर के पहाड़ी रास्ते के बाद पूरा इलाक़ा मैदानी लग रहा था, बल्कि मेघालय में इतना दूर तक फैला मैदानी क्षेत्र मैंने पहली बार देखा था ।
इसी सड़क के आसपास कही Imlichang Dare नाम का एक झरना भी है, लेकिन मुझे सड़क के किनारे कोई साइनबोर्ड नही दिखा और ना ही मेरी किसी से पूछने की हिम्मत हुई । चोकपोत से क़रीब 5 किमी पहले से सड़क पर भीड़भाड़ बढ़ने लगी। जहाँ पहले सड़क सुनसान लग रही थी, वहीं अब कई सारे लोग मोटरसाइकिलों से आते-जाते मिलने लगे थे । तुरा से क़रीब तीन घंटे के सफ़र के बाद मैं 56 किमी दूर चोकपोत बाज़ार पहुँच गया था ।
चोकपोत बाज़ार
चोकपोत एक बड़ा बाज़ार है । रास्ते में पड़ने वाले अन्य छोटे गाँवों की तुलना में वहाँ चहल-पहल बहुत ज़्यादा थी । आसपास के गाँवों के लोग बाज़ार में अपनी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का सामान जुटाने में लगे हुए थे । बाज़ार में आगे चलने पर फिर एक दोराहा आया। मैंने वही एक तरफ़ मोटरसाइकिल खड़ी करके मैप में चेक किया और फिर सिब्बारी की तरफ़ आगे बढ़ गया । उस दोराहे का दूसरा रास्ता चोकपोत बाज़ार से विलियम नगर की तरफ़ जाता है । मैं तो बाघमारा और सीजू की गुफ़ा से होते हुए दूसरे दिन की शाम क़रीब 134 किमी की दूरी तय कर विलियम नगर पहुँचा। हालाँकि चोकपोत बाज़ार से सीधे रास्ते पर विलियम नगर सिर्फ़ 47 किमी दूर है । लेकिन वह सीधा रास्ता मेघालय के और भी ज़्यादा अंदरूनी हिस्सों से गुज़रता है, जिनपर एक अनजान आदमी का गुजरना बड़ी हिम्मत का काम है ।
चोकपोत बाज़ार से बाहर निकलते ही दरेंग नदी (Dareng River) का पुल मिलता है । पुल पर उतरकर मैंने आसपास की कुछ तस्वीरें लीं । वही जाना-पहचाना सा दृश्य था, जिसमें नदी का पानी मार्च का महीना होने के कारण काफ़ी कम था । नदी के किनारे लोग कपड़े धो रहे थे,बर्तन धो रहे थे और नहा रहे थे । चोकपोत से लेकर दालू-बाघमारा वाले मुख्य हाइवे तक दरेंग नदी लगभग सड़क के साथ-साथ ही चलती है ।
चोकपोत का यह क्षेत्र कभी अवैध कोयला खनन के लिए बहुत प्रसिद्ध था। नदी से सटे इलाक़ों में गड्ढा खोदकर बड़ी आसानी से कोयला निकाला जाता था। ज़्यादा कोयले की चाहत में लोग बहुत गहराई तक खुदाई करते चले जाते थे, जिससे जमीन के अंदर लम्बी-लम्बी लेकिन बेहद पतली सुरंगों का एक जाल बिछता गया । यही कोयला खनन रैट होल माइनिंग (Rat Hole Mining) के नाम से कुख्यात हुआ । सिर्फ़ गारो पहाड़ियों में ही नहीं, बल्कि मेघालय की जयन्तिया पहाड़ियों में भी इस तरह के अवैध कोयला खनन का बोलबाला रहा है । कोयला व्यापारियों के कारण ही यह क्षेत्र उपद्रवी तत्वों के लिए अपहरण और फिरौती का पसंदीदा केंद्र बन गया । हालाँकि कुछ साल पहले National Green Tribunal (NGT) और सुप्रीम कोर्ट के हस्तक्षेप के बाद कोयला खनन पर लगाम कसनी शुरू हुई और इस तरह के अपराधों में भी कमी आनी शुरू हो गई है ।
चोकपोत से बाघमारा
कुछ समय वहाँ बिताकर मैं आगे बढ़ गया । फिर वही छोटे-छोटे गाँवों का सिलसिला शुरू हो गया । नदी सड़क के समानांतर ही बह रही थी । हर गाँव में लोग नदी किनारे कुछ ना कुछ करते मिल जाते थे । कही कोई मछली पकड़ रहा था, तो कही नदियों में बाँस काटकर डाले जा रहे थे, जो पानी की धारा के साथ अपने गंतव्य तक पहुँच जाते। बीच में एक-दो बार सड़क थोड़ी अच्छी स्थिति में भी मिली, लेकिन ज़्यादातर समय मामला ख़राब ही रहा।
सिब्बारी से क़रीब दस किमी पहले से रास्ता बहुत ही अच्छी स्थिति में था। आगे बढ़ते हुए मैं सिब्बारी के पास बाघमारा को जाने वाली मुख्य सड़क (दालू-बाघमारा रोड)पर पहुँच गया। सिब्बारी उस T-प्वाइंट से करीब तीन किमी दूर दालू की तरफ़ था, लेकिन मुझे बाघमारा की तरफ़ मुड़ना था । चूँकि सड़क बहुत अच्छी स्थिति में थी और वहाँ से बाघमारा मात्र 23 किमी था, तो मुझे लगा कि कष्ट ख़त्म हो गए हैं और मैं जल्दी ही बाघमारा पहुँच जाऊँगा । लेकिन वास्तव में वैसा हो नही पाया । क़रीब दो किमी आगे चलकर एक बार फिर सड़क पर पत्थरों का मिलना शुरू हो गया और फिर लगभग बाघमारा तक यही सिलसिला चलता रहा।
बाघमारा में प्रवेश करने से थोड़ा पहले सड़क के किनारे बने एक व्यू प्वाइंट से बाघमारा के चारों तरफ़ फैली हरियाली और सिमसंग नदी का विहंगम दृश्य मिलता है । बाघमारा तो सामने ही दिख रहा था, लेकिन बेहद खराब रास्ते पर मोटरसाइकिल चलाने से मैं काफ़ी थक चुका था । आराम करने के लिए मैंने मोटरसाइकिल एक किनारे लगाई और व्यूपाइंट की सीढ़ियाँ चढ़कर ऊपर बैठ गया । हर तरफ़ बस जंगल ही जंगल नज़र आ रहा था । बहुत दूर सिमसंग नदी और कुछ भवन नज़र आ रहे थे । 15-20 मिनट सुस्ताने के बाद मैं बाघमारा के लिए चल पड़ा ।
मेघालय के एक प्रमुख पर्यटन स्थल चेरापूँजी के बारे में यहाँ पढ़ सकते हैं : बादल, बारिश और झरनों का शहर चेरापूँजी
बाघमारा में ठहरने का स्थान
बाघमारा मुख्य क़स्बे में प्रवेश करने से पहले ही एक पतला सा रास्ता ऊपर पहाड़ी की तरफ़ जाता है । मैप के अनुसार बाघमारा का टूरिस्ट लॉज उधर ही था, इसलिए मैं उधर बढ़ गया। बाघमारा में दो टूरिस्ट लॉज है और दोनों ही पर्यटन विभाग के हैं । जब मैं पहले टूरिस्ट लॉज में पहुँचा तो वहाँ मुझे आठ सौ रुपए प्रति रात्रि की दर से एक कमरा मिल गया। वही के केयरटेकर ने बताया कि दूसरे टूरिस्ट लॉज में एक रात्रि का न्यूनतम किराया बारह सौ रुपए है। हालाँकि बाद में मैं दूसरे टूरिस्ट लॉज में भी गया। वहाँ से सिमसंग नदी का विहंगम दृश्य नज़र आता है और बाघमारा की पिचर प्लांट सैंक्चुअरी उसके एकदम बग़ल में ही है।
बाघमारा में घूमना-फिरना
पहले वाले टूरिस्ट लॉज में हाथ-मुँह धोकर मैंने थोड़ा आराम किया और फिर बाघमारा घूमने निकल पड़ा। बाघमारा में घूमने का सबसे प्रमुख आकर्षण बालपक्रम नेशनल पार्क है, लेकिन उसके लिए कम से कम दो दिन का समय चाहिए। इसलिए मेरा इरादा बालपक्रम की तरफ़ जाने का नही था। मैं तो बस आसपास घूमकर सिमसंग नदी के किनारे थोड़ा सा समय व्यतीत करना चाहता था। मोटरसाइकिल में पेट्रोल भी भरवाना था । पेट्रोल पम्प की तलाश में मैं क़स्बे में घूमने निकल पड़ा। बाघमारा एक छोटा सा क़स्बा है। लॉज से क़रीब दो किमी तक पहाड़ी पर चलने के बाद मैं नीचे मुख्य बाज़ार में उतरा । फिर सिमसंग नदी के किनारे-किनारे मुख्य सड़क पर आगे बढ़ता रहा। कुछ दूर आगे जाकर एक पेट्रोल पम्प भी मिल गया।
पेट्रोल लेकर मैं सिमसंग नदी (Simsang River) पर बने पुल पर निकल गया। वहाँ भी स्थानीय लोग अपने रोज़मर्रा के कामों, कपड़े धोने और नहाने में व्यस्त थे। मैं थोड़ी देर तक वही बैठा रहा । फिर नदी के किनारे थोड़ा और घूमने के इरादे से एक पतले रास्ते पर चलता हुआ वहाँ पहुँच गया, जहाँ दो नदियाँ स्पष्ट रूप से दिख रही थी । यहाँ आने के बाद समझ आया कि जिसे मैं सिमसंग का पुल समझ रहा था, वो रोम्पा नदी (Rompa River) का पुल था । पानी ज़्यादा ना होने के कारण रोम्पा नदी एक पतली धारा जैसी लग रही थी । सिमसंग नदी की चौड़ाई तो बहुत ज़्यादा थी, लेकिन उसमें भी दूर-दूर तक बस रेत नज़र आ रही थी । एक किनारे से पानी पतली धारा के रूप मेन बह रहा था । वह स्थान रोम्पा और सिमसंग नदी का संगम था, जहाँ से दोनों नदियाँ एक होकर सोमेश्वरी नदी के नाम से मेघालय के पहाड़ी क्षेत्र को छोड़कर बांग्लादेश के मैदानी इलाक़ों में प्रवेश करती हैं । संगम के बाद दोनों नदियों को सम्मिलित रूप से चौड़ाई बहुत बढ़ जाती है । हालाँकि सर्दियों में पानी की धारा कम और रेत ज़्यादा नज़र आती है ।
काफ़ी देर तक मैं रोम्पा नदी के किनारे (सिमसंग नदी दूसरी तरफ़ थी) घूमता रहा और फिर वापस मुख्य बाज़ार की तरफ़ आ गया। मेरा अगला उद्देश्य बाघमारा की पिचर प्लांट सैंक्चुअरी घूमने का था, लेकिन मैप के सहारे बाज़ार में तीन चक्कर लगाने के बाद भी ऐसा कोई गेट नज़र नही आया, जहाँ से मैं वहाँ पहुँच जाता । मैप के अनुसार जहाँ पर पिचर प्लांट सैंक्चुअरी होनी चाहिए थी वहाँ लाइन से कई सारी दुकानें और बाघमारा का पुलिस थाना बना हुआ था । किसी से पूछते भी नही बन रहा था। दो-तीन चक्कर लगाने के बाद मैंने पिचर प्लांट सैंक्चुअरी जाने का इरादा त्याग दिया और बाज़ार की तरफ बढ़ गया ।
बाज़ार में घूमते-घूमते मेरी नज़र दुकानों के पीछे बह रही सोमेश्वरी नदी (रोम्पा और सिमसंग के संगम से आगे) पर पड़ी। नदी की चौड़ाई बहुत अधिक थी, लेकिन पानी कम होने की वजह से हर तरफ़ रेत ही रेत नज़र आ रही थी। रेत की एक थोड़ी ऊँची पगडंडी पर बहुत सारे स्त्री-पुरुष आ जा रहे थे । रेत के मैदान के दूसरी तरफ़ जहाँ पानी थोड़ा अधिक था, उधर लोग एक नाव के द्वारा नदी पार कर रहे थे।
उत्सुकतावश में मैं उधर ही बढ़ गया । बाज़ार के रास्ते से लेकर नदी की तलहटी तक हर तरफ़ सिर्फ़ कूड़ा-कचरा, प्लास्टिक इत्यादि बिखरा हुआ था । लग ही नहीं रहा था कि पूर्वोत्तर भारत के किसी नदी तट पर हूँ, क्योंकि हर तरफ़ बस कचरा ही फैला हुआ था । नदी की रेत में कई सारे लोग गड्ढे खोद-खोदकर मछलियाँ पकड़ रहे थे। नदी के दूसरी तरफ़ शायद कोई बड़ा गाँव था, जिसकी वजह से आने-जाने वालों की भीड़ ज़्यादा थी । कुछ दूरी पर एक बी एस एफ का जवान मुस्तैद खड़ा था और थोड़ी-थोड़ी देर पर रेत खोदकर मछली पकड़ रहे लोगों को भगा भी रहा था।
वापसी करते समय एक स्थानीय युवक ने रोककर मुझसे पूछा कि यहाँ क्या कर रहे हो? मैंने बताया कि घूमने आया हूँ। वह पास खड़ी औरतों को कुछ बताने लगा, जिसमें मुझे ख़ाली बांग्ला-बांग्ला समझ आया। नदी की रेती से बाहर निकलकर मैंने मोटरसाइकिल उठायी और वापस टूरिस्ट लॉज आ गया। कमरे में बिस्तर पर लेटे -लेटे मैं नदी के बारे में सोच रहा था। बी एस एफ के जवान का इतनी मुस्तैदी से खड़ा होना मुझे बड़ा अटपटा लग रहा था। फिर मैंने मैप बड़ा कर ध्यान से देखा तो पता चला कि बी एस एफ जवान के दूसरी तरफ़ ही भारत-बांग्लादेश की अंतराष्ट्रीय सीमा थी । यही वजह थी कि बी एस एफ वाले इतनी मुस्तैदी से ड्यूटी कर रहे थे । वह लड़का जो औरतों से बांग्ला-बांग्ला कह रहा था, वह मुझे बांग्लादेशी समझकर औरतों को इस बारे में बता रहा था। ध्यान से देखने पर पता चला कि पहाड़ी से नीचे उतरकर मुख्य बाज़ार में प्रवेश करते समय मैं अंतराष्ट्रीय सीमा के बिल्कुल पास से गुज़रा था। भारत-बांग्लादेश सीमा मैं अगरतला, कालीबारी, करीमगंज और डावकी में भी घूम चुका था, लेकिन फिर भी एक जगह और उसे पास से देखने की उत्सुकता बढ़ गयी थी। पिचर प्लांट सैंक्चुअरी भी बाक़ी ही थी।
मैंने कही पढ़ रखा था कि बाघमारा के टूरिस्ट लॉज से सिमसंग नदी का विहंगम नयनाभिराम दृश्य नज़र आता है । मैं जिस लॉज में ठहरा था, वहाँ से तो ऐसा कुछ नहीं नज़र आ रहा था, इसलिए मुझे लगा कि सिमसंग नदी का वह दृश्य दूसरे वाले लॉज से नज़र आता होगा। यही सोचकर मैंने फ़िलहाल तो अंतराष्ट्रीय सीमा और पिचर प्लांट सैंक्चुअरी के विचार को दिमाग़ से निकाल दिया और दूसरे वाले टूरिस्ट लॉज की तरफ़ निकल गया । मुझे लगा कि वहाँ से कम से कम नदी की कुछ अच्छी तस्वीरें ही खींच लूँगा।
जब मैं टूरिस्ट लॉज पहुँचा तो वहाँ कोई नज़र नही आ रहा था । मैंने लॉज के प्रांगण में एक तरफ़ मोटरसाइकिल खड़ी कर दी । सामने ही सिमसंग नदी का विहंगम दृश्य और सिमसंग का पुल नज़र आ रहा था । मैंने वही ऊँचाई से सिमसंग नदी की कुछ तस्वीरें खींची।
बाघमारा में पिचर प्लांट सैंक्चुअरी (Baghmara Pitcher Plant Sanctuary)
थोड़ा आगे बढ़ने पर मुझे पिचर प्लांट सैंक्चुअरी का एक बोर्ड मिला, जिससे इतना समझ आया कि सैंक्चुअरी मेरे ठीक सामने ही है । उसके मुख्य द्वार पर एक ताला लटका हुआ था। उसमें प्रवेश का शुल्क बीस रुपए था, इसलिए मैं आसपास किसी को ढूँढने लगा, जो मुझे अंदर प्रवेश करने के बारे में जानकारी दे सके।
टूरिस्ट लॉज के भीतर एक तरफ़ कुछ निर्माण कार्य चल रहा था, जहाँ मुझे एक लड़का दिखाई दिया । लेकिन शायद वह निर्माण कार्य में लगा मज़दूर था इसलिए उसे मेरी कोई बात समझ नही आई। वह नही बता पाया कि टिकट कहाँ से मिलेगा और गेट पर लटके ताले की चाभी कहाँ मिलेगी। इसलिए नाउम्मीद होकर मैं दुबारा सैंक्चुअरी के प्रवेश द्वार की तरफ़ चला गया। अब इतना पास आकर पिचर प्लांट की एक झलक देखनी तो बनती ही थी।
Mawphulnur is a beautiful village in Meghalaya: A Little Known Paradise of Mawphulnur
दरवाज़े के दूसरी तरफ़ मुझे तीन छोटे-छोटे बच्चे खेलते दिखाई दिए। मैंने उनसे पूछा कि उस तरफ़ कैसे आना है। उन्होंने कहा कि गेट के ऊपर से कूदकर आ जाओ। लेकिन ऐसा करना तो चोरी से घुसने जैसा था । मैंने उनसे टिकट के बारे में पूछा तो उन्होंने अनभिज्ञता जताई और कहा कि हम तो अंदर ही रहते हैं और ऐसे ही कूद-फाँदकर अंदर बाहर करते रहते हैं। थोड़ी दूरी पर सैंक्चुअरी के अंदर ही उनके घर नज़र आ रहे थे ।
अब इतने पास आकर मैं भी बिना पिचर प्लांट के दर्शन किए बिना वापस नही लौटना चाहता था। इसलिए मैं भी गेट के ऊपर से कूदकर अंदर पहुँच गया। लड़का मुझे अपने घर के पीछे घनी झाड़ियों की तरफ़ ले गया और हाथ से इशारा करके नीचे की तरफ़ जाने को बोलने लगा। उसने बताया कि पिचर प्लांट उन्हीं झाड़ियों में नीचे की तरफ़ था। मैं अकेले ही पहाड़ी ढलान पर नीचे की तरफ़ उतरने लगा । झाड़ियाँ घनी होती जा रही थीं और अब एक घना जंगल सा एहसास मिलने लगा था। नज़रें लगातार हर तरफ़ पिचर प्लांट को खोज रही थी, लेकिन वह कही नज़र ही नही आया। मैं आगे बढ़ता रहा। थोड़ी देर बाद मुझे पेड़ों के नीचे लटकते हुए ढक्कन जैसे सिरे वाले पौधे दिखे। सच पूछिए तो मुझे धोखेबाज़ी जैसा एहसास हुआ। काफ़ी ऊँचाई पर लटक रहे पिचर प्लांट उम्मीद से बहुत ही छोटे आकार के पौधे थे और उन झाड़ियों में ढक्कन जैसी संरचनाएँ मुश्किल से दो-चार थीं ।
बस इतना संतोष था कि कम से कम पिचर प्लांट देख तो लिया। दुबारा से पहाड़ी ढलान पर ऊपर चढ़कर मैं गेट के पास आया और एक बार फिर कूदकर टूरिस्ट लॉज के परिसर में आ गया। लॉज में अभी तक कोई नज़र नही आ रहा था। मैंने लॉज से सिमसंग नदी की दो-चार फोटो और खींची और फिर वापस अपने लॉज आ गया ।
अंधेरा घिरने को आया था इसलिए अब आगे कही और घूमने का मन भी नहीं किया। रात्रि के भोजन की व्यवस्था केयरटेकर ने कमरे में ही कर दी । खाना खाने के बाद बियाबान अंधेरे और दूर तक फैले सन्नाटे में कुछ सूझ नहीं रहा था । इसलिए मैं नींद के आग़ोश में चला गया ।
बाघमारा से वापसी
अगले दिन सुबह मुझे बाघमारा से सीजू के लिए निकलना था, लेकिन मन में अंतराष्ट्रीय सीमा देखने की इच्छा बनी हुई थी। इसलिए सीजू की तरफ़ बढ़ने से पहले मैं भारत-बांग्लादेश की सीमा की तरफ चला गया। सीमा पर तारों की घेराबंदी की गई थी, लेकिन दूसरी तरफ भी बी एस एफ की ही चौकी थी। बी एस एफ की चौकी पर तैनात दोनों जवान लगातार मेरी तरफ ही देखे जा रहे थे, इसलिए मैं उधर ही बढ़ गया। उस चौकी से थोड़ा आगे एक और तारों की घेराबंदी दिखाई दी, जिससे समझ आया कि असली सीमा रेखा आगे वाली है ।
दोनों जवानों में से एक के नाम का टाइटल संधू था, तो मैंने पूछा कि आप पंजाब से हैं क्या? फिर हमारी बातचीत शुरू हो गई । उन्होंने पूछा कि मैं वहाँ क्या कर रहा हूँ तो मैंने बताया कि मैं तो बस मोटरसाइकिल लेकर घूम रहा हूँ। फिर उन्होंने कहा कि उधर घूमने तो कोई नहीं जाता है , ज़्यादातर लोग तो ड्रग्स की तस्करी के चक्कर में उधर जाते हैं, कहीं मैं भी उसी चक्कर में तो नहीं । उनको बड़ा आश्चर्य हुआ कि मैं अकेले मोटरसाइकिल से गारो पहाड़ियों के ख़तरनाक इलाक़ों में घूम रहा हूँ । फिर उन्होंने बताया कि उस चौकी पर बहुत चौकन्ना रहना पड़ता है, क्योंकि उस रास्ते से तस्करी के आसार बहुत ज्यादा हैं।
आगे मुख्य सीमा तक और फिर तारों की बाड़ के साथ-साथ सड़क काफी दूर तक जाती हैं, जिसपर इक्का-दुक्का ऑटोरिक्शा भी चल रहे थे। उन्होंने बताया कि उस रास्ते पर आगे कुछ दूर तक जाने में कोई दिक्कत नहीं है, लेकिन आगे फिर पूछताछ होगी, इससे अच्छा मत ही जाओ। मेरी भी अंतराष्ट्रीय सीमा देखने की इच्छा पूरी हो चुकी थी इसलिए मैंने भी आगे बढ़ना उचित नहीं समझा। फोटो के लिए पूछने पर उन लोगों ने फोटो खींचने से मना कर दिया, हालांकि उससे पहले वाली तारों की बाड़ की फोटो मैं पहले ही खींच चुका था। करीब बीस मिनट तक उन लोगों से बातें करने के बाद मैं वापस बाघमारा कस्बे की तरफ बढ़ गया।
पूर्वोत्तर भारत के त्रिपुरा राज्य में स्थित उनकोटी की यात्रा : उनकोटी के पथरीले देवता
बाघमारा के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट
बाघमारा पहुँचने के रास्ते हर तरफ़ से बेहद खराब स्थिति में हैं। पब्लिक ट्रांसपोर्ट से यहाँ पहुँचने के लिए असम में दुधनोई से बस मिल जाती है । असम में कृष्णाई से बस पकड़कर तुरा या दालू तक जा सकते हैं , जहाँ से एक दूसरी बस द्वारा बाघमारा पहुँच सकते हैं । चोकपोत के रास्ते में भी दिन भर में दो-तीन बसें मिल जाती हैं ।
बाघमारा के बालपक्रम नेशनल पार्क की जानकारी
बाघमारा में अब मुझे कोई काम बचा नहीं था तो मैं सीजू के रास्ते पर चल पड़ा। कस्बे की सीमा से बाहर निकलते ही मुझे सिमसंग नदी पर बना पुल दिखाई पड़ा। वह पुल बाघमारा से रानीकोर होते हुए चेरापूँजी, शिलांग जाने वाले रास्ते पर बना हुआ था । सिमसंग का वह पुल मेघालय का सबसे लंबा नदी पुल है। सिमसंग नदी पार करके उस रास्ते पर क़रीब 58 किमी चलने के बाद हतीसिया (Hatisia) नाम का एक गाँव आता है, जिसे बालपक्रम नेशनल पार्क (Balpakram National Park) का प्रवेश द्वार समझा जाता है ।
बालपक्रम नेशनल पार्क एक बहुत ही खूबसूरत अनछुआ सा जंगल हैं, जहाँ कई दुर्लभ प्रजातियों के पौधे और जीव-जंतु पाए जाते हैं । जिनमे हूलाक गिबन (Hoolock Gibbon), Clouded Leopard, Barking Deer, जंगली सुअर (Wild Boar) इत्यादि प्रमुख हैं । इस पार्क के साथ गारो जनजाति की कई रहस्यमयी लोककथाएँ भी जुड़ी हुयी हैं । गारो लोककथाओं में इस पार्क को आत्माओं का निवास स्थान माना जाता है । पार्क में Grand Canyon की तरह ही एक विशाल River Canyon है । पार्क में प्रवेश करने के लिए ज़रूरी अनुमति बाघमारा में वन विभाग के ऑफिस से लेनी पड़ती है । हतीसिया से भी अनुमति मिल जाती है । रात को रुकने के लिए मुख्यतः बाघमारा ही उचित है, लेकिन एक रेस्ट हाउस हतीसिया में भी है ।
मेरे पास तो बालपक्रम घूम कर आने का समय नहीं था, इसलिए पुल से नदी पार करने के बाद मैंने कुछ फ़ोटो खिंची और फिर दूसरी तरफ़ सीजू जाने वाले रास्ते पर आ गया । करीब चार-पाँच किमी तक तो रास्ता बड़ा अच्छा रहा। फिर वही कंकड़-पत्थर का दौर शुरू हो गया । भगवान से यही मनाते हुए कि उस रास्ते पर मोटरसाइकिल पंचर ना हो, मैं सीजू के सफ़र पर निकल पड़ा । सीजू की गुफ़ा का रोमाँच अगले पोस्ट में ।
हिम्मत की आपने चेकपोट वाले रास्ते से ही जाने की…रास्ता भी खराब है और सही निर्णय लिया गुमटी पे बैठे लोगो से न पूछने की….अंदर से आप सहमे हो जो वाजिब भी है….इतना जबरदस्त रिसर्च है आपका कि आपको सब पता है क्या घूमना है….bsf के जवान से बातचीत तस्करी का शक और स्थानीय का बंगला बोलना बहुत रिस्की है…आप बिंदास घूम रहे हो ग़ज़ब हिम्मत है…
हौसला बढ़ाते रहने के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद