“काला पानी”..यह शब्द कुछ-कुछ काला जादू की काली दुनिया जैसा महसूस होता है। वास्तव में तो ऐसा नही है, लेकिन इस शब्द के साथ भी ब्रिटिश भारत में अंग्रेजों की क्रूरता कुछ काले अध्याय ही जुड़े हुए हैं। इतिहास के पन्नों में “काला पानी” की सैकड़ों कहानियाँ हैं, हजारों कल्पनाएँ भी हैं और इनमे अधिकाँश का वास्ता वीर सावरकर की बहादुरी से सम्बंधित है, हालाँकि इस पूरे अध्याय में आजादी के हजारों ऐसे सिपाही थे , जो बरसों तक “काला पानी” के अंधेरों और कष्टों में घिरे रहे।
काले पानी में कोई काला जादू नहीं था , ना ही काले पानी के पानी में कोई खोट था। शुरू – शुरू में “काला पानी” भारत की मुख्य धरती से सैकड़ों मील दूर, चारों तरफ गहरे समुद्र से घिरे अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह में अंग्रेजों का एक खुला कारावास था, जो कालांतर में काल कोठरी के अंधेरों में तब्दील हो गया। उन अंधेरों की जिंदगी, भारत के स्वतन्त्रता संग्राम के दिनों में आजादी के दीवानों को मिलने वाली सबसे बड़ी सजा थी , शायद मौत की सजा से भी बदतर। काले पानी की कहानियों में उन क्रूर लम्हों का जिक्र तो है, लेकिन उनकी विभीषिका को समझने के लिए आपको वहीँ जाना पड़ेगा– काले पानी की उस जेल में। इसलिए जब काले पानी के द्वीप अंडमान में मैंने पहला कदम रखा तो मेरे दिमाग में केवल सेलुलर जेल की कोठरियाँ घूम रही थी ।
काले पानी की कहानी : काला पानी तो सिर्फ एक शब्द है, प्रकृति के इस खूबसूरत नगीने का नाम खराब करने के लिए। वास्तव में तो काले पानी की इस जेल के आस पास नीले समन्दर की भव्यता और प्राकृतिक हरियाली का मनोरम नयनाभिराम दृश्य ही नजर आता है। जिधर भी नजर उठा लो, लगता है प्रकृति की सारी ख़ूबसूरती यही सिमट गयी है। यह बात अलग है कि इस बेपनाह ख़ूबसूरती के बावजूद इतिहास तो इसे काले पानी के नाम से ही याद करता है।
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काले पानी की यह कहानी वास्तव में इस जेल के बनने से बहुत पहले ही शुरू हो गई थी। अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह वास्तविकता में तो भारत की धरा से हजारों मील दूर समुद्र की विशालता में खोये हुए हैं, लेकिन इसके बावजूद भारत और मलक्का प्रायद्वीप के बीच के व्यस्त जलमार्ग का ये महत्वपूर्ण पड़ाव थे। मतलब, 18वीं शताब्दी में अंग्रेजों की नजर पड़ने से बहुत पहले ही यह द्वीपसमूह दुनिया भर में घूमने वाली पुर्तगाली, स्पेनिश और डच व्यापारियों की नजर में आ चुका था। भारत से मलक्का जलमार्ग के बीच चलने वाले जहाजों का निकोबार द्वीप एक प्रमुख पड़ाव स्थल था। वर्ष 1755 में डेनमार्क के व्यापारियों ने निकोबार द्वीप पर पहली बस्ती बसाई, लेकिन बार -बार होने वाले मलेरिया के प्रकोप से परेशान होकर उन्होंने यह द्वीप छोड़ दिया। निकोबार के उत्तर में स्थित अंडमान द्वीपसमूह मुख्यतया वहाँ की स्थानीय जनजातियों से भरा हुआ था। समय के बहाव के साथ अंडमान विकसित होता गया और निकोबार इस गति में कही पिछड़ कर रह गया।
इधर भारत में अंग्रेज एक बड़ी जेल की तलाश में थे, क्योंकि भारतीय कैदियों से उनकी जेलें भर चुकी थी। 1789 में उन्होंने आधुनिक पोर्ट ब्लयेर के पास स्थित चैथम द्वीप पर एक नौसेना बेस और एक कारावास जैसा बन्दोबस्त कर लिया था , जिसे बाद में उन्होंने पोर्ट कार्नवालिस (अब पोर्ट ब्लेयर) स्थानांतरित कर दिया, लेकिन 1796 में महामारी के बाद उन्हें यह जगह छोड़नी पड़ गई।
1857 में भारत के पहले स्वतन्त्रता संघर्ष ने उन्हें दुबारा इन द्वीपों को कारावास की तरह प्रयुक्त करने को मजबूर कर दिया। इस प्रकार,पोर्ट ब्लेयर में वास्तविक सेलुलर जेल बनने से बहुत पहले ही स्वतन्त्रता सेनानियों को यहाँ बंदी बनाकर भेजा जाने लगा और उनका उपयोग भवन निर्माण, सड़क निर्माण, बन्दरगाह के विकास इत्यादि के कामों के बंधुआ मजदूरों की तरह होने लगा।
स्वतन्त्रता सेनानियों को जीने के लिए कई तरह के संघर्ष करने पड़ते थे। पूरा क्षेत्र घने जंगलों और दलदली भूमि से भरा था, जहाँ साँप, जोंक, बिच्छू जैसे जीव प्रायः मिलते रहते थे। बहुत सारे लोग मलेरिया और पेचिश जैसी बीमारियों की चपेट में आकर जान गँवा बैठे। बीमारियों के अलावा स्थानीय जनजातियों से भी बहुत खतरा था। भूले-भटके लोगों को वो अपने तीर कमानों का शिकार बना लेते थे। हालात खराब थे, लेकिन कैदियों को कड़ी सजा देने के लिए अड़े अंग्रेज अधिकारियों को कोई फर्क नहीं पड़ा। काले पानी की सजा उनके दो मकसदों को पूरी करती थी:
1. उन दिनों हिंदुओं में यह मान्यता थी कि समुद्री यात्रा (काला पानी पार करना) से इंसान का धर्म भ्रष्ट हो जाता था। परिणामस्वरूप काले पानी के कैदी और उसके परिवार का समाज, धर्म और बिरादरी से बहिष्कार हो जाता था । इस तरह अंडमान जाने के लिए समुद्र पार करना उनके लिए एक कड़ी सजा थी।
2. द्वीपसमूह चारों तरफ अथाह जलराशि से गिरा हुआ था। अतः कैदियों का वहां से भाग पाना नामुमकिन था। अगर कोई भाग भी जाता, तो समुद्र के उस अपार प्रसार को पार कर पाना असम्भव ही था। वैसे भी सारी नावों और पानी के जहाजों का नियंत्रण अंग्रेजों के हाथ में ही था। कुछ ने कोशिश भी कि लेकिन समन्दर की विशालता के आगे इंसान बेबस ही रहा।
यूँ तो अंडमान कैदी मजदूरों के लिए एक नर्क था, लेकिन धीरे-धीरे वो यहाँ के जीवन के अभ्यस्त होने लगे। 19वीं सदी के अंत तक भारत में आजादी का संघर्ष जोर पकड़ने लगा । परिणामस्वरूप अंडमान जाने वाले कैदियों की संख्या बढ़ती गई । वो एक-दूसरे से विचारों का आदान-प्रदान ना कर सकें, एक-दूसरे से कुछ ना सकें इत्यादि बातों को ध्यान में रखते हुए और कैदियों के मन में डर भरने के लिए, अंग्रेज अधिकारियों ने तय किया कि उन्हें नितांत एकांत में रखने वाली एक नई जेल बनाई जाये। परिणामस्वरूप पोर्ट ब्लेयर में 1896 से 1906 के बीच सेलुलर जेल का निर्माण हुआ।
सेलुलर जेल: एक साइकिल के पहिये की तरह सेलुलर जेल के केंद्र में धुरी की जगह एक वॉच टॉवर है और तीलियों की जगह इस वॉच टॉवर से हर तरफ सेलुलर जेल की शाखाएं निकली हुई हैं। अंग्रेजों ने कुल मिलकर सात शाखाओं का निर्माण किया। सेंट्रल टॉवर से सुरक्षा गार्ड पूरी जेल पर नजर रखते थे । किसी आपात अवस्था में सभी अंग्रेज सिपाहियों को सावधान करने के उद्देश्य से एक घण्टी भी लगी थी। हर शाखा में 3 तलों पर छोटी-छोटी कोठरियाँ बनी थी। कोठरियाँ आकार में बहुत छोटी थी, उनमें सामने की तरफ एक दरवाजा और पीछे की तरफ 3 मीटर की ऊंचाई पर एक छोटी सी खिड़की थी। जेल का डिजाईन इस तरह था कि दो कैदी एक दूसरे को देख भी नही सकते थे, बात करना तो बहुत दूर की बात थी। इन छोटी-छोटी कोठरियों (Cells) की वजह से ही इस जेल को सेलुलर जेल नाम मिला। नितांतता का आलम ऐसा था कि दो साल तक एक ही जेल में बन्द होने के बावजूद सावरकर बन्धुओं को एक -दूसरे के बारे में कोई खबर नहीं थी।
जेल में कैदियों के साथ अमानवीय और क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया जाता था। शौचालय या मूत्रालय की कोई व्यवस्था नहीं थी। कैदियों को मिट्टी के दो बर्तन दिए जाते थे। एक बर्तन खाना खाने के लिये तथा दूसरा दैनिक कार्यों से निवृत होने के लिए। हर सुबह कैदियों को खुद की दोनों बर्तन साफ़ करने होते थे।
उन अमानवीय परिस्थितियों में जीने के लिए और भी कई तरह के संघर्ष करने पड़ते थे। काल कोठरियों में सीलन और बदबू रोज की बात थी। प्रकाश की कोई व्यवस्था ना होने से अंधेरों में घूमते खतरनाक बिच्छुओं के डंक से लोगों को तेज बुखार चढ़ जाता था। इलाज़ के अभाव में कई सख्त जानों ने उन अँधेरी कोठरियों में ही दम तोड़ दिया। कैदियों से सख्ती से काम लिया जाता था। सड़क और भवन बनाने के कामों के अलावा उन्हें तेल के कोल्हू में बैल की तरह भी जोता जाता था। एक कैदी को रोज ही कई-कई मन तेल की पेराई करनी पड़ती थी। उनके गले और पैरों में कई किलो तक वजनी लोहे की बेड़ियाँ पड़ी रहती थी। काम पूरा ना कर पाने पर उन लोगों को बड़ी बेरहमी से पीटा जाता था। स्वास्थ्य ठीक ना होने पर भी जेल अस्पताल के डॉक्टर, स्वस्थ होने का प्रमाण पत्र जबरदस्ती बना देते थे, इस तरह बीमार कैदियों को भी कोई रियायत नही थी।
एक बार कई लोगों ने जेल से भागने की कोशिश भी की। लेकिन समन्दर की विशालता से पार पाना लगभग असम्भव ही था। सारे लोग पकड़े गए। एक ने खुदकुशी कर ली, और बाकी लोगों को अगले ही दिन फांसी पर चढ़ा दिया गया। दाहकर्म का कोई प्रावधान नहीं होने से मृत लोगो के शरीरों को पत्थर से बांधकर समुद्र में फेंक दिया जाता था।
20वीं शताब्दी में सेलुलर जेल में राजनीतिक बंदियों को भी रखा जाने लगा। लेकिन जेल में कैदियों के हालात में कोई सुधार नही आया। कुछ कैदी भूख हड़ताल कर बैठे। जेल अस्पताल के डॉक्टरों ने जबरदस्ती भूख हड़ताल तुड़वाने के लिए नाक से पाइप के जरिये दूध डालने की कोशिश की। इस जबरदस्ती के दौरान एक क्रांतिकारी महावीर सिंह के फेफड़ों में दूध चले जाने से उनकी मौत हो गई। कुल मिलाकर काले पानी की यह सजा किसी की भी हड्डियों को कँपा देने के लिए काफी थी।
जब अंग्रेज खुद की ही बनाई जेल के कैदी बने: 1942 से 1945 के बीच ऐसा समय भी आया, जब जापान ने द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान पोर्ट ब्लेयर पर कब्जा कर लिया। अंग्रेजों को उन्हीं की बनाई जेल में कैद कर लिया गया। सुभाष चंद्र बोस कहने को तो अंडमान के प्रशासक बनाये गए, लेकिन वास्तविक सत्ता जापानियों के हाथ में ही रही। जापानियों ने भी भारतीय कैदियों के साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया , केवल जासूसी के आरोप में ही 44 लोगो को मौत के घाट उतार दिया । जब 1945 में अंग्रेजों ने इस द्वीप पर दुबारा कब्ज़ा किया तब उन्होंने जापानियों को यहाँ रखा।
भारत की आजादी और सेलुलर जेल: जेल की सात में से चार शाखाएँ कालान्तर में भूकम्प और फिर द्वितीय विश्व युद्ध में नष्ट हो गईं और अब केवल तीन शाखाएँ ही बची हुई हैं। इन तीन में से एक का पिछला और बाकि दो का सामने का हिस्सा घूमने के लिए खुला है। भारत की आज़ादी के बाद अंग्रेज अंडमान में एंग्लो इंडियन और एंग्लो बर्मीज को बसाकर एक नया देश बनाना चाहते थे, लेकिन उनकी यह योजना परवान नही चढ़ सकी और अंडमान को भारत का एक अभिन्न अंग बना लिया गया। सरकार ने सेलुलर जेल को एक राष्ट्रीय स्मारक घोषित कर दिया और कालान्तर में यह एक प्रमुख पर्यटक स्थल बन गया।
जेल का एक बड़ा हिस्सा अस्पताल में परिवर्तित हो चुका है, जहाँ मुफ़्त इलाज की सुविधा है । जेल परिसर में मुख्यतः कैदियों के तत्कालीन जीवन और उनके संघर्षों को मिट्टी के पुतलों द्वारा प्रतीकात्मक रूप से दर्शाने की कोशिश की गई है। परिसर में प्रवेश करते ही 1857 के शहीदों की याद में एक स्मारक बना हुआ है। स्वतन्त्रता संघर्ष की यादों को जीवन्त रखने के लिए एक संग्रहालय भी है। कैदियों को फाँसी पर लटकाने के लिए एक कमरे में लगी फाँसी की रस्सियाँ एक अजीब सी सिहरन पैदा करती हैं। बगल में फाँसी की सजा के पूर्व आखिरी प्रार्थना का स्थान भी दर्शाया गया है।
जेल की कोठरियाँ बन्द हैं और सबकी संरचना एक सी है। कुछ कोठरियों को खुला छोड़ा गया है। दूसरे तल पर वीर सावरकर जी की कोठरी को अलग से दर्शाया गया है। अभी तो सावरकर जी की कोठरी पूरी तरह सफ़ेद पुती है, लेकिन माना जाता है कि अपने जेल प्रवास के दिनों में सावरकर जी ने पढ़ने- लिखने की सामग्री की व्यवस्था ना होने पर काँटों और नुकीले पत्थरों से ही कोठरी की दीवार पर कई सारी कवितायेँ लिखकर उन्हें कंठस्थ कर लिया था।
जेल की छत और कण्ट्रोल टॉवर तक पहुँचने के लिए सीढियाँ हैं। जेल की छत पर पहुंचने के बाद आसपास की ख़ूबसूरती का भव्य नजारा दिखता है। समुन्दर के किनारे खड़े नारियल के पेड़ और आस पास की हरियाली मन मोह लेती है।
सेलुलर जेल कैसे पहुंचे? यह पोर्ट ब्लेयर के मुख्य बाज़ार (गान्धी मार्केट या बस स्टैंड से 1.5 किमी की दूरी पर है। वहाँ तक जाने के लिए ऑटो, कार इत्यादि किराये पर लिया जा सकता है। घण्टाघर से होते हुए जेल तक पैदल भी पहुँचा जा सकता है। जेल समुद्र तल से थोड़ा ऊंचाई पर स्थित है। जेल से सीधे नीचे उतरकर राजीव गांधी मरीन पार्क भी घूमा जा सकता है।
इस तरह अगर इस क्षेत्र में घूमना हो तो सबसे पहले जेल का भ्रमण किया जा सकता है। जेल अच्छी तरह से घूमने में 2 घन्टे का वक्त लग सकता है। उसके बाद नीचे जाकर मरीन पार्क की सैर की जा सकती है। मरीन पार्क घूमने के बाद शाम को ध्वनि और प्रकाश शो देखने के लिए दुबारा जेल की तरफ जा सकते हैं।
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प्रवेश शुल्क और समय: सेलुलर जेल राष्ट्रीय अवकाश के दिनों को छोड़कर हमेशा पर्यटकों के लिए खुली रहती है। प्रवेश शुल्क 30 रूपये है। जेल भ्रमण का समय सुबह 0900 से शाम 0500 बजे तक है। दोपहर 1230 बजे से 1330 बजे तक लंच ब्रेक रहता है।
ध्वनि और प्रकाश शो: शाम के समय जेल परिसर में ध्वनि और प्रकाश शो का आयोजन होता है। परिसर में खड़ा पीपल का बरसों पुराना पेड़ प्रतीकात्मक रूप से स्वंत्रता संघर्ष के दिनों की कहानी बयान करता है। ध्वनि और प्रकाश शो बहुत असाधारण तो नही है, लेकिन पोर्ट ब्लेयर में शाम बिताने के लिए बहुत ही उपयुक्त है। यह शो हिंदी और अंग्रेजी भाषा में आयोजित होता है। इसके लिए टिकट की व्यवस्था पहले ही करनी पड़ती है, अन्यथा भीड़ के कारण टिकट नहीं भी मिल सकता है। टिकट की कीमत 50 रूपये है।
पहला शो 0600 से 0655 बजे तक रोज ही हिंदी में आयोजित होता है। दूसरा शो 0715 से 0810 बजे तक अंग्रेजी (सोमवार, बुधवार और शुक्रवार) या हिंदी (सप्ताह के बाकी दिन) में होता है। पहले शो के लिए टिकट 0415 से मिलना शुरू हो जाता है और प्रवेश 0530 बजे से शुरू हो जाता है। दूसरे शो के लिए टिकट 0615 से मिलना शुरू होता है और प्रवेश 0705 से शुरू होता है। दूसरे शो के लिए टिकट एक दिन पहले ही बुक किया जा सकता है।
ध्वनि और प्रकाश शो के बाद जेल परिसर पूर्णतया बन्द कर दिया जाता है। जेल परिसर के सामने ऊपर की सड़क से मरीन पार्क की चमचमाती रोशनियाँ भव्य नजारा पेश करती हैं। मरीन पार्क से आगे स्पोर्ट्स काम्प्लेक्स के पास सड़क किनारे एक खाली जगह पर कई सारे ठेले शाम के समय चटर-पटर खाने के लिए अच्छा विकल्प प्रस्तुत करते हैं।
कुल मिलाकर अगर आप पोर्ट ब्लेयर घूमने जा रहे हैं तो सेलुलर जेल की यात्रा एक धार्मिक तीर्थयात्रा के समान लगती है। भारत की मुख्य धरती से हजारों मील दूर यह जेल महान शहीदों के संघर्ष और बलिदान की गौरवशाली गाथा से रूबरू कराती है।