चादर ट्रेक के साथ हमारा दुर्भाग्य: जनवरी की कंपकपाती सर्दियों में लेह की यात्रा सभी लोग नहीं करते हैं। लद्दाख का यह बर्फीला रेगिस्तान गर्मियों के मौसम में तो पर्यटकों के सैलाब से गुलजार हो उठता है, लेकिन सर्दियों में बहुत कम ही लोग इधर का रुख करते हैं। वो तो कड़कड़ाती सर्दियों के मौसम में जमी हुई जांस्कर नदी पर ट्रेकिंग करने का रोमांच है, जो दुनिया भर से सैकड़ों लोगो को बरबस ही आकर्षित करता है और वो लेह पहुँच जाते हैं। चादर ट्रेक पर जाना है तो जनवरी के अलावा लेह जाने का और कोई विकल्प ही नही है। जनवरी की उन सर्दियों में हमारी लेह यात्रा का भी वही उद्देश्य था ।
लेकिन दुर्भाग्य से दिल्ली से प्रस्थान करने के कुछ ही दिन पहले लद्दाख की जांस्कर घाटी में हालात इतनी तेजी से बदले कि हमारी चादर ट्रेक की सारी योजना पर पानी फिर गया। जांस्कर घाटी में एक विशाल भूस्खलन ने नदी के प्रवाह को बंद कर दिया और परिणामस्वरुप एक सीमित क्षेत्र में ही नदी केे पानी का संचय होने से एक झील बन गई। नदी का प्रवाह रुकने से वहाँ गम्भीर समस्या उत्पन्न हो गई, क्योंकि झील का किनारा कभी भी टूट सकता था। यह स्थिति चादर पर ट्रेकिंग करने वालों के लिए और साथ ही निचले इलाकों में रहने वाले लोगों के लिए बहुत ही खतरनाक थी । अंतत: जिला प्रशासन ने खतरे का आकलन करते हुए चादर ट्रेक को अनिश्चित काल के लिए स्थगित कर दिया।
इस सूचना ने हमें बहुत निराश किया और इसी कारण हम पाँच में से दो लोगों ने अपनी फ्लाइट की बुकिंग रद्द करा दी। निराश तो हम भी थे, लेकिन लेह जाने का उत्साह भी था। हमने योजना के अनुसार ही लेह जाने का फैसला किया, यद्दपि चादर ट्रेक अब संभव नहीं था । फिर हमने आनन-फानन में मारखा घाटी में ट्रेकिंग की योजना बनाई। यह योजना बड़ी जल्दबाजी में बनी, जिससे हम ट्रेक के लिए पर्याप्त जानकारी नहीं जुटा सके । उसका परिणाम यह रहा कि हम ट्रेकिंग पर जाने से पहले परमिट लेने की सबसे महत्वपूर्ण जानकारी से अनभिज्ञ ही रहे। जब हमने ट्रेक शुरू किया तो भी कहीं ऐसा साइनबोर्ड नही नजर आया, जिससे लगे कि हम एक राष्ट्रीय पार्क के अंदर थे और हमें परमिट की जरूरत थी। जब तक हमें परमिट वाली बात का पता चलता, तब तक हम 3 दिन की ट्रेकिंग करने के बाद हिमालय में ऊँचाई पर स्थित प्रसिद्ध हेमिस राष्ट्रीय पार्क में करीब 12 किमी अंदर थे ।
पार्क के गार्ड्स ने हमें वापस लौटने को कहा क्योंकि हमारे पास परमिट नहीं था । लेकिन हमारे बहुत निवेदन करने पर उन्होंने हमें एक और गाँव तक जाने की सलाह दी, जिससे हम मारखा घाटी तो नहीं पहुँच सकते थे, लेकिन हेमिस पार्क में 2 दिन और रुक सकते थे। इस तरह से हमने हेमिस राष्ट्रीय पार्क में पाँच दिन बिताए और इसके पूर्ण जंगली रूप को देखकर हमारा मन रोमांच से भर उठा । ट्रेकिंग के दौरान हम उस कैम्पिंग स्पॉट तक पहुँचने में सफल रहे, जहाँ हिम तेंदुए के दृश्यावलोकन की अच्छी सम्भावना रहती है। हालाँकि हमारी किस्मत में हिम तेंदुए से रूबरू होना नही लिखा था। वापसी में हमने देखा कि वन विभाग की तरफ से परमिट वाली जानकारी के लिए जगह-जगह बोर्ड लगाए जा रहे थे।
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ट्रेकिंग का प्रारंभ: मारखा घाटी में ट्रेकिंग के लिए कई रास्ते है, जिन्हें आप अपनी सुविधा और समय के अनुसार चुन सकते है । यदि आपके पास कम समय (4-5 दिन) हो, तो आप चिल्लिंग के रास्ते से गाड़ी में स्किउ (Skiu) गाँव जा सकते हैं और वहाँ से ट्रेकिंग शुरु कर सकते है । दूसरे विकल्प में ज़िन्गचेंन गाँव तक भी गाड़ी से पंहुचा जा सकता है । हमारे पास तो बहुत समय (8-9 दिन) था, इसलिए हमने लेह हवाई अड्डे के पास ही स्थित स्पितुक गाँव से ट्रेक शुरू करने का निर्णय लिया । वो तो अच्छा हुआ कि हमने स्पितुक से ट्रेक शुरू किया, नहीं तो ज़िंगचेन से ट्रेक शुरू करने पर परमिट के अभाव में हम पहले या दूसरे दिन ही पकड़ लिए जाते। काम से कम स्पितुक से ट्रेक शुरू करने से हमें पार्क में 4 रातें बिताने का मौका मिला।
स्पितुक गांव से अपनी यात्रा शुरू करने से पहले, हम लेह शहर में कुछ स्थानीय पर्यटन स्थलों का भ्रमण करना चाहते थे । हमने एक टैक्सी किराए पर ली, और ड्राइवर ने हमें शांति स्तूप और लेह पैलेस का भ्रमण कराया। लेह पैलेस सर्दी के मौसम में पर्यटकों के लिए बंद कर दिया गया था। वहाँ से हम मोती बाजार गए, जहाँ हमने एक छोटा सा केरोसीन से जलने वाला स्टोव ख़रीदा, जिससे हमे हेमिस नेशनल पार्क में बड़ी सुगमता हुई |
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बाज़ार में घूमने के बाद हम स्पितुक गाँव के लिए रवाना हुए। जल्दी-जल्दी हमने स्पितुक में स्थित बौद्ध मठ का भी भ्रमण किया। उसके बाद ड्राईवर ने हमे स्पितुक गाँव के बाहर सिन्धु नदी के ऊपर बने एक ब्रिज के पास उतार दिया । यही से हमें आगे की यात्रा पैदल ही शुरू करनी थी। हमने अपने बैकपैक को व्यवस्थित किया और आगे ज़िंगचेन के लिए चल पड़े। दिक्कत यह थी कि हमें स्पितुक से ज़िंगचेन के लिए निकलते-निकलते अपराह्न के तीन बजे चुके थे, इसलिए अंधेरा होने तक ज़िंगचेन पहुँच पाना असंभव ही लग रहा था।
आधे मील चलने के बाद ही हमें अपने पीठ पर भारी सामानों के बोझ का एहसास हुआ। हमारे बैकपैक्स बहुत भारी थे।। सबसे ज्यादा तो हमारे खाने का सामान था, जो हम ट्रेकिंग की पूरी अवधि के लिए लेकर निकले थे । सर्दियों के मौसम में आगे भोजन की उपलब्धता की कोई गारंटी नहीं थी , इसीलिए हम इसे छोड़ भी नहीं सकते थे । कोई और विकल्प नहीं होने पर हम पूरे सामान के साथ ही आगे बढ़ते रहे।
हमारी रफ़्तार बहुत ही धीमी थी। 3 घंटे चलने के बाद भी हम बमुश्किल से साढ़े तीन किलोमीटर ही चल पाए थे । सूरज तेज गति से पश्चिम कि ओर ढल रहा था । अँधेरा होने वाला था, इसलिए हमने ज़िंगचेन से बहुत पहले रास्ते में ही रुकने का फैसला किया। अब हमें पानी का एक स्रोत चाहिए था और साथ ही साथ एक ऐसी जगह, जहाँ हम तेज़ बहती ठंडी हवा से भी बच सकें। पानी का एक बहुत बड़ा स्रोत सिंधु नदी तो नीचे ही बह रही थी, लेकिन उसके आधी बर्फ बनी हुई नदी के पानी तक पहुँचने में 2-3 किमी का अतिरिक्त सफ़र तय करना पड़ता। नदी में पानी होते हुए भी हम उसकी एक बूँद नहीं प्राप्त कर सकते थे |
पानी की तलाश में हमने अंधेरे में भी चलना जारी रखा लेकिन तेज हवाएं हमारा रास्ता रोक रही थी । तक़रीबन 8 बजे हमने सड़क पर एक वेलकम गेट जैसी संरचना देखी। इस कठिन घड़ी में इससे अच्छा विकल्प और कुछ नहीं हो सकता था । हमने सड़क के किनारे ही अपना तंबू लगाने का फैसला लिया । सड़क के किनारे तम्बू लगाना थोड़ा खतरनाक तो था, लेकिन उस पहाड़ी इलाके में रात के समय किसी गाड़ी के आने की संभावना ना के बराबर रही। फिर भी हमने एहतियातन अपने टेंट के किनारे बड़े-बड़े पत्थरों को रख दिया। तेज हवा और अंधकार के कारण हमे टेंट को लगाने में बहुत परेशानी हुई ।
पास में पानी ना होने के कारण खाना पकाने का सवाल ही नहीं था। हमने कुछ बिस्कुट और सूखे मेवे खाकर काम चलाया। बाहर चलती तेज हवा के कारण स्लीपिंग बैग में भी ठण्ड लग रही थी। ठण्ड से थोड़ी राहत पाने के उद्देश्य से मैंने स्टोव जलाने की कोशिश की। आधे घण्टे के प्रयास के बाद भी शायद कुछ खराबी के कारण स्टोव नही जला। हमारे पास अब अपने- अपने स्लीपिंग बैग में पड़े रहने के अलावा ठण्ड से बचने का और कोई रास्ता नहीं था ।
हालाँकि मैंने दो मोज़े पहन रखे थे और स्लीपिंग बैग में भी था , लेकिन फिर भी आधी रात के बाद मेरा पैर बहुत ठंडा हो गया । ठण्ड की वजह से नींद नहीं आ रही थी, तो मैंने एक बार फिर से स्टोव जलाने का प्रयास किया । इस बार यह काम कर गया , जिससे मुझे ठंडी से कुछ राहत मिली । मेरे अन्य साथी अब भी आराम से अपने – अपने स्लीपिंग बैग में सो रहे थे ।
स्टोव की गर्मी से थोड़ी राहत मिल गई। अगली सुबह हमारा लक्ष्य तो जल्दी से जल्दी ज़िंगचेन के लिये निकल पड़ने का था, लेकिन आलस के कारण हम सुबह 9 बजे से पहले अपनी आगे की यात्रा पर नहीं निकल पाए। पानी नही होने की वजह से नाश्ता भी नहीं कर पाए। हम इस उम्मीद में आगे जा रहे थे कि जहाँ भी पानी मिलेगा, रुककर कुछ पका लेंगे। लेकिन सिंधु हर जगह गहराई में ही नज़र आ रही थी। करीब ढाई घण्टे बाद सिंधु नदी को हमने अलविदा कहा और एक छोटी पहाड़ी नदी के किनारे-किनारे चलने लगे। हमारे रास्ते और उस छोटी नदी के बीच का ढलाव धीरे-धीरे कम हो रहा था। आधे घण्टे और चलने के बाद हम नदी तल पर पहुँच गए।
अब दिक्कत यह थी कि रुम्बक नाम की यह पहाड़ी नदी पूरी तरह जमी हुई थी। थोड़ा इधर-उधर खोजने के बाद हमें बर्फ़ की जमी परत में एक गड्ढा नजर आया, जिसके नीचे पानी की धार बह रही थी। हमारा काम उतने में ही हो गया। नदी के किनारे ही हमने मैगी पकाई, चाय बनाया और पेट की भूख को शांत किया। पानी मिल जाने से मानो आत्मा भी तृप्त हो गयी थी।
लेह में ही सिंधु किनारे का एक भयानक अनुभव: सिंधु-जांस्कार संगम पर घटी एक दुर्घटना
खा-पीकर हम आगे ज़िंगचेन की तरफ बढ़ चले। ज़िंगचेन गाँव जमी हुई पहाड़ी नदी के किनारे ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों की गोद में किसी परिकथा जैसा लग रहा था। वहीं एक उपयुक्त जगह देखकर हमने अपना तम्बू गाड़ दिया। आगे की कहानी दूसरे भाग में जारी रहेगी ।