वह ईश्वर का प्रकोप भी हो सकता है या प्रकृति के साथ खिलवाड़ का नतीजा..आपकी आस्था, विवेक या किसी और तर्क-वितर्क से उपजा कुछ भी हो सकता है। कारण जो भी रहा हो, लेकिन भारत के वृहद और विविधितापूर्ण धार्मिक समाज ने ऐसी त्रासदी शायद ही कभी देखी थी । । भगवान शिव के उस पावन धाम तक पहुँचने की ललक में बच्चे, बूढ़े, महिला, पुरुष, बलवान , दिव्यांग..सबने एक साथ कई बाधाएँ पार की , टेढ़े-मेढ़े पहाड़ी रास्तों पर घँटों सफर किया, पथरीली चढ़ाइयों पर पूरे जोश के साथ आगे बढ़े। । चार धाम यात्रा का सबसे प्रमुख महीना जून.. उत्तराखण्ड के हिमालय की घाटियाँ हजारों तीर्थयात्रियों की चहल-पहल से गुलजार थी, हर तरफ भक्ति और श्रद्धा का माहौल था, लेकिन फिर एक सैलाब आया और हजारों जिंदगियों में सब कुछ पलक झपकते ही बदल गया। बस अगर कुछ नही बदला तो वो थी हिमालय की सुन्दरता , उसकी गोद में मिलने वाला सुकून और श्री महादेव के पवित्र केदार धाम की महिमा। उस त्रासदी से मेरा नजदीकी सम्बन्ध नही था, मैने तो बस टेलीविज़न पर ही रोते-बिलखते आँसुओं से भरे चेहरों को देखा था। सबसे नजदीकी रिश्ता इतना था कि मेरी एक सहकर्मी भी उस त्रासदी में अपना बहुत कुछ गँवा बैठी थी। फिर भी केदार की त्रासदी चूँकि हिमालय की त्रासदी थी, इसलिए मुझे उससे फर्क पड़ता था।
उस त्रासदी के तीन साल बाद एक दिन मैं उसी केदार घाटी में था। त्रासदी के तीन साल बाद भी 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक केदारनाथ तक पहुंचने की मेरी कोई इच्छा नही थी। लेकिन जब पैर इधर-उधर निरुद्देश्य भटक रहे हों, तो इच्छा होने , ना होने का कोई मतलब नही रह जाता। जब जेब में पैसे कम हो और घूमने के लिए कोई जगह समझ ना आ रही हो, तो हिमालय की वादियों से बेहतर कुछ नहीं हो सकता। हिमालय की गोद में कुछ सुकून भरे पल बिताने के लिए ना तो बहुत ज्यादा पैसों की जरूरत है और ना ही किसी एक खास गन्तव्य की। 2016 के अक्टूबर महीने में ऐसे ही एक दिन उत्तराखण्ड या हिमाचल प्रदेश में 4-5 दिन की छुट्टियाँ बिताने के इरादे से मैं निकल पड़ा।
इस यात्रा का पहला सुखद अनुभव तो दिल्ली में कश्मीरी गेट आई एस बी टी पर ही हो गया। मैं वहाँ करीब 2 वर्ष के अंतराल पर पहुँचा था। पुराने , जगह-जगह पान की पीकों से अटे पड़े गन्दे टर्मिनल की जगह नई नवेली दीवारों और फर्श पर बिछी टाइलों की वजह से चमचमाते बस अड्डे ने ले ली है। पल भर को तो लगा कि किसी छोटे एयरपोर्ट पर आ गया हूँ। जगह-जगह लगे एलसीडी पैनलों पर बसों का नियमित स्टेटस पता चलता रहता है । टर्मिनल में पंजाब, उत्तर प्रदेश , हिमाचल प्रदेश, उत्तराखण्ड इत्यादि राज्यों की रोडवेज़ बसों के साफ़-सुथरे टिकट काउन्टर भी हैं, जहाँ से अपने गंतव्यों की टिकट आसानी से खरीदी जा सकती है।
चूँकि यात्रा निरुद्देश्य ही थी तो पहले मैंने हरिद्वार की एक बस पकड़ ली, लेकिन जैसे ही वो बस चलने को हुई मुझे एक दूसरी बस पर गुप्तकाशी का बोर्ड लगा दिखा। आनन-फानन में दिमाग ने एक निर्णय लिया और मैं लपककर गुप्तकाशी वाली बस में बैठ गया। अब मेरी उस यात्रा की मंजिल भगवान महादेव का धाम केदारनाथ था ।
8 बजे रात को बस ने दिल्ली से प्रस्थान किया। उत्तराखंड तो मेरे लिए नया-नवेला था नहीं, इसलिए मुझे बस की उस यात्रा में कुछ खास उत्साह नहीं था । मैंने सोना ही बेहतर समझा । ऋषिकेश में बस का करीब डेढ़ घन्टे का ठहराव था। वहाँ मुझे समझ आया कि पहले उत्तराखण्ड परिवहन की जो बसें ऋषिकेश से सुबह चलकर गुप्तकाशी, गोपेश्वर, कर्णप्रयाग, उत्तरकाशी इत्यादि जगहों को जाती थी, अब उनके रूट का विस्तार करके उन्हें दिल्ली से चलाया जा रहा है। ये सारी बसें शाम 8 बजे के लगभग दिल्ली से चलकर भोर में 3.30 के आसपास ऋषिकेश पहुँचती हैं और फिर वहाँ एक- डेढ़ घंटे के ठहराव के बाद आगे अपने गन्तव्य को रवाना हो जाती हैं। इसका मतलब कि अगर आपने शाम को 8 बजे के लगभग दिल्ली से गोपेश्वर, कर्णप्रयाग या गुप्तकाशी की बस पकड़ी है, तो श्रीनगर तक तीनों बसें एक-दूसरे के आगे-पीछे ही रहती हैं।
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इस रास्ते पर मैं पहले भी कई बार सफ़र कर चुका था, इसलिए रुद्रप्रयाग तक तो सब कुछ जाना पहचाना ही लगा। रुद्रप्रयाग तक मैं ज्यादातर सोता ही रहा। रुद्रप्रयाग के आगे बस मन्दाकिनी नदी के किनारे हिमालय की हसीन वादियों में अगस्त्यमुनि और कुंड होते हुए गुप्तकाशी पहुँचती है। पूरे रास्ते मन्दाकिनी का शांत प्रवाह देखकर लगता ही नही कि बाढ़ की उस त्रासदी का मुख्य स्रोत यह नदी ही थी। सड़क के साथ चलती मंदाकिनी का प्रवाह शांत था, वातावरण में हल्की सी ठण्ड थी । दूसरे किनारे पर दिखते गाँव, खेत और पेड़ों से ढके पहाड़ उस क्षेत्र की ख़ूबसूरती में चार चाँद लगा रहे थे। मैं बस की खिड़की से मन्दाकिनी के शांत, निर्मल प्रवाह को देखते हुए तीन साल पहले की उस भयावह त्रासदी के निशान खोजता रहा। तीन साल के लंबे अंतराल के बाद पहाड़ के उस हिस्से में जिन्दगी फिर पटरी पर थी, सुबह-सुबह स्कूल जाते छात्र-छात्राओं के चेहरे पर मुस्कान थी और नींद तोड़ते बाजार गुलजार होने को तैयार थे। नदी के किनारे विशालकाय पहाड़ों का कटाव, नदी पर लटकते कुछ टूटे हुए झूले, यत्र-तत्र बिखरे कुछ मलबे…त्रासदी के कुछ अवशेष अभी भी दिख जाते हैं, पर हिमालय की उन वादियों में समय के साथ जिन्दगी ने आगे बढ़ना सीख लिया था।
अंततः दिन के 11 बजते-बजते बस यात्रा का अंतिम पड़ाव गुप्तकाशी आ गया। गुप्तकाशी की भीडभाड से मन जुड़ ही नहीं पा रहा था , इसलिए मैंने आगे बढ़ते जाने का निश्चय किया। गुप्तकाशी से आगे फाटा और सोनप्रयाग के लिए बहुत सी सवारी जीपें उपलब्ध रहती हैं, लेकिन मैं सीधे गौरीकुण्ड की जीप पकड़ना चाहता था। गौरीकुण्ड से ही केदारनाथ धाम की पैदल यात्रा शुरू होती है। बहुत सारे लोग गुप्तकाशी से सोनप्रयाग एक जीप द्वारा जाते हैं, फिर सोनप्रयाग से दूसरी जीप पकड़कर गौरीकुण्ड पहुँचते हैं। कई लोग केदारनाथ धाम की पैदल यात्रा सोनप्रयाग से ही शुरू कर देते हैं, लेकिन इससे 5 किमी की दूरी बढ़ जाती है और यात्रा मार्ग भी बहुत आकर्षित करने वाला नहीं है। करीब तीस मिनट के इंतजार के बाद मुझे गौरीकुण्ड जाने वाली एक सीधी सवारी जीप मिल गयी। सवारी जीप में बस यही दिक्कत है कि जब तक पूरी सवारियाँ नहीं भर जाती, जीप स्टैंड से आगे नही बढ़ती। खैर, जल्दी ही हम गौरीकुण्ड के लिए बढ़ चले। 30 किमी की इस यात्रा में एक घंटे लगते हैं और किराया प्रति व्यक्ति 50 रूपये है।
गुप्तकाशी से करीब 15 किमी आगे जाने पर एक छोटा सा क़स्बा फाटा है। आजकल श्रद्धालुओं में हेलीकॉप्टर की सवारी का बड़ा क्रेज है। बहुत सारे लोग हेलीकॉप्टर से ही केदारनाथ धाम जाते हैं। हेलीकॉप्टर कि सेवा प्रदान करने वाली 3-4 कम्पनियां तो फाटा में ही हैं। दो नई-नई कम्पनियां गुप्तकाशी में भी खुल गयी हैं। हेलीकॉप्टर द्वारा फाटा से केदारनाथ पहुँचने में मात्र 10 मिनट लगते हैं ( प्रति व्यक्ति किराया : 7000 रूपये दोनों तरफ, 3500 रूपये एक तरफ). चूँकि केदारनाथ धाम में हेलीपैड मुख्य मन्दिर से थोड़ी ही दूर स्थित है, इसलिए हेलीकॉप्टर द्वारा जाने से 2-3 घंटे में ही महादेव के दर्शन करके वापस फाटा पहुँचा जा सकता है।
हेलीकॉप्टरों के कस्बे फाटा से आगे बढ़ते हुए मैं एक दूसरे कस्बे सीतापुर पहुँच गया । सीतापुर में रात्रि विश्राम के लिए छोटे-बड़े कई होटल दिख रहे थे। इस कस्बे के आखिरी छोर पर नारायनकोटी के आगे नदी की तलहटी में एक बहुत बड़ा निर्माण कार्य हो रहा था, किसी आश्रम जैसा। यह देखकर दिल को धक्का सा लगा। मन्दाकिनी के सैलाब में सैकड़ों घर उजड़ गये, हजारों जिंदगियाँ तबाह हो गई और उस सैलाब का सबसे प्रमुख कारण पहाड़ों और नदी घाटियों का अनियंत्रित दोहन ही था, लेकिन इतना सब खोने के बाद भी जैसे लगता है कि हमने कोई सबक ही नही लिया।
सोनप्रयाग इस मार्ग पर स्थित आखिरी महत्वपूर्ण कस्बा है, जहाँ रात्रि विश्राम के लिए अच्छे होटल मिल सकते हैं। आगे गौरीकुण्ड में भी रात्रि में ठहरने के कुछ विकल्प मौजूद हैं। सोनप्रयाग में भी बस स्टैंड के पास में नदी के बिलकुल करीब एक बड़ा निर्माण कार्य चल रहा था। पूछने पर पता चला कि बड़ी सी बिल्डिंग में दुकानों का निर्माण हो रहा है, जिससे स्थानीय लोग अपनी जीविका चला सकें। हर जगह, हर मोड़ पर हमारी जरूरतें बाकि सारे तथ्यों पर भारी पड़ जाती हैं और फिर दाँव पर लग जाता है हमारा नाजुक सा पारिस्थितिक तन्त्र, हमारे जंगल, हमारी नदियाँ और हमारे पहाड़। अंजाम सभी को पता है लेकिन विकास की इस दौड़ में रुकना कोई नहीं चाहता।
हमारे हिन्दू धर्म में प्रयाग का तात्पर्य दो नदियों के मिलन स्थल से है। सोनप्रयाग में भी मन्दाकिनी और वासुकिगंगा नदियों का संगम होता है, जो बस स्टैंड से थोड़ी ही दूरी पर स्थित है। बहुत सारे श्रद्धालु संगम स्थल पर रूककर पूजा-अर्चना भी करते हैं। वैसे सोनप्रयाग उत्तराखण्ड में स्थित धार्मिक महत्व के पाँच मुख्य प्रयागों कि सूची में नहीं शामिल है ।
केदारनाथ धाम की चढ़ाई के बारे में यहाँ पढ़ें : Trek To Kedarnath Temple
सोनप्रयाग में सड़क के किनारे ही चारधाम यात्रा का एक रजिस्ट्रेशन काउंटर है । वर्ष 2013 की त्रासदी से सबक लेकर चारधाम यात्रा को नियंत्रित तरीके और सुचारू रूप से सम्पन्न कराने के उद्देश्य से इस धार्मिक यात्रा पर जाने वाले श्रद्धालुओं का रजिस्ट्रेशन अनिवार्य कर दिया गया है । पूरे यात्रा मार्ग में यह सुविधा कई जगह उपलब्द्ध है और किसी भी एक जगह यह रजिस्ट्रेशन कर सकते हैं । सोनप्रयाग के बाद गौरीकुण्ड और फिर केदारनाथ धाम से करीब 500 मीटर पहले हेलीपैड के पास भी रजिस्ट्रेशन की सुविधा उपलब्द्ध है । रजिस्ट्रेशन चाहे जहाँ भी करा सकते हैं, लेकिन हेलीपैड के पास स्थित रजिस्ट्रेशन पोस्ट के आगे बिना रजिस्ट्रेशन के कोई नहीं जा सकता । 50 रूपये का शुल्क देकर ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन की सुविधा भी उपलब्द्ध है ।
जब हमारी सवारी जीप सोनप्रयाग में स्थित रजिस्ट्रेशन काउंटर के पास नहीं रुकी तो चेकपोस्ट पर तैनात पुलिसकर्मी ने हाथ हिलाकर ड्राईवर को रुकने का संकेत दिया । वैसे तो जीप में कम से कम 5 लोग ऐसे थे, जिन्हें केदारनाथ के ट्रेक पर जाना था, लेकिन ड्राईवर ने पुलिसवाले से कहा कि जीप में सवार सभी लोग स्थानीय ही हैं । पुलिसकर्मी ने ड्राईवर को आगे बढ़ने का इशारा कर दिया । चूँकि यह रजिस्ट्रेशन आगे गौरीकुण्ड में भी सम्भव था, इसलिए जीप में सवार हम सभी यात्रियों ने भी कोई आपत्ति नहीं जताई।
सोनप्रयाग से आगे मन्दाकिनी नदी की एक पतली सी धारा सड़क के बिलकुल किनारे-किनारे थोड़ी कम गहरी खाई में बह रही है । नदी का बहाव धीमा है और पानी का स्तर इतना कम है कि भरोसा ही नहीं हो रहा था कि तीन साल पहले इसी नदी ने रातोंरात इतनी तबाही मचाई होगी । सड़क के दूसरे किनारे सहित कमजोर पहाड़ जब देखो तब दरक जाते हैं । इस इलाके में पत्थरों का गिरना तथा लैंडस्लाइड एक आम बात है । सड़क पर पत्थर के छोटे-छोटे टुकड़े बिखरे हुए मिलते हैं। पैदल चलकर सोनप्रयाग से गौरीकुण्ड की यह दूरी तय करना बहुत ही खतरनाक हो सकता है। सोनप्रयाग से 15-20 मिनट के सफ़र के बाद हम गौरीकुण्ड पहुँच गए ।
गौरीकुण्ड मन्दाकिनी नदी के किनारे स्थित एक छोटा सा गाँव है, जहाँ से केदारनाथ धाम की पैदल यात्रा आरम्भ होती है । इसी तरह से गौरीकुण्ड से केदारनाथ धाम की कुल दूरी करीब 16 किमी है । पूरे यात्रा मार्ग पर जगह-जगह रात्रि में ठहरने और भोजन-पानी इत्यादि की उचित सुविधा उपलब्द्ध है । गौरीकुण्ड से केदारनाथ धाम की यात्रा आरम्भ करने का अंतिम समय दोपहर के 1.30 बजे तक है । इसी तरह यात्रा मार्ग पर स्थित भिन्न-भिन्न पड़ावों को नियत समय तक पार कर लेना होना होता है, अन्यथा आगे बढ़ने कि अनुमति नहीं होती है और रात्रि विश्राम के लिए रुकना पड़ता है ।
केदारनाथ की त्रासदी के बाद पैदल यात्रा के मार्ग की हालत बहुत सुधर गयी है, आपातकालीन साधनों की उपलब्द्धता बढ़ गयी है, रास्ते में स्थित एक बहुत बड़ा पड़ाव अतीत का हिस्सा बन चुका है, कुछ नए पड़ावों से रास्ता गुलजार है, यात्रियों की सुविधाओं का ध्यान रखा जा रहा है, जगह-जगह मुफ्त इन्टरनेट भी उपलब्द्ध है… मतलब पिछले तीन सालों में गौरीकुण्ड से केदानाथ धाम के बीच बहुत कुछ बदल चुका है । श्रद्धालुओं की संख्या में जरूर कमी आई है और मार्ग पर चलने वाला हर यात्री उस त्रासदी के साये में ही रहता है, लेकिन महादेव से मिलने की चाह हर कठिनाई पर भारी पड़ जाती है । सैलाब की वह त्रासदी कितनी भी भयावह रही हो, लेकिन केदारनाथ धाम की महिमा आज भी वैसे ही अक्षुण्ण है, जैसे वो सदियों से रहती आई है ।
आपने अपनी यात्रा दिल्ली से गौरीकुंड तक हिन्दी मे और उससे आगे केदारनाथ तक english मे पोस्ट की यह बात समझ नहीं आई .
और क्या केदारनाथ trek की आपकी पोस्ट किसी अन्य पेज पर हिन्दी मे उपलब्ध हैं
कृपया बताये….
यह मेरी हिंदी और अंग्रेजी का संघर्ष था। यह ब्लॉग अंग्रेज़ी में शुरू किया था, तो क़रीब दो सौ पोस्ट तो अंग्रेज़ी भाषा में ही हैं । फिर बाद में हिंदी में लिखना शुरू किया। कोशिश कर रहा हूँ कि अब हिंदी का पलड़ा थोड़ा भारी हो , क्योंकि भावों को जैसा मैं हिंदी में व्यक्त कर लेता हूँ , वैसे मज़ा अंग्रेज़ी में नही आता है। 🙂