रोइंग से सुबह निकलने के बाद हमारी मंजिल पास में ही स्थित एक दूसरा कस्बा तेजू था। तेजू से आगे हमें परशुराम कुंड, नामसाई होते हुए गुवाहाटी की वापसी यात्रा प्रारंभ करनी थी। तेजू जाने के लिए रोइंग से दो रास्ते हैं। पहला रास्ता रोइंग कस्बे के बाहर स्वागत गेट के पास से भीष्मकनगर होते हुए तेेजू जाता है। दूसरा रास्ता शांतिपुर और चापाखोवा से होकर तेजू तक जाता है। पहले वाला रास्ता करीब 20 किमी छोटा है, लेकिन उस पर चलते हुए तेजू पहुँचने के लिए भीष्मकनगर के पास नदी पर बने एक बाँस और लकड़ी के पुल से गुजरना पड़ता है। पुल एक अस्थायी व्यवस्था है और बारिश में जब नदी अपने उफान पर आती है, तो ऐसे पुल कोई मायने नहीं रखते । इसीलिये ज्यादातर समय गूगल मैप रोइंग से तेजू के लिए भीष्मकनगर वाला रास्ता बन्द ही दिखाता है।
रोइंग से बाहर आते ही वेलकम टू रोइंग लिखा हुआ एक बड़ा सा प्रवेश द्वार है। गाड़ी रोककर मैं वही कुछ फ़ोटो खींच रहा था। थोड़ा आगे तिराहे से एक रास्ता तेजू की तरफ जाता है। उस तिराहे से थोड़ा आगे एक और तिराहा है, जहाँ एक चमचमाती सड़क जंगलों में जाती है। सड़क की चमचमाहट देखते ही दिल बेईमान हो गया। गूगल मैप से अंदाजा लगाया तो पता चला कि सड़क जाती तो पासीघाट की तरफ है, लेकिन बीच में दो बड़ी-बड़ी नदियाँ पड़ने के कारण गूगल कोई रास्ता नहीं दिखाता | उन नदियों पर पुल नही होने के कारण गूगल की नजर में वह सड़क बन्द है । मैंने सोचा कि उस सड़क पर हरे-भरे जंगलों से होते हुए नदी के किनारे तक चलते हैं और फिर वापस आकर तेजू चले जायेंगे। तेजू पहुँचने के लिए हमारे पास पूरा दिन पड़ा था।
बस यही सोचकर हम उस सड़क पर निकल पड़े। हरे-भरे पेड़ों के बीच से नई ताज़ा बनी बिल्कुल खाली सड़क पर गाड़ी फर्राटे से दौड़ाने में बहुत मज़ा आया और 15 किमी की दूरी तय कर हम थोड़ी ही देरी में दिबांग नदी के किनारे पहुँच गए। वहाँ पहुँचने पर देखा कि नदी के ऊपर एक पुल बनकर तैयार तो है, लेकिन आवागमन के लिए अभी बंद है।
पुल के बगल से ही एक रास्ता नीचे उतरकर नदी के किनारे जाता है। मेरे दिमाग में बहुत सारी योजनाएं बन-बिगड़ रही थी। मतलब ना तो हमें सही मायने में मंजिल का पता था और ना ही रास्तों का। उधेड़बुन में ही हम पुल के नीचे नदी किनारे तक पहुँच गए। वहाँ कुछ फ़ोटो खींचने के बाद हमें वापस नवनिर्मित सड़क पर आ जाना चाहिए था, लेकिन जब आगे बढ़े तो वापस सड़क पर आने के बजाय नदी के बलुआ तल पर बने उस रास्ते पर आगे बढ़ गए, जिसके दोनों तरफ बड़ी-बड़ी झाड़ियाँ थीं।
वहाँ कोई रास्ता नहीं था, बस गाड़ियों के आने जाने से बालू पर पहियों के निशान थे, जिनको पकड़ कर हमें चलते जाना था। कहीं रास्ता झाड़ियों से गुजर रहा था, तो कहीं पानी की छोटी धारा में से होते हुए पत्थरों के ऊपर से गुजरना था। बस ऐसे ही पहियों के निशान पर करीब 3-4 किमी चलते हुए हम नदी के किनारे बने एक घाट पर पहुँच गए।
घाट पर दो नावें सवारियों और साथ ही दुपहिया और चार पहिया वाहनों को नदी के पार लगाने के लिए तैयार खड़ी थीं। पासीघाट से रोइंग का सबसे सीधा रास्ता होने के कारण बहुत खराब स्थिति में होने पर भी इस पर कारें और बाकी वाहन चलते रहते हैं। लेकिन अब हमारी आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं हो रही थी। किसी तरह यह नदी पार भी कर लेते तो आगे पत्थरों से भरे नदी तल पर चलते हुए हमें एक और धारा को पार करना था। उसके बाद डाम्बुक से आगे जाने पर एक और नदी पार करनी थी। कुल मिलाजुलाकर इस यात्रा में रोमाँच तो था, लेकिन डर यही था कि मेरी कार इसपर सुरक्षित निकल पाएगी या नहीं। अगर रास्ते में कोई भी गड़बड़ होती तो फिर हम एक अनजाने क्षेत्र में बुरी तरह से फँस जाते और फिर कार सहित बाहर निकलने के लिए बहुत पापड़ बेलने पड़ते। कार भी मैंने नई-नई चलानी सीखी थी, तो आत्मविश्वास भी लड़खड़ा रहा था। बस इसी डर की वजह से तय हुआ कि अब वापस लौटकर अपनी पूर्व योजना के मुताबिक तेजू की तरफ बढ़ा जाए।
मैंने वापसी के लिए एक बार फिर नदी के कच्चे रास्ते पर गाड़ी डाल दी। लेकिन वापसी करते हुए दिमाग में बार-बार नदी पर बना वह पुल याद आ रहा था। कुछ भी दिक्कतें हों, लेकिन रोइंग से पासीघाट की इस सड़क यात्रा में एक रोमाँच तो था ही। कुछ दिनों के बाद पुल पर आवागमन शुरू होने के बाद यह सारा रोमाँच खत्म होने वाला था। यह ऐसी सड़क यात्रा थी, जहाँ बारिश के दिनों में यात्रा करना सम्भव ही नही था। वो तो ठण्ड के मौसम में जब नदियों का जलस्तर घट जाता है तो नदी की तलहटी से होकर गाड़ियों का आवागमन शुरू हो जाता है। उसी मौसम में चार पैसे कमा लेने की गरज से सुदूर बिहार से कुछ लोग यहाँ पहुँचकर नावों से नदी पार कराने का व्यवसाय शुरू कर देते हैं। यही लोग इन नदियों पर 2-3 जगह बाँस और लकड़ी के मजबूत पुल भी बनाते हैं, ताकि जहाँ नाव चलाने की गुंजाइश ना रहे, वहाँ भी नदी की तेज धारा के ऊपर से लोग सुरक्षित निकल सके। फिर बारिश के मौसम में जब नदियाँ उफ़ान पर आती हैं, तो नाविक अपने घर लौट जाते हैं और लकड़ी के पुलों का कोई नामोनिशान नहीं बचता। फ़िर इस क्षेत्र में आवागमन का एकमात्र साधन हफ़्ते में एक-दो बार आने-जाने वाले हेलीकॉप्टर होते हैं। पानी घटते ही फ़िर से वाहनों का आवागमन शुरू। यह चक्र हर साल इसी तरह चलता रहता है।
अचरज होता है कि नाव चलाने वाले लोग अपने परिवार के साथ बिहार से वहाँ तक पहुंच गए हैं। दिबांग के वीराने में वे अस्थाई झोपड़ियाँ बनाकर कुछ महीने तक रहते हैं और चार पैसे कमाते हैं । कहाँ बिहार और कहाँ दिबांग नदी की तलहटी; रोटी, कपड़ा और मकान की जरूरत इंसान को कहाँ से कहाँ पहुँचा देती है। फिर अपने बारे में सोचता हूँ। इन्हीं जरूरतों की वजह से मैं भी तो अपने घर से बहुत दूर गुवाहाटी में हूँ।
नदी पर नए पुल के बन जाने से यह सारा चक्र खत्म हो जाने वाला था और फिर खतरनाक लगने वाली नदियों की तलहटी पर होने वाली यह सड़क यात्रा अतीत का एक हिस्सा बन जानी थी। मतलब सिर्फ़ कुछ महीने बाद पुल पर आवागमन शुरू होते ही ना तो यह समय चक्र रहना था, ना ही ये नाविक और ना ही लकड़ी के पुल। यही वह आखिरी मौका था, जब मैं उस रोमाँच का अनुभव कर सकता था। मन में एक डर था, लेकिन नदी तट से वापसी करते समय एक कसक भी थी। मैंने निधि की तरफ़ देखा और जैसे आँखों ही आँखों में एक निर्णय हुआ कि तेजू ना जाकर पासीघाट ही चलते हैं। मैंने गाड़ी एक तरफ खड़ी कर दी और दूसरी कारों का इंतजार करने लगा। थोड़ी देर में वहाँ एक और कार पहुँची। मैंने ड्राइवर से पूछा कि उस रास्ते पर अपनी कार लेकर हम पासीघाट तक पहुँच पायेंगे कि नही। उसने जवाब दिया कि वो लोग भी पासीघाट से ही आ रहे हैं।
आश्वासन मिलते ही मैं भी दुबारा कार लेकर नदी तट पर पहुँच गया। नाव वाले ने कार को नाव पर चढ़ाने के लिए कहा। नौसिखिए ड्राइवर की पहली परीक्षा वही हो गई और कार नाव से आगे निकलकर नदी में गिरते-गिरते बची। सारा जोश शुरू में ही ठंडा पड़ गया, लेकिन अब वापसी का कोई इरादा नही था। 2 मिनट में ही नाव से हमने नदी की पहली धारा पार कर ली। नदी की तलहटी में थोड़ा आगे बढ़ने पर एक बार फिर नाव में लदकर हमें नदी की दूसरी धारा पार करनी थी। एक बार फिर नाव पर कार चढ़ाने में दिल धड़क रहा था, लेकिन किसी तरह डरते-डरते कार नाव पर चढ़ा दी। लेकिन इस बार भी कार नदी में कूदते-कूदते बची। दिक्कत यह हो रही थी कि पटरे से नाव पर चढ़ाने के लिए एक्सीलरेटर को तेजी से दबाना पड़ रहा था और नाव के ऊपर जाते ही एक्सीलरेटर को छोड़कर ब्रेक लगाना था, लेकिन ब्रेक लगाते-लगाते कार नाव के किनारे की ओर बढ़ जाती और दिल धक्क से कर जाता। खैर जैसे भी गिरते-पड़ते मैंने पहली नदी की दोनों धाराएं पार कर ली। दूसरी धारा पार करने के बाद नदी तट पर टेंट लगाकर दो-तीन दुकानें बना दी गई थी, जहाँ नाश्ते में पूड़ी, ऑमलेट, चाय इत्यादि की व्यवस्था थी। हमने भी वही नाश्ता कर लिया।
गाड़ी ने नावों की सवारी तो कर ली थी, लेकिन कष्ट अभी भी खत्म नही हुए थे। अभी तो पत्थरों वाले रास्ते पर नदी की तलहटी में कई किमी की यात्रा करनी थी, तब जाकर कही सड़क के दर्शन होते। नदी वाले रास्ते पर दिक्कत यह थी कि अगर पहले आने-जाने वाली गाड़ियों के टायरों के निशान से जरा भी इधर-उधर होते तो बालू में धँसने या पत्थरों से टकराने का डर था। धीरे-धीरे चलते हुए हमने नदी पार की और तलहटी से बाहर नदी के ऊपरी किनारे पर आ गए।
बदकिस्मती से आगे की सड़क की हालत और ख़राब थी। थोड़ा और आगे बढ़ते हुए हमने बोमजिर गाँव को पार किया और तब तक हल्की-फुल्की बारिश शुरू हो गई। अगर यह बारिश नदी के बलुआ रास्ते पर मिल जाती तो फिर तो भगवान ही मालिक था।
बोमजिर गाँव पार करते ही एक बार फिर चमचमाती सड़क मिली, जिसपर ट्रैफिक ना के बराबर था। बारिश के कारण मौसम बहुत ही सुहावना हो गया था। सड़क के दोनों किनारों के हरे-भरे जंगल बहुत ही सुन्दर लग रहे थे। थोड़ी ही देर में हम अपने अगले पड़ाव डाम्बुक गाँव पहुँच गए।
डाम्बुक अपने सन्तरों के बगीचों के कारण जाना जाता है। यह एक छोटा सा गाँव है, लेकिन सन्तरा उत्पादन का एक प्रमुख केंद्र है। सड़क के दोनों किनारे सन्तरों के बगीचे नज़र आते हैं। मुख्य सड़क पर सन्तरों को बेचने के लिए बैठी स्थानीय महिलाओं के अलावा इक्का-दुक्का लोग ही नज़र आते हैं। हमने भी सन्तरों की एक पूरी टोकरी खरीद ली। डाम्बुक के सन्तरे बहुत ही मीठे और रसीले होते हैं।
डाम्बुक में पर्यटन को बढ़ावा देने की दृष्टि से वर्ष 2016 और 2017 में ऑरेंज फेस्टिवल का भी आयोजन किया गया था। यह उत्तर-पूर्व भारत के प्रमुख म्यूजिक फेस्टिवल में से एक माना जाता है, जिसमें मौज-मस्ती के साथ-साथ रोमांचक गतिविधियों का भी समावेश होता है। अभी धोला-सदिया पुल और फिर बोमजिर के पास दिबांग नदी पर पुल बन जाने से डाम्बुक पहुँचना बहुत ही आसान हो गया है।
थोड़ा समय वहाँ व्यतीत करने के बाद हम आगे की यात्रा पर निकल पड़े। डाम्बुक गाँव पार करते ही सड़क फिर से ख़राब हो जाती है। कार की स्पीड 20 किमी/घण्टा से ऊपर जाने का कोई चांस ही नहीं रहता। उस ख़राब सड़क के दोनों तरफ जगह-जगह पर स्थानीय निवासी संतरे से भरे टोकरे ले लेकर बैठे रहते हैं।
हिचकोले खाते हुए हम धीरे-धीरे आगे बढ़े । एक जगह सड़क पर बहुत पानी जमा था, कुछ अंदाजा नही था कि वहां गहराई कितनी है। बस भगवान का नाम लेकर मैंने गाड़ी पानी में कूदा दी। बाहर निकलने पर पता चला कि मड फ्लैप उलट गया था। गाड़ी से उतरकर मैं उसको ठीक करने लगा। तभी पास से एक स्कार्पियो गुज़री, जिसमें बैठे साहब हमें देखकर हँस रहे थे, मानों कह रहे हो कि यह लो ग्राउंड क्लियरेन्स वाली कार लेकर कहाँ आ गए तुम लोग। ख़ैर, मैंने मड फ्लैप को सीधा किया और आगे की तरफ बढ़ चले।
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ओहाली से पहले थोड़ी देर में एक और नदी सिस्सार के दर्शन होते हैं। दिल में फिर से धुकधुकी होती है कि एक बार फ़िर नाव पर गाड़ी चढ़ानी होगी। नदी की तलहटी पर फिर एक सफ़र शुरू हो गया, लेकिन धारा के पास पहुँचने पर देखा कि वहाँ नाव की जगह लकड़ी का एक पुल है, जिसपर से कार को निकलना है। इन लकड़ी के पुलों में भी एक दिक्कत है। पुल को मजबूती देने के लिए गाड़ी के पहियों के हिसाब से दोनों तरफ अतिरिक्त पटरे लगे होते हैं। गाड़ी को सीधा उन पटरों पर चढ़ाना होता है, फिर बिना इधर-उधर हुए पुल पर आगे बढ़ना होता है। धीरे-धीरे हमने सिस्सार नदी पर बने दोनों पुलों को पार कर लिया।
दिबांग नदी के दूसरी तरफ सिस्सार नदी के तट तक बोमजिर , डाम्बुक जैसे अनगिनत गाँव हैं। अब तो पुल और सड़क बन जाने से गाँव में खुशियों की बहार है, लेकिन सिर्फ कुछ महीने पहले साल में 5-6 महीने तक बाहरी दुनिया से कट कर रह जाना.. आज की भागती-दौड़ती प्रगतिशील दुनिया में तो ऐसी कल्पना करना भी मुश्किल है , लेकिन दोनों नदियों के बीच में फँसी हजारों की आबादी के लिए तो यह एक सच्चाई ही थी।
सिस्सार नदी पर भी एक स्थायी पुल बनाने की तैयारी चल रही है। लेकिन अभी उसके पूरा होने में थोड़ा समय लगेगा। दिबांग नदी पर पुल बन जाने के बाद रोइंग से डाम्बुक तक की रोड कनेक्टिविटी तो अच्छी हो गई है, लेकिन आगे सिस्सार नदी पर पुल नहीं होने के कारण पासीघाट पहुँचना अभी एक दुरुह कार्य है। बस अच्छी बात यह है कि पासीघाट से सिस्सार नदी के पास स्थित सिलुक गाँव तक बहुत अच्छी सड़क बनी हुई है। मतलब, जिस दिन भी सिस्सार नदी का पुल आवागमन के लिये बन जायेगा, रोइंग से पासीघाट का यह सफ़र बहुत ही आसान हो जाएगा।
सिलुक के आगे पासीघाट पहुँचने में हमें कोई दिक्कत नही हुई। सड़क अच्छी स्थिति में है। बस हम थोड़े-थोड़े अंतराल पर कहीं-कहीं फ़ोटो खींचने के लिए रुकते रहे। पासीघाट शहर पहुँचने से थोड़ा पहले हमें गुवाहाटी से चलने के बाद एक बार फिर ब्रह्मपुत्र नदी के दर्शन होते हैं। नदी के पुल से एक तरफ दिखते ऊँचे-ऊँचे पहाड़ और दूसरी तरफ समतल मैदान, पहाड़ से मैदान तक ब्रह्मपुत्र का यह सफ़र भी यही खत्म हो जाता है, उसके बाद तो ब्रह्मपुत्र बंगाल की खाड़ी तक पहुँचने से पहले समतल मैदानों में बहती रहती है।
ब्रह्मपुत्र पार करके हम पासीघाट की सीमा में प्रवेश करते हैं। आलो जाने वाली सड़क के तिराहे पर ही परमिट चेक करने के लिए एक चेकपोस्ट है, लेकिन किसी ने हमें रोका नहीं। शायद हम अरुणाचल प्रदेश के अंदर-अंदर ही चल रहे थे, इसलिये उन्हें परमिट चेक करने की जरूरत महसूस नही हुई होगी।
बिना टूटे-फूटे हम और हमारी कार आख़िरकार पासीघाट पहुँच ही गए। अरुणाचल प्रदेश के आलो, मेचुका जैसे क्षेत्रों में जाने के लिए पासीघाट एक प्रवेश द्वार की तरह है। अब तो पासीघाट हवाई अड्डे से हफ्ते में एक-दो दिन गुवाहाटी और कोलकाता के लिए विमान सेवा भी शुरू हो गई है। पासीघाट का बाज़ार वहाँ के निवासियों की भीड़भाड़ से गुलजार था।
पहले हमारी योजना पासीघाट में ही रात्रि विश्राम करने की थी। लेकिन वहाँ पहुँचकर लगा कि अभी अंधेरा होने में बहुत समय बाकी है। इसलिए हमने सोचा कि लंच करके पासीघाट से आगे बढ़ेंगे और असम में धेमाजी में रात्रि विश्राम करेंगे। लंच करने के बाद हम धेमाजी के लिए निकल पड़े। सड़क बहुत अच्छी स्थिति में होने के कारण बिना किसी दिक्कत के 8 बजे तक हम धेमाजी पहुँच गए। हमने वही रात्रि विश्राम के लिए एक कमरा ले लिया।
धेमाजी से आगे माजुली की यात्रा : असम में धेमाजी से माजुली द्वीप की सड़क यात्रा
इस तरह पूरे दिन की यात्रा में हम रोइंग से चलकर धेमाजी पहुँच गए। यह एक ऐसा सफर था , जिसमें हमें एक अनजाना डर हमेशा लगा रहा। डर को काबू में करके हमने अपना सफर पूरा तो कर लिया, लेकिन ना तो अभी कार की नावों पर सवारी खत्म हुई थी, ना ही नदियों पर लकड़ी के पुलों से कार गुजारने का भयमिश्रित रोमांच और ना ही ये उबड़-खाबड़ रास्ते। धेमाजी के आगे हमारी अगली मंजिल थी ब्रह्मपुत्र नदी के बीच स्थित दुनिया का सबसे बड़ा द्वीप “माजुली”, जहाँ हमें अगले दिन पहुंचना था। बस फर्क इतना था कि जब हम रोइंग से चले थे, तो अंदर ही अंदर एक डर बना हुआ था, लेकिन धेमाजी से आगे की यात्रा में हम आत्मविश्वास से लबरेज थे।
बहुत बढ़िया रोमांचक नदी पार करने वाली यात्रा….सिसर नदी पर बना पुल शायद कुछ महीने पहले शुरू हो गया है अब..
दाम्बुक से पासीघाट होकर घूम कर रोइंग नहीं जाना होता है
मेने सूना है पुल बन कर चालु हो गया है
हाँ, रोइंग से दाम्बुक के बीच का पुल चालू हो गया है ।