असम के जोरहाट शहर के पास ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में स्थित दुनिया का सबसे बड़ा नदी द्वीप, माजुली का एक सामान्य और आमतौर पर दिया जाने वाला परिचय है। जब भी माजुली के बारे में मैंने किसी से बात की तो दिल में एक ही छवि उभरी की विशाल ब्रह्मपुत्र की धाराओं के बीच किनारों से काफी दूर स्थित होगा ये माजुली नाम का द्वीप, जहाँ पहुँचने के लिए नाव के अलावा और कोई साधन नहीं है। गूगल मैप में देखे तो ब्रह्मपुत्र इतनी चौड़ी तो लगती है कि माजुली जैसा नदी द्वीप बन सके। फिर वह दिन भी आया, जब मैं अपने परिवार के साथ माजुली द्वीप घूमने के लिए चल पड़ा। लेकिन इस सफ़र में हमारी सवारी नाव नही, बल्कि एक कार थी।

जब हम अपनी असम यात्रा के दौरान माजुली पहुँचे, तो वास्तविकता थोड़ी सी अलग लगी। असली माजुली द्वीप मेरी कल्पनाओं वाला माजुली था ही नही। धेमाजी से प्रस्थान करने के बाद उबड़-खाबड़ रास्तों पर चलते हुए कुछ छोटी-छोटी नदियाँ पारकर हम सड़क मार्ग से ही माजुली पहुँच गए। ना तो कहीं ब्रह्मपुत्र नदी के दर्शन हुए, जिसकी धाराओं में यह द्वीप स्थित है और ना ही किसी और बड़ी नदी के। मुझे लगा कि ये क्या बात हो गयी। घूमने आये थे द्वीप और घूम रहे हैं ये खेत-खलिहान। कहाँ छुप गया माजुली द्वीप, जिसके किस्से-कहानियों में इसकी नयनाभिराम सुंदरता के बारे में सुनते ना थकते थे। बहुत खोजबीन की तो पता चला कि ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि माजुली के विशाल विस्तार में हम उस तरफ से प्रवेश कर रहे थे, जिधर से ब्रह्मपुत्र की सबसे पतली धारा इसको घेरती है। माजुली को तीन तरफ से तो ब्रह्मपुत्र और सुबनसिरी जैसी बड़ी नदियों ने घेर रखा है, लेकिन इस नदी द्वीप में प्रवेश करने के लिए जेन्ग्रीमुख के पास एक छोटी नदी को पार करना पड़ता है। इसीलिए पता नहीं चलता कि कब हम असम की मुख्य भूमि से निकलकर माजुली द्वीप पहुँच जाते हैं।

 माजुली में लोहित नदी
माजुली में लोहित नदी

सच पूछिए तो अगर जेन्ग्रीमुख में ‘वेलकम टू माजुली’ वाला बोर्ड ना हो तो पता भी नहीं चलेगा कि हम माजुली द्वीप पर पहुँच गए हैं। माजुली जाने वाले ज्यादातर पर्यटक जोरहाट के पास निमतीघाट से फेरी पकड़कर, ब्रह्मपुत्र की विशाल धारा को पार करके माजुली पहुँचते हैं। माजुली में प्रवास के दौरान विशाल क्षेत्र में फैले होने के कारण इसके द्वीप होने, ना होने का एहसास ही नही होता है। उसके बाद वही पर्यटक माजुली से फेरी द्वारा वापस निमतीघाट निकल लेते हैं। इस तरह उनकी कल्पना में तो माजुली एक द्वीप की तरह ही बैठा रहता है।

धेमाजी से माजुली की यात्रा का विवरण : धेमाजी से माजुली द्वीप की सड़क यात्रा

माजुली हमारे लिए भी एक द्वीप ही था, लेकिन जैसा सोचा था वैसा नही। माजुली में नदियों का प्रवाह हमेशा एक जैसा नहीं रहता है। कभी यही ब्रह्मपुत्र नदी, लोहित के नाम से माजुली के उत्तर में बहती थी। माजुली के दक्षिण में दिहिंग नदी बहती थी। लोहित और दिहिंग आगे लाखू में मिलकर माजुली को तीन तरफ से घेरती थी। लेकिन ब्रह्मपुत्र नदी का व्यवहार हमेशा एक मस्तमौला घुम्मकड़ जैसा रहा है। आज मन किया तो इधर से बह लिया, कुछ साल बाद मन किया तो उधर से बह लिया। ब्रह्मपुत्र के इसी स्वभाव की वजह से इसके तटीय क्षेत्रों में अक्सर बाढ़ आती रहती है और इसकी धारा अपनी दिशा बदलती रहती है। कभी माजुली के उत्तर से बहने वाली ब्रह्मपुत्र, अब इसके दक्षिण से बहती है और दिहिंग से इसका मिलन शिवसागर और डिब्रूगढ़ के बीच में ही हो जाता है। माजुली की उत्तरी सीमा अब सुबनसिरी (कुछ लोग खाबोलू नदी भी बोलते हैं) और उसकी सहायक नदियों से बनती है।

धीरे-धीरे चलते हुए हम गारमुर (गढ़मूर, Garmur) पहुँच गए। वहाँ लोहित नदी के किनारे ही हमारा बैम्बू हाऊस था (यह परशुराम कुण्ड या धोला-सदिया वाली लोहित नदी नही है, उसकी तुलना में तो यह बहुत ही छोटी नदी है)। थोड़ी देर में तरोताजा होकर हम अपने गेस्ट हाऊस से निकलकर माजुली में घूमने-फिरने के उद्देश्य से निकल पड़े। माजुली में किसी पयर्टक के लिए मुख्यतः पाँच तरह के आकर्षण हैं-

1. वैष्णव सत्र- सरल शब्दों में हम सत्र को वैष्णव धर्म की मोनेस्ट्री बोल सकते हैं । असम में नव-वैष्णव परम्परा के वाहक ये सत्र असम की समृद्धशाली सांस्कृतिक विरासत में एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। 15वीं शताब्दी में महान विचारक श्रीमंत शंकरदेव ने आचार्य माधवदेव के साथ मिलकर असम में वैष्णव धर्म का प्रचार प्रसार शुरू किया। कभी माजुली में 60 के लगभग सत्र हुआ करते थे, लेकिन ब्रह्मपुत्र की कटान के कारण जैसे-जैसे माजुली का क्षेत्रफल घटता गया, सत्रों का अस्तित्व भी घटता गया। आज माजुली में लगभग 22 सत्र और बचे हुए हैं।

सामागुड़ी सत्र में मुखौटे
सामागुड़ी सत्र में मुखौटे

2. ब्रह्मपुत्र नदी- ब्रह्मपुत्र नदी का फेरी घाट, दूर दूर तक फैली रेत और सूर्यास्त के सुहाने दृश्यों को कैद करने के लिए माजुली एक उम्दा जगह है। ब्रह्मपुत्र सिर्फ एक नदी नही है, यह असम या माजुली के लोगों के लिए एक वरदान है। उनके अस्तित्व का आधार है । लेकिन साथ ही साथ नदी का विकराल रूप हर किसी के लिए एक अभिशाप भी है। असम में जिंदगी जैसे ब्रह्मपुत्र के साये में ही आगे बढ़ती है । माजुली उसी जिंदगी को बिल्कुल पास से देखने का एक अवसर देता है।

 जोरहाट को जाती एक नाव
जोरहाट को जाती एक नाव

3. वेटलैंड्स (Wetlands): माजुली की सबसे ऊँची जगहें यहाँ की सड़कें हैं। माजुली की सड़कों को छोड़कर ऐसा कुछ भी नही है, जो ब्रह्मपुत्र की पहुँच से दूर हो। बारिश में जब नदी का जलस्तर बढ़ता है तो हर तरफ सिर्फ पानी ही पानी दिखता है। यही पानी माजुली में हर तरफ वेटलैंड्स का जाल बनाता है, जिसकी प्राकृतिक सुंदरता देखते ही बनती है।

माजुली में खाली पड़े खेत
माजुली में खाली पड़े खेत

4. पक्षी: वेटलैंड्स की बहुतायत के कारण माजुली में विभिन्न प्रजातियों के पक्षी दिख जाया करते हैं। पक्षी-प्रेमियों के लिए माजुली की धरती एक स्वर्ग की तरह है।

5. स्थानीय जनजीवन: इन सभी बातों के अलावा माजुली के निवासियों का स्थानीय जीवन भी पर्यटकों के आकर्षण का केंद्र है। बाँस की ऊंची-ऊंची बल्लियों पर बने घर, सड़क पर कटती हँसती-खेलती जिंदगी, जीवन देने वाली नदी से जीवन बचाने की जद्दोजहद और इस सबके बीच हर त्यौहार में सत्रों के रंगारंग उत्सव और स्थानीय नागरिकों का पूरे उत्साह के साथ उनमें भाग लेना..माजुली में जीवन के कई रूप देखने को मिल जाते हैं।

श्रीमंत शंकरदेव ने भगवान कृष्ण के जीवन पर आधारित कई तरह के नाटकों और नृत्य मुद्राओं पर काम किया, ताकि जनमानस तक बातों को पहुंचाने में आसानी हो। उनके बाद सत्रों ने नृत्य की उस परम्परा को जीवित रखा। परिणामस्वरूप सत्रीया नृत्य (Sattriya Dance) को भारत की आठ पारम्परिक नृत्य शैलियों में से एक का दर्जा मिला। त्यौहारों के अवसर पर ये नृत्य, रासलीलाएं और नाटक मंचन माजुली के निवासियों की जिंदगी का एक अभिन्न अंग बन जाते है। उन अवसरों पर माजुली की शोभा देखते ही बनती है।

माजुली का एक गाँव
माजुली का एक गाँव

अपने बैम्बू हाऊस से निकलकर सबसे पहले हम गढ़मूर सत्र गए। 17वीं शताब्दी में बने इस सत्र के प्रवेश द्वार में घुसते ही आश्रम वाली अनुभूति होने लगती है और मन में असीम शांति का आभास होता है। हरे-भरे पेड़ों के बीच से गुजरते हुए हम टिन शेड की छत वाले मुख्य भवन के पास पहुँच गए। अंदर बरामदे में विष्णु भगवान के वाहन गरुड़ जी की एक भव्य मूर्ति है। आगे बढ़ते हुए हमने पूरे क्षेत्र का एक चक्कर लगाया। सत्र में घूमने के लिए कोई विशेष आकर्षण या स्थान नही होता है, पूरा सत्र ही एक तरह का सांस्कृतिक और आध्यात्मिक केंद्र होता है, जहाँ श्रीमंत शंकरदेव द्वारा प्रचारित वैष्णव धर्म की शिक्षा-दीक्षा होती है।

गढ़मूर में हमारा बम्बू हाऊस
गढ़मूर में हमारा बम्बू हाऊस

गढ़मूर सत्र के बाद हमारी अगली मंजिल माजुली का सबसे बड़ा कमलाबाड़ी सत्र था। यह माजुली का सबसे प्रसिद्ध सत्र है। यहाँ भी मुख्य द्वार से प्रवेश कर हम खेतों और पेड़ों के मध्य से मुख्य पूजा स्थल की तरफ गए। रास्ते के एक तरफ बहुत लम्बा बरामदा है। बरामदे के एक किनारे समानान्तर एक ही पंक्ति में एक बाद एक कई कमरे बने हुए हैं। यह सत्र में शिक्षा-दीक्षा लेने आये लोगों के निवास स्थान है।

कमलाबाड़ी सत्र में रहने के कमरे
कमलाबाड़ी सत्र में रहने के कमरे

मुख्य पूजा स्थल एक बड़ी सी हाल जैसी संरचना है, जहाँ ना तो कोई सहज आकर्षित करने वाली मूर्ति जैसी कोई चीज है और ना ही कोई और विशेष बात। लेकिन फिर भी कमलाबाड़ी सत्र की महत्ता असम के सांस्कृतिक जीवन में एक महत्वपूर्ण योगदान अदा करती है। एक छोर पर स्थित प्लेटफॉर्म के ऊपर मूर्ति जैसी एक संरचना थी तो, लेकिन सब कुछ एक सफेद-पीली चादर से ढका हुआ था। अभी बाहर निकले ही थे कि सुन्दर-सुन्दर लड़कियों का एक झुण्ड पारम्परिक साड़ी पहने वहाँ पहुँचा। हम भी उनकी पूजा पद्धति देखने के लिए रूक गए। एक आचार्य/पुजारी ने आकर कुछ मन्त्र वगैरह पढ़ें होंगे और थोड़ी ही देर में पूजा सम्पन्न हो गई। कुछ आडम्बर नही लगा, कोई बोरियत भी नही थी और ना ही दक्षिणा की कोई चिकचिक।

कमलाबाड़ी सत्र का मुख्य प्रार्थना कक्ष
कमलाबाड़ी सत्र का मुख्य प्रार्थना कक्ष

कमलाबाड़ी सत्र में पर्यटकों के रुकने के लिए गेस्ट हाऊस की भी व्यवस्था है। जहाँ शुद्ध-सात्विक भोजन के साथ रात्रि विश्राम किया जा सकता है। कमलाबाड़ी से निकलकर हम ऑनियाती सत्र (Auniati Satra) की तरफ बढ़े। वहाँ जाने वाले रास्ते पर जगह-जगह निर्माण कार्य चल रहा था। किसी तरह हम आगे बढ़ते रहे, लेकिन करीब 3 किमी चलने के बाद रास्ता इतना खराब मिलने लगा कि हमने आगे बढ़ने का इरादा त्याग दिया।

वापस लौटकर हम कमलाबाड़ी बाजार पहुँच गए। अब कोई और सत्र घूमने से पहले हम ब्रह्मपुत्र को देखना चाहते थे। बस यही सोचकर हम कमलाबाड़ी घाट की तरफ बढ़ गए। कमलाबाड़ी घाट तो माजुली में एक ही है, लेकिन उसकी जगह स्थिर नही है। कमलाबाड़ी घाट की सड़क पर चलते-चलते हम उसके आखिरी छोर पर पहुँच गए। जहाँ सड़क खत्म होती है, वही से ब्रह्मपुत्र का अपना इलाका शुरू होता है। वैसे तो ब्रह्मपुत्र की धारा जब अपने विकराल रूप में आती हैं तो उसके लिए कोई सीमा, कोई सड़क मायने नही रखती, लेकिन फिर भी साल में ज्यादातर समय जब यह अपने दायरे में रहती है तो कमलाबाड़ी घाट को जाने वाली सड़क की अंतिम सीमा को ही कमलाबाड़ी घाट कह सकते हैं। फिर जैसे-जैसे ब्रह्मपुत्र की धारा सिकुड़ती जाती है, वैसे-वैसे ही कमलाबाड़ी घाट, वहाँ का पूरा लाव-लश्कर, जोरहाट और माजुली के बीच चलने वाली बड़ी-बड़ी नावें, सब धारा के साथ-साथ खिसकते जाते हैं।

कमलाबाड़ी घाट वाली सड़क के आखिरी छोर पर खड़े होकर हम ब्रह्मपुत्र की धारा को खोज रहे थे। दूर जहाँ तक नजर जाती थी, सिर्फ रेत और रेत ही नजर आती थी। रेत के बीच में पहियों के निशान से बनी एक सड़क बता रही थी कि कमलाबाड़ी घाट बहुत आगे तक खिसक चुका है। सड़क के किनारे दोनों तरफ पतली घास की ऊँची-ऊँची झाड़ियाँ थी। अब बिना ब्रह्मपुत्र के दर्शन किये तो वापस लौटने का सवाल ही नही था, इसलिए मैंने भी गाड़ी रेत में बने रास्ते पर चढ़ा दी। पूरे रास्ते पर किनारे वाली घास की झाड़ियों को काटकर बिछाया गया था। अगर यह घास ना बिछी हो तो गाड़ी के पहिये कब रेत में समा जाएंगे, पता भी नहीं चलेगा। उस रास्ते पर भी चलने में सावधानी रखनी पड़ रही थी, जरा भी रास्ते से इधर-उधर हटे तो रेत में धँसे। विपरीत दिशा से आती गाड़ियों को पास देने के लिए कुछ जगहों पर घास थोड़ा चौड़ाई में बिछा दी गई थी।

ब्रह्मपुत्र का रेतीला मैदान
ब्रह्मपुत्र का रेतीला मैदान

रेत की उस सड़क पर करीब 2 किमी चलने के बाद हमें ब्रह्मपुत्र का किनारा नजर आया। टिन के 8-10 छप्परों ने कमलाबाड़ी घाट को अस्थाई रूप से रेत के उस वीराने में बसा दिया था। उन छप्परों में कुछ चाय-पान की दुकानें थी और कुछ घाट पर काम कर रहे लोगों के रात्रि में विश्राम करने के स्थान। असम के नदी जल परिवहन निगम की एक फेरी पर कारें चढ़ाई जा रही थी। कार लदने के बाद फेरी पर बाइक लादी जाती हैं और आखिरी में लोग एक-एक कर सवार हो जाते हैं। काउंटर के सामने 10-15 कारों की लंबी कतार है। एक फेरी पर 7-8 कार ही जा सकती है। इसलिए सभी कारों को निकलने में बड़ा समय लग जाता है। फिर भी यहां से फेरी द्वारा सिर्फ 2 घण्टे में जोरहाट पहुँच जाने से असम के मुख्य भूभाग में पहुँचने में कम ही समय लगता है। लखीमपुर होकर माजुली तक कार द्वारा आने में तो काफी समय लग जाता है और सड़कें भी बहुत अच्छी नहीं हैं। एक पल के लिए तो मैंने भी सोचा कि माजुली से निकलने के लिए मैं भी फेरी पकड़कर ही जोरहाट चला जाऊँगा, लेकिन फिर कारों की कतार देखकर मैने वो इरादा त्याग दिया।

ब्रह्ममपुत्र के किनारे कमलाबाड़ी घाट
ब्रह्ममपुत्र के किनारे कमलाबाड़ी घाट

सामने ब्रह्मपुत्र शान्त गति से धीरे-धीरे बह रही थी। उसके उस मनभावन रूप को देखकर तो किसी को भी भरोसा नही होगा कि ब्रह्मपुत्र का एक दूसरा प्रलयंकारी रूप भी है। नदी तट पर पिकनिक मनाने वाले लोगों की भीड़ जमा थी। जगह-जगह गाना बज रहा था और लोग खुशी से नाच रहे थे।

कुछ समय वहाँ बिताकर हम वापस कमलाबाड़ी बाजार आ गए। अब हम सबसे पहले मॉस्क बनाने के लिए प्रसिद्ध शामागुड़ी (Chamaguri) सत्र देखना चाहते थे। सत्र की कमलाबाड़ी बाजार से दूरी करीब 12 किमी है। माजुली के ग्रामीण इलाकों में काफी ऊंचाई पर स्थित सड़क पर हम चले जा रहे थे। सड़क की ऊँचाई किनारे के खेतों और घरों की तुलना में बहुत ज्यादा थी । अगल-बगल के खेतों में देखने मे डर लग रहा था कि कहीं सड़क से फिसलकर नीचे ना चले जाएँ । जगह-जगह बाँस की बल्लियों पर बने घर नजर आ जाते थे। बल्लियों पर खड़े होने से इन घरों के अंदर बाढ़ का पानी जल्दी नहीं पहुँच पाता। नीचे खेतों में अक्सर पानी भर जाने से साँप-बिच्छू जैसे जानवरों से भी सुरक्षा रहती है। बाँस के ऐसे घरों को छांग घर कहते हैं। माजुली में रहने वाले मिशिंग (Mishing ) जनजाति के ज्यादातर लोग ऐसे घरों में ही रहते हैं।

बाँस की बल्लियों पर खड़े छांग घर
बाँस की बल्लियों पर खड़े छांग घर

जब हम शामागुड़ी सत्र पहुँचे तो शाम हो चुकी थी। यह हमारी किस्मत ही थी कि हमें सत्राधिकारी श्री हेम चंद्र गोस्वामी से व्यक्तिगत रूप से मिलने का मौका मिला। मुखौटा निर्माण की इस कला को पारम्परिक रूप से आगे बढ़ाने में गोस्वामी जी के योगदान को देखते हुए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिल चुका है। उन्होंने हमें इस विरासत के बारे में काफी विस्तार से समझाया। वह हमें शामागुड़ी सत्र के मुखौटों वाले कमरे में ले गए। जिधर देखो उधर मुखौटे ही दिख रहे थे। ज्यादातर मुखौटे रामायण और महाभारत के पात्रों पर आधारित होते हैं। वहां परमवीर हनुमान, बलशाली सुग्रीव, दस सिर वाले रावण, सूपर्णखा से लेकर नरसिंह अवतार तक के ढेरों मुखौटे हैं। कुछ मुखौटों में तो आँख और होठों को भी बड़े अच्छे तरीके से घुमा-फिरा सकते हैं। इनकों बनाने में मुख्यतः बाँस , मिट्टी और प्राकृतिक रंगों का प्रयोग होता है। जब सांस्कृतिक कार्यक्रमों के दौरान रामायण या महाभारत पर आधारित कहानियों का मंचन होता है तो उस समय ये मुखौटे पात्रों को सहज ही सजीव कर देते हैं। माजुली में मुख्यतः होने वाले ऐसे सांस्कृतिक कार्यक्रमों के इन नाट्य मंचनों को भावना ( Bhaona ) कहा जाता है।

एक पर्यटक मुखौटा आजमाते हुए
एक पर्यटक मुखौटा आजमाते हुए

मुखौटों के संसार से वाकिफ होने में समय का पता ही नहीं चला और अँधेरा होने लगा। माजुली के वीरानों में अँधेरा मतलब घर वापसी। धुप्प अँधेरे में कहीं कुछ सूझता ही नहीं, इसलिए हम भी सीधे गढ़मूर अपने गेस्ट हाऊस की तरफ निकल पड़े। लेकिन माजुली का यह सफर अभी खत्म नहीं हुआ था। अभी तो हमें माजुली के और अंदरूनी हिस्सों की खाक छाननी थी, जिसकी कहानी अगले पोस्ट में जारी रहेगी ।

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