सितम्बर के महीने में एक दिन मन किया कि नागालैंड राज्य मे कोहिमा के पास स्थित जूको वैली (Dzukou Valley) का ट्रेक कर लिया जाये । जूको वैली का ट्रेक पूर्वोत्तर भारत में बहुत ही पॉपुलर है । इसलिए एक दिन ऑफिस से छुट्टी लेकर ट्रेन द्वारा सुबह-सुबह डिमापुर (मुझे तो दीमापुर लगता था, लेकिन रेलवे स्टेशन के बाहर लगे बोर्ड से पता चला कि डिमापुर है) पहुँच गया । नागालैंड एक्सप्रेस के पहुँचने का समय तो 5.30 बजे था, लेकिन 5.00 बजे ही ट्रेन पहुँच गई । लंबे अरसे के बाद ऐसा हुआ कि मैं जिस ट्रेन में था, वो समय पर या समय से पहले गंतव्य पर पहुँच गई ।
डिमापुर स्टेशन से बाहर निकलते ही झटका लगा । मुझे तो लगा था कि कोहिमा के लिए शेयर्ड गाड़ियां लाइन लगाकर खड़ी होंगी और 100-200 रुपये में कोहिमा पहुँच जाऊंगा । लेकिन यहाँ तो गाड़ियों का अकाल था । पता चला कि रविवार के दिन नागा लोग सिर्फ छुट्टी मनाते हैं और चर्च जाना पसन्द करते हैं, इसके अलावा और कोई काम नहीं । एक मारुति 800 वाले भाई साहब 400 रुपए माँगने लगें । खैर 350 रुपये में बात बन गई और तीन अन्य सवारियों के साथ हम बढ़ चले कोहिमा की तरफ ।
डिमापुर से कोहिमा के रास्ते की हालत बहुत ही खराब है । धूल, मिट्टी और फिर कीचड़ ही कीचड़ । तुरंत ही भालुकपोंग से बोमडीला वाली यात्रा की यादें ताज़ा हो गई । सोचता था कि कभी अपनी कार लेकर नागालैंड में घूमने आऊँगा, लेकिन अब तो लगता है कि ज्यादा से ज्यादा बाइक से ही आना ठीक रहेगा, कार से तो आना बेवकूफी होगी । सड़क पर कही-कही मिल रहे तारकोल से समझ आता था कि यह सड़क भी कभी अच्छी स्थिति में रही होगी, लेकिन अब तो इस सड़क पर चलना एक जंग लड़ने जैसा है ।
डिमापुर से आगे एक जगह चेकपोस्ट पर इनर लाइन परमिट चेक हुआ । नागालैंड राज्य मे डिमापुर जिले के लिए तो कोई परमिट नही चाहिए होता है, लेकिन बाकी जिलों में घूमने के लिए नागालैंड के निवासियों को छोड़कर अन्य भारतीय नागरिकों को इनर लाइन परमिट की जरूरत पड़ती है । परमिट चेक कराने के बाद फिर सड़क पर खड़-खड़ करते आगे बढ़ गये । सड़क तो खराब थी, लेकिन सड़क के एक तरफ ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों की हरी-भरी वादियों में उठते सफेद बादलों ने यात्रा का दर्द थोड़ा कम कर दिया था । कैब वाले को तो जैसे अपनी गाड़ी की चिंता ही नहीं थी, कहीं भी कूदा दे रहा था। गाड़ी का तो पता नही लेकिन कोहिमा पहुँचते-पहुँचते हमारे अस्थि-पंजर ढीले हो चुके थे ।
कोहिमा पहुँचने पर एक बार फिर झटका लगा । पूरा कोहिमा ही बंद लग रहा था । वही रविवार वाली बात । सब लोग छुट्टी मना रहे थे । एक बार तो दिमाग मे आया कि रविवार की रात कोहिमा में बिताकर सोमवार को आगे जाऊँ । फिर सोचा कि एक बार AOC बस स्टैंड पहुँचकर पता कर लूँ, शायद कोई सूमो मिल जाये । बस पैदल चलता मैं AOC बस स्टैंड पहुँच गया । वहाँ सही में कोई सूमो नहीं थी । अब समझ में नही आ रहा था कि क्या करूँ । फिर लगा कि कोहिमा ही रुकना चाहिये । होटल लेने से पहले मैंने सोचा कि सामने कुछ दूरी पर दिख रहा कोहिमा का प्रसिद्ध चर्च ही घूम आऊँ ।
मैं आगे चर्च की ओर बढ़ने लगा । तभी एक मारुति आल्टो वाले साहब ने पूछा कि कहाँ जाना है, मैंने बताया कि जखामा । उन्होंने बोला कि आज तो कोई गाड़ी शेयर्ड मिलेगी नहीं, रिजर्व 600 रुपये में चलेंगे । मैंने मना कर दिया कि आज नही कल जाऊँगा । आगे बढ़ने पर मैंने सोचा कि कोहिमा में कमरा 1000 रुपये तक मिलेगा । अगर मैं योजना के मुताबिक जूको वैली पहुँच जाता तो सिर्फ 50 रुपये में डारमेट्री मिल जाती। 500 रुपये तक की गाड़ी रिज़र्व करने मे कोई बुराई नही नजर आ रही थी । इससे एक फायदा यह भी होता कि यात्रा के आखिरी दिन मुझे जूको से कोहिमा की भागादौड़ी नही करनी पड़ती । बल्कि आखिरी दिन मैं आराम से कोहिमा में रहकर सुविधानुसार डिमापुर के लिए निकल जाता ।
लेकिन फिर भी एक दिक्क्त थी । मैंने सुन रखा था कि विश्वेमा (विशेमा, Vishwema Village) से होकर जूको वैली जाने वाला रूट जखामा (Zkhama Village) वाले रुट की तुलना में आसान है । लेकिन विश्वेमा की गाड़ी रिज़र्व करने पर ज्यादा पैसे देने पड़ते । विश्वेमा वाले रूट पर एक दिक्कत और थी । ट्रेक शुरू करने के पहले साधारण सी सड़क पर 8 किमी पैदल चलना पड़ता है । इससे बचना हो तो गाड़ी रिज़र्व करनी पड़ती है, जिसमे 700-800 और रुपये लगते हैं । यही सब गणित करता मैं कोहिमा की सड़कों पर निरुद्देश्य ही चला जा रहा था । तभी एक खाली गाड़ी सड़क के किनारे खड़ी दिखाई दी । मैंने पूछा जखामा का कितना लोगे, जवाब मिला 500 रुपये । पिछले वाले से 100 रुपये कम । थोड़ा मोलभाव हुआ और 450 रुपए में हम चल पड़े जखामा की ओर ।
नेपाली ड्राइवर बहुत ही भला आदमी था । पहले तो उसने बहुत डराया कि अकेले मत जाओ, किसी को साथ ले लो । लेकिन जब उसको लगा कि लड़का रुकेगा नही, तो उसने बड़े प्यार से समझाया कि जहाँ उतारूँगा वहाँ से सीधे चले जाना, जंगल मे डरना मत, लोग तो जाते ही रहते हैं वगैरह-वगैरह । फिर उसने मुझे जखामा गाँव से आगे जूको वैली को जाने वाले रास्ते पर छोड़ दिया ।
जूको वैली को दर्शाता एक साइनबोर्ड वहाँ बना हुआ है । एक कच्चा रास्ता ऊपर की तरफ जा रहा था । मैं उस रास्ते पर चल पड़ा । शुरू में तो 2-3 जगह 2-2 रास्ते मिल गए, लेकिन आसपास काम कर रहे लोगों से पूछकर मैं आगे बढ़ता रहा । जो भी मिलता एक ही सवाल पूछता िक अकेले जा रहे हो क्या? डर नहीं लगेगा जंगल में ? एक आदमी ने डरा दिया कि ऊपर वैली में कोई नही मिलेगा, रात गुफा में गुजारनी पड़ेगी और खाने का इंतजाम खुद करना होगा । लेकिन मुझे उसकी बात पर भरोसा नही हुआ, कुछ 20-25 दिनों में ही जूको वैली फेस्टिवल होने वाला है, ऐसा कैसे हो सकता है कि कोई उधर हो ही नही । मैंने उसे नजरअंदाज कर दिया । करीब 20-25 मिनट तक चलने के बाद सड़क के किनारे झोपड़ी में एक आदमी दिखाई दिया । मैंने उससे पूछा तो उसने कहा कि लोग इधर ही आ जाते हैं, लेकिन रास्ता नदी के दूसरी तरफ से है । फिर वही पास से ही नदी को पार करने का रास्ता बता दिया । पहली सलाह तो यही रही कि जखामा से अगर ट्रेक शुरू कर रहे हैं तो शुरू करने के 10-15 मिनट के बाद ही साथ में बह रही नदी के दूसरे किनारे से जूको वैली को जाने वाली पगडंडी पर पहुँचने का प्रयास कीजिये। वैसे बारिश के मौसम में जब पानी भरा हो तो नदी को पार करना एक टेढ़ी खीर है ।
सही रास्ते पर पहुँचकर मैं आगे बढ़ चला । एक-दो जगह जूको वैली के रास्ते को दर्शाते साइनबोर्ड भी मिले । घनी झाड़ियों के बीच में से होकर गुजरना पड़ रहा था । सच कहें तो दिमाग में ख्याल आया कि कहीं बाबाजी (सर्प के लिए मेरे अपने दोस्तों की भाषा) के दर्शन तो नही हो जायेंगे । लेकिन फिर भी झाड़ियों से होकर बढ़ता ही रहा । थोड़ा आगे जाते ही चौड़ा रास्ता मिला । उस पर थोड़ा और आगे बढ़ा तो वाकई बाबाजी जैसा कुछ नजर आया । इतनी शांत मुद्रा में सीधा और सपाट, एक बार को तो लगा कि भ्रम हो गया है, लेकिन तभी लपलपाती जीभ बाहर निकली । मेरे दिमाग में कोई संशय नही रहा । समझ मे नही आ रहा थी कि क्या करूँ । हाथ में स्टिक थी, उसको ठोक सकता था, लेकिन लगा कि कहीं बाबाजी भड़क गए तो । बचपन मैंने एक गाँव मे गुजारा, इसलिए कभी इन बातों से ज्यादा डर नही लगा । लेकिन आजकल डर लगता है, क्योंकि ये अकारण ही कष्ट दे देते हैं, छोटे वालों से तो और भी लगता है, बच्चे होते हैं, ठीक से पता तो होता नही कि कितना जहर उड़ेलना है । कहीं ज्यादा उड़ेल दिया तो ? मैं वही खड़ा होकर इंतजार करने लगा । 2 मिनट लगा होगा बाबाजी को रास्ता देने में ।
यूँ तो मैं आगे बढ़ने लगा था, लेकिन मेरे पूरे आत्मविश्वास की बत्ती लग चुकी थी । आगे जंगल बहुत ही घना था । मैं हर कदम के पहले स्टिक से ठक-ठक करता, फिर आगे बढ़ता । देखा जाए तो उस रास्ते पर ठक-ठक का कोई खास फायदा नही था, लेकिन दिल को थोड़ी तसल्ली हो जा रही थी । नजरें चौकन्नी होकर रास्ते को दोनों तरफ से स्कैन करती जा रही थीं । हिमालय में तो कभी साँप का डर लगा ही नही । वहाँ तो हर बार यही लगता है कि इतनी ठण्ड में साँप कहा आएंगे। लेकिन यह तो पूर्वोत्तर था; जहाँ बारिश , जंगल, साँप सब कुछ आम था । ऐसा डर तो बस एक बार अंडमान और निकोबार द्वीपसमूह के हैवलॉक द्वीप पर मुख्य रास्ते से उतरकर घना जंगल पार कर एलिफैंट बीच पर जाते समय लगा था । अंडमान द्वीपसमूह भी अपने विषैले साँपों के लिए मशहूर है । लेकिन तब और अब की स्थिति में बहुत फर्क था । तब मैं केवल चप्पल में हॉफ पैंट पहने जंगल में घुस गया था । यहाँ मैं ट्रैकिंग शूज पहने, ऊपर से नीचे तक ढका हुआ था । जरूरत पड़ने पर हॉफ टी-शर्ट के ऊपर पूरी बाँह ढकने का भी जुगाड़ था । जूको वैली के ट्रेक के लिए दूसरी सलाह यह है कि जंगलों से गुजरते समय अपना पूरा शरीर ढक के रखें । यह झाड़ियों से भी बचाएगा ।
थोड़ी देर बाद झाड़ियाँ इतनी घनी हो गई कि बस पैर रखने भर का रास्ता नजर आता था। धीरे-धीरे झाड़ियों के अगल-बगल बड़े-बड़े पेड़ भी मिलने लगे । अब तो जंगल बहुत ही घना हो गया था और भरी दुपहरी में भी शाम का एहसास हो रहा था । फिर मिट्टी के रास्तों की जगह पत्थरों ने ले ली । अभी तो पत्थरों पर कोई दिक्कत नही थी, लेकिन बारिश में इनपर बहुत सावधानी से चलना पड़ता होगा । इन पत्थरों पर चलते समय सन्तुलन बनाये रखने में ट्रेकिंग स्टिक बड़ी काम आती है । जूको वैली ट्रेक के लिए तीसरी सलाह यह है कि इस ट्रेक रूट पर अच्छी क्वालिटी के जूते और ट्रेकिंग स्टिक के साथ जाएं । ट्रेकिंग स्टिक ना भी हो तो जंगल से एक टहनी तोड़ कर अपने साथ रखें । लेकिन जूतों के साथ कोई समझौता नहीं । मुझे ऊपर जूको वैली में 72 साल की एक महिला भी मिली, और कम से कम 10 ऐसी महिलाएं भी थी, जिनके पास ट्रेकिंग शूज जैसा कुछ नही था । लेकिन यह जरूरी नही कि उन्होंने ट्रेक कर लिया तो आप भी कर लेंगे ।
पत्थरों पर बचते-बचाते मैं आगे बढ़ता रहा । फिर अगली दिक्कत से सामना हुआ, वो थी बरसाती नदियाँ। अभी तो नदियाँ बिल्कुल सूखी थी, लेकिन बारिश में जब ये नदियाँ उफ़ान पर आती हैं तो इनको पार करना बहुत ही खतरनाक काम होता है । ऐसा भी सुना है कि पिछले कुछ वर्षों में ऐसी कोशिश में कुछ लोग बह भी गए हैं । अगली सलाह यही है कि बारिश में जूको वैली से दूर ही रहें, लेकिन जूको वैली के फूल तो उसी समय खिलते हैं । तो अगर बारिश में जाने का मन बना लें तो एक स्थानीय आदमी को गाइड के तौर पर जरूर रख लें । जहाँ तक सम्भव हो, जखामा वाले रूट से ना ही जाएँ और विश्वेमा वाले रूट का प्रयोग करें ।
वैसे इस समय भी सूखा होने के बावजूद बरसाती नदियों को पार करना बड़ी टेढ़ी खीर थी । पत्थरों के ऊपर काई जमा होने की वजह से बहुत फिसलन थी । ऐसे ही एक बड़े पत्थर को पार करने में मैं बुरी तरह से फिसल गया । वो तो मैं सावधान था और थोड़ा स्टिक से मामला सम्भल गया इसलिए पैर में बस खरोंच आयी, अन्यथा हड्डी टूटना तो तय था । वैसे जूको ट्रेक में एक दिक्कत यह भी है । इंडोनेशिया में रिंजानी पर्वत की ट्रेकिंग में रास्ते मे पड़ी फिसलन भरी मिट्टी के कारण ऐसे हालात थे कि लोग गिर जाते थे या उस पर सरकने लगते थे । लेकिन यहाँ जूको वैली के ट्रेक पर जब तक आप जंगल मे हैं, फिसल कर गिरना बिल्कुल मना है, चाहे जखामा की तरफ़ से जाएं या फिर विश्वेमा की तरफ से । वैली के अंदर तो मिट्टी वाले रास्ते हैं, इसलिए वहाँ फिर भी ठीक है । लेकिन दोनों तरफ के जंगलों में अधिकांशतः पत्थरों वाले रास्ते हैं । यहाँ फिसलकर गिरे तो पैर, पीठ, कमर कही ना कही टूट फूट जरूर होगी, इसलिए इस रास्ते पर बहुत सावधानी बरतनी पड़ती है ।
मैं हाँफते, सुस्ताते फिर हाँफते आगे बढ़ता जा रहा था । किसी और इंसान का कोई नामोनिशान नही था । करीब 3 घण्टे तक जंगलों में ऐसे ही चलता रहा । बादलों की धुंध और पेड़ों की सघनता ने जंगल को और भी डरावना बना दिया था । हर 15-20 मिनट में मैं यही सोचता कि मैं ऐसा कर क्यों रहा हूँ, क्यों ना वापस मुड़ जाऊँ । लेकिन फिर लगता कि ऐसा तो हर ट्रेक में होता है । ट्रेक करते समय यही लगता है कि मैं ऐसा क्यों कर रहा हूँ, और फिर घर वापस जाते ही दूसरे ट्रेक की योजना बनने लगती है ।
इस तरह चलते-चलते करीब तीन घण्टे बाद एक टिन शेड वाला शेल्टर मिला, जहाँ तीन लड़के मिले । उन्होंने बताया कि वो जूको वैली के केयरटेकर हैं और नीचे जा रहे हैं । उन्होंने ही बताया कि ऊपर अभी 25-30 लोग हैं और रहने-खाने की कोई चिंता नही है । सुनकर थोड़ा जान में जान आई । अब कम से कम रहने खाने की कोई परेशानी नही आनी थी । करीब आधे घण्टे बाद दो और लड़के मिले । वो पर्यटक थे और जखामा के रास्ते उतर रहे थे । उन्होंने बताया कि थोड़ी ही चढ़ाई और बची है ।
मैं आगे बढ़ता रहा । जब जंगलों में पेड़ों के ऊपर सूर्य का प्रकाश दिखता था तो लगता था कि बस ऊपर पहुँचने वाला हूँ और कष्ट खत्म होने वाले हैं । सबसे ऊंचाई पर स्थित पेड़ को देखकर सोचता कि बस यही पहाड़ी का अंत होगा, लेकिन वहाँ पहुँचते ही रास्ता फिर मुड़कर जंगलों में चला जाता । ऊपर देख-देखकर गर्दन में दर्द होने लगा, लेकिन पहाड़ की चोटी पर ना पहुँच सका ।
दूसरे समूह वाले लड़कों से मिलने के करीब एक घण्टे बाद और जखामा से ट्रेक शुरू करने के करीब पाँच घण्टे बाद मुझे पहाड़ का ऊपरी सिरा मिला, जिसके दूसरी तरफ दूर-दूर तक एक घाटी का विस्तार नजर आ रहा था । लेकिन मंजिल अभी भी दूर थी । मुझे तो लगा था कि पहाड़ पार करते ही सामने गेस्ट हाऊस होगा, लेकिन वहाँ तो दूर-दूर तक बस झाड़ियों से भरी घाटी थी । झाड़ियाँ क्या थी, रास्ते के दोनों किनारे छोटे-छोटे बाँस के झुरमुट थे, जिनके बीच में से चलते जाना था । कहीं-कहीं तो बाँस की झाड़ियाँ इतनी बड़ी की इंसान खो जाए । लेकिन ट्रेक रूट तो अच्छे से बना हुआ था, तो खोने की कोई गुंजाइश नही थी ।
दूर जहाँ तक नजर जाती थी , हरी-भरी झाड़ियों से ढकी जूको वैली का विस्तार नजर आता था । बाद में महसूस हुआ कि जूको वैली का ज्यादातर हिस्सा बाँस की झाड़ियों से ही ढका हुआ है । पहाड़ पार करने के बाद वैली में रास्ता सपाट है । थोड़ा आगे बढ़ा ही था कि एक एक जगह सूरज की रौशनी घाटी के कुछ हिस्सों पर तो पड़ रही थी, लेकिन बाकी हिस्सों में छाया थी । बड़ा ही अद्भुत दृश्य था । यही सब देखने के लिए तो इतने कष्ट उठाये थे । वह दृश्य देखकर घने जंगल की कठिन चढ़ाई का सारा दुःख-दर्द दूर हो गया ।
कुछ दूर आगे बढ़ने पर गेस्ट हाऊस भी दिख गया । सिवाय बिस्किट के खाना तो कुछ खाया नही था, इसलिए कुछ खाना मिलने की उम्मीद में सुस्त पैरों की रफ्तार अपने आप बढ़ गयी । चढ़ाई वाले जंगल से निकलकर करीब 30-40 मिनट और चलने के बाद मैं जूको वैली के ऊपर स्थित गेस्ट हाऊस पहुँच गया । गेस्ट हाऊस पर तो एकदम उत्सव सा माहौल था । 25-30 लोगों की भीड़ थी वहाँ, और 2-4 को छोड़कर लगभग सभी पिछले दिन ही वहाँ पहुंचे हुए थे । मुझे तो भूख लगी थी, लेकिन उस समय मैगी के अलावा और कोई चारा नही था । केयरटेकर को मैगी और कॉफी बनाने को बोलकर मैं पास ही पड़ी एक बेंच पर बैठकर सामने फैली वैली को निहारने लगा, आखिर वहाँ पहुँचने में इतनी मेहनत जो हो गई थी ।
अब आगे की कहानी अगली पोस्ट (नागालैंड में ज़ूको वैली का भ्रमण और विश्वेमा गाँव से होकर वापसी) में जारी रहेगी। फिलहाल तो संक्षिप्त में जूको वैली ट्रेक की कुछ जानकारी दे रहा हूँ:
1. जूको वैली में जाने के दो रास्ते हैं । पहला रास्ता जखामा गाँव के पास से शुरू होता है और दूसरा विश्वेमा गाँव से । एक तीसरा रूट अभी मणिपुर में माओ (Mao) से शुरू हुआ है, लेकिन उसके बारे में ज्यादा जानकारी नही है ।
2. जखामा कोहिमा से करीब 16 किमी दूर है और शेयर्ड सूमो में आधे घण्टे की यात्रा के करीब 50 रुपये लगते हैं । जूको वैली का रास्ता जखामा गाँव से थोड़ा आगे मुख्य सड़क पर ही है । इसलिए ड्राइवर को बोल दें कि जखामा के आगे जूको वैली के रास्ते पर उतरना है । कोहिमा से गाड़ी रिज़र्व करके जाना पड़े तो 450-500 रुपये तक का किराया लगेगा । जखामा से सीधे 5 घण्टे की चढ़ाई जंगलों के बीच में और फिर 30-40 मिनट का सफर वैली में । चढ़ाई बहुत ही कठिन है, इस बात का ध्यान रखें । बाकी सावधानियाँ पोस्ट में विस्तार से बता ही दी है ।
3. विश्वेमा गाँव का बाहरी प्रवेश द्वार जखामा वाली सड़क पर ही जखामा से करीब 6 किमी आगे है । प्रवेश द्वार के बिल्कुल सामने जूको वैली के रास्ते का बोर्ड लगा हुआ है । कोहिमा से सूमो द्वारा विश्वेमा का किराया 60 रुपये है । रिज़र्व करने पर 700 रुपये तक लग सकता है । विश्वेमा गाँव से पहले कच्चे रास्ते पर करीब 8 किमी चलना पड़ता है, जहाँ अगर आप चाहे तो गाड़ी रिज़र्व करके भी जा सकते हैं । रिज़र्व गाड़ी का किराया करीब 700-800 रुपये है । अगर चाहे तो 8 किमी तक पैदल भी जा सकते हैं, लेकिन रास्ते में कोई बहुत मजा नही आने वाला । 8 किमी के रास्ते के बाद जंगल शुरू होता है और एक घंटे की बड़ी कठिन सीधी चढ़ाई है । एक घन्टे की चढ़ाई के बाद 2 घण्टे घाटी में बाँस की झाडियों के बीच लगभग सपाट रास्ते पर चलने के बाद गेस्ट हाऊस आ जाता है ।
4. ज्यादातर लोग विश्वेमा की तरफ से चढ़ते और जखामा की तरफ से उतरते हैं । जखामा की तरफ से उतरने में भी बहुत सावधानी रखनी पड़ती है ।
5. जूको वैली में प्रवेश के लिए कोई टिकट काउंटर नही है, ना ही किसी तरह के परमिट की जरूरत पड़ती है । प्रवेश शुल्क 50 रुपये है । जो ऊपर केयरटेकर बाकी चार्जेज के साथ ले लेता है ।
6. सीजन में तो ऊपर केयरटेकर होने से जूको वैली में रहना ,खाना सब मिल जाता है । रहने के प्राइवेट कमरे का किराया 150 रुपये है । दो बड़े-बड़े हाल है, जो डारमेट्री की तरह प्रयोग में आते हैं और उनका किराया 50 रुपये प्रति व्यक्ति है । एक हाल में 50-60 लोग बड़े आराम से सो सकते हैं । स्लीपिंग बैग, मैट्रेस, कम्बल, तकिया सब किराए पर मिल जाता है ।
7. ऑफ सीजन जैसे सर्दियों में ऊपर केयरटेकर के ना मिलने से कुछ भी नही मिलेगा, तो उस समय गेस्ट हाऊस के आगे वैली में नदी के किनारे 2-3 रॉक शेल्टर्स (गुफा की तरह) हैं, वहाँ रुका जा सकता है । वैसे उसके लिए बड़ी हिम्मत और एक समूह चाहिए ।
8.नागालैंड में डिमापुर से आगे जाने के लिए इनर लाइन परमिट की जरूरत पड़ती है । इसलिए जूको वैली जाते समय भी इनर लाइन परमिट का होना जरूरी है ।
9. डिमापुर से कोहिमा की 70 किमी की दूरी तय करने में सूमो या कार को 3 घंटे लगते हैं । सूमो का किराया 300 रुपये है । कार वाले 300 से 400 रुपए के बीच कुछ भी माँग लेते हैं । आप मोलभाव कर सकते हैं ।
10. जहाँ तक सम्भव हो अकेले ट्रेक ना करें , अगर करना पड़ जाये तो एक स्थानीय गाइड जरूर साथ रख ले । खास तौर से जखामा की तरफ से चढ़ते हुए । अगर अकेले ही चढना हो तो विश्वेमा की तरफ से जाने की कोशिश करे । वैसे अकेले जाना हो तो सबसे सही समय अक्टूबर के महीने का जूको वैली फेस्टिवल है , उस समय रास्ते में हमेशा किसी ना किसी का साथ जरूर बना रहेगा ।
11. कोहिमा से 2 दिन में ही ट्रेक पूरा हो सकता है, एक दिन जाना और एक दिन आना; लेकिन चाहे तो ऊपर वैली में एक दिन अतिरिक्त रुक सकते हैं । कई हड़बड़ी में रहने वाले लोग एक दिन में भी घूम कर आ जाते हैं ।
12. दस साल से कम उम्र के बच्चों के साथ ना ही जायें, तो बेहतर है । लेकिन अगर जाना पड़े, तो विश्वेमा वाले रूट का प्रयोग करें । भूल कर भी जखामा की तरफ से ना जाएँ, ना तो चढ़ते समय और ना ही उतरते समय ।
13. वैसे तो वैली में रुकने के लिए पर्याप्त व्यवस्था है, लेकिन आप चाहे तो अपना खुद का टेंट भी लगा सकते हैं ।
14. यह पूर्वोत्तर भारत है, इसलिए बारिश की सम्भावना को हमेशा ध्यान में रखें । जखामा और विश्वेमा दोनों रूट पर ही टिन शेड वाले 2-3 शेल्टर बने हुए हैं, लेकिन ज्यादातर ट्रेक में बारिश में बचाव खुद ही करना पड़ेगा ।
आपने तो शब्दों से चित्र या यु कहे कि चलचित्र ही बना दिया। बहुत सुन्दर वृत्तांत, गुदगुदाता, डराता, रोमांच उत्पन्न करता, जाने को दिल मचलने को मजबूर करता- प्रकृति का वर्णन करना सबके बस की बात नही और उसमे सब अवयवों का संतुलित तड़का, वो तो और भी कठिन है। अनुपम यात्रा और प्रस्तुति।
जी, इन उत्साह बढ़ाने वाले शब्दों के लिए आपका बहुत-बहुत धन्यवाद | आपको इन शब्दों से अच्छा लिखते रहने की प्रेरणा मिलेगी |
जूको घाटी की तस्वीर देखकर इधर जाने का मन सा बन गया है। जल्द ही कुछ योजना बनाता हूँ। लेख से काफी शंकाओं का समाधान हो चुका है। इसके लिए धन्यवाद। हाँ, लेख में इनर लाइन परमिट की बात की गई है। यह किधर से मिलेगा? इसके विषय में कुछ बता सकतें तो बेहतर रहेगा।
जी, जरूर जाईये । बहुत ही सुंदर जगह है । नागालैंड का इनर लाइन परमिट दिल्ली, कोलकाता, गुवाहाटी जैसे शहरों में नागालैंड हाउस (रेजिडेंट कमिश्नर का ऑफिस ) से 1-2 दिन में मिल जाता है । एक पहचान पत्र जैसे आधार कार्ड की कॉपी और 50 रूपये की जरूरत पड़ती है । अगर सीधे नागालैंड में डिमापुर पहुँच गये तो वहाँ डी सी ऑफिस से बन जायेगा । बाकि विस्तार से इस बारे में भी लिख दूंगा ।
इस जगह की बेशकीमती जानकारी आपने दी है नही तो लोग पैकेज में फस जाते है या जाने वाले यात्री से काफी सवाल पूछते है लेकिन आपके सरल सीधे शब्दों में जानकारी और सलाह की क्या करना चाहिए और क्या नही.. दूरी का और शेयर्ड कैब के रेट और आपकी गहन रिसर्च बहुत अच्छी लगी….फोटो सभी बहुत सुपर्ब है स्पेशली वो कोहिमा शहर के नजारे और ज़ोकु vally के हरे मैदान के फोटो बहुत अच्छे लगे….विश्वेमा और जखामा की जानकारी बेहद सुपर्ब और आसानी से जो आपने दी वो बेमिसाल है….ज़ोकु vally का 2/3 हिस्सा मणिपुर में है तो वहां से भी इसका ट्रेक होता है…बेहद धन्यवाद आपको दिल से और ऐसी जानकारी जिसके लिए बहुत सारा धन्यवाद भी कम है….जबरदस्त पोस्ट भाई
आपको पोस्ट पसंद आई , यह सुनकर अच्छा लगा । मेरी भी मेहनत सफल हो गई । 🙂
बेहद शानदार,वर्णन,लगा हम भी साथ चल रहे हैं।बधाई मित्र
सुनील जी, बहुत-बहुत धन्यवाद आपका 🙂
बहुमूल्य व्यावहारिक जानकारी से युक्त रोचक आलेख…
जी, धन्यवाद इस लेख को पसंद करने और उत्साह बढाने के लिए । 🙂
bahut sunder varnan hai,sahas ke lie badhai.
प्रसन्नता हुई कि आपको यह लेख पसंद आया । उत्साहवर्धन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद 🙂