अरुणाचल प्रदेश के बसर में आयोजित Basar Confluence (BasCon) के तीसरे संस्करण का पहला दिन गहमागहमी वाला रहा और हमें BasCon के मुख्य आयोजन स्थल पर कई सारे सांस्कृतिक कार्यक्रम देखने को मिले । बसर में मेरे पहले दिन के अनुभवों के लिए कृपया बास्कान 3 (BasCon 3 ) का जश्न और बसर में धूम : भाग 1 को पढ़ें ।
पहले दिन की समाप्ति के पश्चात Bascon 3 के मेहमानों के रुकने की व्यवस्था मुख्य रूप से बम, गोरी-I और गोरी-II गाँव में फैले अलग-अलग होमेस्टे में थी । मेरा होमेस्टे मुख्य आयोजन स्थल से थोड़ा दूर स्थित गोरी-II गाँव में था । Bascon 3 के पहले दिन की रात्रि में होमेस्टे में वापस लौटते-लौटते काफ़ी देर हो गई थी, इसलिए अगले दिन सुबह उठकर जब मैं अपने कमरे के बाहर खड़ा था तो मुझे देखकर मेरे मेज़बान को बड़ा आश्चर्य हुआ । वो तो समझ बैठे थे कि मैं रात को होमेस्टे में आया ही नहीं । फ़ेस्टिवल के दूसरे दिन के बारे में बताने के लिए उन्होंने मुझे नाश्ते पर बुलाया । जब तक नाश्ता तैयार होता, मैं होमेस्टे के इर्द-गिर्द घूमने निकल गया, जहाँ मुझे गोरी-II के ग्रामीण जीवन की झलक मिली ।
बसर में बाँस और लकड़ी से बने पारम्परिक घर देखने में बहुत सुंदर लगते हैं । इन्हें लकड़ी के खम्भों पर जमीन से थोड़ा ऊपर बनाया जाता है । फर्श बनाने में सख्त लकड़ी का प्रयोग किया जाता है , लेकिन दीवालें सामान्यतः बाँस की पतली चादरों से बनाई जाती हैं । बाँस, जिसे हरा सोना (Green Gold) समझा जाता है, बसर की रोजमर्रा की जिन्दगी का एक प्रमुख हिस्सा है । छतें ढालू होती हैं और उनको बनाने में बाँस, जंगली केले, ताड़ (Toko Palm Tree), Thatch Grass इत्यादि के पत्तों का प्रयोग होता है । जोड़ों पर बाँधने के लिए बाँस या जूट की रस्सियों का इस्तेमाल करते हैं । नाजुक जगहों पर सहारा देने के लिए सख्त लकड़ी का प्रयोग होता है । ऐसे घरों की छतें सामान्यतः हर चार-पाँच साल में दुबारा से बनानी पड़ती हैं ।
फर्श के नीचे खम्भों वाले हिस्से का प्रयोग लकड़ी इत्यादि के भण्डारण के लिए किया जाता है । विकास के क्रम में आगे बढ़ते हुए कई सारे आधुनिक घरों में अब बाँस और लकड़ी की जगह ईंट, बालू और सीमेंट ने ले ली है । छतें ढालू तो होती हैं , लेकिन अब उन्हें बनाने में घास-फूस की जगह टिन की चादरों का प्रयोग किया जाता है । फ़र्श के नीचे खंभों में भी बाँस या लकड़ी की जगह बालू और सीमेंट का प्रयोग होने लगा है । इससे घर ज़्यादा समय तक सुरक्षित रहते हैं । पशुओं में सबसे प्रमुख मिथुन है, जिसकी पूजा भी की जाती है और उसका माँस भी खाया जाता है । जिसके पास जितने अधिक मिथुन होते हैं , उसे उतना ही बड़ा आदमी समझा जाता है । घरों की साज-सज्जा के उद्देश्य से मिथुन के सिर और सींगों को दरवाजे पर टांगने का भी प्रचलन है ।
लगभग हर तरह के पारम्परिक घर में घुसते ही एक बड़ा सा कमरा होता है, जिसके केंद्र में एक अंगीठी रखी होती है । घर के फ़र्श पर क़रीब 4-5 वर्ग फ़ीट के क्षेत्र में मिट्टी का लेप लगाकर उसे आग जलाने योग्य बनाया जाता है । अंगीठी के आसपास ही लकड़ी जलाकर खाना भी पकाया जाता है , हालाँकि कई सारे घरों में अब एल.पी.जी. सिलिंडर का प्रयोग भी होता है । अंगीठी के ऊपर कमरे की छत से एक के ऊपर एक दो बड़े-बड़े तख्ते लटकते रहते हैं । सामान्यतः इनके ऊपर माँस के टुकड़ों या अनाज इत्यादि को फैला दिया जाता है । नीचे अंगीठी की गर्मी से यह सब सूखते रहते हैं । इस तरह माँस को कई दिनों तक सुरक्षित रखा जा सकता है ।
इसी तरह के ज़मीन से थोड़ा ऊपर बाँस के खभों पर टिकी लकड़ी की झोपड़ियाँ मुख्य घरों से थोड़ा दूर भी जगह-जगह दिख जाती हैं । ये छोटी-छोटी झोपड़ियाँ वास्तव में भंडारण घर (Storage House) की तरह प्रयोग में लाई जाती हैं, जहाँ लोग लकड़ी, उपले, अनाज इत्यादि का भंडारण करते हैं ।
आधुनिक समय में कमाई बढ़ने और सुविधाओं के उपलब्ध होने की वजह से बड़े कमरे के अलावा भी अब लोग कई और कमरे बना लेते हैं । कई घर तो अब शहरों की तरह हॉल, बेडरूम, किचन जैसी डिज़ाइन वाले होते हैं । हालाँकि गोरी-II में मेरे रुकने का प्रबंध पारम्परिक तरीक़े से बने बाँस और लकड़ी वाले एक घर में ही था ।
होमेस्टे के मालिक द्वारा नाश्ते के लिए बुलाने पर मैं घर के अन्दर गया । बड़े से हाल के केंद्र में बनी अंगीठी के पास बैठकर हम बातें करने लगे । उन्होंने बताया कि BasCon में दूसरे दिन सबसे पहले नदी में मछली पकड़ने की पारम्परिक विधियों का प्रदर्शन होगा और उसके बाद BasCon के मुख्य आयोजन स्थल पर स्थानीय खेलों की प्रतियोगिताएँ होंगी । रात में मुख्य आयोजन स्थल पर कई सारे प्रसिद्ध संगीत बैंड बुलाकर धूम-धड़ाका करने का प्रोग्राम भी था । दिन भर की गतिविधियाँ बताने के बाद उन्होंने पूछा कि चाय-बिस्किट के अलावा क्या खाना पसन्द करेंगे? चिकन – चावल या फिर सब्जी चावल? मैंने कहा कि इतनी सुबह मैं चावल नही खा पाऊँगा , इसलिये सीधे दोपहर में भोजन करना पसन्द करूँगा। लेकिन दोनों पति-पत्नी जोर देकर बोलने लगे कि हमारी परम्परा में किसी अतिथि को बिना खाए बाहर नही जाने देते । परम्परा का सम्मान करते हुए मुझे सुबह-सुबह ही थोड़ा भोजन करना पड़ा । उसके पश्चात हमने बहुत देर तक GRK, BasCon, पर्यटन और बसर से जुड़े अन्य पहलुओं पर बातचीत की ।
बात करते-करते ही नदी की तरफ़ रवाना होने का समय आ गया । हम लोग गोरी-II गाँव के पास ही स्थित सी नदी (Si River) के किनारे गए, जहाँ स्थानीय समुदाय द्वारा मछली पकड़ने के विभिन्न तौर-तरीकों का प्रदर्शन होना था । वैसे तो पर्यावरण को ध्यान में रखते हुए नदी में मछली पकड़ने पर GRK द्वारा ही पूर्णतया प्रतिबंध लगा हुआ है, लेकिन BasCon में आये अतिथियों और गाँव के नौजवानों को पारम्परिक तौर-तरीकों से परिचित कराने के लिए सिर्फ उस दिन कुछ घंटों के लिए मछली पकड़ने की अनुमति ली गयी थी । उसमें भी कोशिश यह थी कि पकड़ने के बाद जहाँ तक संभव होगा, ज़िंदा मछलियाँ नदी में वापस छोड़ दी जाएंगी ।
मछली पकड़ने के लिए सबसे पहले बाँस के बड़े-बड़े सीधे टुकड़ों के साथ केले के पत्तों को लगाकर नदी के पानी को बाँध दिया गया । इस बाँध के बीच से मध्यम और छोटी साइज़ की मछलियाँ तो निकल जाती थी, लेकिन बड़ी मछलियाँ नही निकल पाती । बाँध के आगे छिछले पानी में छोटी मछलियों को पकड़ने के लिए गाँव की औरतें बाँस की टोकरियों का प्रयोग करती हैं । कोन के आकार की इन टोकरियों का एक सिरा चौड़ा होता है, जिसके चौड़ाई दूसरे सिरे की तरफ़ घटती जाती है । चौड़े सिरे को पानी के बहाव की उल्टी दिशा में लगा देने से छोटी मछलियाँ इस टोकरी में घुस तो जाती हैं, लेकिन निकल नहीं पाती । नियमित अंतराल पर इन टोकरियों में फँसी मछलियों को निकालकर औरतें अपनी कमर पर बंधी बाँस की छोटी टोकरियों में रख लेती हैं । थोड़ा कम पानी वाली जगहों पर पत्थरों के बीच हाथ से टटोलकर भी मछलियों को पकड़ लिया जाता था ।
एक और तरीके में पानी के बहाव को कम करके एक छिछले हिस्से की तरफ़ से गुज़ारा जाता है । कम बहाव वाले क्षेत्र में लोग मुस्तैदी से खड़े रहते हैं और जैसे ही कोई मछली नज़र आती है, उसे झपटकर पकड़ लेते हैं । अपने गाँव में तो नहर से पकड़ी गई मछलियों को हम सामान्यतः किसी बोतल या बर्तन के पानी में रखते थे और घर पहुँचकर उनको पकाते थे । लेकिन बसर में इस तरीक़े से पकड़ी गयी मछली को सीधे बाँस के एक नुकीले तार में गूँथकर अगली मछली के लिए घात लगाने की परंपरा है ।
इसके अलावा बाँध के पहले नदी के गहरे हिस्से में मछलियों को पकड़ने के लिये एक ख़ास पेड़ (Tanir Tree) की छालों से निकले रस का प्रयोग भी किया जाता है । इस रस को पानी में डाल देने से मछलियाँ मरती तो नही हैं, लेकिन उनकी भागने-फिरने की क्षमता थोड़ी देर के लिए ख़त्म हो जाती है और वो सुन्न अवस्था में सतह पर आ जाती हैं, जहाँ उन्हें पकड़ लिया जाता है ।
एक अन्य तरीके में नदी के आर पार बाँस का एक पुल बनाकर स्थानीय युवक लकड़ी के नुकीले भालों के साथ बैठे रहते हैं । पानी में मछली नजर आने पर वो त्वरित गति से वार करते हैं और मछली भाले के नुकीले हिस्से में गुँथ जाती है ।
मछली पकड़ने वाले आयोजन स्थल के पास में ही स्थानीय महिलाओं द्वारा स्थानीय खान-पान से संबंधित स्टाल लगाये गये थे । सुबह-सुबह चावल खाने के बाद भूख तो लगी नहीं थी, लेकिन चाय-कॉफ़ी के चक्कर में उधर बढ़ गए । तीखी मिर्ची की चटनी के साथ मोमो और बाँस के गिलास में चाय पीने का अलग ही मजा था । लंच की व्यवस्था भी वही पर नदी के किनारे ही थी ।
लंच के बाद मुख्य आयोजन स्थल पर स्थानीय खेलकूद की कई सारी प्रतियोगिताएं होनी थी, जिनमें पारम्परिक तीरंदाजी ( स्थानीय गालो भाषा में Geppe Abnam), रस्साकशी , बाँस पकड़कर एक घेरे में खेले जाना वाला न्यारका हिनाम (Nyarka Hinam) , बाँस के एक खम्भे पर चढ़ना इत्यादि प्रमुख खेल थे । लेकिन दिक्कत यह थी कि उसी समय हम गोरी गाँव के पास में स्थित एक अन्य पर्यटन स्थल जोली (The Haunted Place) जाने की योजना बना रहे थे । हमें खेलकूद की प्रतियोगिताओं और जोली के रहस्य-रोमांच में से एक का चुनाव करना था । अंततः तय हुआ कि हम जोली जायेंगे ।
जोली को एक हॉन्टेड स्थान माना जाता है । हालाँकि वहां भूत-प्रेत जैसी कोई बात नहीं है और ना ही डरने जैसा कुछ भी । भुतहा या डरावना शब्द शायद उचित ना लगे, इसलिए हॉन्टेड शब्द का प्रयोग कर रहा हूँ । स्थानीय कथाओं के मुताबिक वहाँ एक अनदेखी आत्मा रहती है, जो किसी भी अनजान व्यक्ति के पास जाने पर पत्थर मार कर भगा देती है । हमारे साथ करीब 5-6 स्थानीय लोग भी थे, जिनमें से 2 के मुताबिक उन्होंने ऐसी घटना को अपनी आँखों से देखा था ।
जोली तक पहुँचने के लिए एक छोटा सा ट्रेक करना पड़ता है । आधे घंटे का यह ट्रेक अपने आप में बड़ा रोमांचक है । पहले मुख्य सड़क से करीब 100 मीटर की खड़ी ढलान पर उतरकर नदी के पास पहुँचते हैं । वहां से फिर नदी के पानी में उतरकर करीब 20-25 मिनट तक पैदल चलना पड़ता है । खड़ी चट्टानों के बीच बहती नदी के दोनों किनारों पर एकदम सीधी पहाड़ियों पर खड़े पेड़ों की जड़ जैसी लटकती शाखाएँ पूरे वातावरण को ही रहस्यमय बना देती हैं । उथले हिस्से में तो नदी के अन्दर से ही चलना पड़ता है , लेकिन कहीं-कहीं पानी ज्यादा होने पर किनारे के पत्थरों पर चलना पड़ता है । दो-तीन जगह बाँस के छोटे-छोटे पुल भी बने हैं ।
गिरते-पड़ते हम जोली पहुँच गये, जहां उस रहस्यमयी आत्मा का निवास माना जाता है । आत्मा से तो हमारा सामना हुआ नही और ना ही हम पर पत्थर बरसाए गए, लेकिन वहां एक खड़ी चट्टान के पीछे छिपा सुंदर सा छोटा झरना ज़रूर मिला । करीब 10-15 मिनट वहां बिताकर हम वापस बसर आ गए ।
शाम को अँधेरा घिरने के बाद हम BasCon 3 के मुख्य आयोजन स्थल पर गए, जहां गीत-संगीत के रंगारंग कार्यक्रम होने वाले थे । जैसे-जैसे शाम गहराती जा रही थी, गहमागहमी बढ़ती जा रही थी । पहले असम, मणिपुर , त्रिपुरा इत्यादि राज्यों के लोक नृत्यों का प्रदर्शन हुआ । उसके बाद स्थानीय गाँव वालो ने गालो जनजाति के कई लोक नृत्यों पर शानदार प्रस्तुति दी । स्थानीय कलाकारों द्वारा एक हास्य नाटक का मंचन भी किया गया ।
समय बीतने के साथ-साथ फिजाओं में ठण्ड बढ़ती ही जा रही थी, लेकिन बसर के निवासियों का उत्साह दिखते ही बनता था । सबको इन्तजार था David and Band का, जोकि पूर्वोत्तर भारत का एक बहुत ही लोकप्रिय बैंड है । बैंड ने स्थानीय भाषा में एक से बढ़कर एक गाने पेश किये, जिसपर भीड़ झूम-झूमकर उत्साहवर्धन करती रही । उनके “O Delo” गाने पर तो भीड़ जैसे पागल ही हो गयी । David and Band के बाद एक अन्य प्रसिद्द गायक Omak Kumat ने भी अपनी जादुई आवाज से लोगों को मंत्रमुग्ध कर दिया । उनकी प्रस्तुतियों के साथ ही Bascon 3 के दूसरे दिन का समापन भी शानदार रहा ।
Bascon 3 के तीसरे और आखिरी दिन भी कई सारे रंगारंग कार्यक्रमों की योजना थी, जिसमें शाम को राजस्थान से पहुँचे बैंड Barmer Boys का कार्यक्रम मुख्य आकर्षण था । लेकिन लिकाबाली से बसर के बीच के ख़राब रास्ते ने मुझे तीसरे दिन बसर से जल्दी निकलने को बाध्य कर दिया, ताकि मैं समय से सिलापथार पहुँचकर अपनी वापसी की ट्रेन पकड़ सकूँ । तीसरे दिन तो मुझे आयोजन स्थल पर जाने का समय ही नहीं मिला, लेकिन बसर से निकलने के पहले गोरी-II के आसपास घूमने का अच्छा मौक़ा मिल गया । दस बजते-बजते बसर से मेरी वापसी शुरू हो गई ।
बसर के लोगों की मेहमानवाजी, साफ़-सफाई की आदत, घरों की शोभा बढ़ाते रंग-बिरंगे फूल, मीठे रसीले संतरे के पेड़ और बसर की गलियां धीरे-धीरे सब पीछे छूटने लगे, लेकिन बसर की यादें मीलों दूर भागती-दौड़ती मेरी जिंदगी का एक हिस्सा बन गई । आज भी जब बसर की याद आती है तो मन करता है बस निकल जाऊं अरुणाचल प्रदेश के उस अनछुए हिस्से में, जहाँ जिन्दगी के अलग ही रंग देखने को मिलते हैं । अब जब बसर फेस्टिवल के चौथे संस्करण Bascon 4 की सरगर्मी शुरू हो चुकी है तो क्या पता जल्दी ही बसर से फिर मुलाकात हो जाये ।
4th Basar Confluence (BasCon 4): बसर फेस्टिवल के चौथे संस्करण BasCon 4 की तिथियों की घोषणा होते ही बसर के दीवानों की गहमागहमी बढ़नी शुरू हो गयी है । इस साल BasCon 4 का आयोजन 1 दिसम्बर से 4 दिसम्बर तक किया जायेगा । अरुणाचल प्रदेश की मन को भा जाने वाली ख़ूबसूरती, गालो जनजाति की परम्पराओं और सांस्कृतिक विरासत, गीत-संगीत के रंगारंग कार्यक्रम और बसर के निवासियों की मेहमाननवाजी को करीब से देखने का सबसे अच्छा मौका होता है BasCon के समय बसर पहुंचना ।
बसर कैसे पहुँचे ? बसर तक पहुँचने का सबसे निकटम रेलवे स्टेशन सिलापथार है, जो असम के धेमाजी जिले में स्थित है । गुवाहाटी से रात्रि में सिलापथार के लिए एक एक्सप्रेस ट्रेन है , जो सुबह-सुबह वहाँ पहुँच जाती है । सिलापथार स्टेशन से बाहर निकलते ही ऑटो पकड़ कर बसर के जीप स्टैंड तक जा सकते हैं , जहाँ से सवारी गाड़ी पकड़कर बसर तक पहुंचा जा सकता है । बसर, लिकाबाली से आलो (Aalo) जाने वाले मुख्य मार्ग पर आलो से करीब 50 किमी पहले स्थित है । सुना है कि लिकाबाली से बसर की सड़क अब पहले से बेहतर स्थिति में है । थोड़ा समय निकलकर आलो से आगे जाने पर इस क्षेत्र के एक और प्रमुख पर्यटन स्थल मचुका (Mechuka) का आनंद भी उठाया जा सकता है ।
सीमावर्ती असम में डिब्रूगढ़ और धेमाजी जिलों के बीच ब्रह्मपुत्र नदी पर बोगीबील पुल बनने के बाद बसर पहुंचना और भी आसान हो गया है । डिब्रूगढ़ देश के अन्य हिस्सों से हवाई और रेल मार्ग द्वारा जुड़ा हुआ है । वहां पहुंचकर बोगीबील पुल द्वारा ब्रह्मपुत्र नदी को पारकर आगे बसर तक पहुंचा जा सकता है ।
बसर में कहाँ रुके ? बसर के मुख्य बाज़ार में रात्रि विश्राम के लिए तो वैसे 2-3 होटल मौजूद हैं , लेकिन बसर के गाँवों में स्थित होमस्टे रुकने के सबसे बेहतर विकल्प हैं । BasCon के अलावा और किसी समय जाने पर इनको पहले से रिज़र्व करने की जरूरत नहीं पड़ती है , लेकिन BasCon के दौरान बेहतर होगा कि जाने से पहले आयोजकों से संपर्क करके ( देखे : Basar Confluence की वेबसाइट) अपने रहने की व्यवस्था पहले ही कर ली जाये ।
बसर और जोली के बारे में पढ़कर detail में बहुत अच्छा लगा….बढ़िया शानदार लेख…गालों लोगो का आथित्य संस्कार और मेहमाननवाजी इनके घर सब पढ़कर बहुत अच्छा लगा…
धन्यवाद सर जी..आशा करता हूँ कि बसर की मेहमाननवाजी से रूबरू होने का मौका आपको भी जल्दी ही मिलेगा 🙂