सच कहूं तो कभी मन में यह विचार आया ही नही कि त्रिपुरा घूमने जाना है । जब भी त्रिपुरा के बारे में सोचा तो दिल में हमेशा यही ख्याल आया कि एक दिन अगरतला के रास्ते बंगलादेश में जाकर चिटगांव और कॉक्स बाज़ार की तरफ घूमूँगा । फिर संयोग ऐसा बना कि मुझे काम के सिलसिले में गुवाहाटी आना पड़ा, वो भी कम से कम तीन साल के लिए। अब जब गुवाहाटी आ ही गया तो फिर पूर्वोत्तर भारत के कोने-कोने से वाक़िफ़ होना तो बनता ही है । इसलिए एक दिन त्रिपुरा में कदम पड़ना भी लाजिमी ही था । अच्छी बात यह रही कि सारे हिसाब किताब लगाने के बाद समझ में आया कि 5 दिन की छुट्टी में ही त्रिपुरा में इतना घूम सकते हैं कि आगे कहने को ना रहे कि यार मेरा त्रिपुरा में यह पर्यटन स्थल छूट गया । फिर एक दिन हम निकल पड़े छोटू त्रिपुरा की ट्रिप पर ।
हर बार घर से कदम बाहर निकालने के पहले मन में एक अनजाना सा डर रहता है । पिछले 10 साल से घूमते रहने के बावजूद वह डर आज भी रहता है । जब तक यात्रा की योजना बनती है, टिकट की बुकिंग होती है, पैकिंग होती है, वो अनजान सा डर दिल के एक कोने में बैठा रहता है । ज्योंहि पीठ पर बैकपैक लटकाये मैं घर से निकलकर सड़क पर पहुँचता हूँ, वह डर अचानक से उड़नछू हो जाता है । यह सिलसिला महीने दर महीने, साल दर साल से यूँ ही चल रहा है । इस बार भी वही हाल था ।
कुछ महीने पहले तक गुवाहाटी से अगरतला की हवाई टिकट बड़े अच्छे दाम में मिल जाती थी, लेकिन फिर इस हवाई मार्ग से 2 कम्पनियाँ हट गयी और एकमात्र कम्पनी का एकतरफ़ा राज हो जाने से टिकट के दाम बढ़े ही रहते हैं । इसलिए मैंने इस बार ट्रेन से जाने की योजना बनाई । ट्रेन से यात्रा का एक और कारण हाफ़्लाँग और जटिंगा की पहाड़ियाँ भी थी, जिनका ट्रेन यात्रा के दौरान सुंदर नज़ारा देखने को मिलता है । गुवाहाटी से अगरतला के बीच 4-5 ट्रेनें ही चलती हैं, जिसमे से कोई हफ़्ते में 2 दिन, कोई 3 दिन और 1-2 ट्रेन रोज़ाना चलती हैं । मतलब, ट्रेन को लेकर भी बहुत विकल्प नही हैं । मुझे तो अपनी छुट्टी वाले समय में एक ही विकल्प नज़र आया, सुबह 4 बजे जाने वाली कंचनजंघा एक्सप्रेस । यह ट्रेन सियालदाह से अगरतला के बीच रोज़ाना ही चलती है और गुवाहाटी से होकर गुज़रती है । विडम्बना देखिए कि कोलकाता से अगरतला की दूरी बांग्लादेश के रास्ते मुश्किल से 450 किमी है, लेकिन इंसान की बनाई दीवारों के कारण इस दूरी को तय करने के लिए साधारण यात्रियों को क़रीब 1600 किमी चलना पड़ता है । जो ट्रेन यात्रा मुश्किल से 8 घंटे में पूरी हो जाती, उसमें कम से कम 38 घंटे लगते हैं । इसी तरह गुवाहाटी से अगरतला तक ट्रेन से जाने में कम से कम 16 घंटे (राजधानी एक्सप्रेस से लगभग 13 घंटे) लग जाते हैं । इसलिए, गुवाहाटी-अगरतला या कोलकाता-अगरतला के बीच में हवाई यात्रा ही सही रहती है, ख़ास तौर से कोलकाता से आप हवाई जहाज़ से आधे घंटे में ही अगरतला पहुँच सकते हैं ।
लेकिन हवाई यात्रा में किराया एक महत्वपूर्ण फ़ैक्टर है, इसलिए मुझे भी ट्रेन पकड़ने के लिए निकलना पड़ा । ट्रेन तो सुबह 4 बजे थी, लेकिन ट्रेन पकड़ने के लिए सुबह 3 बजे घर से निकलने पर कोई साधन मिलना मुश्किल रहता है। ट्रेन गुवाहाटी स्टेशन की तुलना में मेरे घर से ज़्यादा पास स्थित कामख्या स्टेशन से थी, लेकिन 4 बजे की ट्रेन पकड़ने के लिए रात को कहीं सोना जरूरी था, तो मैंने सोचा कि स्टेशन के पास ही कोई होटल लेकर रात बिता लूँगा । घर से निकलकर मैंने एक ऑटो लिया और चल पड़ा गुवाहाटी स्टेशन की तरफ ।पहले ऑटो ने शहर की बाहरी सीमा पर छोड़ दिया और मैं स्टेशन जाने के लिए दूसरे ऑटो में बैठ गया । थोड़ी देर बाद ही लगा कि मेरा मोबाइल मेरे पास नही है । इधर-उधर खोजने के बाद यकीन हो गया कि मोबाइल पहले वाले ऑटो में गिर गया है । मैं तुरन्त एक वापसी की ऑटो लेकर पहले वाले ऑटो की तरफ बढ़ा, लेकिन वह तो नदारद हो चुका था । फिर एक सज्जन से फ़ोन लेकर अपना नंबर डायल किया तो घन्टी बजने से एक उम्मीद जगी । लेकिन फिर मोबाइल स्विच ऑफ हो गया । उसके बाद तो वापस मिलने की उम्मीद का सवाल ही नही था । सामने वाले शख्स की नीयत खराब हो गई थी । अब तो आगे की कार्यवाही करनी थी ।
मन में बड़ी दुविधा थी कि तय कार्यक्रम के मुताबिक त्रिपुरा जाऊं या फिर घर वापस लौट जाऊं । इसी दुविधा के बीच मैंने वोडाफोन के कस्टमर केअर को फ़ोन करके सिम ब्लॉक करवा दिया । इस सारी जद्दोजहद में एक घंटा निकल गया । इसी बीच यह भी निश्चय कर लिया कि तय कार्यक्रम के मुताबिक त्रिपुरा यात्रा चलती रहेगी । किस्मत से मेरे पास एक दूसरे सिम के साथ टैब भी पड़ा हुआ था, जो आगे की कार्यवाही में मेरे बहुत काम आने वाला था । मेरी वह रात तो काली हो ही चुकी थी। मैंने सोचा कि जब रात भर जगकर सारे पासवर्ड वगैरह ही बदलने हैं तो होटल लेकर रहने का क्या फायदा? फिर मैं पास ही स्थित कामख्या स्टेशन की ओर बढ़ गया । वैसे भी मेरा टिकट तो कामख्या से ही था ।
कामख्या स्टेशन के एक कोने में बैठकर मैंने काम में आने वाले एप्स, ई-मेल और बैंकों के लाग-इन के पासवर्ड बदल दिए । इन कामों को पूरा करते -करते रात के तीन बज चुके थे । इसके बाद जब दिमाग थोड़ा स्थिर हुआ तो नींद सताने लगी । लेकिन, ट्रेन का समय 3.30 AM का था, इसलिए सोने के बजाय मैं इधर-उधर टहलता रहा । ट्रेन आधा घन्टा की देरी से आई । किस्मत से मेरी ऊपर वाली सीट थी, तो सहयात्रियों से ज्यादा डिस्टर्ब होने की झंझट नहीं थी । मैं सीधे सीट पर गया और सो गया ।
जब पहली बार मेरी नींद खुली तो 11-12 बजे थे, लेकिन मैं आलस के कारण सोता-जागता रहा । ट्रेन लमडिंग- हाफ़लांग की पहाड़ियों के मध्य से गुजर रही थी । बारिश के मौसम में इन पहाड़ियों की खूबसूरती देखते ही बनती है । कई लोगों ने बोल रखा था कि इस रास्ते पर हाफलांग से आगे की ट्रेन यात्रा बहुत खूबसूरत है । आलस तो था, लेकिन थोड़ा अनमने मन से ही मैं ट्रेन के दरवाजे पर खड़ा हो गया ।
हाफ़लांग (Haflong) तो असम का इकलौता हिल स्टेशन माना जाता है । ट्रेन के दोनो तरफ़ ऊँची-ऊँची पहाड़ियाँ थी, मेरी उम्मीद से भी ऊँची । अभी तो सर्दियों के सूखे मौसम के कारण पहाड़ों की हरियाली में एक पीलापन और सूखा सा सन्नाटा था, लेकिन बारिश के मौसम में इन पहाड़ियों की ख़ूबसूरती देखते ही बनती है । तब इन हरी-भरी पहाड़ियों पर हँसते-खेलते बादल, सामने जटिंगा घाटी में पसरी हुई हरी चादर और जगह-जगह पहाड़ से गिरते सुंदर झरने एक अलग ही समा बाँध देते हैं ।
पास में ही स्थित जटिंगा गाँव (Jatinga Village) अपनी प्राकृतिक ख़ूबसूरती के साथ- साथ पक्षियों के द्वारा की जाने वाली सामूहिक आत्महत्या के लिए विश्वप्रसिद्ध है । हालाँकि कई सारे विशेषज्ञों के अध्ययनों से पता चलता है कि पक्षियों का झुंड आत्महत्या नही करता है, बल्कि जटिंगा और आसपास के निवासियों के द्वारा मार दिया जाता है । इन सबके पीछे जटिंगा की भौगोलिक स्थिति, अंधेरी रातों में पक्षियों का व्यवहार और जटिंगा के निवासियों का अंधविश्वास जैसे कई पहलू हैं, जिसके बारे में कभी जटिंगा भ्रमण के अनुभवों के दौरान लिखूँगा ।
फ़िलहाल तो ऊँची-ऊँची सूखी पहाड़ियों के बीच हमारी ट्रेन दौड़ती जा रही थी । पहाड़ियों पर ज़्यादातर बाँस के पेड़ थे, जो बाक़ी पेड़ों से भी ऊँचा उठने की रेस लगा रहे थे । बीच-बीच में गाँवों के पास पहाड़ियों पर सुपारी, नारियल या केले के पेड़ों की अधिकता हो जाती थी । नीचे घाटी में धान के खेतों में कटाई हो जाने के कारण सूखी परालियों के ठूँठ नज़र आ रहे थे । रास्ते में ट्रेन अनगिनत छोटी-बड़ी सुरंगों और बरसाती नदियों पर बने पुलों से गुज़रती रही । हर दूसरे सेकंड में एक टर्न, कोई सुरंग या कोई पुल। पहाड़ियों के बीच काफ़ी देर तक हम जटिंगा नदी के साथ-साथ चलते रहे । बारिश के दिनों में हँसती-बलखाती नज़र आने वाली जटिंगा नदी सूखी और बेजान सी पड़ी थी ।
ज़्यादा बारिश का क्षेत्र होने के कारण बरसात के मौसम में लमडिंग से बदरपुर के रास्ते में भूस्खलन होना आम बात है । सड़क की स्थिति अच्छी नहीं होने के कारण इधर से बारिश के मौसम में यात्रा करना एक दुरूह कार्य है । भूस्खलन होने के कारण बारिश के मौसम में लमडिंग- हाफ़लांग- बदरपुर रेलवे मार्ग भी कई बार अवरूद्ध हो जाता है । ज़्यादा बारिश का क्षेत्र होने के बावजूद बाक़ी मौसमों में यहाँ पानी की बहुत क़िल्लत होती है । इसी कारण इस क्षेत्र में लगभग हर घर के सामने एक छोटा सा तालाब होता है, जहाँ बरसात का पानी इकट्ठा करके स्थानीय नागरिक साल भर अपना काम चलाते हैं । ट्रेन के दरवाज़े से किनारे के गाँवों में लोग अक्सर अपने घर के तालाबों में बर्तन माँजते, कपड़े धुलते, नहाते, मछली पकड़ते हुए दिख जाते हैं । मैंने बड़े ध्यान से देखना शुरू किया, लेकिन मुझे कहीं कोई हैंडपम्प नहीं नज़र आया । फिर मैंने अपने सहयात्री से, जो कि त्रिपुरा के रहने वाले थे, पूछा तो उन्होंने बताया कि इस क्षेत्र में पानी की वाक़ई में क़िल्लत है ।
थोड़ी देर में बदरपुर आने वाला था । मैंने बराक नदी का बड़ा नाम सुन रखा था, जिसके नाम पर इस पूरे क्षेत्र को सम्मिलित रूप से बराक घाटी कहा जाता है । बराक नदी के पहले दर्शन बदरपुर की बाहरी सीमा पर ही मिलने थे, इसलिए मैं दुबारा गेट पर जाकर खड़ा हो गया । दूसरी तरफ़ वाले गेट पर ट्रेन में साथ चल रहे चार कोच अटेंडेंट बांग्ला भाषा में गप्पें मार रहे थे । उनकी बातें मुझे पूर्णतया तो समझ नहीं आयी, लेकिन जितना मैं समझ रहा था, उससे लगा कि उनके बीच वर्ड्ज़्वर्थ, न्यूटन और शेक्सपियर जैसे नामों के साहित्य को लेकर बहस चल रही थी । एक अटेंडेंट ने कुछ बांग्ला साहित्यकारों का नाम भी लिया, जो मुझे याद नहीं आ रहा । तभी उनमें से एक ने कहा कि आजकल की जेनरेशन पढ़ती ही कहाँ है, आजकल के लोगों को तो फ़ेसबुक और व्हाट्सएप से फ़ुर्सत ही कहाँ मिलती है ।
गेट पर खड़े होकर मेरे पास मुस्कुराने के अलावा और कोई चारा ही नहीं था । लेकिन ट्रेन के अटेंडेंट्स द्वारा की जा रही उस बहस ने मुझे आश्चर्यचकित कर दिया था । तभी ट्रेन एक बड़े पुल से धड़धड़ाती हुई गुज़रने लगी । पुल के नीचे नीचे लम्बी-चौड़ी बराक नदी नज़र आ रही थी । यह नदी आगे करीमगंज के पास भारत- बांग्लादेश की अंतराष्ट्रीय सीमा बनाती है । जटिंगा नदी और रास्ते में मिली अन्य कई पहाड़ी नदियों की तुलना में बराक नदी में पानी अच्छी-ख़ासी मात्रा में था । नदी के आर-पार आने जाने के लिए दोनों तरफ़ कई नावें भी खड़ी थीं । नदी पार करते ही बदरपुर रेलवे स्टेशन आ गया । वहाँ उतरकर मैंने कुछ खाने-पीने का सामान लिया । शाम भी हो चली थी तो मैं वापस अपनी सीट पर जाकर सो गया ।
यूँ तो ट्रेन धरमनगर तक एक घंटे की देरी से चलती रही, लेकिन जब हम 8 बजे अगरतला रेलवे स्टेशन पहुँचे तो पता चला कि ट्रेन अपने नियत समय से 45 मिनट पहले ही अगरतला पहुँच गई । मैंने भी सोचा कि चलो अंत भला तो सब भला, लेकिन अगरतला रेलवे स्टेशन पर एक दिक्कत और थी। नया-नया बना रेलवे स्टेशन शहर के बाहरी हिस्से में है और आसपास कोई होटल नहीं है । होटल के लिए कम से कम 5 किमी दूर बत्तला (Battala ) जाना पड़ता है । मन में शुरू से एक चिंता थी कि 8 बजे तक क्या पता अगरतला की सड़कों पर सन्नाटा पसर जाता हो और आगे जाने के लिए कुछ मिले ही ना, या मिले भी तो बहुत महँगा ना मिले ।
जब मैं अगरतला स्टेशन के बाहर पहुँचा तो वहाँ ऑटो-रिक्शा की लाइन लगी पड़ी थी । बाद में मैंने ध्यान दिया कि अगरतला की सड़कें लगभग साढ़े नौ बजे तक गुलजार रहती हैं । अगरतला शहर में एक स्थान से दूसरे स्थान तक जाने के लिए ऑटो-रिक्शा बड़े आराम से और सही रेट पर मिल जाते हैं । ऑटो-रिक्शा की उस भीड़ में उचित किराए से ज़्यादा पैसा वसूले जाने की गुंजाइश बहुत कम थी । इसलिए किसी होटल में रुकने के बजाय मैं स्टेशन से उतरकर 15 किमी दूर स्थित अगरतला एयरपोर्ट चला गया, जहाँ मेरे एक मित्र ने रहने का जुगाड़ कर दिया ।
अगले दिन सुबह मैंने सबसे पहले अगरतला में वोडाफोन स्टोर जाकर अपने खोए SIM की जगह दूसरा SIM इशू करवाया । उसके बाद अपने स्थानीय दोस्त की स्कूटी लेकर निकल पड़ा त्रिपुरा की सैर पर । अगले चार दिनों में मैंने त्रिपुरा के कई सारे पर्यटन स्थलों का भ्रमण किया, जिसकी कहानी अगले पोस्ट में जारी रहेगी ।
बहुत अच्छा लगा ! त्रिपुरा को इतने करीब से देखने का मौका मिल रहा है !! लिखते रहिये
जी हाँ, बिल्कुल । बहुत-बहुत धन्यवाद आपका 🙂
वाह ग़ज़ब हैं आपका अनजाना सा डर जो पीठ पर बैग डालते ही उड़नछू…क्या अगरतला से बांग्लादेश जाना पॉसिबल है कोक्स बाजार और वहां से आगे St martins बीच आइलैंड जाने का सपना तो मेरा भी है बस समय और पैसा…याने सिलचर halflong लाइन को broadgauge में convert कर त्रिपुरा तक एक्सटेंड किया क्योंकि इसी लाइन पर गुवाहाटी से जटिंगा और halflong आते है…..भाई पहले कंचनजंघा सिर्फ गुवाहाटी तक चलती थी अब इसे शायद अगरतला तक आगे बढ़ाया है…पिछली यात्रा मेघालय की में भी एक दुर्घटना हुई थी और इसमें भी एक हद है…लेकिन सही है आपने हिम्मत से यात्रा जारी रखी…..भाई ग़ज़ब मने ग़ज़ब जो जानकारी आपने जटिंगा के बारे में बताई मुझे नही पता थी और जटिंगा को में अद्भुत जगह मानता था पक्षियों की आत्महत्या के विषय मे लेकिन आपने जिज्ञासा बहुत ज्यादा बढ़ा दी…जटिंगा पर आपकी पोस्ट का दिल से बेसब्री से इंतज़ार रहेगा….अगरतला स्टेशन से शहर 5 से 10 km दूर है उत्तर पुर्व में 9.30 तक शहर जाग रहा है चलो याने अगरतला जाने वाले को स्टेशन से शहर तक जाने में और मेहनत है….बेहतरीन शानदार लेखन…आपकी पोस्ट का दिल से इंतज़ार रहता है…दिल से बेहतरीन लिखते हो भाई ग़ज़ब पढ़कर शाम बन गयी भाई….
प्रतीक जी, आपका हृदय से धन्यवाद । आपके कमेंट्स पढ़कर एक प्रेरणा मिलती है लिखते रहने की । जटिंगा पर भी आएँगे बाद में । अभी त्रिपुरा की सैर करा देता हूँ । 🙂
एक सप्ताह की छुट्टी में ट्रेन से वाराणसी से परिवार के साथ त्रिपुरा भ्रमण कुछ कठिन लग रहा है…
हाँ , ट्रेन से तो बहुत ही कठिन है । चार दिन तो खाली आने-जाने में निकल जायेंगे । बेहतर होगा कि सिक्किम या मेघालय की तरफ घूम लें ।