चादर ट्रेक (Chadar Trek) के रोमांच के अलावा एक घुमक्कड़ के लिए कड़कड़ाती ठण्ड में लेह जाने की और कोई वजह नहीं हो सकती। जनवरी के महीने में हमारी लेह यात्रा का भी यही उद्देश्य था। चादर ट्रेक के नाम पर हमने अपनी फ्लाइट तो बुक कर ली , लेकिन प्रस्थान से 10 दिन पहले ही ज़ांस्कर घाटी में एक भूस्खलन की वजह से चादर ट्रेक को रोक दिया गया। जल्दबाजी में हमने मारखा घाटी में ट्रैकिंग की योजना बनाई और नियत तिथि पर लेह को उड़ चले।
लेह में उतरते ही वहाँ की ठण्ड का एहसास हो गया। मौसम बिलकुल साफ़ था, धूप खिली थी, लेकिन वातावरण में जबरदस्त गलन थी। जहाँ तहाँ टुकड़ों में गिरी बर्फ एहसास दिला रही थी कि हमारी लेह यात्रा रोमाँचक होने वाली थी। ट्रेक शुरू करने से पहले हम 2 दिन के लिए खुद को वातावरण के अनुसार ढालना चाहते थे। एक मित्र की सहायता से हमने 2 दिन के लिए एक आर्मी गेस्ट हाउस पहले ही बुक कर लिया था , इसलिए हवाई अड्डे से टैक्सी पकड़कर सीधे वही पहुँच गए। गर्म पानी, स्वादिष्ट भोजन और वाई – फाई की सुविधाओं से युक्त वह गेस्ट हाउस एक सैन्य छावनी के बीच में स्थित था और वहाँ ठहरना ही एक रोमाँचक अनुभव रहा।
लेह पहुँचने के बाद पहले दिन ही घूमने की हमारी कोई खास योजना नही थी। गेस्ट हाउस पहुँचकर हमने स्नान वगैरह किया और थोड़ी ही देर में आर्मी वालों का तगड़ा नाश्ता पहुँच गया। नाश्ता करने के बाद घूमने के लिये जाने का मन तो था , लेकिन वातावरण की ठंड और बिस्तर की गर्मी ने सारा जोश ठंडा कर दिया और हम बिस्तर में ही घुस गए।
शाम के समय हम लेह के मुख्य बाजार की तरफ गए, लेकिन रविवार होने की वजह से ज्यादातर दुकानें बंद पड़ी थी। अब दो दिन लेह में तो व्यतीत कर नहीं सकते थे, इसलिए हमने सोचा कि अगले दिन कही घूम लेते हैं। कुछ टैक्सी वालों से बात करने से लगा कि लामायारु (Lamayaru) , अलची (Alchi) और चुम्बकीय पहाड़ी (Magnetic Hill) जाना अच्छा रहेगा , तो हमने अगले दिन उस तरफ जाने के लिये एक टैक्सी शाम को ही बुक कर ली। फिर हमने ट्रैकिंग के दौरान काम आने वाली कुछ चीजों के बारे में पता किया और वापस गेस्ट हाउस आ गए।
अगले दिन सुबह-सुबह टैक्सी ड्राइवर तय समय पर साढ़े आठ बजे पहुँच गया , लेकिन आलस के कारण हमें वहाँ से निकलते- निकलते 10 बज गए। हमारी योजना चुम्बकीय पहाड़ी, ज़ांस्कर-सिंधु संगम, लामायारु , अलची , लिकीर और फयांग घूमने की थी। इसी बहाने चारों तरफ फैली बर्फीली चोटियों और लेह के ठण्डे रेगिस्तान के दर्शन भी करने का मन था , साथ ही साथ सिंधु दर्शन तो सोने पे सुहागा।
हम लेह से निकलकर कारगिल जाने वाली सड़क पर बढ़ चले। थोड़ी ही दूर चलने पर स्पितुक गाँव के पास एक स्केटिंग रिंग और सिंधु नदी दोनों नजर आ गए। इतिहास की किताबों में महाशक्तिशाली नजर आने वाली और एशिया की सबसे बड़ी नदियों में से एक सिंधु नदी , वहाँ 3-4 धाराओं में बँटी एक छोटी सी पहाड़ी नदी लग रह थी। पेड़ों की आड़ में लुकाछिपी खेल रही नदी का दृश्य बहुत ही मनोरम लग रहा था। थोड़ी दूर साथ चलने के बाद फेय गाँव के पास नदी ने हमारा साथ छोड़ दिया । फेय गाँव के सामने से होते हुए हम फयांग पहुँच गए। ड्राइवर ने सड़क से ही फयांग में स्थित बौद्ध मठ को दिखाया, जहाँ हमें शाम को वापसी के समय घूमना था।
आगे बढ़ते हुए सड़क के किनारे की पथरीली जमीन और ऊँचे- ऊँचे पहाड़ एहसास दिला रहे थे कि हम लेह के बर्फीले रेगिस्तान से गुजर रहे थे। थोड़ी देर में ही हम गुरुद्वारा पत्थर साहिब पहुँच गए। लेकिन ना तो हमने कभी उस गुरूद्वारे के बारे में कुछ सुना था और ना ही उससे जुड़ी कोई कहानी। हमारे ड्राइवर ने भी कुछ विशेष नही बताया। बस चलती गाड़ी से बता दिया कि यह गुरुद्वारा पत्थर साहिब है। हमने भी गाड़ी में से ही दर्शन किये और आगे बढ़ गए। गुरुद्वारा और पूज्य नानक लामा से जुड़ी कहानियाँ तो मुझे बाद में पता चली।
थोड़ी देर के सफ़र के बाद हम चुम्बकीय पहाड़ी (Magnetic Hill) पहुँच गए। चुम्बकीय पहाड़ी भी एक अबूझ पहेली है। कहा जाता है कि यहाँ ढलान पर खड़ी गाड़ी भी नीचे जाने के बजाय गुरुत्वाकर्षण के सारे नियमों को धत्ता बताते हुए ऊपर की तरफ चलती है। सड़क पर बने एक निशान पर हमने भी अपनी गाड़ी लगा ली, लेकिन कुछ नहीं हुआ। इधर-उधर हर जगह लगाकर देखने से भी कुछ नही हुआ। सड़क के एक तरफ की पहाड़ी पर मैग्नेटिक हिल लिखा हुआ था। हमें लगा कि हो सकता है, असली पहाड़ी उधर हो। हम उधर बढ़ गए , लेकिन वहाँ भी कुछ नही मिला। ड्राइवर को भी कुछ पता नहीं था। हमें लगा कि चुम्बकीय पहाड़ी (Magnetic Hill) की सारी कहानी झूठी है। लेकिन आश्चर्य बस इस बात का था कि हमने इंटरनेट पर एक भी रिपोर्ट ऐसी नहीं पढ़ी थी, जिसमें ये कहा गया हो कि चुम्बकीय पहाड़ी का सारा रहस्य झूठा है। हमने वहाँ से गुजरने वाली २-३ और गाड़ियों को भी रोक कर पूछा। लेकिन कोई कुछ नही बता पाया। निराश होकर हम आगे बढ़ गए।
थोड़ा आगे बढ़ते ही हमें सड़क के बिलकुल करीब भराल का एक बड़ा झुण्ड दिखाई दिया। उस दृश्य ने चुम्बकीय पहाड़ी से उत्पन्न निराशा को कुछ कम कर दिया । नीमू के ठीक पहले सिंधु और ज़ांस्कर नदी का संगम पड़ता है, और उस जगह को भी संगम ही बोलते हैं । मुख्य सड़क से ही नीचे बह रही दो नदियों के संगम का विहंगम दृश्य दिखता है । मैंने गाड़ी से उतरकर संगम की कुछ फोटो खींचनी शुरू की, तभी मेरे साथी तनवीर साहब ने कहा कि हम ज़ांस्कर पर चादर ट्रेक तो कर नहीं पाये, लेकिन जब यहाँ तक आ ही गए हैं तो क्यों ना ज़ांस्कर पर थोड़ा सा टहल लिया जाये। और इस तरह सीधे नीमू जाने की जगह हमने गाड़ी संगम की तरफ मोड़ ली।
संगम पर ज़ांस्कर और सिंधु का मिलन बहुत ही सुंदर दिखता है। दोनों के पानी के रंग का अंतर भी साफ़ समझ में आता है। सिंधु किनारे पर जमी हुई थी, लेकिन बीच में पानी का प्रवाह बहुत ही तीव्र था। कुछ लोग जमी हुई नदी पर चहलकदमी भी कर रहे थे। मैं भी एक तरफ किनारे से ही फोटो खींचने लगा। थोड़ी दूर पर मेरे दोनों साथी भी टहल रहे थे। उन लोगों के पोज़ देने पर मैं उनकी फोटो खींचने लगा। तभी तनवीर साहब के दिमाग में पता नहीं क्या आया और वो झुककर सिंधु के पानी को छूने लगे। और फिर एक हादसा हो गया।
उनके पैरों के नीचे बर्फ टूट गयी और वो सीधे बर्फ के छोटे-छोटे टुकड़ों से भरी उस नदी में गिर गए। नदी का पानी बहुत ही ठण्डा था और पानी का बहाव बहुत ही तीव्र। हाथ-पाँव छटपटाने की वजह से जमी हुई बर्फ के नुकीले किनारों ने उनके हाथ और चेहरे को कई जगह छिल दिया। झपट कर उन्होंने डी. के. साहब का पैर पकड़ा और मैंने डी. के. साहब का हाथ। लाख कोशिश के बावजूद हम ही अंदर की तरफ खिंचने लगे। हम जल्दी से वहाँ से हटे। तभी हमारी कैब का ड्राइवर दौड़ के आया और बर्फ के किनारे पर लेटकर उनका हाथ पकड़ लिया। उसने हमसे अपना पैर पकड़ने को कहा। अब मैं और डी. के. साहब ड्राइवर के एक-एक पैर को पकड़े हुए थे और उसने तनवीर साहब का हाथ। लेकिन ज्यादा हाथ-पाँव झटकने की वजह से बात नहीं बन पा रही थी। फिर मैंने उन्हें थोड़ा शांत रहकर पैर किनारे की तरफ करने को बोला, तब तक एक दूसरा ड्राइवर भी वहाँ पहुँच गया। उनके पैर को किनारे पर लगाते ही उसने झपट कर पैर पकड़ कर उन्हें बर्फ पर खिंच लिया। यह सारा काम पलक झपटते ही २-३ मिनटों में हो गया। संयोग से बर्फ का वो हिस्सा इतना मजबूत था कि अचानक से चार लोगों के खड़े होने पर भी नहीं टूटा । अगर वो हिस्सा टूटता तो पानी के तीव्र बहाव में हम पाँचों निकल लेते।
हमारी जान में जान तो आ गई थी , लेकिन हमें पता था कि सिर्फ २ मिनट की देरी में वहाँ बहुत कुछ हो जाने वाला था। तनवीर साहब के कपड़े भीग चुके थे और ठण्ड के मारे उनका बुरा हाल था। एक ड्राइवर के पास में कंबल पड़ा था। उसने उनको अपना कम्बल दे दिया। मैंने और डी.के. साहब ने भी अपने कपड़ों से एक-एक लेयर उतार कर उन्हें दे दी। फिर हम नीमू की तरफ बढ़ गए। नीमू बाजार में हमने कुछ कपड़े खरीदे और चाय का प्रबंध किया। अब तक हम सब काफी राहत महसूस करने लगे थे। बस अब एक फर्स्ट-ऐड का जुगाड़ करना था।
बाजार से आगे बढ़ते ही हमें एक आर्मी हॉस्पिटल नजर आया। सुरक्षाकर्मियों ने अनुरोध करने पर हमें अंदर जाने दिया। वहाँ उपस्थित डॉक्टर ने तुरंत ही मरहम पट्टी की और फिर गर्म भट्टी के सामने हाथ-पाँव सेंकने को बोला। थोड़े ही समय में प्राथमिक उपचार और आग से सिकाई हो जाने की वजह से तनवीर जी राहत महसूस करने लगे थे और हम लोग आगे के सफ़र के लिए तैयार हो गए । करीब एक घण्टे बाद हम वहाँ से निकलकर लामायारु की तरफ बढ़ गए ।
मेरे ख्याल से आगे लामायारु और अलची बौद्ध मठ के बारे में विस्तार से लिखने के लिए एक अलग पोस्ट लिखना चाहिए। इसलिए आज की यात्रा को यही विराम देते हैं। लेकिन जाते-जाते चुम्बकीय पहाड़ी का रहस्य जो कि अभी भी उलझा ही हुआ है, उसी की बात कर लेता हूँ।
लामायारु से वापसी करते समय हम एक बार फिर चुम्बकीय पहाड़ी (Magnetic Hill) के पास सड़क पर रुके। फिर हमने नियत स्थान पर गाड़ी खड़ी की , लेकिन वही ढाक के तीन पात , कुछ हुआ ही नहीं। ड्राइवर ने गाड़ी फिर आगे बढ़ा ली और लेह की तरफ चल पड़ा । मन को उस रहस्य का अनुभव ना कर पाने की कसक कचोटे जा रही थी। करीब २ किमी आगे जाने के बाद हमने गाड़ी फिर वापस मुड़वायी और एक बार पुनः चुम्बकीय पहाड़ी के पास पहुँच गए। इस बार हमने गाड़ी सड़क पर निर्धारित स्थान से थोड़ा आगे लगाई और चमत्कार हो गया। ढलान पर गाड़ी नीचे आने की बजाय ऊपर चढ़ने लगी। चुम्बकीय पहाड़ी के रहस्य का साक्षात अनुभव हो रहा था और दिल को अजीब सा सुकून रहा था । अँधेरा गहराने लगा था और फयांग जाने का कोई औचित्य ही नहीं था। वहाँ से हम सीधे लेह के अपने गेस्ट हाउस में वापस आ गए।
अपने अगले पोस्ट में मैं आपको लामायारु और अलची की सैर कराऊँगा। आगे लेह की इस यात्रा में हेमिस नेशनल पार्क, फयांग , हेमिस और थिकशे बौद्ध मठ , पैंगोंग झील , खारदुंगला इत्यादि बहुत सारी जगहों की सैर से आपको रूबरू कराने की भी कोशिश रहेगी। आशा है इस पोस्ट में आपको चुम्बकीय पहाड़ी (Magnetic Hill) का रहस्य पसंद आया होगा और हमारे संगम के अप्रिय अनुभव से एक सबक सीखने को मिला होगा।
लेह में हेमिस नेशनल पार्क में ट्रेकिंग का अनुभव पढ़ने के लिए निम्नलिखित पोस्ट देखें :
- हेमिस नेशनल पार्क में ट्रेकिंग का पहला दिन : स्पितुक से जिंगचेन
- हेमिस नेशनल पार्क में ट्रेकिंग का दूसरा दिन : जिंगचेन में कैम्पिंग
- हेमिस नेशनल पार्क में ट्रेकिंग का तीसरा दिन : बर्फ़ीले तेंदुए की तलाश
- हेमिस नेशनल पार्क में ट्रेकिंग का चौथा दिन: अतिथि देवो भव: का अनुभव
मेरा हमेशा से यह मानना रहा है कि हर यात्रा के दौरान रोमांचक और साहसिक गतिविधियाँ करना अच्छी बात है , लेकिन उनके अच्छे-बुरे प्रभाव का आकलन भी सटीक होना चाहिए । वैसे मैं खुद कई बार ऐसे बुरे अनुभवों से रूबरू हुआ हूँ , चाहे वो राजस्थान में कुछ साल पहले मोटरसाइकिल की दुर्घटना रही हो या बैंकाक में दूसरे मंजिल की बालकनी से पहले मंजिल पर गिर जाना या फिर कोकरनाग में गिरने से मांसपेशियों का 2 हफ्ते तक अकड़े रहना ।
पढ़ें : (Mis)Adventures from My Life On The Road
जब आप सड़क पर निकलते हो तो दुर्घटनाएँ होना भी लाजिमी ही है , लेकिन फिर भी यही कहूँगा कि जिंदगी में रोमाँच भरिये , लेकिन पूरी तैयारी के साथ। ताकि आप लम्बे समय तक अपनी इस घुमक्कड़ी का आनंद उठा सके।