असम और अरुणाचल प्रदेश की सड़क यात्रा के आख़िरी चरण में माजुली से गुवाहाटी की वापसी को लेकर दिमाग में कई तरह की उधेड़बुन थी । सोचा कि कार नाव पर चढ़ाकर जोरहाट के निमतीघाट पहुँच जाऊँ और फिर वहाँ से फटाफट गुवाहाटी । लेकिन कुछ तो माजुली के कमलाबाड़ी घाट पर गाड़ियों की लाइन देखकर और कुछ अपने स्वभाव के कारण यह विचार जँचा नही । जोरहाट से गुवाहाटी के बीच तो गाड़ी पहले भी चला चुका था, फिर दुबारा उसी रास्ते पर क्यों जाना? इसलिए इतना निश्चय तो कर लिया कि वापसी लखीमपुर होकर ही करनी है।
लखीमपुर की तरफ से वापसी करनी हो तो माजुली से दो विकल्प हैं। एक तो वही सड़क, जिधर से हमने माजुली में प्रवेश किया, जेन्ग्रीमुख होते हुए । इस सड़क की खराब हालत तो हम देख ही चुके थे । जेन्ग्रीमुख (Jengraimukh), घिलामोर ( Ghilamor ) होते हुए माजुली से निकलकर लखीमपुर (कुल 120 किमी) की तरफ जाने पर हमें करीब 80 किमी अतिरिक्त दूरी तय करनी पड़ती, लेकिन सारी यात्रा सड़क मार्ग से ही हो जाती, कोई नाव या नदी का चक्कर नहीं ।
दूसरा विकल्प माजुली के गढ़मूर से सीधे लखीमपुर (कुल 40 किमी) की तरफ जाना था । इस विकल्प में पहले हमें गढ़मूर के पास लुहित नदी पर बने बाँस के पुल को पार करना था, और फिर अनजान रास्तों पर आगे बढ़ते हुए सुबनसिरी (स्थानीय भाषा मे खबालू) नदी को नाव द्वारा पार करना था। सुबनसिरी को पार करने के बाद कच्चे-पक्के रास्तों से सीधे लखीमपुर पहुँच सकते हैं ।
उस समय तक हम असम में इतना चल चुके थे कि अनजान गाँवों और वीरान पड़े रास्तों का डर हमारे दिल से पूरी तरह गायब हो चुका था । अब तो स्थिति ऐसी थी कि बस रास्ता मिलना चाहिए, हम किधर भी निकल लेंगे । लेकिन लखीमपुर के सीधे रास्ते पर एक डर था, कार को नाव पर चढ़ाने और उतारने का । रोइंग से पासीघाट वाले रास्ते पर मैंने यह काम दो बार किया था और दोनों ही बार कार नदी में कूदते-कूदते बची थी । इसलिए सारी दुविधा नाव की सवारी को लेकर ही थी । डर तो था, लेकिन सीधे नदी वाले रास्ते पर चलने से उबड़-खाबड़ रास्ते पर एक लम्बा चक्कर बच जाता । अगर जेन्ग्रीमुख वाला रास्ता खराब नहीं होता तो फिर तो कोई दुविधा ही नहीं रहती । कार को सरपट दौड़ा लेता । फिर सारे डर को एक तरफ किया और तय हुआ कि सीधे नदी वाले रास्ते से माजुली के कुछ और अनछुए हिस्सों से रूबरू होते हुए लखीमपुर जायेंगे ।
माजुली के इस हिस्से में कोई घूमने नहीं जाता । अगर कोई पर्यटक हमारी तरह ही लखीमपुर से माजुली कार द्वारा आना चाहता है, तो कभी-कभी टैक्सी वाले इस रास्ते का प्रयोग करते हैं । लेकिन माजुली पहुँचने वाले अधिकाँश पर्यटक जोरहाट की तरफ से ही आते हैं ।
सुबह-सुबह नाश्ता करने के बाद हम आगे की यात्रा पर निकल पड़े। लोहित (लुहित) नदी का बाँस और लकड़ी वाला पुल तो हमारे गेस्ट हाऊस के पास में ही था । बाँस के बने ज्यादातर पुलों पर मजबूती के लिए कार की चौड़ाई के अंदाजे से लकड़ी के मोटे-मोटे पटरे लगे रहते हैं । पटरों को सीध में रखकर कार को सीधा पटरों के ऊपर चढ़ाना होता है और फिर बिना इधर-उधर किये नदी पार करनी पड़ती है । असम में ज्यादातर जगह बाँस के पुल ऐसे ही होते हैं । पुलों की मजबूती को लेकर तो कोई शक नही रहता, लेकिन नई-नई गाड़ी चलाने वालों के लिए पटरों पर सीधे चढ़कर पार करने में दिक्कत हो सकती है । मैं भी तो नौसिखिया ड्राइवर ही था । लेकिन इस पुल पर पटरे वाली व्यवस्था नहीं थी । मन में संशय आ गया कि कार वालों के लिए पुल है भी कि नही । गेस्ट हाऊस वाले ने तो बताया था कि इस पुल पर कारें आती-जाती रहती हैं । लेकिन फिर भी हम किसी और से पूछ कर तसल्ली करना चाहते थे । फ़ोटो भी तो खींचने थे । इसलिए कार को एक तरफ खड़ा किया और फ़ोटो खींचने लगे । थोड़ी देर के अंतराल पर 2-3 लोग वहाँ से गुजरे। सबने तसल्ली दी कि कार पार हो जाएगी । बस फिर क्या था, मैने भी गाड़ी पुल पर चढ़ा दी और फिर खड़ खड़ करते हुए पुल पार कर लिया ।
पुल के दूसरी तरफ चुंगी जैसी व्यवस्था थी । वहाँ एक आदमी नदी पार करने के बाद पैसे वसूल रहा था । मैंने पूछा कि कितने हुए तो उसने बताया 300 रुपये । एक पुल पार करने के 300 रुपये ! मुझे लगा कि वो ठग रहा है । कहीं रेट का कोई बोर्ड भी नही लगा था । असम इनलैंड वाटर ट्रांसपोर्ट का एक बोर्ड था तो इसका मतलब यही था कि यहाँ पुल की व्यवस्था में सरकार का योगदान था । सरकारी वसूली तो बिना रसीदों के होती नही है, तो मैंने भी रसीद की माँग की । पता चला कि रसीद नही मिलती है वहाँ । फिर उस आदमी ने बताया कि पुल को ठेके पर दिया जाता है । निर्माण से लेकर रखरखाव तक की जिम्मेदारी ठेकेदार की होती है । इसलिए पुल पर कार द्वारा चलने का किराया 300 रुपये है । मैं पैसे देकर आगे बढ़ तो गया, लेकिन अंत तक समझ नही आया कि उसने मुझसे ज्यादा पैसे लिए या सही पैसे लिए ।
नदी पार कर थोड़ा और आगे एक गाँव था । सड़क के दोनों तरफ बाँस की फलटियाँ लगाकर लोगों ने अपने-अपने घरों की चहारदीवारी सुनिश्चित कर रखी थी । ऐसा असम और मेघालय के ज्यादातर गाँवों में दिखता है । सड़क किनारे जमीन के आखिरी सिरे पर टिन की छत वाले घर , फिर उसके सामने बड़ा सा अहाता और अहाते में केला, नारियल और सुपाड़ी के ऊँचे-ऊँचे पेड़, फिर हर तरफ से बाँस की चहारदीवारी । वैसे शहरों के नजदीक वाले इलाकों में धीरे-धीरे टिन की जगह पक्की छतें बनने लगी हैं और बाँस की जगह पक्की चहारदीवारी ।
गाँव के बाहरी हिस्से पर एक तालाब था और फिर उसके बाद खेतों में सरसों की पीली चादर बिछी हुई थी । तालाब के किनारे से खेतों का दृश्य बहुत ही सुन्दर लग रहा था । आगे तो सड़क नाम की कोई चीज नही थी । बस खाली जमीन पर पेड़ों और झाड़ियों के किनारे से गाड़ी को आगे बढ़ाते रहना था । एक बरसाती नदी से सामना हुआ । सूखी पड़ी नदी की तलहटी पर रेत ही रेत थी और थोड़ा-बहुत पहियों के निशान । फिर से डर लगने लगा कि कहीं पहिये रेत में धँस ना जायें, धड़कते दिल से गाड़ी को रेत पर उतारा और सूखी तलहटी को पार कर दूसरी तरफ पहुँच गया । थोड़ा और आगे बढ़ने पर एक कच्चा रास्ता मिला । आज जब यह सब लिख रहा हूँ तो सोचता हूँ कि कितना अच्छा होता अगर वो सब कैमरे में कैद किया होता और बैठकर देख रहे होते, लेकिन उस समय तो दिमाग में बस यही रहता है कि भगवान कैसे भी करके इस स्थिति से बाहर निकल जाएं । उस समय फ़ोटो या वीडियो का ध्यान नही रहता है । मैंने बाद में गो प्रो कैमरे के साथ भी कुछ रोमाँचक सड़क यात्राएं की, कार के डैशबोर्ड पर लगाकर, हेलमेट के ऊपर लगाकर, लेकिन हर बार यही नोटिस किया कि जब भी ऐसी स्थितियां मिली तो दिमाग हमेशा वहाँ से निकलने में ही लगा रहा ।
माजुली के गाँवो से गुजरते उस कच्चे रास्ते पर हम आगे बढ़ते गए । इस तरफ के इलाके में सड़कें काफी ऊँचाई पर बनी हुई हैं । सड़कों के दोनों तरफ की जमीन नीचे है । गाँवों में घरों और खेतों का स्तर भी सड़कों की तुलना में नीचे है । जिधर भी नजर जाती थी, घास के हरे मैदान ही नजर आते थे या फिर सरसों से भरे खेत । और कुछ नही था माजुली के उस सपाट, एकरस विस्तार में । छोटे नाले सूखे हुए, सड़कें धूल से भरी हुई और नदियाँ शांत, सौम्य रूप में बहती हुई। ना तो पानी से भरे वेटलैंड्स थे, ना ही जलकुंभियों का हरा-भरा समूह और ना ही माजुली के हर तालाब में, हर गाँव में जिधर भी देखो उधर घूमती नावें। नावें माजुली के निवासियों की जिंदगी का एक अभिन्न हिस्सा है। माजुली की प्राकृतिक सुंदरता देखनी हो तो बारिश या उसके बाद का मौसम सबसे अच्छा होता है, लेकिन जब माजुली के नदी -नालों से होकर अनजान रास्तों पर कार लेकर घूमना हो तो अच्छा है कि सर्दियों में ही जाएं। बारिश में कब कहाँ फँस जायेंगे या कौन सा रास्ता बंद हो जाएगा, कोई नही जानता। बारिश के मौसम में बाढ़ यहाँ बहुत ही आम बात है । हर तरफ पानी ही पानी । नदियाँ जब अपने भयावह रूप में आती हैं तो माजुली के अधिकाँश हिस्सों को अपने आगोश में ले लेती हैं । कभी माजुली द्वीप का क्षेत्रफल लगभग 1200 वर्ग किमी हुआ करता था, लेकिन नदियों का जलस्तर बढ़ने के कारण होने वाले लगातार कटावों की वजह से माजुली का एक बड़ा हिस्सा कटता चला गया और अब माजुली का क्षेत्रफल लगभग 400 किमी ही बचा है । ऐसा भी कहते हैं कि अगर ऐसे ही माजुली में बाढ़ आती रही और इसके गाँव कटते रहे तो आने वाले 15-20 सालों में यह नदी द्वीप अतीत का एक हिस्सा बनकर रह जायेगा ।
ब्रह्मपुत्र और उसकी सहायक नदियाँ माजुली के लिए वरदान भी हैं और एक अभिशाप भी । यहाँ के निवासियों को भी पता है कि ब्रह्मपुत्र के बिना उनके जीवन में कुछ नही रहेगा, इसलिए उन्मादी नदियों के पड़ोस में होने के बाद भी उन्होंने अपनी जिंदगी को नदियों से जोड़ लिया है । जब बाढ़ आती है, तो माजुली के खेतों की उर्वरा शक्ति बढ़ जाती है । मछली पकड़ना यहाँ एक मुख्य व्यवसाय है । माजुली की प्राकृतिक खूबसूरती भी तो बारिश के बाद निखर के आती है, जब पानी भरने से बने लगूनों में जिंदगी के कई रूप दिखने लगते हैं । नदियों से दिक्कतें तो हैं, लेकिन जिंदगी के सारे रंग-रूप भी इन नदियों की वजह से ही हैं ।
गाँवों में जगह-जगह छोटे-छोटे बच्चे पारम्परिक वस्त्र पहने हुए स्कूल जा रहे थे । हर तरफ खुशी का माहौल लग रहा था, तब हमें लगा कि कहीं कोई त्यौहार तो नही है । पूछने पर पता चला कि उस दिन सरस्वती पूजा थी । सरस्वती पूजा असम के प्रमुख त्यौहारों में से एक है और राज्य में हर जगह बहुत ही धूमधाम से मनाई जाती है । आगे बढ़ने पर सड़क के किनारे एक और नदी मिली, एकदम सूखी हुई । नदी के दूसरी तरफ सरसों के खेत और बाँस की बल्लियों पर खड़े घर बहुत ही सुंदर लग रहे थे । मैं फ़ोटो खींचने के लिए नीचे उतरा, तो देखा कि कुछ दूरी पर नदी में पानी था और उसमें नावें चल रही थी। थोड़ी दूर तक पानी और फिर सूखी नदी का यह दृश्य मैने पहली बार देखा था ।
धीरे-धीरे बढ़ते हुए बिना किसी परेशानी के हम सुबनसिरी नदी के तट पर पहुँच गए । फेरी को आने में 10-15 मिनट का समय था । सुबनसिरी के आर-पार कार को ले जाने का किराया 500 रुपये है । कार के किराए में ही हमारा व्यक्तिगत किराया शामिल होता है । 500 रुपये थोड़ा ज्यादा लग सकता है, क्योंकि जोरहाट वाली फेरी का किराया भी 800 रुपये है और आप माजुली से सीधे जोरहाट जा सकते हैं, फिर वहाँ से आगे कहीं भी । यहाँ तो पहले माजुली के पास वाले पुल पर 300 रुपये दिए, फिर ऊबड़-खाबड़ रास्ते से होते हुए सुबनसिरी के तट पर पहुँचे और अब 500 रुपये देने थे । मतलब 800 रुपये खर्च करने के बाद भी कुछ नहीं पता था कि अच्छा रास्ता कब मिलेगा । लेकिन हमें तो नया रास्ता, नई जगह देखनी थी, तो हमारे पास सिर्फ यही एक विकल्प था ।
थोड़ी ही देर में नाव आ गई । मैंने बड़े आराम से कार नाव पर चढ़ा दी । पासीघाट वाली यात्रा जैसी कोई भी दिक्कत नही हुई । कुछ मोटरसाइकिल और सवारियों को लेने के बाद नाव सुबनसिरी (खबालू) नदी के दूसरी तरफ चल पड़ी । हमारी नाव तो बड़ी थी, लेकिन नदी के आर पार चलने वाली ज्यादातर नावें एक इंजन वाली होती हैं, जिन्हें एक इंजन भूतभूति (Bhut-bhuti) कहा जाता है । यह एक इंजन वाली नावें तो भगवान भरोसे ही चलती हैं । अभी कुछ दिन पहले ऐसी ही एक भूतभूति का इंजन बीच नदी में बंद हो जाने से गुवाहाटी शहर में एक बड़ी दुर्घटना हो गई थी । भूतभूति से चलने में भले ही बहुत खतरा हो, लेकिन अन्य विकल्पों के अभाव में यही भूतभूति नाव हजारों ग्रामीणों की जीवन रेखा की तरह काम करती है ।
नदी में आगे बढ़ते हुए माजुली पीछे छूट रहा था। किनारों पर कटान स्पष्ट रूप से दिख रही थी। माजुली द्वीप की यादों को समेटे हम नाव की सवारी कर रहे थे , लेकिन किनारे दिख रहे कटानों के कारण बार-बार दिमाग में यही आ रहा था कि और कितने सालों तक यह द्वीप ऐसे रह सकता है । नदी के दूसरी तरफ पहुँचकर कार उतारने में भी कोई परेशानी नही हुई । नदी तट से निकलकर हम आगे बढ़ चले ।
माजुली पीछे छूट रहा था, लेकिन इस नदी द्वीप की यादें साथ थी । बहुत पहले जब एक दोस्त यहाँ इकोटूरिज्म से सम्बंधित किसी प्रोजेक्ट पर काम करने आया था, तभी से माजुली घूमने का बड़ा मन था । वह इच्छा पूरी हो गयी थी । नाव से नदी तट का भारी पैमाने पर हो रहा कटाव साफ नजर आ रहा था । कटाव के साथ ही माजुली के निवासियों का डर भी जुड़ा है । अगर नदियाँ ऐसे ही माजुली को काटती रहीं तो माजुली के अस्तित्व पर ही संकट आ जायेगा। और माजुली केवल एक द्वीप थोड़े है । यह तो असम की संस्कृति, नव-वैष्णव परम्परा, सजीव लगते मुखौटों की धरती है, इसलिए माजुली के कटाव हर किसी को चिंतित कर देते हैं ।
सरसों की पीली चादरें अब भी साथ दे रही थी । खेतों के सुंदर दृश्यों को मैं कैमरे में समेटने लगा । लगातार धूल भरे रास्तों पर चलने से गाड़ी भी एकदम धूल-धूसरित लग रही थी । पीछे की तरफ तो खाली धूल ही धूल अटी पड़ी थी । हम आगे बढ़कर एक गाँव मे पहुँचे । गाँव में हर तरफ वही बाँस बल्लियों वाले मकान, सुपाड़ी और नारियल के पेड़ । गाँव से थोड़ा आगे ही पक्की सड़क मिल गई । सरस्वती पूजा की चहल-पहल अब बढ़ चुकी थी और जगह-जगह लड़कियों के झुंड सुंदर-सुंदर साड़ियां पहने मिल जा रहे थे ।
लखीमपुर अब ज्यादा दूर नही था, लेकिन तभी गूगल देवता एक खेल खेल गए । मैंने जब तेज़पुर के लिए रास्ता खोजा, तो गूगल ने एक ऐसा रास्ता सुझाया, जिसपर जाने से मैं लखीमपुर के अंदर घुसे बिना ही NH 15 पर पहुँच जाता । लखीमपुर शहर में तो मुझे कोई रुचि थी नही, इसलिए मैंने पानीगांव से बाएं घूमकर गूगल द्वारा सुझाया रास्ता पकड़ लिया । करीब 7 किमी तक चलने के बाद एक नदी मिली, तब जाकर समझ आया कि गूगल ने गुगली कर दी थी । नदी पार करने के लिए एक पुल था तो, लेकिन वह बस, साईकिल और ज्यादा से ज्यादा हल्की मोटरसाइकिल के लिए था । कार ले जाने का तो सवाल ही नही था । वैसे नदी तक पहुँचने से एक फायदा यह हुआ कि बोतल में पानी भरकर गाड़ी के आगे-पीछे के शीशों को थोड़ा साफ़ कर लिया ।
बिना किसी उपाय के हम वापस पानीगांव गए और वहाँ से फिर लखीमपुर शहर होते हुए NH 15 पर आगे बढ़े । बन्दरदेवा पहुँचकर मन किया कि एक चक्कर ईटानगर का भी लगा देते हैं । लेकिन ईटानगर जाने के लिए हमारे पास इनर लाइन परमिट नहीं था । परमिट का जुगाड़ करने के लिए मैंने गाड़ी एक तरफ लगा दी। चेकपोस्ट पर पहुँचकर पता चला कि एक-दो फ़ोटोस्टेट की दुकान वाले ही परमिट बनाते हैं । कोई सरकारी ऑफिस नही है वहाँ । ऑनलाइन मिलने वाला तत्काल ILP बनाने में प्रति व्यक्ति 450 रुपये लग जाते हैं । मुझे तो लगा कि 20-30 रुपये में परमिट इशू होता होगा, लेकिन जब पता चला कि 450 रुपये वाला तत्काल ILP ही मिलेगा, तो मैंने ईटानगर घूमने का इरादा त्याग दिया । वहाँ समझ मे आया कि अरुणाचल प्रदेश का ऑनलाइन परमिट लेते समय कई सारे जिले, जहाँ पहुँचने की जरा भी संभावना हो, उल्लेख कर देना चाहिए । इससे परमिट वाली चिंता खत्म हो जाती है ।
आगे गोफूर से भी एक रास्ता ईटानगर को जाता है, लेकिन अब हमारा दिमाग तेज़पुर पहुँचने पर लगा था । रास्ते मे पड़ने वाले चाय के बगीचों की सुंदरता का लुत्फ उठाते हुए 5 बजते-बजते हम तेज़पुर पहुँच गए । हमारा उस रात का पड़ाव तेज़पुर में ही था, लेकिन कुछ ऐसा घटनाक्रम बना कि हमें रात में ही आगे बढ़ते हुए गुवाहाटी वापस आ जाना पड़ा ।
तेज़पुर में असम पर्यटन विभाग का प्रशांति टूरिस्ट लॉज हमने yatra.com के माध्यम से पहले ही बुक करवा रखा था । जब हम रिसेप्शन पर पहुँचे तो पता चला कि सारे कमरे पहले ही भरे हुए हैं और वहाँ हमारे नाम से कोई बुकिंग नहीं है । फिर मैने यात्रा के कस्टमर केअर से बात की । थोड़ी देर बाद उन्होंने बताया कि टूरिस्ट लॉज वालों ने उनकी बुकिंग को स्वीकार नही किया और सारे कमरे बुक कर दिये । अब सरकारी गेस्ट हाऊस पर यात्रा का बस तो चलना नहीं था, इसलिए वो कुछ भी नही कर सकते थे । फिर यात्रा ने मुझे किसी और जगह रुकने का ऑफर दिया । मैंने जब उनके द्वारा ऑफर किये गए होटल को चेक किया, तो पता चला कि बहुत ही घटिया होटल है। मैंने वो होटल लेने से इनकार कर दिया। इन सारे चक्करों में 8 बज गए । माजुली से दिनभर चलकर तेज़पुर तक पहुँचने में थकान तो हो गई थी, लेकिन मुझे गुवाहाटी में घर पहुँचकर ही रुकने का विचार सही लगा ।
बस फिर तेज़पुर ना रूककर मैं सीधे गुवाहाटी के लिए चल पड़ा । बिना किसी दिक्कत के 11.30 तक हम घर पहुँच गए । असम के आर-पार और अरुणाचल प्रदेश के कुछ हिस्सों की यादों के साथ यह पूर्वोत्तर भारत में हमारी पहली लम्बी यात्रा थी । गुवाहाटी से जोरहाट होते हुए शिवसागर में अहोम साम्राज्य के अवशेष, चराईदेव के भारतीय पिरामिड, डिगबोई का तेल संग्रहालय, लीडो और मार्गरीटा की कोयला खदानें, लीडो रोड (स्टीलवेल रोड) पर नाम्पोंग तक का सफ़र, डूमडूमा के चाय बागान, धोला-सदिया का पुल, रोइंग का खूबसूरत कस्बा, रोइंग से पासीघाट की रोमांचक यात्रा और माजुली नदी द्वीप के अनछुए रास्ते…इस पूरी यात्रा में हमने पूर्वोत्तर भारत के कुछ हिस्सों को बहुत करीब से देखा । जिन जगहों का नाम सुनकर अकेले जाने की हिम्मत नही होती थी, उनके दूरदराज वाले क्षेत्रों में भी आराम से घूम कर आये । सबसे ज्यादा फायदा तो यही हुआ कि पूर्वोत्तर में अकेले घूमने को लेकर जितनी भ्रांतियां और जो डर था, वो काफी हद तक दूर हो चुका था। और जब डर दूर हुआ तो फिर इस क्षेत्र में हर कोने तक पहुंचने की चाह तो बढ़नी ही थी । अब जब भी समय मिलता है, निकल लेता हूँ पूर्वोत्तर भारत की सड़कों की खाक छानने ।
आप ऐसे हिस्सो की शुद्ध हिंदी में घुमकक्कड़ी करवा रहे हो जो मेरा और कई लोगो का सपना है…माजुली के आपके फोटो बहुत खूबसूरत है खास तौर पे हरि घास वाले…अरुणाचल के तत्काल ilp के 450 बहुत है…थोड़ी सी पोस्ट बड़ी लगी पढ़ने में 7 से 8 मिनट लग गए लेकिन मजा बहुत आया।।।
धन्यवाद सर। सुनकर अच्छा लगा कि आपको पोस्ट पसंद आई । थोड़ा विस्तार से लिखने कि आदत है मुझे, इसलिए बस लिखता चला जाता हूँ । 🙂