इंडोनेशिया की इस यात्रा के लिए जैसे मैं शिद्दत से तरस रहा था। 2018 की एक शाम, जब मैं परिवार के साथ थाईलैंड की यात्रा से लौट रहा था, तो मन में ढेर सारी खट्टी-मीठी यादें थीं। दक्षिण-पूर्व थाईलैंड में चार साल की बेटी के साथ 15 दिनों तक एक द्वीप से दूसरे द्वीप की लगातार यात्राओं ने थका तो दिया था, लेकिन भविष्य की बहुत सारी यात्राओं को लेकर जोश में कोई कमी नहीं थी। उस पल ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि यह मेरी आख़िरी अंतरराष्ट्रीय यात्रा होने वाली है, जिसके बाद एक लंबा और अनचाहा ठहराव आने वाला था।
2019 की गर्मियों में जब मैं मिज़ोरम की पहाड़ियों में घूम रहा था, तब भी यह अंदेशा नहीं था कि कुछ ही महीनों में एक अदृश्य वायरस दुनिया भर में उथल-पुथल मचाने वाला है। कोविड-19 का आगमन सिर्फ़ हमारे लिए नहीं, बल्कि पूरी दुनिया के लिए के लिए एक बड़ी चुनौतीपूर्ण और अप्रत्याशित घटना थी । कुछ महीनों के लिए अंतरराष्ट्रीय सीमाएं बंद हो गईं, सड़कें सूनी हो गईं, हवाई अड्डों पर सन्नाटा छा गया और पासपोर्ट पर लगने वाली मुहरें एक तरह से इतिहास बन गईं। बीमारी, डर, वैक्सीन और अनिश्चितता के उस दौर ने जीवन के तरीके को ही बदल दिया। यात्राओं के प्रति जो उत्साह था, वह सब कुछ ही महीनों की उथल-पुथल में विलुप्त हो गया।
कोविड का असर कम होने के बाद जब ज़िंदगी धीरे-धीरे फिर से अपनी रफ़्तार पकड़ने लगी, तो मैंने अपना पूरा ध्यान पूर्वोतर भारत के विभिन्न हिस्सों में घूमने पर लगाया। इस अनछुए, विविधता से भरे क्षेत्र ने मुझे बेहद आकर्षित किया। उसी दौरान कुछ समय बाद हमारे जीवन में एक और नन्ही परी ने कदम रखा। परिवार बढ़ने के साथ ज़िम्मेदारियाँ भी बढ़ीं और जीवन की प्राथमिकताएँ स्वतः बदल गईं। नतीजतन, यात्राओं का उत्साह कुछ धीमा पड़ गया। लेकिन घुमक्कड़ी मेरे स्वभाव में है — और भला पाँव ज्यादा देर एक जगह कैसे टिकते? कुछ समय बाद मैंने फिर से धीरे-धीरे घूमने की लय पकड़ी। जंगलों की हरियाली, घाटियों की शांति, पहाड़ियों की ठंडी हवा और झरनों की कलकल ने एक बार फिर बुलावा भेजना शुरू किया। मणिपुर से लेकर नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश से त्रिपुरा तक — पूर्वोत्तर भारत के हर कोने में घूमते हुए जिंदगी की बदलती प्राथमिकताओं के बीच मैं ख़ुद से जुड़ा रहा।
पूर्वोत्तर भारत में मेरी यात्राओं की एक झलक: पूर्वोत्तर भारत में मेरी यात्राएँ
2024 में जीवन ने एक नया मोड़ लिया और मेरा स्थानांतरण गुवाहाटी से प्रयागराज हो गया। इस बदलाव ने न सिर्फ़ शहर बदला, बल्कि सोच और दिशा को भी नई ऊर्जा दी। प्रयागराज पहुंचते ही यह महसूस हुआ कि अब वह समय आ गया है जब एक बार फिर से विदेश यात्राओं की शुरुआत की जाए। लंबे समय से रुकी हुई घुमक्कड़ी की इच्छा फिर से सिर उठाने लगी थी, और नई योजनाओं की रूपरेखा मन में बनने लगी थी। वातावरण बदला था, पर मन में पुराने सफर की यादें और नए सफर की ललक अब भी वैसी ही थी। गुवाहाटी में रहने और पूर्वोत्तर के दूर-दराज़ इलाकों की कठिन यात्राओं के बाद प्रयागराज से दिल्ली की यात्रा अब बेहद सरल और सहज लगने लगी थी। दिल्ली से तो वैसे भी देश-विदेश की लगभग हर जगह के लिए उड़ानें आसानी से उपलब्ध हैं।
हालांकि अपने पुराने अनुभवों के आधार पर जब अगले गंतव्य की योजना बनानी शुरू की, तो लगा जैसे इतने वर्षों के अन्तराल में फटाफट ट्रिप बना लेने वाला हुनर कही खो सा गया है। घुमक्कड़ी की दुनिया में भी बहुत सारे बदलाव आ चुके थे। हवाई किराए काफी बढ़ चुके थे, वीज़ा प्रक्रियाएँ जटिल हो गई थीं और वैश्विक स्तर पर युद्ध और संघर्ष ने माहौल को अस्थिर बना दिया था। ऐसा लगा मानो मेरे कदमों पर अचानक ब्रेक लग गया हो। विदेश यात्रा को लेकर जो आत्मविश्वास कभी मेरी सबसे बड़ी ताक़त हुआ करता था, वह अब डगमगाने लगा था। मन में बार-बार यह आशंका घर करने लगी कि क्या अब कभी मैं पहले की तरह खुद से टिकट बुक कर, वीज़ा लेकर अकेले यात्रा कर पाऊँगा? कभी-कभी जब अकेले बैठता, तो सोचता—क्या मैं वही इंसान हूँ जो बिना हिचक, बिना डर, किसी भी दिशा में निकल जाया करता था? हालाँकि आर्थिक स्थिति पहले से बेहतर हुई थी, और एक व्यक्ति के रूप में परिपक्वता भी आई थी, फिर भी आत्मविश्वास जैसे कहीं गुम हो गया था।
बहुत सोच विचार के बाद 2025 में मैंने मलेशियन बोर्नियो की यात्रा की योजना बनाई। सारवाक के सिपादान द्वीप में स्कूबा डाइविंग की इच्छा कई वर्षों से मेरे दिमाग़ में घुमड़ती रहती है। एक बार तो विचार जॉर्डन और मिश्र के सिनाई क्षेत्र (दहाब, शर्म-अल-शेख़) का भी आया, लेकिन मध्य-पूर्व एशिया में चल रहे संघर्षों के कारण वह ख्याल दिल से निकाल दिया। अब मलेशियन बोर्नियो की तरफ़ जा ही रहा था तो यात्रा में ब्रुनेई का जुड़ना स्वाभाविक ही था। बाद में पता चला कि कुआलालम्पुर से ब्रुनेई का वीज़ा मिलने में अड़चने हैं और मैं 2-3 दिन की अतिरिक्त छुट्टी लेकर दिल्ली से ब्रुनेई का वीज़ा नहीं लेना चाहता था। ब्रुनेई में प्रवेश की इस अड़चन के कारण मैंने बोर्नियो द्वीप के तीसरे हिस्से यानी इंडोनेशिया (कालीमंतान) को आख़िरी क्षणों में अपनी योजना में शामिल कर लिया।
स्कूबा डाइविंग मेरी यात्राओं का एक अहम हिस्सा रहती है। जब मैंने बोर्नियो में स्कूबा डाइविंग के बारे में पता किया तो समझ आया कि मलेशिया वाले हिस्से में स्थित सिपादान द्वीप के लिए डाइविंग परमिट बहुत सीमित है और ज्यादातर वहाँ पहुँचने से बहुत पहले ही इसकी व्यवस्था कर लेनी पड़ती है। डाइविंग के दूसरे विकल्प, इंडोनेशिया की तरफ़ स्थित देरावान द्वीप तक पहुँचने में बड़ी बाधा थी। वहाँ तक पहुँचना कठिन भी था और फ़्लाइट से जाने पर बड़ा महँगा होने के साथ साथ बहुत ज़्यादा समय लेने वाला था। सिर्फ़ डाइविंग के लिए मैं बाक़ी यात्रा में भागदौड़ वाली स्थिति नहीं पैदा करना चाहता था, इसलिए इन सब बातों को ध्यान में रखते हुए मैंने बोर्नियो जाने का विचार भी त्याग दिया।
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हालांकि इस बीच मैंने दिल्ली से कोलंबो होते हुए जकार्ता जाने और वापस आने की फ्लाइट श्रीलंकन एयरलाइंस के साथ रिज़र्व कर ली। हालांकि कुआलालम्पुर होते हुए एयर एशिया की टिकट सस्ती थी, लेकिन मैंने फुल सर्विस कैरियर होने के कारण थोड़ा ज्यादा पैसा देकर श्रीलंकन एयरलाइंस से यात्रा करना ज़्यादा उचित समझा। इसमें चेक-इन बैगेज और खाने-पीने के लिए अतिरिक्त पैसा देने की झंझट नहीं रहती है। एयर एशिया में घरेलू मार्गों पर चेक-इन बैगेज के साथ टिकट उचित दर पर तो मिल जाती है, लेकिन अंतर्राष्ट्रीय मार्गों पर उनके सस्ते टिकट में केवल केबिन बैगेज होता है और चेक-इन बैगेज के लिए अलग से शुल्क देना पड़ता है। इस बुकिंग के साथ ही कम से कम इंडोनेशिया में कदम रखना तो तय हो चुका था।
15 दिन की इस यात्रा में, हवाई सफर के दिनों को हटाकर मेरे पास लगभग 12 दिन ही थे। इंडोनेशिया के प्रमुख पर्यटन स्थलों जैसे जकार्ता, योग्याकर्ता (माउंट मेरापी, बोरोबुदुर और प्राम्बनन मंदिर), बाली, उबुद, माउंट बाटूर, गिली द्वीप, लोम्बोक और माउंट रिंजानी मैं पहले ही घूम चुका था। इस बार मेरा मन किसी दूर-दराज़ के द्वीपसमूह की ओर था। सुलावेसी और राजा अम्पत दो संभावनाएँ थीं। जब योजना बनाने बैठा, तो महसूस हुआ कि 12 दिनों में सुलावेसी के किसी एक क्षेत्र को भी अच्छी तरह नहीं देखा जा सकता। चाहे वह उत्तर सुलावेसी में मंडाओ क्षेत्र हो, मध्य सुलावेसी में लुवुक और बंगाई द्वीप हों या दक्षिण-पूर्व में बटन और वाकाटोबी द्वीप—हर जगह के लिए वक्त और संसाधन दोनों ही सीमित थे। ऐसे में तय किया कि सुलावेसी को फिलहाल की योजना से हटा देना ही समझदारी होगी।
राजा अम्पत में स्कूबा डाइविंग करते समय समुद्र की तेज़ और अनियंत्रित धाराओं से जूझना पड़ता है। भले ही मेरे पास स्कूबा डाइविंग का एडवांस्ड सर्टिफिकेट हो, लेकिन मैं अब भी इतना दक्ष तैराक नहीं हूँ कि उन तेज़ लहरों का सामना आत्मविश्वास से कर सकूँ। इसी कारण मुझे राजा अम्पत को अपनी यात्रा की योजना से बाहर करना पड़ा। सच कहूँ तो, मेरी पिछली डाइव को भी छह साल से अधिक हो चुके थे । जब स्कूबा डाइविंग के स्वर्ग राजा अम्पत जैसी जगहों पर जाना हो, तो बेहतर यही होगा कि पहले खुद को फिर से तैयार किया जाए—थोड़ा और अभ्यास किया जाए, तैराकी की क्षमता को बेहतर बनाया जाए—ताकि जब वहाँ पहुँचें तो हर पल का आनंद पूरी तरह लिया जा सके, बिना किसी झिझक या डर के।

इन सारी उधेड़बुन के बीच प्रस्थान का समय भी आ गया। एक सप्ताह पहले तक भी यह नहीं निश्चित था कि जाना किधर है। तैयारी के नाम पर मेरे पास बस दिल्ली से जकार्ता वाली टिकट ही थी। जब यात्रा का समय करीब हो और अभी तक कोई ठोस योजना न बनी हो, तो मन में हलचल स्वाभाविक है। ऐसे ही क्षणों में मैंने इंडोनेशिया का नक्शा उठाया और नजर गई फ्लोरेस और कोमोडो द्वीपसमूह पर। कोमोडो द्वीप अपने ड्रैगन के लिए तो प्रसिद्ध है ही, लेकिन स्कूबा डाइविंग प्रेमियों के लिए यह किसी स्वर्ग से कम नहीं है। हालांकि कोमोडो क्षेत्र में भी समुद्री धाराएँ काफी तेज होती हैं, लेकिन सेंट्रल कोमोडो में कुछ डाइविंग साइट ऐसी भी हैं, जो अपेक्षाकृत सुरक्षित मानी जाती हैं और मेरे जैसे कम अनुभवी तैराकों के लिए उपयुक्त हैं। दिमाग़ में योजना बनने लगी—जकार्ता से फ्लाइट लेकर फ्लोरेस द्वीप के लाबुआन बाजो पहुंचा जाए। वहाँ कोमोडो द्वीप के पास डाइविंग की जाए और फिर फ्लोरेस द्वीप पर पूर्व की ओर यात्रा करते हुए मौमेरे (Maumere) तक पहुँचा जाए। इसके बाद वापसी की योजना यह बनी कि मौमेरे से फ्लाइट लेकर लाबुआन बाजो वापस जाएं, और फिर वहाँ से जकार्ता की उड़ान लें, जहाँ से दिल्ली की वापसी की फ़्लाइट थी।
जब लगा कि यात्रा की योजना अब सहजता से आगे बढ़ रही है, तभी तीन अप्रत्याशित घटनाएं एक के बाद एक सामने आ गईं। पहले भारत-पाकिस्तान के बीच युद्ध जैसे हालात बन गए, जिससे कई जगहों पर छुट्टियाँ रद्द होने लगीं। इसके बाद दक्षिण-पूर्व एशिया में कोविड-19 के मामले दोबारा तेज़ी से बढ़ने लगे, और अंत में फ्लोरेस द्वीप के मौमेरे (Maumere) से आगे स्थित एक सक्रिय ज्वालामुखी ने अचानक लावा उगलना शुरू कर दिया। सौभाग्यवश भारत-पाकिस्तान का तनाव कुछ ही दिनों में कम हो गया, लेकिन कोविड को लेकर असमंजस बना रहा—मन में यह डर बना रहा कि कहीं वापसी पर भारत में प्रवेश को लेकर कोई समस्या न आ जाए। मन में ऐसा डर था कि कुछ दिनों तक मैं जकार्ता और लाबुआन बाजो में मास्क पहनकर घूमता रहा, लेकिन धीरे-धीरे महसूस हुआ कि डर कुछ ज्यादा ही हावी हो रहा है। लेकिन धीरे-धीरे एहसास हुआ कि इन भय की भावनाओं को काबू में रखना ज़रूरी है। ज्वालामुखी सक्रिय होने से मौमेरे की ओर बढ़ने का विचार त्यागना पड़ा । नई योजना बनी कि अब फ्लोरेस से सड़क और समुद्र मार्ग से सुम्बावा व लोम्बोक होते हुए बाली पहुँचा जाए और फिर वहाँ से जकार्ता। लेकिन लाबुआन बाजो में जानकारी मिलने पर समझ आया कि सुम्बावा की सड़क यात्रा जितनी रोमांचक लगती है, उतनी व्यावहारिक और मजेदार नहीं है।
इंडोनेशिया में बोरोबुदुर के महान मन्दिर की झलक के लिए यह पढ़ें: इंडोनेशिया में बोरोबुदुर के महान मन्दिर से रूबरू
अंततः निर्णय लिया कि फ्लोरेस में स्कूबा डाइविंग के बाद सीधे फ्लाइट से बाली जाया जाए, और वहाँ से सड़क मार्ग से पूर्वी जावा (माउंट इजेन, माउंट ब्रोमो और तुंपक सेवू जलप्रपात) होते हुए जकार्ता पहुँचा जाए। यह इलाका दशकों से बैकपैकर्स का पसंदीदा रहा है, इसलिए हर तरह की जानकारी भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध थी। पहले की यात्रा में पूर्वी जावा अधूरा रह गया था, इसलिए इस बार वहां जाना स्वाभाविक और संतोषजनक लगा।

बस इस तरह मेरी हाल ही में हुई इंडोनेशिया यात्रा की रूपरेखा तैयार हुई। और फिर, आया वह दिन, जब मैंने अपने डर, झिझक और असमंजस को पीछे छोड़कर उड़ान भरी। दिल्ली के इंदिरा गांधी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डे पर चेक-इन करते समय बहुत ही कम आत्मविश्वास और अनजान से डर के साथ मेरी यात्रा शुरू हुई । शुरुआत के क्षण मुश्किल थे । जकार्ता में उतरते वक़्त दिल धड़क रहा था। इमीग्रेशन की लाइन में खड़े होकर सोच रहा था—क्या सही किया? क्या मैं इस यात्रा के लिए तैयार हूँ? लेकिन उस दिन, जब वहाँ इमीग्रेशन पार कर जकार्ता एयरपोर्ट के बाहर पहला कदम रखा, तो एक अजीब सी ऊर्जा महसूस हुई। सब कुछ जाना-पहचाना सा लगा—वही भीड़-भाड़, वही मुस्कराते चेहरे, वही शहर जिसकी हलचल से मैं पहले भी परिचित था।। दिल से एक आवाज आई, “घबराने की कोई जरूरत नहीं, मैं यह कर सकता हूँ।”

एक बार मैं अपनी लय में वापस आया तो फिर अगले 14 दिनों तक मैंने इंडोनेशिया के हर पल को पूरी जिंदादिली के साथ जिया। हर नए अनुभव के साथ आत्मविश्वास लौटता गया।हर मुस्कान, हर अजनबी की मदद, हर स्थानीय बाज़ार की चहल-पहल—सबने मुझे मेरी ही खोई हुई छवि वापस दी। कोमोडो में स्कूबा डाइविंग के दौरान समुद्र की गहराइयों में सैंकड़ों रंग-बिरंगे मछलियों के बीच, जब मेरी साँसें टैंक से आती हवा पर टिकी थीं, तो लगा कि जीवन को फिर से जिया जा सकता है। इसे खुलकर जीने के लिए भविष्य के हर पल की ज़रूरत नहीं होती है । इसे केवल उसी क्षण में जीते हैं, बिना भविष्य की परवाह किए। बाली के बाद, माउंट इजेन की नीली आग देखने के लिए रात की चढ़ाई ने शरीर को थकाया ज़रूर, लेकिन हर कदम एक नई ऊर्जा भी देता रहा। और फिर माउंट ब्रोमो की पहाड़ियों पर एक बुज़ुर्ग जोड़े के साथ सूर्योदय देखना और अनुभव साझा करना—यह सब कुछ ऐसा था, जिसे केवल एक सच्चा यात्री ही पूरी तरह समझ सकता है।

हर दिन मैंने केवल दो-तीन दिन आगे की योजना बनाई। कोई कठिन प्लान नहीं, केवल मनमुताबिक चलते चले जाना और, यही सबसे बड़ी आज़ादी थी। मन में डर था कि क्या मैं फिर से ऐसा कर पाऊँगा? पर इस बार न केवल किया, बल्कि और भी अधिक आत्म-सजगता और परिपक्वता के साथ किया। वर्षों से भीतर बैठा डर, हिचक, और अधूरापन—सब बह गया इस एक यात्रा में। 15 दिन की यह यात्रा केवल स्थलों की नहीं थी, यह आत्म-विश्वास की वापसी की थी। यह एक बार फिर उस मुसाफ़िर की वापसी थी, जो कभी भी किसी भी बस, ट्रेन या फ्लाइट में बैठकर अनजान मंज़िलों की ओर बेझिझक निकल पड़ता था। यह वापसी थी उस कहानीकार की, जो अनुभवों को शब्दों में पिरोता है और दुनिया से बाँटता है।
जब मैं जकार्ता लौटकर एयरपोर्ट की ओर जा रहा था तो मन में कोई पश्चाताप नहीं था, कोई डर नहीं था। बस एक सुकून था कि मैंने फिर से खुद को पाया है। इस यात्रा ने मुझे यह सिखाया कि जीवन में ठहराव आ सकते हैं, लेकिन वह अंतिम नहीं होते। परिस्थितियाँ हमें रोक सकती हैं, पर वे हमें बदल नहीं सकतीं—यदि हम अपने भीतर की लौ को बुझने ना दें। इस यात्रा के बाद मैं पहले जैसा तो नहीं, शायद और बेहतर हो गया हूँ- अधिक सशक्त, परिपक्व, संतुलित।

अब फिर से नई यात्राओं की योजनाएँ बनने लगी हैं। पासपोर्ट फिर से तैयार होने को है, और मन एक बार फिर दुनिया के नक्शे पर घूम रहा है। और हाँ, अब डर नहीं लगता। अब मैं जानता हूँ कि राह में रुकावटें आएँगी, लेकिन मैं फिर भी चल पड़ूँगा—क्योंकि यात्रा, मेरे लिए केवल स्थान परिवर्तन नहीं, ये मेरी ख्वाहिशें है, मेरी आत्मा है। इन यात्राओं के बिना मैं अधूरा हूँ, क्योंकि ज़िम्मेदारियाँ कितनी भी बढ़ जाएँ, प्राथमिकताएं कितनी भी बदल जाएँ, मैं आज भी वही हूँ- वही मुसाफ़िर, वही कहानीकार और वही घुमक्कड़।