अपने पिछले पोस्ट में मैंने आपको बताया कि कैसे मैं गिरते-पड़ते एक दिन जखामा की तरफ से चढ़ाई करके जूको वैली में स्थित गेस्ट हाऊस तक पहुँच गया था । यह पोस्ट उसी यात्रा-वृतांत का दूसरा भाग है । अगर आपने वह पोस्ट नहीं पढ़ी है तो यहाँ पर पढ़ सकते हैं :
जूको वैली में स्थित गेस्ट हाऊस पहुँचकर जब मैंने वहाँ लोगो की चहल-पहल देखी तो जान में जान आई । कहाँ घने जंगलों से होकर पूरे रास्ते अकेले चढ़ाई की थी और अब वहाँ इतने लोग । शाम हो चली थी तो घाटी में घूमने लायक तो कुछ था नही, तो बस लोग एक दूसरे से गप्पे लड़ा रहे थे । देखकर समझ मे नही आया कि सब एक ही ग्रुप के लोग हैं या अलग-अलग ग्रुप के । जैसे एक विदेशी युवक से गप्पे लड़ा रही स्मार्ट सी लड़की को देखकर लगा कि वो उसकी गाइड होगी । बाद में पता चला कि लड़की को तो अंग्रेजी ही नही आती । एक और लड़का कुछ औरतों से बातें कर रहा था, बाद में पता चला कि वह चार लड़कों के ग्रुप का सदस्य है और वहाँ वीडियो बनाने आया है ताकि अपना यू ट्यूब चैनल शुरू कर सके । इसी तरह सब घुल मिलकर एक दूसरे से बातें करने में मस्त थे । वहाँ तीन तरफ बेंच लगाकर गप्पें मारने के लिए एक बड़ा अच्छा शेल्टर बना हुआ है । जब बाहर ठण्ड बढ़ी तो हम शेल्टर में चले गए । थोड़ी ही देर में मेरी उस विदेशी लड़के से अच्छी जमने लगी । वह लड़का वहाँ अकेले ही घूमने आया था । जर्मनी से अपनी मोटरसाइकिल लेकर पूर्वी यूरोप, तुर्की, ईरान, पाकिस्तान, भारत , थाईलैंड, लाओस, मलेशिया , इंडोनेशिया, तिमोर होते हुए उसकी योजना ऑस्ट्रेलिया तक जाने की थी । मोटरसाइकिल की यात्रा में मुझे भी बड़ा मजा आता है, और दक्षिण पूर्व एशिया में कई जगह जा चुका हूँ, तो हमारे पास बात करने के लिए बहुत सारे टॉपिक थे । बीच-बीच में पास बैठी अंगामी समुदाय की उन नागा लड़कियों से भी बात हो जाती थी, जो कोहिमा के पास स्थित किसी गाँव से वहाँ चर्च के किसी काम से आई थी । बातों-बातों में ही पता चला कि स्मार्ट दिखने वाली वो लड़कियाँ पढ़ाई छोड़ चुकी थी और अब ज्यादातर समय चर्च से जुड़े कार्यकलापों में देती थी ।
अँधेरा घिरने पर लड़कियों के उस ग्रुप ने हम सभी को शाम की प्रार्थना (जिसे वो Service कह रही थी) में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया । अब मैं तो मन्दिर, मस्जिद, गुरद्वारे, चर्च सब जगह समान भाव से जाने वाला घुमन्तु, मुझे क्या दिक्कत हो सकती थी । जर्मन तो ईसाई था ही । लेकिन असम के उन चार लड़कों ने जाने से मना कर दिया । मैं बड़े से हाल में अंदर गया तो पहला प्रश्न यही मिला कि मेरा धर्म क्या है ? मैंने भी बताया कि धर्म तो हिन्दू ही है, लेकिन मुझे बाकी धर्मों की पूजा-पद्धतियों से रूबरू होने में कोई दिक्कत नहीं है । फिर मुझे भी बैठने का एक स्थान दे दिया गया ।
बड़े से हाल में प्रार्थना शुरू हुई । बिजली तो वहाँ थी नही, इसलिए मोमबत्ती की रोशनी में ही सब लोग हाल के तीनों तरफ बैठे हुए थे । एक तरफ वक्ताओं या पुजारियों के लिए स्थान छोड़ दिया गया था । मुझे ईसाईयों की पूजा पद्धति का ज्यादा ज्ञान तो था नहीं, इस लिए यह सब मेरे लिए कौतूहल ही था । चर्च में मैं कई बार गया हूँ, और यही देखा है कि वहाँ शांति से प्रार्थना होती है । लेकिन यहाँ वातारण कुछ अलग सा था ।
एक अधेड़ उम्र की महिला इस पूरी सेरेमनी की इंचार्ज थी । सब कुछ नागा भाषा मे हो रहा था, तो मुझे कुछ समझ नही आ रहा था । मेरे बगल में बैठा एक लड़का मुझे मुख्य-मुख्य बातें अंग्रेजी में समझा दे रहा था । उसी ने बताया कि वह वुमन फ़ेलोशिप जैसी कोई सेरेमनी थी । संचालक महिला कुछ पंक्तियाँ बोलती और फिर उसके बाद हाल में बैठे सारे लोग जोर-जोर से कुछ बोलते हुए चिल्लाने लगते । ऐसा कई बार हुआ । बारी-बारी से 3-4 लोगों ने इस सेरेमनी का संचालन किया और हर बार यही हुआ । जर्मन लड़के ने कहा कि सब कुछ बड़ा विचित्र लग रहा है, मुझे तो खैर कोई अनुभव ही नही था । उन लोगों ने दुनिया के लिए प्रार्थना की, देश के लिए प्रार्थना की, फिर जूको वैली के लिए, वहाँ आने वाले ट्रेकर्स के लिए, हम दोनों मेहमानों के लिए..इन सब प्रार्थनाओं में करीब एक घण्टा गुजर गया । उसके बाद 2 सामूहिक गान भी हुए । मुझे समझ तो नहीं आया लेकिन धुन बहुत पसंद आयी ।
लेकिन असली झटका लगना तो अभी बाकी था । प्रार्थना में कुछ बोलते-बोलते लोग अचानक से चिल्लाने लगे, कुछ तेज-तेज रोने लगे और फिर कई सारी लड़कियाँ और औरतें रोने लगी । फिर उस लड़के ने बताया कि अब ये लोग भगवान से बातें कर रही हैं । ये जो भी बोल रही है, सीधे इनसे भगवान बुलवा रहा है । अपने बचपन में गाँव के गरीब परिवारों में सीधे देवियों और देवताओं के इंसान के ऊपर सवार होकर बातें करने के मैंने बहुत किस्से देखे थे । कई बार चुड़ैलें भी सवारी करती थी, तब एक ओझा बिल्कुल फ़िल्मी स्टाइल में लोगों के भूत-प्रेत उतारता था या फिर देवी-देवताओं को शांत करता था । हमेशा मुझे यही लगता था कि यह हिन्दू धर्म में कम पढ़े लिखे लोगों का अंधविश्वास था, लेकिन जब ईसाई धर्म मानने वालों को भी वही पाखंड करते देखा तो समझ में आया कि सभी धर्मों में गरीबों और कम पढ़े-लिखे लोगों के लिए एक ही तरह का ताना-बाना है ।
माहौल पूरी तरह बदल चुका था । अब वहाँ लोग सिर्फ रोने-बिलखने में व्यस्त थे । सेरेमनी पूरी हो चुकी थी तो हम उस लड़के की अनुमति लेकर अपनी डोरमेट्री में चले गए । करीब आधा घण्टे बाद फिर बुलावा आया कि डिनर तैयार है । तब जाकर पता चला कि उन लोगों ने हमें अपना मेहमान बना लिया था । डिनर में चावल, दाल और माँस बना था । मैंने पूछा कि माँस किसका है , तो पता चला पोर्क । पोर्क तो मैं खाता नही, इसलिए चावल-दाल से काम चला लिया । थोड़ी देर पहले जोर-जोर से रो रही महिलाएं और लड़कियां अब बिल्कुल सामान्य थीं और हँस-हँस के बातें कर रही थी । लग ही नही रहा था कि अभी आधा घण्टे पहले इन लोगों का व्यवहार बड़ा अजीब सा था ।
खाना खाने के बाद तो सीधे निद्रा ही दिख रही थी । सोने के लिए हम सभी ने डारमेट्री ही ली हुई थी । उस बड़ी सी डोरमेट्री में सभी 8-10 लोगों ने अपने-अपने स्लीपिंग बैग निकाले और घुस गये । अगर किसी के पास स्लीपिंग बैग और मैट्रेस ना हो तो केयरटेकर से किराये पर लिया जा सकता है । वातावरण में भी ठंड हो गयी थी और बाहर धुप्प अँधेरा । शाम की चहल-पहल वाला माहौल बियाबान वाले सन्नाटे में बदल चुका था ।
सुबह सोकर उठा तो एक बार फिर हर तरफ चहल-पहल थी । कुछ औरतें बाँस के झुरमुट इकट्ठा कर रही थी, जिसे घर ले जाकर उनको झाड़ू बनानी थी । बाकी लड़कियाँ वहाँ हर तरफ साफ-सफाई का काम कर रहे थी । सामने जूको वैली का पूरा विस्तार बहुत ही सुंदर लग रहा था । हरी-भरी घाटी से उठते सफेद बादलों ने उसकी सुंदरता में चार चाँद लगा दिए थे । फिर फ़ोटो खींचने-खिंचवाने और यादों को समेटने का दौर शुरू हुआ । मुझे छोड़कर सब लोगों को उसी सुबह नीचे उतरना था । जूको वैली का वह मेला कुछ ही पलों का ताना बाना था । पहले असम वाले चारों लड़के गए, फिर चार और लोगों का ग्रुप। फिर जर्मन लड़का भी अकेले चला गया। मुझे नीचे घाटी में जाना था, तो मैंने भी सबसे विदा ली और आगे के सफर पर चल पड़ा गेस्ट हाऊस से दूर सामने घाटी में दिख रहे क्रॉस की ओर।
गेस्ट हाऊस के बगल से ही एक रास्ता नीचे घाटी की तरफ जाता है । वही रास्ते मे जूको का हेलीपैड भी है, लेकिन शायद ही कभी कोई हेलीकॉप्टर वहाँ जाता होगा । हेलीपैड से जूको घाटी का अद्भुत और विहंगम दृश्य नजर आता है । बारिश में जब जूको घाटी रंग-बिरंगे फूलों से ढकी रहती होगी, तो मुझे पूरा यकीन है कि हेलीपैड से देखने पर सामने जन्नत ही दिखती होगी। मैंने कैमरे में जूको के विहंगम नयनाभिराम नजारों को कैद किया और आगे बढ़ चला ।
घाटी की तलहटी में हरे-भरे बाँस की जगह रंग-बिरंगे फूलों ने ले ली। फूलों की इस घाटी का सुहावना मौसम तो जा चुका था, फिर भी जगह-जगह छोटे-छोटे समूहों में दिखने वाले फूलों को देखकर कल्पना की जा सकती थी कि घाटी में जब हर तरफ फूल रहते होंगे तो वह दृश्य कितना मनोरम लगता होगा । आगे बढ़ता मैं नदी की पतली धारा के पास पहुँच गया । नदी पर कोई पुल नही था । पहले तो इसपर लकड़ी का एक पुल हुआ करता था, लेकिन हो सकता है बारिश के साथ नदी में पानी बढ़ने पर पुल बह गया हो । अभी तो नदी में पानी कम था, इसलिए पानी मे पड़े पत्थरों के ऊपर से होकर मैं नदी पार कर गया । नदी में पानी ज्यादा होने से इसे पार कर पाना मुश्किल होगा ।
आगे बढ़ने पर क्रॉस वाली पहाड़ी के ठीक नीचे पानी की एक धारा और थी । इस बार तो इतना पानी था कि बिना जूतों को निकाले पार करना मुश्किल था । क्रॉस मेरे सामने ही एक छोटी पहाड़ी पर था । अब जूते निकालकर पानी में घुसने का मन नही कर रहा था, तो मैं वही से वापस मुड़ गया ।
लेकिन अभी तो बस 9 बजे थे, मुझे तो रात भी ऊपर गेस्ट हाउस में गुजारनी थी । सारा दिन ही पड़ा हुआ था, अभी गेस्ट हाउस जाकर क्या करता? यह सोचकर मैं तलहटी में ही बेमतलब इधर-उधर घूमने लगा । थोड़ी देर बाद याद आया कि जूको वैली में रात्रि विश्राम के लिये गेस्ट हाउस के अलावा गुफाएँ भी तो हैं । ट्रेक शुरू करते समय नीचे जखामा गाँव में एक ग्रामीण ने कहा था कि ऊपर कुछ नही मिलेगा, गुफा में ही रात गुजारनी पड़ेगी । लेकिन मुझे तो अभी तक गुफाओं का कोई नामोनिशान ही नही नजर आया । यही सब सोचते-सोचते मैं एक तरफ बढ़ता हुआ नदी के किनारे पहुँच गया। नदी के साथ-साथ ही एक पतली सी पगडंडी थोड़ी दूर पहाड़ी चट्टानों की तरफ जा रहा था । दिमाग मे आया कि थोड़ा उधर भी घूम आऊँ । मैं उस पगडंडी पर आगे बढ़ा । थोड़ी दूर जाने के बाद मुझे चट्टानों के पास 2 आदमी नजर आए । उनसे बात करने के उद्देश्य से मैं आगे बढ़ा । धीरे-धीरे करके एक के बाद एक वहाँ दसियों लोग नजर आने लगे । जब वहाँ पहुँचा तो वहाँ करीब 20 लोग टेंट लगाकर खाना पका रहे थे । पूछने पर पता चला कि वो मणिपुर के किसी कॉलेज के छात्र-छात्राओं का समूह था, जो जूको वैली में घूमने आया था ।
उन्होंने ही बताया कि गुफा के रूप में प्रसिद्ध जगह वही है । मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ । वहाँ गुफा जैसा कुछ भी नही था । नदी किनारे की पहाड़ी चट्टानों के थोड़ा आगे की तरफ लटकने से नीचे थोड़ी दूर तक बारिश वगैरह से बचाव का उपाय था । लेकिन हर तरफ से खुली जगह थी । अगर कभी जूको वैली में गेस्ट हाउस ना मिलने से रुकने की नौबत आ जाये तो यहीं रुकना पड़ता है । अकेले घूमने वालों को तो मैं यहाँ रुकने की सलाह बिल्कुल नही दूँगा । इससे अच्छा तो नीचे तलहटी में अपना टेंट लगा के रुकना चाहिये ।
वहाँ से निकलकर और थोड़ा इधर उधर घूमकर मैं वापस गेस्ट हाउस आ गया । सुबह लोगों की भीड़ से गुलजार रहने वाले गेस्ट हाउस में मरघट सा सन्नाटा था । कही कोई नही । सारे पर्यटक वापस निकल चुके थे । बस 2 केयरटेकर और मैं बचे हुए थे । गेस्ट हाउस के पास लगी बेंच पर बैठकर मैं जूको वैली को निहारने लगा, लेकिन कब तक ? पूरा दिन तो वहाँ बैठ नही सकता था । फिर लगा कि नीचे विश्वेमा तक वापसी ही कर लेता हूँ, कोहिमा के आस पास घूमने के लिए कुछ समय बच जाएगा ।
यह विचार दिमाग मे आते ही निकल पड़ा मैं वापसी के सफ़र पर । चूँकि जूको वैली जाते समय मैंने जखामा गाँव से चढ़ाई शुरू की थी, तो उतरते समय मुझे विश्वेमा गाँव वाला रास्ता चुनना था । गेस्ट हाउस से निकलने के बाद करीब 20-25 मिनट बाद एक साइन बोर्ड मिलता है जिसपर लिखा है Alternate Trek Route । यहीं से दाहिनी तरफ वाला रास्ता विश्वेमा गाँव की तरफ जाता है, जबकि बायीं तरफ वाला रास्ता जखामा गाँव की तरफ । उस स्थान से जूको वैली में करीब 2 घंटे तक पहाड़ के सपाट रास्ते पर घाटी में पैदल चलते रहना पड़ता है। बाँस के झुरमुटों से होकर रास्ते पर चलते हुए जूको वैली में कई तरह के खूबसूरत दृश्य दिखते हैं । कहीं-कहीं तो बाँस इतना लंबा है कि इंसान खो जाए । लेकिन पूरे रास्ते पर कहीं भी भटकने की गुंजाइश नही है ।
उस रास्ते पर चलते-चलते डेढ़ घंटे से ज्यादा हो चुका था । घाटी तो सुंदर लग रही थी, लेकिन फिर भी दिमाग सोच में था कि इस रास्ते का अंत कब तक आएगा । थोड़ी देर और चलने के बाद मैं घाटी के अंतिम छोर पर पहुँच गया, जहाँ से सीधी ढलान पर घने जंगल से होते हुए विश्वेमा गाँव वाली सड़क पर पहुंचना था । वहीं बगल में ही एक शेल्टर बना हुआ था, जहाँ कई स्थानीय लड़के बाँस के झुरमुटों को इकट्ठा कर रहे थे । 2-3 लोग आग जलाकर खाना भी पका रहे थे । वो सब लोग विश्वेमा गाँव और आस पास के इलाकों में हफ्ते में एक-दो बार वहाँ आकर बाँस के वो झुरमुट इकट्ठा करते थे ।
शेल्टर के पास से ही रास्ता नीचे जंगल की ओर जा रहा था । मैं उधर बढ़ गया । कहने को तो इस रास्ते से जंगल पार करने में मात्र एक घंटे लगते हैं, लेकिन रास्ता बहुत ही फिसलन भरा है । आगे जंगल भी बहुत घना हो गया था । पत्थरों पर जमी काई और फिसलन की वजह से पैर बहुत संभाल-संभाल कर रखना पड़ता था । वहाँ फिसलने की कोई गुंजाइश नहीं थी । एक बार फिसले तो हड्डी पसली टूटी समझिये । धीरे-धीरे मैं आगे बढ़ता गया । जंगल के आखिरी छोर पर चढ़ाई करता एक युवा जोड़ा मिला । उन्होंने बस चढाई शुरू की थी , और आगे उन्हें अभी एक लम्बा रास्ता तय करना था । जूको वैली की वहाँ से दूरी और पहुंचने में लगने वाले समय के बारे में थोड़ी बातचीत हुयी और फिर हम अपने-अपने रास्ते पर आगे बढ़ गए ।
थोड़ी देर बाद ही मैं विश्वेमा गाँव को जाने वाली वाहन चलने योग्य सड़क पर था । वहाँ से विश्वेमा गाँव की दूरी करीब 7-8 किमी थी । दिमाग में यही आ रहा था कि काश कोई गाड़ी मिल जाये , जिससे लिफ्ट लेकर मैं विश्वेमा तक निकल सकूं । रास्ते पर 2-3 गाड़ियाँ खड़ी तो मिली, लेकिन किसी में भी ड्राईवर नहीं थे । ऐसा लग रहा था कि आस पास के गाँव से लोग गाड़ियाँ वहाँ खड़ी कर कुछ काम से इधर-उधर निकले हुए थे । मन मारकर मैं उस रास्ते पर पैदल ही आगे बढ़ता रहा । रास्ता हरे-भरे पेड़ों से घिरा हुआ था और कुछ दूर चलने के बाद कोहिमा घाटी के दृश्य मन को मोह लेने वाले थे , लेकिन फिर भी बार-बार दिमाग में यही आ रहा था कि लिफ्ट लेने के लिए कोई गाड़ी मिल जाये ।
करीब 4 किमी तक चलते रहने के बाद थकान हावी होने लगी । 2 बज चुके थे, इसलिये विश्वेमा गाँव तक जल्दी पहुँचने के चक्कर में मैं लगातार बिना रुके चला जा रहा था । विश्वेमा तक पहुँचने में अगर देर हो जाती तो फिर आगे कहीं और जाने के लिए सूमो मिलने में मुश्किल हो जाती । वैसे विश्वेमा से कोहिमा के लिए आखिरी सूमो 4-5 बजे तक मिल जाती है, लेकिन मैं कोई रिस्क नहीं लेना चाहता था । इसलिए मैं लगातार आगे चलता रहा । फोटो खींचने के बहाने बस कहीं-कहीं 2-4 मिनट का ब्रेक ले लेता था । एक बार जब लगा कि अब पैर बगावत कर रहे हैं और अब बिना रुके आगे बढना मुश्किल है , तभी उम्मीद की किरण के रूप में एक जीप आती दिखी । उसमे उपर मिले वही स्थानीय लड़के इकट्ठा किये हुए बाँस के झुरमुटों को लेकर वापस जा रहे थे । ड्राईवर ने रुककर पूछा कि चलना है , मैंने भी तुरंत जवाब दिया हाँ । बस इस तरह मैं फटाफट वहाँ से विश्वेमा पहुंच गया । उस दिन जूको गेस्ट हाउस से चलकर विश्वेमा गाँव तक पहुँचने में मुझे कुल 4.30 घंटे लगें ।
विश्वेमा गाँव पहुंचकर मुझे शेयर्ड सूमो के लिए करीब 30 मिनट तक इंतजार करना पड़ा । सूमो ने मुझे कोहिमा छोड़ दिया और इस तरह खूबसूरत जूको घाटी की मेरी बहुप्रतीक्षित यात्रा पूरी हो गयी । देखा जाए तो सिर्फ 2-3 दिन का जूको वैली ट्रेक बहुत कम अवधि का ट्रेक है, लेकिन फिर भी इस ट्रेक में भरपूर रोमांच है । मंजिल पर पहुंचने के बाद जूको वैली की ख़ूबसूरती सोने पे सुहागा । थोड़ा समय निकल जाए तो कोहिमा के आस पास के गाँवों की झलक इस यात्रा को यादगार बना देती है ।
आपने साउथ ईस्ट एशिया में भी काफी यात्राएं करी है कभी उनके भी अनुभव सुनाएगा….भूत प्रेत भगवान से बाते यह सभी धर्मों में है…विदेशों में भी चर्च के पादरी इस तरीके से वार्तालाप करते है सच गलत अंधविश्वास इस पर में कुछ नही कह सकता…इस पूरी घाटी में कही से मणिपुर के तरफ से आने वाले ट्रेक रूट का जिक्र नही है…क्या इस ट्रैक को मणिपुर की साइड से नही किया जा सकता ? आपके लेख बहुत ही सुंदर होते हो बहुत अच्छा लिखते है आप…सपनों की घुमकक्कड़ी करवाने के लिए दिल से बहुत बहुत धन्यवाद