भय और रोमाँच के सफ़र का एक और दिन। बाघमारा से निकलने के बाद मेरा अगला पड़ाव था सीजू गुफ़ा और फिर वहाँ से चलकर शाम तक गारो क्षेत्र का एक प्रमुख शहर विलियमनगर । भय इसलिए लग रहा था कि अवैध कोयला खदानों के उस क्षेत्र में अभी कुछ साल पहले तक स्थानीय उग्रवादी समूहों द्वारा अपहरण और फिरौती की घटनाएँ बड़ी आम बात थी। उन दिनों दिल्ली के नम्बर प्लेट वाली मोटरसाइकिल लेकर घने जंगलों के बीच सुनसान रास्तों पर अकेले ही निकल पड़ना निश्चय ही पागलपंथी होती। हालाँकि, इस इलाक़े को लेकर असम में (गुवाहाटी और गोआलपारा, जहाँ से मैंने अपनी यात्रा के लिए कुछ जानकारियाँ जुटाई, देश के बाक़ी हिस्से में तो लोगों ने शायद इसका नाम ही ना सुना हो) लोगों की राय में बहुत बदलाव नहीं आया है, लेकिन इसका मुख्य कारण उनका इस इलाक़े से अनभिज्ञ होना लगता है।
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मन में भय के साथ रोमाँच भी था क्योंकि गारो पहाड़ियों का यह क्षेत्र देश के पर्यटन मानचित्र के अनछुए हिस्सों में से एक है, जिसके अंदरूनी भागों में एक मोटरसाइकिल लेकर अकेले ही निकल पड़ने का सौभाग्य मुझे प्राप्त हुआ था।
बाघमारा से निकलने के बाद करीब 5 किमी तक तो सड़क की स्थिति अच्छी रही, लेकिन उसके बाद फिर वही कंकड़-पत्थर का दौर शुरू हो गया। टूटी हुई ऊबड़-खाबड़ सड़कों पर ऐसे इलाक़ों में टायर के पंचर होने का डर हमेशा लगा रहता है। कई बार तो 10-15 किमी तक सड़क पर ना तो कोई इंसान नज़र आता है और ना ही कोई गाँव । सड़क से कभी-कभी सिमसंग नदी का खूबसूरत दृश्य नज़र आ जाता था । एक-दो जगह सड़क किनारे वाच टावर बने हुए हैं, जहाँ बैठकर आप थोड़ी देर विश्राम भी कर सकते हैं और फिर ऊपरी हिस्से से आसपास के इलाक़े का नजारा ले सकते हैं। पूरे मेघालय में सड़क किनारे ऐसे वाच टावर कई जगह नज़र आ जाते हैं।
सुनसान सड़क पर चलते-चलते अचानक से कोई गाँव मिल जाता है। गाँव में ज़्यादातर लोगों के पास काम नहीं होता है। खेती के नाम पर लोग धान की फ़सल उगाते हैं और एक बार धान की रोपाई के बाद ज़्यादातर समय ख़ाली ही रहते हैं। ऐसे में मोटरसाइकिल से चलते हुए जब भी कोई गाँव मिलता है, तो सामान्यतः गाँव के 15-20 पुरुष निरुद्धेश्य गाँव को जोड़ने वाली सड़क पर बैठे मिल जाते हैं। राजस्थान, उत्तराखंड इत्यादि में ऐसी जगहों पर चाय पीने के बहाने रुककर स्थानीय लोगों से गुफ़्तगू हो जाती है, लेकिन मेघालय के ऐसे हिस्सों में ना वो मुस्कान के साथ स्वागत करते हैं और ना ही अकेले मोटरसाइकिल सवार के तौर पर मेरी हिम्मत होती है कि मैं कुछ बात करने के उद्देश्य से रुक जाऊँ । वैसे भी इधर चाय की गुमटियों का चलन ना के बराबर है ।
क़रीब 11 बजे मैं सीजू गाँव के मुख्य बाज़ार मे पहुँच गया। साप्ताहिक बाज़ार का दिन होने के कारण बाज़ार आस-पास के गाँवों तक से आए नागरिकों की भीड़ से पटा पड़ा था । हर तरफ़ रोज़मर्रा के सामान मिल रहे थे । मुख्य सड़क से गाँव की ओर जाती सड़क पर एक प्रवेश द्वार बना है, जिस पर लिखा है – Welcome to Siju Caves ।
मुख्य सड़क से सीजू गुफा लगभग पांच किमी दूर है, जहाँ तक जाने के लिए एक अच्छी सड़क बनी हुई है। सीजू गुफ़ा के पास तक गाड़ियां आराम से जा सकती हैं । बाज़ार से निकलकर सीजू गाँव से गुजरते हुए मैं सिमसंग नदी के किनारे स्थित सीजू गुफ़ा तक आ गया। सिमसंग नदी थोड़ी दूरी पर ही बहती, लेकिन मार्च के महीने में इस बरसाती नदी में पानी कम था। नदी की तलहटी में दूर तक सिर्फ़ रेत ही रेत थी और एक किनारे बिल्कुल शीशे की तरफ़ साफ़ नदी बह रही थी । नदी की तरफ़ घूमने से पहले मैं गुफ़ा को देखना चाहता था। इसलिए मैं टिकट काउंटर की तलाश में इधर-उधर देखने लगा । कोई काउंटर तो नही दिखा, लेकिन पास की झोपड़ी से एक आदमी आया और अपना परिचय केयरटेकर के रूप में दिया। मेरे अलावा वहाँ और कोई भी पर्यटक नही था, इसलिए केयरटेकर को टिकट के पैसे लेने की कोई जल्दी नही थी । उसने कहा कि आराम से सब घूम लीजिए, फिर पैसा दे दीजिएगा ।
सीजू गुफ़ा के प्रवेश द्वार तक पहुँचने के लिए टिकट काउंटर से क़रीब दस मिनट तक सीढ़ियाँ चढ़नी पड़ती हैं । बहुत ज़्यादा खड़ी चढ़ाई नही है और सामान्य फिटनेस वाला कोई भी इंसान आराम से गुफ़ा तक पहुँच सकता है। गुफ़ा के प्रवेश द्वार से ही इसकी भव्यता का अंदाज़ा लग जाता है, लेकिन इसकी विशालता समझने के लिए अंदर से गुफ़ा के विभिन्न हिस्सों को खँगालना ज़रूरी है । सीजू गुफ़ा की एक ख़ास बात यह है कि इसके अंदर से पानी की एक धारा बहती है । अभी तो यह पानी की एक धारा ही है, लेकिन बाद में अंदर घुसने पर समझ आता है कि इसको एक छोटी नदी कहने में कोई दिक़्क़त नही होनी चाहिए । इस धारा की वजह से सीजू गुफ़ा का अधिकांश हिस्सा पानी में डूबा रहता है।
सीजू गुफ़ा के विकास क्रम में नदी की उस धारा का बहुत महत्वपूर्ण योगदान था । पानी की उस धारा ने हज़ारों साल पहले लाइमस्टोन की उन चट्टानों के बीच रास्ता बनाना शुरू किया होगा । फिर धीरे-धीरे सदियों के विकास में लाइमस्टोन की चट्टाने पानी के बहाव में कटती गई और गुफ़ा का आकार लेती गई । सीजू गुफ़ा एशिया के सबसे बड़े गुफ़ा तंत्रो (Cave Systems) में से एक मानी जाती है । पूरी गुफ़ा का फैलाव चार किमी से भी ज़्यादा है, लेकिन इसका अधिकांश हिस्सा पानी में डूबा रहता है । सामान्य दिनों में पानी का स्तर बहुत ज़्यादा नही होने पर क़रीब साढ़े तीन किमी तक गुफ़ा के अंदर जाया जा सकता है ।
मैंने प्रवेश द्वार से गुफ़ा के अंदर देखा तो कुछ दूर के बाद घुप्प अँधेरा नज़र आया । मैंने अंदाज़ा लगाया कि अंदर घुसने में दो बार पानी में उतरना पड़ेगा, लेकिन पानी की गहराई मुश्किल से एक फुट थी, तो किसी दिक़्क़त का सामना नहीं करना पड़ेगा । यही सोचकर मैंने अपने जूते-मोज़े खोलकर प्रवेश द्वार पर एक तरफ़ रखे और दिल मजबूतकर उस अँधेरे वीराने में प्रवेश कर गया। अच्छी बात यह है कि सीजू गुफ़ा में घुसने और आगे बढ़ने के लिए झुकने या रेंगने की ज़रूरत नही पड़ती, बल्कि आराम से पीठ कर बैग टाँगकर चहलक़दमी की जा सकती है। थोड़ी देर में उजालों को पीछे छोड़कर मैं घुप्प अँधेरे में पहुँच गया ।
सीजू गुफ़ा के दूर तक फैले अंधेरों में मैं अकेला आगे बढ़ रहा था । सामने पानी में छोटी-छोटी मछलियाँ तैर रही थी। मेघालय की गुफ़ा नदियों में मछलियों की अच्छी तादाद रहती है। अभी कुछ महीने पहले ही जयन्तिया पहाड़ियों की ऐसी ही एक गुफ़ा में सबसे बड़ी गुफ़ा मछली पाई गयी है। नदी की धाराओं को कूद- फांदकर मैं एकदम अंधेरे वाले हिस्से में पहुंच गया । दिमाग़ में एक उथलपुथल मची हुई थी। कुआलाल्मपुर में बाटू गुफ़ा के बग़ल में स्थित अंधेरी गुफ़ा (Dark Cave) के गाइडेड टूर के दौरान मेरी गाइड ने बताया था कि लाइमस्टोन की ऐसी अंधेरी गुफ़ाओं में मकड़ियाँ, बिच्छू और कुछ प्रजातियों के साँप भी पाए जाते हैं । हेडलैम्प की रोशनी में सिर्फ़ आगे बढ़ने का रास्ता दिख रहा था , बाक़ी किसी का भी मिलना या दिख जाना सब भगवान भरोसे था। क़रीब तीन सौ मीटर अंदर घुसने के बाद एक टीले जैसा चट्टानी क्षेत्र नज़र आया । मैं टीले के ऊपर चढ़कर दूसरी तरफ़ उतर गया । आगे नदी में पानी की मात्रा ज़्यादा लग रही थी । गहराई का कोई अंदाज़ा नही था और उस गहरे अँधेरे में नदी की गहराई की थाह लगाने की मुझे हिम्मत नही हो रही थी । मैं टीले की एक चट्टान पर बैठ गया। सामने गुफ़ा की छत से लटकती स्टैलेक्टाइट्स (Stalactites) और स्टैलेग्माइट्स (Stalagmites) की चट्टानें लटक रही थी ।
गुफ़ा के अंदर वातावरण डरावना लग रहा था । अंधेरे में कुछ सूझ नही रहा था, लेकिन फिर भी मैं एक चट्टान पर बैठा रहा। दिल में धुकधुकी भले हो रही थी, लेकिन अंदर ही अंदर दिल को यह बात पता थी कि ऐसी जगहों पर डर के लिए कोई स्थान नही था । हर तरफ़ से चमगादड़ों की आवाज़ें सुनाई दे रही थी । अन्धेरे में उड़ते चमगादड़ साँय से जब बग़ल से गुजरते थे तो मैं चिहुंक जाता था । चमगादड़ों की अधिकता के कारण इस गुफ़ा को स्थानीय लोग दोबाक्कोल (Dobakkol, The Bat Cave) के नाम से जानते हैं । इस गुफ़ा के अंदर पाए जाने वाले कीड़ों, मकड़ियों इत्यादि के लिए चमगादड़ों की उपस्थिति बहुत मायने रखती है । कई छोटे कीड़ों के लिए चमगादड़ों का मल (Bat Guano) पोषण के लिए उपयोगी होता है । इसलिए गुफ़ा के भीतर जीवन के विकास और उपयोगी भोजन श्रृंखला (Food Chain) तैयार करने में चमगादड़ एक महत्वूर्ण भूमिका निभाते हैं ।
थोड़ी देर बाद जब दिल की धड़कने सामान्य हुई तो मैंने कैमरा निकाला और लैंप की रोशनी में कुछ फोटो खींचने की कोशिश करने लगा । लेकिन अंधेरा इतना घना था कि कोई कामयाबी नही मिल रही थी । गुफ़ा के अंदर गर्मी की वजह से शरीर पसीने से तरबतर हो चुका था। कई तरीक़ों से लैम्प की रोशनी में ट्राइपाड पर कैमरा टिकाकर अंदर की फ़ोटो लेने की कोशिश करता रहा, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पाँत । गुफ़ा के अंधेरे वातावरण में मन की उलझन ऐसी थी कि एक बार भी ख्याल नहीं आया कि कैमरे का फ़्लैश बलपूर्वक प्रयोग कर लूं। मैंने सारी सेटिंग कर ली, लेकिन फ्लैश का प्रयोग करना दिमाग़ में आया ही नहीं ।
क़रीब आधे घंटे तक वहाँ जद्दोजहद करने के बाद मैं गुफ़ा से बाहर आ गया । मन अभी भरा नही था और सीजू गुफ़ा में अंदर आगे तक जाने की तीव्र इच्छा हो रही थी । तभी घूमते-फिरते दो लड़के और आ गए और मेरे साथ गुफ़ा के अंदर जाने को तैयार हो गए । लेकिन उनसे बातचीत के बाद ऐसा लगा कि वो दोनों वही सड़क निर्माण या भवन निर्माण के काम में लगे मज़दूर थे और बस समय पास करने इधर आ गए थे । उन दोनों को गुफ़ा की बिल्कुल भी जानकारी नही थी । ऐसे लोगों के साथ गुफ़ा के अंदर जाना बुद्धिमानी का काम नही था, इसलिए मैं वही थोड़ी देर के लिए बैठ गया । मैं सोच-विचार में डूबा ही था कि तभी केयरटेकर आता हुआ दिखाई दिया। मैंने उससे पूछा कि गुफ़ा के अंदर ले जाने के लिए कोई गाइड उपलब्ध हो सकता है क्या ? उसने तुरंत बताया कि उसका ख़ुद का भाई ही गाइड का काम करता है। सीजू गुफ़ा में क़रीब तीन किमी तक अंदर जाने और घूमकर आने के लिए गाइड का चार्ज ढाई सौ रुपए है । मैंने तुरंत हामी भर दी और उसने अपने भाई को फ़ोन करके बुला लिया ।
अंदर जाने से पहले मुझे अपनी जींस निकालकर एक हाफ़ पैंट पहनने का सुझाव मिला क्योंकि गुफ़ा के अंदर पानी घुटनों तक और कहीं-कहीं कमर तक भी था। जूते और मोज़े तो मैं पहले ही उतार चुका था। वहीं प्रवेश द्वार पर ही मैंने जींस निकालकर एक हाफ़ पैंट पहन ली और गाइड के साथ गुफ़ा में अंदर की तरफ़ चल पड़ा। वो दोनो लड़के भी पीछे-पीछे गुफ़ा के अंदर आ गए। शुरू -शुरू में तो नदी की रेत के कारण चलने में बड़ा मज़ा आ रहा था और नदी के किनारे या उसके पानी में उतरकर मैं आराम से अंधेरी गुफ़ा में चलता जा रहा था । गाइड के पास टॉर्च, मेरे पास हेडलैम्प और उन लड़कों के पास मोबाइल होने से रोशनी की ठीक ठाक मात्रा मौजूद थी ।
नदी की रेती पारकर हम उस हिस्से में पहुँच गए, जहाँ रास्ता पथरीला था । थोड़ी ही देर में मुझे अपनी बहुत बड़ी ग़लती का एहसास हो गया। नंगे पाँव होने से पत्थर पैर में बुरी तरह से चुभ रहे थे। लेकिन मैं फिर भी आगे बढ़ता जा रहा था । मैंने प्रवेश द्वार पर ही गाइड से पूछा था कि बिना जूते के जाना सही रहेगा क्या तो उसने कहा था कि कोई दिक़्क़त नही होगी। मुझे लगता है कि वो पत्थरों पर नंगे पैर चलने वाली कठिनाई को समझ ही नही पाया था। अपने पैरों में तो उसने ग़म बूट डाल रखे थे जो ऐसे सफ़र में बड़े उपयोगी होते हैं । कहीं-कहीं नदी की धारा गुफ़ा बन्द होने से रुकी हुयी थी, जिससे उधर का पानी बहुत गंदा और कीचड़ वाला था । ऐसी जगहों पर नदी में उतरने की जगह हम किनारे के पत्थरों के सहारे धीरे-धीरे आगे बढ़ रहे थे। पत्थरों का बाहरी हिस्सा इतना पतला और धारदार था कि ज़रा सी चूक से पैरों का छलनी होना तय था।
उस धुप्प अंधेरे में भी गाइड को मानों हर रास्ता पता था । हम एक गुफ़ा से दूसरी , दूसरी से तीसरी, तीसरी से चौथी; ऐसे करते हुए गुफ़ाओं के उस संसार में घुसते चले जा रहे थे। थोड़ी देर बाद सामने एक पहाड़ जैसा हिस्सा नज़र आया। गुफ़ा के अंदर एक ऊँची सी पहाड़ी थी, जिस पर चढ़कर हमें फिर दूसरी तरफ़ उतरना था। चट्टानों से भरी उस पहाड़ी पर नंगे पाँव चलने में एक बार फिर बड़ी दिक़्क़तें आई, लेकिन सफ़र का रोमाँच उत्साह को बनाए हुआ था। बीच बीच में गाइड हमें स्टैलेक्टाइट्स (Stalactites) और स्टैलेग्माइट्स (Stalagmites) की आकृतियाँ और जीवाश्मों के कुछ निशान भी दिखाता जा रहा था। सालों के परिवर्तन चक्र में लाइमस्टोन की ये चट्टानें कहीं-कहीं काँच में भी बदल गयी थी । उसने हमें काँच के छोटे-छोटे टुकड़े भी दिखाए। हालाँकि काँच के उन टुकड़ों को देखकर मन में एक अलग डर आ गया कि कहीं पैरों में काँच ही ना चुभ जाए ।
पहाड़ के दूसरी तरफ़ उतरकर हम गुफ़ाओं की भूलभुलैया में आगे बढ़े। अब नदी का पानी घुटनों के ऊपर तक आने लगा था और हमारे पैंट का निचला हिस्सा गीला हो गया। दो-तीन जगहों पर पत्थरों पर मिट्टी की परत जमने से काफ़ी फिसलन हो चुकी, इस वजह से फिसलकर गिर भी पड़े। लेकिन अंधेरे में आगे बढ़ना जारी रहा। क़रीब ढाई किमी के बाद उसने बताया कि आगे जो नदी की धारा है, उसमें सीने तक पानी है । थोड़ा और आगे बढ़ने पर पानी गर्दन तक आ जाएगा । उसने कहा कि अमूमन हम उधर से ही वापसी करते हैं, लेकिन तब पानी ज़्यादा से ज़्यादा कमर तक रहता है ।
अब हमारे सामने दो रास्ते थे । पहला रास्ता था सीने तक पानी में उतरकर उधर से आगे बढ़ते हुए वापसी करना और दूसरा रास्ता था जिधर से आए थे उसी रास्ते पर दुबारा से वापस जाना और बाहर निकलना । हमने सोचा कि पानी में क्यूँ घुसना, इसलिए पुराने रास्ते से ही वापस चलते हैं । हालाँकि दुबारा से पथरीले रास्तों पर चलने का डर ज़रूर सता रहा था। वो दोनों लड़के हमसे पहले ही वापस चले गए थे । एक बार फिर नदी की धाराओं में उतरकर एक गुफ़ा से दूसरी गुफ़ा और दूसरी से तीसरी गुफ़ा में होते हुए वापसी करने लगे । धीरे-धीरे हम एक बार फिर पत्थरों की उस पहाड़ी तक पहुँच गए । पहाड़ी के ऊपर चढ़कर हमने उसे पार किया और दूसरी तरफ़ उतर गए । थोड़ी देर में एक तरफ़ से दोनों लड़के आते हुए दिखे । वो दोनों हमसे पहले निकल तो गए थे, लेकिन फिर आगे जाकर रास्ता भटक गए । फिर हम सभी लोग गाइड के पीछे-पीछे सुरक्षित गुफ़ा से बाहर निकल गए ।
मुझे ना तो सीजू से निकलने की जल्दी थी और ना ही केयरटेकर को पैसे लेने की । इसलिए गुफ़ा से निकलकर मैंने अपने जूते उठाए और सीधे सिमसंग नदी की तरफ़ चल पड़ा। नदी में नहाने का मन तो था, लेकिन पूछने पर गाइड ने कहा कि हो सकता है किसी पर्यटक का वहाँ नहाना स्थानीय लोगों को थोड़ा नागवार लगे । इसलिए मैंने नहाने का विचार त्याग दिया और नदी में हाथ-मुँह धोकर बस कपड़े बदल लिए। मार्च के महीने में नदी अपने मूल स्वरूप से लगभग एक चौथाई कम पानी में बह रही होगी, लेकिन फिर भी पानी इतना था कि नदी को पैदल आरपार करना मुश्किल था । एकदम साफ़ सुथरी नदी का दृश्य बड़ा ही मनोरम था ।
नदी के दूसरे किनारे पर सीजू पक्षी अभयारण्य (Siju Bird Sanctuary) है, जिसमें विभिन्न प्रजातियों के रंग-बिरंगे पक्षी दिख जाते हैं। सामने एक पहाड़ी पर बड़े -बड़े अक्षरों में SIJU लिखा है । नदी में कहीं-कहीं लोग मछली पकड़ रहे थे । थोड़ी दूरी पर कैनोई (Canoe) जैसी पतली नावें बंधी हुयी थी । कभी-कभी कोई स्थानीय निवासी आता और अपनी नाव लेकर नदी के सफ़र पर निकल पड़ता। ऐसा लग रहा था कि आस पास के गाँव से लोग उनसे सीजू के मुख्य सड़क पर स्थित बाज़ार तक आते हैं और अपना काम पूरा कर नाव से ही वापस हो जाते हैं ।
नदी से वापस आकर मैंने केयरटेकर को टिकट और गाइड के पैसे दिए । पास में ही एक छोटी सी दुकान से खाना और पानी लिया । सीजू में रात्रि विश्राम के लिए पर्यटन विभाग का एक गेस्ट हाऊस गुफ़ा के पास में ही स्थित है । यहाँ क़रीब 1500 रुपए प्रति रात्रि के किराए पर कमरा मिल जाता है । बजट पर्यटकों के लिए डारमिटरी की सुविधा भी विकसित की जा रही है । सीजू तक पहुँचने के लिए सार्वजनिक परिवहन (Public Transport) के नाम पर दिन भर में असम के दूधनोई से 5-6 बसें आसानी से मिल जाती हैं । कुछ बसें विलियमनगर से भी मिल जाती हैं । बसों के अलावा दूधनोई से सूमो गाड़ियाँ भी मिलती हैं । यह सारे वाहन सीजू में मुख्य सड़क पर स्थित बाज़ार में सवारियाँ उतारकर आगे बाघमारा की तरफ़ चले जाते हैं । मुख्य बाज़ार से सीजू गुफ़ा की दूरी क़रीब 5 किमी है । वहाँ तक जाने के लिए मुख्य बाज़ार से एक आटो-रिक्शा रिज़र्व करने की ज़रूरत पड़ती है । अकेले सफ़र करने की स्थिति में किसी मोटरसाइकिल सवार के साथ लटका जा सकता है या हो सकता है कोई मोटरसाइकिल वाला 40-50 रुपए लेकर गुफ़ा तक चला जाए ।
सीजू गुफ़ा में घूम लेने के बाद मैं आगे के सफ़र पर विलियमनगर की तरफ़ निकल पड़ा। रास्ते में जगह-जगह सड़क किनारे बिखरे हुए कोयले के ढेर और यत्र-तत्र खराब हुई ट्रकों से समझ आ जाता था कि कभी यह क्षेत्र कोयला खदान का एक बड़ा केंद्र था । कई सारी जगहों पर अभी भी ट्रकों पर कोयला लादा जा रहा था ।
मुझे किसी तरह शाम तक विलियमनगर पहुँचना था । नेंगख्रा (Nengkhra) के पास मुख्य रास्ते से एक पतला रास्ता विलियमनग़र के लिए निकलता है । उस रास्ते पर क़रीब 16 किमी चलते हुए लगभग तीन बजे तक मैं विलियमनगर पहुँच गया। सौभाग्य से विलियमनगर में प्रवेश करते ही टूरिस्ट लॉज दिख गया, जिसकी वजह से रात में रुकने का जुगाड़ करने के लिए ज़्यादा भाग दौड़ नही करनी पड़ी।
विलियमनगर में कहीं और घूमने से पहले मैं रात्रि विश्राम की व्यवस्था करना चाहता था, तो सीधे टूरिस्ट लॉज ही चला गया। वहाँ पता चला कि एक रात का किराया पंद्रह सौ रुपए है। मेघालय में हर जगह ही होटलों और गेस्ट हाउसों के दाम ज़्यादा होते हैं, इसलिए मुझे कोई आश्चर्य नही हुआ। लेकिन फिर मुझे लगा कि अभी तो अँधेरा होने में काफ़ी समय है और ऐसी कोई जल्दी नही है तो एक-दो होटल क़स्बे के मुख्य बाज़ार में भी देख लेता हूँ। इसलिए मैं आगे बढ़ गया।
गारो पहाड़ियों के सबसे प्रमुख शहर तुरा की यात्रा: गारो पहाड़ियों के केंद्र तुरा का सफ़र
विलियमनगर हालाँकि एक ज़िला मुख्यालय है, लेकिन मुख्य बाज़ार के अलावा तीन-चार सड़कों पर मुश्किल से तीन किमी की दूरी में पूरे क़स्बे की दुकाने, सरकारी ऑफ़िस, चर्च और स्कूल स्थित हैं। मैंने आधे घंटे में सब तरफ़ देख लिया लेकिन कोई ढंग का होटल नज़र नही आया। आधे से ज़्यादा इमारतों में तो सरकारी ऑफ़िस थे । फिर मैंने सोचा कि अब रुकने की व्यवस्था बाद में देखेंगे और सिमसंग नदी के पुल की तरफ़ बढ़ गया। घूमने के नाम पर विलियमनगर में मुझे बस सिमसंग का पुल पता था ।
बाघमारा और सीजू के बाद विलियमनगर में यह सिमसंग नदी से तीसरी मुलाक़ात थी । सिमसंग नदी के पुल से आसपास का दृश्य सुहाना तो लग रहा था लेकिन नदी में पानी बहुत कम था। लोग हर तरफ़ अपने रोज़मर्रा के कामों में लगे हुए थे। ज़्यादातर लोग मछली पकड़ने में व्यस्त थे ।
सिमसंग का पुल घूमने के बाद विलियमनगर में करने को कुछ बचा नही था। देखा जाए तो अब गारो पहाड़ियों की इस यात्रा में नोक्रेक नेशनल पार्क (Nokrek National Park) के अलावा कुछ भी नही बचा था। नोक्रेक के पास में ही एक झरना भी था, लेकिन मुझे झरने में कोई ख़ास रुचि नही थी क्योंकि मार्च के महीने में मेघालय के झरनों में वैसे भी ज़्यादा मज़ा नही आता है । पास में ही एक फ़िश सैंक्चुअरी थी लेकिन मुझे उसमें भी कोई रुचि नही थी। एक बार तो दिमाग़ में आया कि चार बजे हैं तो गुवाहाटी के लिए निकल लेते हैं। 188 किमी की दूरी पाँच घंटे में तय करके नौ बजे तक घर पहुँच जाऊँगा । बस यह बात दिमाग़ में आते ही मैं वापसी के लिए निकल पड़ा। लेकिन दिमाग़ में बार-बार आ रहा था कि रात में मोटरसाइकिल चलाना सही नही रहेगा । वैसे भी गुवाहाटी से गोआलपारा का हाईवे मेरी नज़र में ख़तरनाक था, क्योंकि दोनो तरफ़ से ट्रैफ़िक रहने की वजह से आँखें अक्सर चुँधियाती रहती हैं। क़रीब सात किमी तक जाने के बाद मैंने गुवाहाटी वापसी का इरादा त्याग दिया और एक बार फिर मोटरसाइकिल विलियमनगर के लिए मोड़ ली ।
विलियमनगर का सर्किट हाउस टूरिस्ट लॉज के पास में ही है। मेघालय पर्यटन की वेबसाइट पर रुकने का एक विकल्प सर्किट हाउस भी लिखा हुआ था तो मैंने सोचा कि इस बार सर्किट हाउस में ही क़िस्मत आज़माते हैं। हालाँकि असम और अरुणाचल प्रदेश में पुराने अनुभव कह रहे थे कि सर्किट हाउस ख़ाली रहने पर भी अमूमन आम पर्यटकों को नही दिए जाते। उसके लिए कोई तगड़ा जुगाड़ लगाना पड़ता है। सर्किट हाउस पहुँचने पर केयरटेकर ने बताया कि कमरे का आवंटन तो डी सी ऑफ़िस से ही होगा। फिर उसने मुझे डी सी ऑफ़िस में एक बन्दे का नम्बर दिया। उस नम्बर पर कॉल किया तो बताया गया कि इसके लिए तो डी सी साहब से ही बात करनी पड़ेगी। उसने मुझे डी सी साहब का नम्बर दिया, तो मैंने उनको भी फ़ोन मिला दिया। लेकिन जैसी आशा था कि आम पर्यटकों को सर्किट हाउस में कमरा मिलना आसान नही है, तो वैसा ही हुआ। उन्होंने कमरा आवंटित करने से मना कर दिया कि सर्किट हाउस केवल सरकारी कामों के लिए है और इसमें सरकार के आदमी ही ठहर सकते हैं। इतना तो मुझे भी पता था । सवाल बस यही है कि मेघालय या अरुणाचल पर्यटन विभाग वाले अपनी वेबसाइटों पर ठहरने के विकल्प के रूप में सर्किट हाउस की जानकारी देते ही क्यों हैं ?
मेघालय के सबसे प्रमुख शहर शिलांग के बारे में यहाँ पढ़ें : शिलांग, पूरब का स्कॉटलैंड
ख़ैर, अब मेरे पास रुकने के विकल्प के रूप में टूरिस्ट लॉज ही बचा हुआ था, तो मैं दुबारा वहीं चला गया। मोलभाव करने के बाद बारह सौ रुपए में मुझे एक रात्रि के लिए कमरा मिल गया। सबसे अच्छी बात यह रही कि वहाँ लड़के ने पानी गरम करने के लिए एक इमर्सन रॉड की व्यवस्था कर दी । पानी गरम करके नहाने के बाद दिन भर की सारी थकान दूर हो गई । थोड़ी देर में ही रात के अंधेरों ने पूरे वातावरण को अपने आग़ोश में ले लिया और बाहर निकलने की कोई सम्भावना नही रही । मैंने भी आराम से कही जाने का विचार त्याग दिया और कमरे में ही आराम करने लगा ।
विलियमनगर में रुक जाने का एक फ़ायदा यह हुआ कि अगले दिन फिर मुझे गुवाहाटी वापसी से पूर्व नोक्रेक नेशनल पार्क घूमने का मौक़ा मिल गया । यह पार्क मेघालय का एक प्रमुख नेशनल पार्क है। यह मुख्यतः हुलाक गिबन (Hoolock Gibbon) के लिए बहुत प्रसिद्ध है । इस पार्क और गुवाहाटी वापसी की यह यात्रा अगले पोस्ट में जारी रहेगी ।
Very nice writing Solobackpacker .
Thank you Sir. 🙂
चिंता होना वाजिब है….विलियम नगर मुझे भी नहीं पता बस नक़्शे में कही देखा सुना सा लगता है….भाई हिम्मत बहुत की आपने अकेले bike चला कर ….सिजु गुफा देखने की हिम्मत सिमसंग नदी ये सब जानते भी नहीं है हम….बेहतरीन लेख….ढूंढा कैसे आपने सिजु गुफा और विलियम नगर….कही advertise है क्या इस जगह का मेघालय टूरिज्म में…मजा आ गया लेख पढ़कर….
मेघालय पर्यटन की वेबसाइट से ही काफी जानकारी मिल गयी थी . लेख पसंद करने के लिए आभार. 🙂