लदाख के हेमिस राष्ट्रीय पार्क में अपने ऑफिस के दो साथियों के साथ बिताये हुए चार दिन मेरी जिन्दगी के कुछ रोमाँचक लम्हों में से एक हैं। मारखा घाटी का वो ट्रेक हम पूरा तो नहीं कर पाये , लेकिन उन चार दिनों में बहुत कुछ सीखने को मिला। पहले दिन हमें ट्रेक शुरू करने में थोड़ा देरी हो गई और रात हो जाने की वजह से सड़क के किनारे ही सोना पड़ा। दिक्कत ये थी कि हमारे पास पानी का कोई प्रबंध ही नहीं था, इसलिए रात को भोजन नहीं बना पाये और बिस्कुट-चिप्स खाकर सो गए।
रात में मुझे अचानक ही बहुत ठण्ड लगने लगी और मैं स्लीपिंग बैग से निकलकर बैठ गया। मेरे बगल में दोनों लोग आराम से सो रहे थे। ऊनी मोजों की दो लेयर पहनने के बावजूद मेरे पैर ठण्डे हो रहे थे। धुप्प अँधेरे में बाहर बहुत ही तेज हवा चल रही थी। मेरे पास एक स्टोव तो था, लेकिन वाल्व खराब होने की वजह से उसने शाम को जलने से इंकार कर दिया था। आधी रात में ज्यादा ठण्ड लगने के बाद मैंने सोचा कि एक कोशिश और करके देखता हूँ। किस्मत से थोड़ी ही कोशिश में स्टोव जल गया और मैंने अपने पैरों को सेंक लिया।
सुबह नींद जल्दी खुल गयी। लेकिन ठण्ड की वजह से बाहर निकलने का दिल नहीं कर रहा था। सब एक-दूसरे को उठने के लिए कह रहे थे, लेकिन वास्तव में कोई भी नहीं उठ रहा था। किसी तरह हम 9 बजे तक वहाँ से आगे बढ़ने में कामयाब हो गए। पानी नहीं होने की वजह से नाश्ते का सवाल ही नहीं उठता था।
पिछले दिन बैकपैक के भारी होने की वजह से चला नहीं जा रहा था , इसलिए वजन कम करने के नाम पर मैंने सोचा कि कुछ अतिरिक्त सामान वहीँ छोड़ देता हूँ। लेकिन खाने के सामानों को छोड़कर और कुछ अतिरिक्त था ही नहीं। हाँ, हमने खाना अवश्य जरूरत से ज्यादा रख लिया था। वजन कम करने की गाज गिरी गुजरात से विशेष रूप से मंगाए गए थेपलों पर। उन्हीं का वजन करीब 2 -3 किलो था। हमने थेपलों की पोटली वही छोड़ दी और आगे बढ़ गए।
वातावरण में ठण्ड तो थी, लेकिन तेज धूप की वजह से बहुत जल्द ही हमें गर्मी और प्यास दोनों ने सताना शुरू कर दिया। ऐसा नही था कि वहाँ पानी नहीं था। नीचे कल-कल बहती हुई सिंधु में अथाह पानी मौजूद था। लेकिन उस तक पहुँच पाना ही बहुत टेढ़ी खीर थी। 200-300 फ़ीट नीचे बह रही नदी से पानी लेने के लिए हमें कम से कम १ किलोमीटर की दूरी तय करनी पड़ती और फिर उसके बाद वापस सड़क पर पहुँचने के लिए लगभग सीधी चढ़ाई। मान लो हम वहाँ जाने का मन भी बना लेते तो भी इस बात की कोई गॉरंटी नहीं थी कि नदी से पानी निकाल पायेंगे। किनारों पर जमी बर्फ हमें पानी तक पहुँचने से रोक भी सकती थी। तो सब मिलाकर हमें यही लगा कि मुख्य सड़क पर ही आगे बढ़ते हैं। कहीं ना कहीं तो पानी मिल ही जायेगा।
खाली करने के बावजूद बैग भारी ही थे। थोड़ी ही दूर में थकान होने लगी। भूख-प्यास का ये आलम था कि हम हर 200-300 मीटर पर बैठ-बैठकर आराम करने लगे। अच्छी बात बस सामने दिख रहे नजारों में ही थी। पहाड़ों की ऊँची चोटियाँ , नीचे बहती नदी और हसीन वादियाँ, हम थके जरूर थे , लेकिन हमारे वहाँ रहने की कुछ वजह भी थी।
करीब 2 घंटे बाद एक मोड़ पर हमने सिंधु से विदा ली और आगे बढ़ चले। सड़क अब पहाड़ी के किनारे सीधे चलने के बजाय नीचे एक नदी की तरफ जा रही थी। पानी का इंतजाम होने ही वाला था। ढलान पर नीचे उतरकर हम एक छोटी सी पहाड़ी नदी के किनारे चलने लगे । थोड़ा ही आगे बढ़ने पर हम इतना नीचे आ गए कि नदी तक आराम से पहुँच सके। लेकिन जब हम नदी के किनारे पहुँचे तो पूरी नदी जमी हुई मिली। पानी का तो नामोनिशान ही नहीं था। नदी की बर्फ इतनी सख्त थी कि तोड़कर उसको गरम भी नहीं कर सकते थे।
निराश होकर अब आगे बढ़ें। लेकिन इतनी उम्मीद तो थी कि पानी जल्दी ही मिल जायेगा। करीब 200 मीटर चलने के बाद एक मोड़ पर हमें एक बेहतरीन स्थान मिला। नदी वहाँ भी जमी थी , लेकिन बर्फ की परत में बने एक गड्ढे के नीचे बहती पानी की धार भी नजर आ रही थी। सबसे अच्छी बात ये थी कि वहाँ बहुत सारी सूखी लकड़ियाँ भी थी। स्टोव के बिना भी हम आग जलाकर कुछ पका सकते थे और पानी गर्म कर सकते थे। नेशनल पार्क में आग जलाना प्रतिबंधित है, लेकिन तब हमें पता ही कहाँ था कि हम एक नेशनल पार्क के अंदर थे। हमारे पास कोई और उपाय भी नहीं था। वहाँ बिखरे जली लकड़ी के टुकड़े बता रहे थे कि हमसे पहले भी लोगों ने वहाँ खाना पकाया हुआ था।
हमने आग जलाकर मैगी पकाई, पानी गरम किया और चाय बनाई। पेट में जब कुछ गया तो बड़ी राहत महसूस हुई। गला तो हम पहले ही तर कर चुके थे। कुछ खाने-पीने के बाद शरीर में नई ऊर्जा आ गयी थी। सारा सामान समेटकर हमने आग बुझाई और आगे बढ़ चले। अब सड़क रुम्बक नाम की उस पहाड़ी नदी के साथ-साथ आगे बढ़ रही थी।
नदी पूरी तरह जमी हुई थी, लेकिन सड़क से ज्यादा नीचे नही थी। ज्यादा गहरी होने का डर भी नहीं था। जमी बर्फ को तो हमने पहले ही आजमा लिया था और वो बहुत ही सख्त थी। कुल मिलाकर बर्फीली चादर पर चलने का ऐसा मौका नही मिल सकता था। लेकिन सिंधु-ज़ांस्कर संगम पर हुई घटना की यादें अभी ताजा ही थी , इसलिए हमारे अंदर ज्यादा खतरे उठाने का साहस भी नहीं था। हमने सोचा कि चादर ट्रेक तो कर नहीं पाए, क्यों ना थोड़ी देर इसी बर्फीली नदी पर चल कर चादर ट्रेक का फील ले लें। बाद में हेमिस पार्क में हमें ऐसे कई मौके और मिले।
आगे बढ़ते हुए हम करीब तीन बजे ज़िंगचेन गाँव के पास पहुँच गए। गाँव से बाहर ही हमें नदी के किनारे टेंट लगाने के लिए एक शानदार जगह दिखी। ज़िंगचेन करीब 5-6 घरों का छोटा सा गाँव है। लोग मुख्यतः गाँव के आस-पास की जमीन पर खेती करते हैं। 2-3 घरों में होमस्टे की भी व्यवस्था है। हेमिस पार्क और मारखा घाटी के लगभग हर होमस्टे में ठहरने पर 800 रूपये किराया है, जिसमें ठहरने के साथ-साथ नाश्ता , लंच और डिनर की व्यवस्था होती है। गरम पानी के लिए अलग से कुछ अतिरिक्त शुल्क लग सकता है।
ज़िंगचेन में गाँव वालों ने टेंट लगाने के लिए दो कैंपिंग स्थल बना रखे हैं। एक गाँव के ठीक पहले , जहाँ कि हम पहुँच चुके थे और दूसरा गाँव से आगे खेतों के पास। दोनों ही कैंपिंग साइट पर टेंट लगाने का एक रात का शुल्क करीब 100 रुपये है। गाँव से एक पुरुष या महिला आकर आपसे निर्धारित किराया मांग लेते हैं। मुझे यह नहीं पता कौन सा टेंट किसकी जमीन पर लगा है, उसका निर्धारण वो कैसे करते हैं । वैसे दोनों ही कैंपिंग साइट की लोकेशन एक से बढ़कर एक है।
हम सड़क से उतरकर जमी हुई नदी को पारकर कैंपिंग स्थल पर पहुँच गए। हमारे अलावा वहाँ और कोई नहीं था। हमने टेंट लगाया, आग जलाई और सूप बनाया।
तभी एक महिला घूमती हुई आई और कैंपिंग स्थल का किराया मांगने लगी। उसी ने हमें बताया कि आगे दिख रहे घरों में होमस्टे भी है। उसके जाने के बाद हमने तय किया कि रात को डिनर पकाने की जगह किसी होमस्टे में किया जायेगा। थोड़ी ही देर में गाँव से एक बुजुर्ग उधर घूमते हुए आये। उन्होंने ने बताया कि एक घर में डिनर का इंतजाम हो जायेगा। अँधेरा होने वाला था और ठण्ड भी गहराने लगी थी। मेरे दोनों साथी उन बुजुर्ग के साथ गाँव चले गए ताकि डिनर का इंतजाम हो सके और मैं टेंट में घुस कर सो गया।
करीब 7 बजे हमने एक घर में डिनर किया। खाने में सिर्फ चावल और दाल थी। हमने प्रति व्यक्ति 300 रूपये की कीमत अदा की और डिनर करने के बाद वापस टेंट में आकर सो गए। दिन भर की थकान के कारण जल्दी ही नींद भी आ गयी। इस तरह हेमिस पार्क में ट्रैकिंग का हमारा दूसरा दिन समाप्त हुआ। हेमिस पार्क में ट्रैकिंग की हमारी आठ दिनों की योजना पर तीसरे ही दिन पानी फिरने वाला था। वो कहानी मैं अगले पोस्ट में बताऊंगा।
नोट: लेह शहर से ज़िंगचेन गाँव जाने वाली सड़क बहुत ही अच्छी स्थिति में है। ज्यादातर टूरिस्ट सड़क से सीधे ज़िंगचेन गाँव जाते हैं और फिर वहाँ से आगे का ट्रेक प्रारम्भ करते हैं। चूँकि हमारे पास मारखा घाटी का ट्रेक पूरा करने के लिए पर्याप्त समय था, इसलिए हमने इस ट्रेक को लेह शहर के पास ही स्थित स्पितुक गाँव से शुरू किया। स्पितुक से ज़िंगचेन पहुँचने में मुख्य सड़क पर ही चलना पड़ता है, इसलिए गाड़ी से जाए या पैदल, रास्ते के दृश्य समान ही रहते हैं। स्पितुक से ज़िंगचेन के लिए इस मुख्य रास्ते के अलावा ना तो कोई और रास्ता है और ना ही कोई शॉर्टकट।