असम और अरुणाचल प्रदेश की सीमा पर स्थित खूबसूरत कस्बे भालुकपोंग में जुलाई महीने की एक सुबह… असम पर्यटन के टूरिस्ट लॉज में जब आँख खुली तो मन मे कई सारी उधेड़बुन चल रही थी । मुझे उस दिन शाम तक सेप्पा पहुँचना था, लेकिन भालुकपोंग से सेप्पा की 120 किमी की दूरी तय करने में कई उलझने थी । पिछली शाम जैसे भालुकपोंग में पेट्रोल नही था, अगर रास्ते में फिर कही नही मिला तो फिर क्या होगा ? सेप्पा की दूरी भले ही 120 किमी थी, लेकिन पहाड़ी रास्तों पर मोटरसाइकिल उम्मीद से ज्यादा तेल पी सकती थी । मेरी प्रिय सवारी 7 साल पुरानी भी तो हो गयी थी । सबसे ज्यादा डर भूस्खलन का था । अगर लगातार सेप्पा जाना हो तो एक बार फुल टैंक करवाकर वहाँ तक तो पहुँच ही जाता, लेकिन अगर सेप्पा से 15-20 किमी पहले भूस्खलन के कारण रास्ता बंद मिला तो फिर क्या होगा ? फिर तो शायद भालुकपोंग तक वापसी करने लायक पेट्रोल नही रहेगा बाइक में । बारिश के मौसम में अरुणाचल प्रदेश की सड़कों का कोई भरोसा तो है नही । कब कहाँ सड़क बन्द हो जाएगी, ये कोई नही जानता ।

टिप्पी  से पहले  कामेंग नदी का नजारा
टिप्पी से पहले कामेंग नदी का नजारा

फिर भी हिम्मत करके भालुकपोंग से सुबह-सुबह ही मैं आगे के सफ़र पर निकल पड़ा । भालुकपोंग से करीब 7 किमी की दूरी पर स्थित कस्बे टिप्पी में एक आर्किड पार्क है । आर्किड पार्क बहुत ही सुन्दर है और उसके अंदर बहुत सारी प्रजातियों के ऑर्किड मिलते हैं, लेकिन बारिश के मौसम में ऑर्किड पार्क में क्या मजा ? वहाँ घूमने के लिए सबसे उचित समय तो सर्दियों का मौसम है ।

टिप्पी से करीब 5 किमी आगे बढने पर सड़क के किनारे एक भव्य झरना मिलता है, जिसे लालुम फाल्स के नाम से जानते हैं । बारिश के मौसम में तो वहाँ मेरे अलावा और कोई व्यक्ति नहीं था, लेकिन बारिश के बाद वहाँ पिकनिक मनाने वाले लोगों की अच्छी खासी भीड़ हो जाती है ।

भालुकपोंग से बोमडीला के रास्ते में लालुम वॉटरफॉल
भालुकपोंग से बोमडीला के रास्ते में लालुम वॉटरफॉल

लालुम फाल्स से आगे सड़क की हालत बहुत ही खराब है । कीचड़ और पानी से भरी सड़क पर जहाँ-तहाँ गाड़ियां फँस गयी थी । जगह-जगह भूस्खलन और पहाड़ों से पत्थर गिरना आम बात है । किसी तरह जोर लगाकर एक जगह कीचड़ से निकलता, तो थोड़ी आगे जाने पर सड़क की फिर वही स्थिति । आधे घण्टे के सफ़र में ही दिल बैठ गया था कि किधर आकर फँस गया । सेप्पा पहुँचने की तो छोड़िए , कीचड़ से भरी सड़क पर जिस तरह से पहिया स्लिप कर रहा था, दिमाग मे सिर्फ यही विचार आ रहा था कि वापस गुवाहाटी सुरक्षित पहुँच पाऊंगा कि नही । सबसे बड़ी चिंता तो यह हो गई थी कि वापसी भी इसी रास्ते से करनी थी । उस खस्ताहाल सड़क पर जद्दोजहद करने के बाद सेप्पा की तरफ बढ़ने का तो सवाल ही नही था। जब पर्यटकों के बीच बहुत ही लोकप्रिय तवांग के रास्ते का वह हाल था तो सेप्पा के रास्ते का सहज ही अंदाजा लगाया जा सकता था ।

कीचड़ से भरी खराब सड़क पर फंसी पड़ी एक ट्रक
कीचड़ से भरी खराब सड़क पर फंसी पड़ी एक ट्रक

थोड़ा ऊंचाई पर पहुँचते ही सड़क पर धुंध मिलने लगी । हल्की बूंदाबांदी भी होने लगी , लेकिन फिर भी ऐसा नहीं था कि मुझे कहीं रुकने की जरूरत पड़ जाये । मैं धीरे-धीरे धुंध में आगे बढ़ता रहा । रास्ते में 3-4 जगह सुन्दर-सुन्दर झरने मिले, कई जगह पहाड़ों पर दूर-दूर तक फैले घने जंगल थे और कुछ स्थानों पर नदियों की नयनाभिराम घाटियाँ । सड़क चाहे जैसी भी हो, लेकिन उन वीरानों की प्राकृतिक सुन्दरता बेजोड़ थी । अनछुई सी, आँखों को सुख पहुँचाने वाली, दिल को छू लेने वाली । प्रकृति की उस अद्भुत देन में सिर्फ एक ही धब्बा था, कीचड़ से भरी सड़क, जिस पर चलना बड़ा ही दुरूह कार्य था ।

भालुकपोंग से बोमडीला के रास्ते में एक और झरना
भालुकपोंग से बोमडीला के रास्ते में एक और झरना

प्राकृतिक सुन्दरता के उस अनमोल खजाने का आनन्द उठाता मैं आगे बढ़ता रहा । कहीं रास्ते से धुंध अचानक गायब हो जाती तो कहीं अचानक ही चारो तरफ कुहरा ही कुहरा । कही सड़क अच्छी स्थिति में मिल जाती और कही ऐसा लगता जैसे वहाँ कभी सड़क रही ही ना हो । सिर्फ मिट्टी, कीचड़ और पानी ।

भालुकपोंग से बोमडीला की सड़क पर छाई धुंध
भालुकपोंग से बोमडीला की सड़क पर छाई धुंध

बाइक के पुराने टायर जरा सा ब्रेक लगाते ही फिसल जाते । कीचड़ में फिसलन भी बहुत थी। जगह-जगह सड़क निर्माण का कार्य चल रहा था । कहीं पहाड़ काटा जा रहा था, कहीं मिट्टी फैलाई जा रही थी और कहीं पत्थरों की कुटाई हो रही थी । मजदूरों में ज्यादातर बिहार के निवासी थे , जो पेट भरने की चाह में हजारों मील दूर अरुणाचल प्रदेश के वीरानों में हमारे सुगम आवागमन के रास्ते बना रहा थे । जब धैर्य छूटने लगा तो सड़क किनारे काम कर रहे उन बन्दों से राय ली । बताया गया कि थोड़ी दूर स्थित नाग मन्दिर तक की ही लड़ाई है, उसके बाद रास्ता अच्छा है । मन में आशा की एक किरण जगी और मैं आगे बढ़ता गया ।

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दाहुंग और टेंगा के कैंटोनमेंट एरिया से थोड़ा पहले नाग मन्दिर सड़क के बिल्कुल किनारे बनाया गया एक छोटा लेकिन भव्य मन्दिर है । नाग मंदिर के बनने की कहानी करीब 50 साल पुरानी है । इस क्षेत्र में सड़क निर्माण के दौरान मजदूरों को नागों का एक जोड़ा निरंतर नजर आने लगा । दोनों नाग सामने की एक पहाड़ी पर पानी पीने जाते और फिर नीचे आ जाते थे । सड़क निर्माण में कार्यरत मजदूरों में से किसी ने नर नाग को एक दिन मार दिया और तभी से मजदूरों के बुरे दिन शुरू हो गए । आये दिन पत्थर गिरने और भूस्खलन होने की घटनाएँ होने लगीं । कुछ दिन के बाद ही सड़क निर्माण का कार्य असम्भव लगने लगा । मादा नाग भी क्रोधित होकर अपने साथी के हत्यारे को खोज रही थी । अचानक ही सर्पदंश की घटनाओं में वृद्धि हो गयी । परिणामस्वरूप मादा नाग को शांत करने के लिए भारतीय सेना की सड़क निर्माण ईकाई के एक मेजर द्वारा सन 1966 में नाग मंदिर का निर्माण करवाया गया । तब से भारतीय सेना की 91 सड़क निर्माण ईकाई ग्रेफ द्वारा प्रतिवर्ष इस मंदिर की मरम्मत और अन्य निर्माण कार्य बड़े पैमाने पर किया जाता है । प्रतिवर्ष सेना की इस ईकाई द्वारा नागपंचमी के अवसर पर एक बड़े मेले एवं भव्य भंडारे का आयोजन भी किया जाता है, जिसमें लोग बहुत दूर-दूर से पहुँचते हैं ।

दाहुंग- टेंगा के पास का नाग मंदिर
दाहुंग- टेंगा के पास का नाग मंदिर

नाग मंदिर के निचले हिस्से में मुख्य पुजारी जी अपने परिवार के साथ रहते हैं और कुछ सीढियाँ चढ़ने के बाद ऊपरी स्तर पर मंदिर बना हुआ है । अभी मैं सीढियाँ चढ़ ही रहा था कि पुजारी जी के घर में किसी महिला ने आवाज लगाई कि जल्दी जाईये कोई आया हुआ है । मैं तो लगातार सीढियाँ चढ़कर ऊपर पहुँच गया और फिर मंदिर के पिछले हिस्से में एक खिड़की के पास से सामने दिख रही हरी-भरी घाटियों की फोटो खींचने लगा । पुजारी जी आये और इधर-उधर देखकर चले गये, शायद उनकी नजर मुझपर पड़ी ही नहीं । नीचे जाकर उस महिला पर बरसने लगे कि कोई तो नहीं आया है । बात आगे बढे, तब तक सीढियों से उतरता हुआ मैं दिख गया और पुजारी जी शांत हो गए ।

मैने भी जूते पहने , बाइक उठाई और आगे बढ़ गया । नाग मंदिर पार करते ही एक छोटी बस्ती पड़ती है और उसके तुरंत बाद दाहुंग और टेंगा का कैंटोनमेंट एरिया शुरू हो जाता है । कैंटोनमेंट क्षेत्र काफी बड़ा है, जहाँ हर तरफ हरे रंग के टिन शेड वाले भवन और बड़ी संख्या में हरे रंग के ट्रक नजर आते हैं । छोटे से बाजार में चहल-पहल दिखती है , लेकिन उस भीड़ में स्थानीय निवासी कम और सेना के जवान ज्यादा हैं। नाग मंदिर के बाद से ही सड़क की स्थिति बहुत अच्छी हो जाती है और उम्मीद रहती है कि अब आगे के सफर में सड़क अच्छी ही मिलेगी ।

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कैंटोनमेंट क्षेत्र पार कर मैं रूपा के पास पहुँचा, तो सड़क किनारे एक बड़ा सा बोर्ड गुवाहाटी जाने के लिए एक और रास्ता दिखा रहा था । स्थानीय लोगों से पूछताछ करने पर पता चला कि वह दूसरा रास्ता रूपा, शेरगाँव होते हुए ओरंग के पास निकलता है और पहले वाले रास्ते से बहुत ही बेहतर स्थिति में है । यह सुनकर बड़ी ही राहत महसूस हुई । कम से कम अब इतनी तसल्ली तो हो गई कि वापसी में थोड़ा ढंग का रास्ता मिलेगा ।

रूपा, शेरगांव होकर गुवाहाटी जाने वाले वाली सड़क का बोर्ड
रूपा, शेरगांव होकर गुवाहाटी जाने वाले वाली सड़क का बोर्ड

आगे बढ़ने पर एक प्रवेश द्वार मिला , जिसपर लिखा था “ वेलकम टू बोमडीला ” । बोमडीला को भारत के दूरदराज इलाके में स्थित तवांग मोनेस्ट्री का प्रवेश द्वार कह सकते हैं । मेरा उस दिन सेप्पा ना जाकर बोमडीला पहुँचने का लक्ष्य था , लेकिन बोमडीला पहुँच कर लगा कि अभी तो बहुत सारा दिन शेष है । शरीर में थकान तो थी लेकिन मन में थोड़ा लालच आ गया कि लगे हाथ तवांग निपटा ही देते हैं । तवांग बोमडीला से 171 किमी दूर है , लेकिन मैंने सोचा कि आगे 42 किमी दूर स्थित दिरांग में रात्रि विश्राम करके सुबह- सुबह तवांग के लिए निकल जाऊँगा । यही सोचकर मैं दिरांग की तरफ बढ़ चला ।

वेलकम टू बोमडीला
वेलकम टू बोमडीला

बोमडीला से दिरांग की सड़क बहुत ही अच्छी स्थिति में है । उसको देखकर लग ही नहीं रहा था कि भालुकपोंग से बोमडीला पहुँचने के लिए मैंने लम्बा संघर्ष किया था । बोमडीला के आगे सड़क पर कुहरा कुछ ज्यादा ही घना हो गया , इसलिए रफ्तार कम थी और मैं सावधानीपूर्वक आगे बढ़ रहा था । रह-रहकर बूंदाबांदी भी मिल जाती थी । ऐसा लग रहा था कि बादलों में चलते हुए कहीं भारी बादल पानी बनकर बरस रहे थे तो कहीं हल्के बादल हवा में रुई के फाहों की तरह इधर-उधर उड़ रहे थे ।

बोमडीला से दिरांग के रास्ते का स्वर्गिक सौन्दर्य
बोमडीला से दिरांग के रास्ते का स्वर्गिक सौन्दर्य

बादल, बारिश और धुंध की आँखमिचौली के बीच पक्की सड़क पर मैं चलता जा रहा था । रास्ता इतना सुन्दर था कि बार-बार रुक कर फोटो लेने का दिल कर रहा था , लेकिन हर कदम पर रुक भी तो नहीं सकते थे । चारों तरफ ऐसा सौन्दर्य बिखरा था कि बार-बार नजर भटक जाती थी । पहाड़ों पर चलते समय नजर का भटकना तो बड़ी गलत बात होती है और धुंध के समय में तो ऐसा खतरा बिल्कुल नहीं उठाना चाहिए । फिर भी दिल कर रहा था कि उन नजारों को एकटक निहारता ही रहूँ । डर लगता था कि पलक झपकी और वह सौन्दर्य आँखों से ओझल हो जायेगा ।

बोमडीला से दिरांग के रास्ते में एक गाँव
बोमडीला से दिरांग के रास्ते में एक गाँव

बोमडीला से आगे राहुंग गाँव पहुँचते – पहुँचते बूंदाबांदी बंद हो गई और वातावरण से धुंध भी गायब हो गई । धुंध ना होने से जो नजारा नजर आया, उसने दिलोदिमाग को सम्मोहित सा कर दिया । सामने एक छोटी सी बस्ती थी , लेकिन वादियों की वो खूबसूरती किसी जन्नत से कम नहीं थी । थोड़ी दूर एक पहाड़ी पर राहुंग के हरे- भरे खेत और उनके ऊपरी हिस्से पर स्थित मकान नजर आ रहे थे । मैं प्रकृति के उस अनमोल नगीने को हर तरफ से कैमरे के चित्रों में समेटने लगा ।

पहाड़ी पर बसा राहुंग गाँव
पहाड़ी पर बसा राहुंग गाँव

प्रकृति के उस सम्मोहन में बंधा आगे चलता हुआ मैं दिरांग पहुँच गया । दिरांग पहुँचने के बाद भी अँधेरा होने में कुछ समय बचा था, एक बार तो लगा कि थोड़ा और आगे बढ़ते हैं , लेकिन फिर लगा कि थकान ज्यादा हो गई है , इसलिए दिरांग में ही रुक जाता हूँ । कस्बे की मुख्य बाज़ार में घुसते ही एक अच्छा सा होटल दिखा । रिसेप्शन पर जाकर पता किया तो एक रात का किराया 1500 रूपये था । मुझे होटल महँगा लगा, तो मैं और आगे बढ़ गया । इस तरह आगे चलते- चलते मैं दिरांग की मुख्य बाज़ार से बाहर आर्मी कैंट वाले इलाके में आ गया ।

बोमडीला से दिरांग की बेहतरीन सड़क
बोमडीला से दिरांग की बेहतरीन सड़क

दिमाग में आया कि अँधेरा होने में कुछ समय बाकी है तो आगे ही बढ़ता हूँ और रास्ते में कही होटल मिलेगा, तो वही ठहर जाऊँगा। सड़क पर कुछ लोग चहलकदमी करते हुए मिल गए। उनसे पूछने पर पता चला कि आगे 5 किमी दूर एक अन्य होटल था । थोड़ी दूर तक एक बार फिर कीचड़ और पानी से भरी सड़क मिली । एक छोटा सा बाज़ार पार करने के बाद सड़क की स्थिति अच्छी हो गई । आगे जब 5 किमी दूर वाले होटल पर पहुँचा तो पता चला कि वह केवल खाना खाने वाला होटल था, वहाँ रात्रि विश्राम की कोई व्यवस्था नही थी ।

पूर्वोत्तर भारत में वैसे यह एक बड़ी समस्या है । यहाँ होटल का ज्यादातर मतलब खाली खाने वाली व्यवस्था से होता है । कई बार सड़क पर घूमते-घूमते बाहर से लगता है कि चलो रात्रि विश्राम के लिए एक होटल मिल गया , लेकिन अन्दर जाने पर पता चलता है कि वहाँ तो केवल खाना ही मिलता है । पूर्वोत्तर में बड़े बजट वाले होटलों को छोड़ दें तो रात्रि विश्राम वाली ज्यादातर प्रॉपर्टी पर Lodging शब्द विशेष रूप से लिखा होता है ।
एक बार फिर आस पास खड़े कुछ लोगों से राय ली तो पता चला कि अगला होटल करीब 20-25 किमी दूर था । मैं आगे तो बढ़ा, लेकिन करीब 5 किमी आगे जाते ही बारिश शुरू हो गई । जंगल का इलाका भी शुरू हो चुका था, इसलिए कहीं भी शरण मिलने की उम्मीद नही दिखी । अब आगे बढ़ना बेवकूफ़ी लग रही थी, इसलिये मैं वापस दिरांग की तरफ मुड़ गया ।

दिरांग पहुँचते-पहुँचते मैं बारिश में भीग चुका था । बड़ी उम्मीदों से मुख्य बाजार में ही स्थित इंस्पेक्शन बंगला में गया कि शायद वहाँ कोई कमरा मिल जाये, लेकिन अरुणाचल प्रदेश की अन्य यात्राओं की तरह इस बार भी इंस्पेक्शन बंगला में मुझे कमरा मिलने में सफलता नही मिली । वहाँ कोई कमरा खाली नही था। मुख्य बाजार में वापस आकर 1500 रुपये वाले होटल की तरफ बढ़ ही रहा था कि एक साफ सुथरा होमस्टे का बोर्ड दिखा। अंततः 700 रुपये प्रति रात्रि की दर से मुझे एक कमरा मिल ही गया ।

दिरांग और सांगती वैली के बारे में यहाँ पढ़ें : दिरांग और सांगती वैली की यात्रा

कमरा मिलने के बाद सबसे पहला काम तो सोना था । थका-मांदा मैं करीब 2 घन्टे तक सोता रहा । जब सोकर उठा तो घड़ी में 8 बज रहे थे , और हर तरफ अंधेरे की चादर बिछी हुई थी, लेकिन मुख्य बाजार में रहने से होमस्टे के आसपास रौनक बरकरार थी । मैं डिनर के उद्देश्य से पास ही स्थित एक रेस्टोरेंट में घुस गया । डिनर के दौरान ही ख्याल आया कि तवांग जाने और वहाँ से गुवाहाटी वापस पहुँचने के बीच 3 दिन की छुट्टी और बची हुई थी । मुझे लगा कि दिरांग से तवांग तक बाइक से कष्ट उठाने के बजाय एक शेयर्ड सूमो में बैठकर जाना चाहिये और फिर वहाँ मोनेस्ट्री घूमकर अगले दिन किसी शेयर्ड सूमो से वापस दिरांग पहुँचकर आगे गुवाहाटी की यात्रा करनी चाहिए।

मुझे यह प्लॉन बड़ा सही लगा, तो मैं सूमो बुकिंग के लिए बाजार में स्थित एक बुकिंग एजेंट के पास चला गया। एजेंट ने बताया कि तवांग को जाने वाली सारी सूमो गाड़ियाँ बोमडीला से चलती हैं , और बुकिंग की कन्फर्मेशन वही से मिल पाएगी। शेयर्ड कैब में बोमडीला से तवांग तक का प्रति व्यक्ति किराया 500 रुपए है । दिरांग वाले एजेंट का बोमडीला वाले ड्राइवर से कॉन्टैक्ट नही हो पा रहा था, इसलिये उसने मुझे कुछ देर बाद आने के लिए बोला। मैं वापस अपने कमरे में चला गया। जब दिमाग को थोड़ा आराम मिला तो मुझे लगा कि तवांग की भागादौड़ी से अच्छा है कि मैं एक दिन और रुककर अच्छे से दिरांग के आसपास की जगह जैसे सांगती वैली घूम लूं । मेरे पास बस तीन दिन की ही छुट्टी शेष थी और तवांग जाने का मतलब तो खाली मोनेस्ट्री छू कर आ जाता । कायदे से तो तवांग के आस पास भी घूमने का समय नहीं था, इसलिए मैंने तवांग जाने का इरादा त्याग दिया । अब मैं दिरांग में रहकर ही आसपास के क्षेत्र में घूमना चाहता था। अगले दिन सुबह मैंने दिरांग के गर्म पानी के सोते (hot spring), दिरांग मोनेस्ट्री और सांगती वैली की सैर की, जिनके बारे में मैं अगले पोस्ट में बताऊंगा ।

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  1. Pratik Gandhi

    रूपा मोनास्ट्री नही देखी आपने…जुलाई में वाकई इस रास्ते मे बहुत कीचड़ होता है क्योकी बारिश बहुत होती है यहां…सेप्पा जाने की सोच कर कहा तएके पहुचे यही घुमक्कडी है…तवांग बोल कर संगति घूमने जा रहे हो…वैसे संगति भी बहुत अच्छी जगह है…किस्मत है आपकी जो 3 दिन की छुट्टियों में अरुणाचल जा सकते हो….होटल 700 में मिल गया अछि बात है…

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