सितम्बर के महीने की रिमझिम फुहारों वाली सुहानी सी सुबह। मुख्य सड़क से बोगामाटी के कच्चे रास्ते पर पहुँचते ही आश्चर्य की सीमा ना रही। अभी एक साल भी तो नही बीते थे हमे उस रास्ते पर आए हुए , लेकिन वहाँ बहुत कुछ बदला-बदला लग रहा था। बोगामाटी के वीरानों में एक बहार आई हुई थी । अवसर था बोगामाटी में आयोजित अपनी तरह का एक अनूठा एडवेंचर फेस्टिवल, जिसे नार्थ ईस्ट एडवेंचर टूरिज्म फेस्टिवल (NEATOFEST, 2018) का नाम दिया गया । पिछले साल गुवाहाटी को अपनी कर्मभूमि बनाने के बाद एक साल के अन्दर मैं तीसरी बार बोगमाटी गया था। ऐसा नहीं था कि सफेद मिट्टी के पहाड़ों की धरती बोगामाटी ( बोगा: सफ़ेद, माटी: मिट्टी ) में मुझे कुछ ऐसा मिल गया था, जो मैं पूर्वोत्तर में बाकी जगहों को छोड़कर बोगामाटी की खाक छान रहा रहा था। करीब 100 किमी की दूरी पर तो मेघालय में भी एक से बढ़कर एक प्राकृतिक सुंदरता वाली जगहें हैं, लेकिन फिर भी किस्मत मुझे बार-बार बोगामाटी ही ले जा रही थी।
अपनी हर यात्रा में मैने बोगामाटी के अलग-अलग रूप देखे। गुवाहाटी में जब कार चलाने का नया-नया शौक चढ़ा, तो एक दिन मैं अपने एक दोस्त के साथ कैम्पिंग टेंट लेकर बोगामाटी के लिए निकल पड़ा। हमने उसके पहले कभी बोगामाटी का नाम भी नहीं सुना था। वह तो एक दिन गूगल मैप जूम करके हम भारत-भूटान की सीमा देख रहे थे कि तभी उसमें नजर पड़ी बोगामाटी पिकनिक स्पॉट पर। वह बोगामाटी से हमारा पहला वर्चुअल परिचय था। उसी वर्चुअल परिचय को वास्तविकता में बदलने के लिए हम कार में कैम्पिंग टेंट लेकर बोगामाटी जा रहे थे।
भारतीय सड़कों के पूरब- पश्चिम गलियारे वाले राजमार्ग पर फर्राटे से दौड़ते हुए हम बाइहट्टा चारिआली (चौराहा) पहुँच गये । वहाँ से बोगामाटी के लिए जाने वाली सड़क भी अच्छी स्थिति में थी । गांवों और जहाँ-तहाँ पड़ने वाले कस्बों के बीच से गुजरती सड़क के दोनों किनारे पर सुपारी और नारियल के पेड़ नजर आ जाते थे । खेतों में पीली सरसों कि चादरें बिछी हुयी थी । असम के इन गाँवों में पब्लिक ट्रासंपोर्ट की पहुँच बहुत कम लगी । ऐसा नही है कि पब्लिक ट्रासंपोर्ट की स्थिति बहुत खराब है, लेकिन फिर भी दिक्कतें तो हैं ही। शायद यही वजह है कि इस इलाके में ज्यादातर औरतें और लड़कियाँ अपने पारम्परिक परिधानों में साईकिल चलाती हुई दिख जाती हैं।
असम और मेघालय में सड़कों पर गाड़ी चलाते समय मैंने एक खास दिक्कत महसूस की है। यहाँ दिन के समय ज्यादातर घरेलू जानवरों का ठिकाना सड़क पर या फिर सड़क के किनारे होता है। कितना भी हॉर्न बजा लो, गायें सड़क से हटती ही नही हैं। आपको अपना रास्ता खुद बनाना पड़ता है। कब कौन सी बकरी या बत्तख इधर-उधर घूमते आपकी तरफ आ जायेगी, कुछ पता नहीं। सबसे ज्यादा स्टंट तो मुर्गियाँ करती हैं। सड़क के किनारे घूमते-घूमते अचानक से उड़कर पहियों के नीचे से निकल जाती हैं और फिर सर्र से सड़क के दूसरी तरफ निकल जाती हैं। गायें और कुत्ते तो मुझे अन्य कई जगहों पर भी मिल जाते हैं, लेकिन ऐसा लगता है कि बकरियों और मुर्गियों का स्टंट पूर्वोत्तर की सड़कों का मुख्य आकर्षण है।
बोगामाटी पहुँचते-पहुँचते शाम होने लगी थी । जब हम मुख्य सड़क से उतरकर बोगामाटी वाले कच्चे रास्ते पर बढ़े, तो दोनों तरफ से घनी झाड़ियों से घिरा रास्ता अनछुए जंगलों में जाने वाली अनूभूति दे रहा था। उस रास्ते पर करीब 1 किमी चलकर हम बोगामाटी पिकनिक स्पॉट पहुँच गए। जैसे ही हम वहाँ पहुँचे, वहाँ खड़ी आखिरी टूरिस्ट बस वापस निकल गई। मतलब, पूरे बोगामाटी के इलाक़े में अपनी कार के साथ बस हम दो लोग ही थे । कोई स्थानीय निवासी भी नही दिख रहा था। अँधेरा होने में थोड़ा समय था, इसलिए हम बोरनादी (Bornadi) नदी के आस पास घूम घूमकर फ़ोटो खींचते रहे। नदी से सूर्यास्त के दृश्य बढ़ा ही सुहावना था।
सूर्यास्त के बाद हमने वहीं अपना टेंट लगाने की सोची, ताकि रात्रि आराम से बिताई जा सके। थोड़ी दूरी पर ही चेकपोस्ट जैसा एक खाली पड़ा घर था, जिसकी छत नही थी। लेकिन यह सीमेंट के खम्भों पर खड़ा था और हर तरफ दीवारों से घिरा था। वहाँ ऊपर फर्श पर टेंट लगा देने से जंगली जानवरों का डर खत्म हो गया। बोगामाटी पिकनिक स्पॉट का पूरा क्षेत्र बोरनादी वाइल्डलाइफ सैंक्चुअरी (Bornadi Wildlife Sanctuary) से बिल्कुल सटा हुआ है । यहाँ जंगलों में कई जंगली जानवर मिलते हैं, हाथी तो भरपूर हैं ।
टेंट लगाने के बाद हम वहाँ बैठकर आगे के बारे में सोचने लगे। पूर्वोत्तर भारत में सूरज बहुत जल्दी ढल जाता है, इसलिए 5.30 बजते-बजते वहाँ धुप्प अँधेरा हो गया। अँधेरे वीराने में सिर्फ 2 लोग और साँय-साँय चलती तेज हवाएं। जंगल की शांति में नदी की कल-कल और तेज हवाओं के अलावा और कोई आवाज नही सुनाई पड़ रही थी। अगर यह हिमाचल प्रदेश या उत्तराखंड का कोई वीराना होता तो प्रसन्न मन से हम इधर-उधर घूमते और जंगल की नीरवता का आनन्द उठाते। लेकिन यह असम में भारत-भूटान सीमा पर स्थित एक ऐसा जंगल था, जिसके बारे में हम ज्यादा नहीं जानते थे और जो भी जानते थे, वो हमें वहाँ शांति से नहीं रहने देता।
तो बोगामाटी के इन जंगलों की जो कहानी मुझे पता थी, वो कहानी 1986 के आसपास ही शुरू हो चुकी थी। उग्रवाद या फिर कहें कि क्षेत्रीय संघर्ष के चरम पर NDFB का बोडो आंदोलन देश के सबसे हिंसक आंदोलनों में से एक था। भारत-भूटान सीमा पर स्थित मानस नेशनल पार्क और बोगामाटी के जंगल बोडो उग्रवादियों के छिपने के प्रमुख स्थान थे। इन जंगलों से निकलकर उग्रवादी हिंसक घटनाओं को अंजाम देते और सुरक्षाबलों की पकड़ में आने से पहले भूटान की सीमा में प्रवेश कर जाते। जब पानी सिर के ऊपर से गुजरने लगा तो 2003 में भूटान की सेना ने अपने यहाँ ऑपेरशन ऑल क्लियर (Operation All Clear) चलाकर NDFB की कमर तोड़ी। कहने को तो काफी हद तक बोगामाटी और आसपास के क्षेत्र अब उग्रवाद की पकड़ से मुक्त हैं, लेकिन अभी भी गाहे-बगाहे सुरक्षाबलों की गिरफ्त में कुछ लोग आ ही जाते हैं। यह संघर्ष जिस वजह से शुरू हुआ था, उसकी मूल वजहें अभी भी जस की तस हैं और शायद यही वजह है कि कुछ असामाजिक तत्व यदा-कदा सिर उठा ही लेते हैं।
बोडो उग्रवादियों के उसी गढ़ बोगामाटी में हम दो लोग रात में एक टेंट लगाकर अपनी नई नई कार और कम से कम डेढ़ लाख रुपयों के गैजेट्स के साथ मौजूद थे। सबसे नजदीकी आबादी हमसे सिर्फ एक किमी की दूरी पर ही थी, लेकिन घना जंगल और साथ बहती नदी का ताना-बाना कुछ ऐसा था कि किसी भी गलत व्यक्ति के लिये हम वहाँ बहुत ही निरीह शिकार थे। मोबाइल नेटवर्क भी बहुत कमजोर था । इसी वजह से हमारे दिमाग में वहाँ टेंट लगाने के बाद से ही एक कश्मकश लगातार चल रही थी…अगर रात को कुछ गड़बड़ हो गई तो?
डर का आलम ऐसा था कि हम पास के गाँव में जाकर खाने का भी कोई जुगाड़ नहीं करना चाहते थे कि कहीं उधर जाने से कुछ और लोगों को ना पता चल जाये कि जंगल में दो लोग रुके हुए हैं। डिनर के नाम पर हमारे पास करीब एक दर्जन केले पड़े हुए थे। हमने वो केले ही खा लिए। एक बार दिमाग में आया कि आस पास के गाँवो में घूमकर होमस्टे तलाश लेते हैं या फिर किसी गाँव वाले से बात कर उसके घर के पास ही टेंट लगा लेते हैं, लेकिन फिर वो इरादा भी त्याग दिया। इसी सोच-विचार में झपकी लग गयी । थोड़ी देर बाद नींद खुली तो लगा कि रात बहुत गहरी हो गई है । घड़ी देखी तो बस सात ही बजे थे । मतलब की अभी बहुत लंबी रात बाकी थी। फिर मैंने अपने दोस्त से पूछा, तो उसने कहा कि डर तो उसको भी लग रहा था। एक-दूसरे को सांत्वना देकर हम दुबारा सोने की कोशिश करने लगे, लेकिन आँखों की नींद उड़ चुकी थी। करीब 8 बजे तक करवटें बदलता रहा, लेकिन नींद कोसों दूर थी ।
डर दिलोदिमाग में अंदर तक बैठा हुआ था । मैंने अकेले बहुत यात्राएँ की, कई बार अनजान डरों के साये में भी, लेकिन हर बार मैं अपने दिल की सुनता हूँ । कहतें हैं ना कि हर इन्सान में एक छठीं इंद्री होती है , जो आने वाले खतरों को भांप लेती हैं । मैं भी कुछ ऐसे ही घूमता हूँ । अगर मुझे लगता है कि रास्ते में कोई गड़बड़ हो सकती हैं, तो अमूमन मैं अपना रास्ता बदल लेता हूँ । उसमे कोई जिद नहीं है कि मुझे यह काम करना ही करना है, या यह जगह देखनी ही देखनी है , या इस खतरे को पार करना ही करना है । अब इतना घूमने के बाद अपनी क्षमताओं को सही से पहचानने का अनुभव कुछ हद तक तो हो ही गया है । मुझे पता है कि किस सीमा तक मुझे अपने शरीर, अपने दिमाग या अपने मन को कोई काम करने पर मजबूर करना है । अगर कोई बात उस सीमा के बाहर लगती है , तो मैं आमतौर पर उससे मुँह मोड़ लेता हूँ ।
बोगामाटी में भी उस रात वही हो रहा था । जंगल में कैम्पिंग का शानदार मौका तो था, लेकिन दिल कह रहा था कि वहाँ रुकने में कोई भलाई नहीं है । हो सकता था कि हम रात सुरक्षित ही काट लेते, लेकिन सारी रात दिल में बैठा रहने वाला डर कैम्पिंग के मजे को किरकिरा कर देता । हम दोनों में से किसी को भी नींद नहीं आ रही थी । मैंने अपने दोस्त को बताया कि मन में एक डर है और मैं वहाँ रुकना नहीं चाहता । उसने जवाब दिया कि वह भी कुछ ऐसा ही सोच रहा था। आनन-फानन में दिमाग ने एक निर्णय लिया, हमने अपना टेंट समेटा, बिना पैक किये वैसे ही गाड़ी में डाला और अगले दस मिनट के अन्दर हम बोगामाटी के जंगलों से बाहर जा रहे थे गुवाहाटी की तरफ । रास्ता बिल्कुल सुनसान था और रास्ते में पड़ने वाले गांवों में भयानक सन्नाटा पसरा हुआ था । वो तो अच्छा था कि हम कार से थे, मोटरसाइकिल पर तो उस रास्ते से निकलने में भी नानी याद आ जातीं ।
काफी दूर तक चलने के बाद जोरेश्वर बाजार में हमें कुछ दुकाने खुली दिखी । हम वहाँ चाय पीने के लिए रुक गये । वहाँ कुछ स्थानीय लोग भी थे । उनसे बातें होने लगी तो मैंने अपना डर शेयर किया । लोगों ने बताया कि वैसे तो डरने वाली बात नहीं है , लेकिन जंगल में जानवरों का डर हो सकता है । लेकिन बोगामाटी में कैम्पिंग की बात को लेकर कोई ठोस उत्तर नहीं मिल पाया, इसलिए मन का डर भी नहीं निकल सका । फिलहाल रात के 10 बजते-बजते हम बोगामाटी से सुरक्षित भागकर अपने घर गुवाहाटी पहुँच चुके थे ।
वह बोगामाटी की मेरी पहली यात्रा थी । दूसरी बार बोगामाटी मैं करीब 15 लोगों के साथ पारिवारिक पिकनिक के लिए गया । आखिर था तो वो पिकनिक स्पॉट ही । गुवाहाटी से सुबह चलकर हम बोगामाटी गए और दिन भर की मौजमस्ती के बाद शाम को अँधेरा ढलते-ढलते गुवाहाटी वापस आ गये । पिकनिक के दौरान हमने वहाँ खाना बनाया, नदी में जमकर नहाये और बच्चों के साथ खूब धमाचौकड़ी की । मेरी दूसरी यात्रा तो एक शुद्ध देसी पिकनिक थी , इसलिए उसमे परिवार के साथ मौजमस्ती के अलावा और कुछ रोमांच नहीं था । यहाँ तक कि खाना बनाने में हम लोग इतने मशगूल हो गए कि हमें समय का पता ही नही लगा और जब नहाने के बाद खाना खाकर फ्री हुए तो पता चला कि अब तो आस पास घूमने का समय ही नहीं बचा है और गुवाहाटी के लिए वापसी करनी है । दो बार की बोगामाटी यात्रा के बाद भी मैं सिर्फ 5 मिनट की चढ़ाई पर स्थित बुद्धा मूर्ति के दर्शन नहीं कर पाया था ।
फिर सितम्बर की रिमझिम फुवारों के बीच मुझे एक बार फिर बोगामाटी जाने का मौका मिला । इस बार बहाना था बोगामाटी में आयोजित नार्थ ईस्ट एडवेंचर टूरिज्म फेस्टिवल (NEATOFEST, 2018) के पहले संस्करण में होने वाली बाइक रैली का । फेस्टिवल से एक दिन पहले ही मुझे गुवाहाटी से बोगामाटी तक होने वाली इस बाइक रैली का पता चला । मैंने आयोजकों से रैली में शामिल करने के लिए निवेदन किया तो उधर से स्वीकृति भी मिल गई । इस तरह एक बार फिर मैं गुवाहाटी से बोगामाटी के सफ़र पर था । लेकिन इस बार मेरे साथ करीब 40 लोगों का समूह था और हम अपनी मोटरसाइकिलों पर सवार थे ।
गुवाहाटी से बोगामाटी के सफर में पहली और तीसरी यात्राओं के बीच कोई खास बदलाव नहीं आया था । पूरब- पश्चिम गलियारे वाले राजमार्ग पर फर्राटे से दौड़ती गाड़ियाँ, बाइहट्टा चारिआली (चौराहा) से बोगामाटी के बीच सड़क के दोनों किनारे हरे-भरे सुपारी और नारियल के पेड़ , सड़कों पर दौड़ते-भागते इंसानों के बीच तपाक से कूदती बकरियाँ और मुर्गियाँ, साइकिलों पर मस्ती में सवार सुंदर लडकियाँ और ताम्बुल-सुपारी खाकर जहाँ-तहाँ पिच्च से थूकते लोगों के दृश्य..सब कुछ हर बार की तरह ही था । बस सड़क की स्थिति पहले से बेहतर हो गयी थी और सरसों के खेतों की पीली चादरों की जगह धान की हरी मखमली चादरों ने ले रखी थी । शहर में अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी का ज्यादातर वक्त काटने वाले लोगों के लिए तो बोगामाटी का सफ़र स्वर्गिक सौन्दर्य जैसा ही सुख देगा ।
इन सारे नजारों का आनंद उठाते हुए हमारी टोली बोगामाटी के कच्चे रास्ते पर पहुँच गयी । वही कच्चा रास्ता जहाँ पहुंचते ही मेरे आश्चर्य की सीमा ना रही । हमेशा घनी झाड़ियों से ढके रहने वाले रास्ते के किनारे की झाड़ियों को हटाकर एक चौड़ा सा रास्ता बना दिया गया था । वीरान सा लगने वाला बोगामाटी पिकनिक स्पॉट स्थानीय निवासियों, फेस्टिवल के अतिथियों और पैनी नजर गड़ाए सुरक्षाबलों की भीड़ से गुलजार था । वहाँ सैकड़ों वाहन और हजारों लोगों की भीड़ थी । कभी अस्त-व्यस्त से लगने वाले बोगामाटी में जहाँ पिकनिक मनाने वाले लोगों का कूड़ा-कचरा बिखरा होता था, वही फेस्टिवल के पहले दिन हर चीज एकदम सलीके से थी ।
रंगारंग कर्यक्रमों के साथ फेस्टिवल का उद्घाटन हुआ और गणमान्य व्यक्तियों ने अपने-अपने विचार व्यक्त किये । उनकी बातें सुनकर लगा कि सरकार और पर्यटन एजेंसियां बोगामाटी को एडवेंचर टूरिज्म के जाने-माने केंद्र के रूप में विकसित करना चाहती है । किसी भी जगह एडवेंचर के लिए मुख्य रूप से जंगल , पहाड़ और पानी की ही जरूरत पड़ती है , और बोगामाटी की धरती पर तो ये तीनों ही चीजें प्रचुर मात्रा में मौजूद हैं । उपर से भूटान के स्वर्गिक सौन्दर्य से इसकी नजदीकी भी इसके विकास में सहायक सिद्ध हो सकती है । ऐसी भी बातें सुनी कि अगर भविष्य में यहाँ से सड़क मार्ग को विस्तार दिया जाए तो अरुणाचल प्रदेश में तवांग पहुँचना भी आसान हो जायेगा । तेजी से विकसित हो रहे गुवाहाटी हवाई अड्डे से नजदीकी भी बोगामाटी के लिए एक लाभप्रद चिन्ह है । कुल मिलाजुलाकर यही समझ आया कि बोगामाटी में इतनी सम्भावनाएं हैं कि यह भविष्य में भारत के एक प्रमुख एडवेंचर केंद्र के रूप में विकसित हो सके । यहाँ रिवर राफ्टिंग, ट्रैकिंग, जंगल सफारी जैसी गतिविधियों पर विशेष रूप से बल दिया जायेगा । वहाँ बोल रहे लोगों ने तो दुनिया के प्रमुख एडवेंचर हब में से एक होने का सपना दिखा दिया, लेकिन एक घुमक्कड़ के तौर पर मैं बोगामाटी से इतनी अपेक्षाएं नहीं रखता ।
थोड़ी देर तक समारोह स्थल पर रहने के बाद मैं आस पास घूमने चला गया । इस बार तो पक्का इरादा था कि बुद्धा मूर्ति के दर्शन तो जरूर करने हैं । ब्लेस्सिंग बुद्धा (Blessing Buddha) की मूर्ति नदी के उपर एक पहाड़ी पर स्थित है, जहाँ पहुँचने के लिए सीढियाँ बनी हुयी हैं । नदी किनारे से सीढियाँ चढ़कर मैं ५ मिनट में ही बुद्ध भगवान की मूर्ति के पास पहुँच गया । पहाड़ी से बोगामाटी की घाटी का एक विहंगम दृश्य दिखता है । दूर तक बहती नदी, हरे-भरे जंगल, सामने भूटान में ऊँचे-ऊँचे पहाड़ , हर तरफ प्रकृति की सुन्दरता बिखरी हुई है । बुद्धा मूर्ति और थोड़ा नदी के किनारे घूम-फिरकर मैं एक बार फिर फेस्टिवल के उद्घाटन समारोह वाले स्थान पर आकर वक्ताओं को सुनने लगा ।
लोगों के विचार सुनकर बोगामाटी के विकास में बाधक कुछ तथ्यों का भी पता चला । सबसे प्रमुख बाधा तो मेरी पहली यात्रा का डर ही है । जब तक पर्यटकों के दिलोदिमाग में बोगामाटी के जंगलों में बोडो उग्रवादियों की कहानियों का डर बैठा रहेगा, इधर कोई भी नहीं आना चाहेगा, भले ही यह कितना भी बड़ा एडवेंचर हब क्यूँ ना बन जाये । दूसरी दिक्कत है यहाँ पर्यटकों के लिए जरूरी बुनियादी सुविधाओं का ना के बराबर होना । आज तक बोगामाटी, असम के निवासियों में एक पिकनिक स्पॉट के रूप में ही जाना जाता रहा है , जहाँ लोग दिन में पहुँचते हैं, मौजमस्ती करते हैं और शाम को लौट जाते हैं । बोगामाटी तो छोड़िये, आसपास बहुत दूर-दूर तक रात्रि विश्राम के लिए कोई भी होटल नहीं हैं और खाने की सुविधाएँ भी ना के बराबर ही हैं । ऐसे में जब तक इन बुनियादी सुविधाओं का कुछ विकास नहीं हो जाता, तब तक यहाँ लोगों का पहुँचना मुश्किल ही है । सरकार गांवों में होमेस्टे खोलने के लिए आकर्षक योजनायें बना रही है, लोगों को बुनियादी सुविधाएँ विकसित करने के लिए प्रोत्साहित भी कर रही है ।
भविष्य के पन्नों में बोगामाटी का क्या रूप होगा यह तो आने वाले वक्त में ही पता चलेगा , लेकिन अब सारा दारोमदार तो स्थानीय निवासियों पर ही निर्भर है । जब यहाँ कुछ बुनियादी ढांचा बनकर तैयार होगा, 2-4 पर्यटक रुकेंगे तो फिर उनकी अच्छी कहानियाँ लोगों को बोगामाटी जाने के लिए प्रेरित करेंगी । धीरे-धीरे ही सही एक दिन लोगों के मन से बोगामाटी के जंगलों का डर गायब होगा , तब कहीं जाकर बोगामाटी भारत के पर्यटन मानचित्र पर चमक सकेगा । बोगामाटी के सपनों की डगर कठिन है और मंजिल बहुत दूर । इतना तो तय है कि जंगल, पानी और पहाड़ का जो मिश्रण कुदरत ने बोगामाटी की धरती को सौंपा है, उसका जादू जब लोगों के सिर पर चढ़ेगा, तो बोगामाटी के निवासियों का हर सपना जरूर पूरा होगा । अभी तो हम बस उम्मीद ही कर सकते हैं ।