त्रिपुरा यात्रा के पहले दिन गुवाहाटी से अगरतला की रेल यात्रा शानदार रही और मैं शाम को 8 बजे अगरतला पहुँच गया । अगले दिन सुबह मुझे आगे की यात्रा पर निकलना था । लेकिन, मन में एक दुविधा थी । मेरे दोस्त के पास स्कूटी थी , जिससे मैं अपनी यात्रा पूरी कर सकता था , लेकिन मैं इस उधेड़बुन में था कि पब्लिक ट्रांसपोर्ट से यात्रा करूं या फिर स्कूटी से । शहर में थोड़ी दूर जाने के लिए तो स्कूटी ठीक रहती है , पर राजमार्गों पर लम्बी दूरी की यात्राओं में स्कूटी से दिक्कत हो सकती है । फिर भी त्रिपुरा में स्थिति कुछ अलग है । त्रिपुरा एक छोटा सा राज्य है, जहाँ हर दिन बहुत लम्बी-लम्बी दूरी तय करने की जरूरत नहीं है । स्कूटी से चलने का एक फ़ायदा यह था कि जब दिल करे और जहां दिल करे वहां जाने की आजादी मिल जाती । यही सोचकर मैंने स्कूटी से ही जाना बेहतर समझा ।
स्कूटी चलाने का मुझे कोई ख़ास अनुभव नही है, मुश्किल से 3-4 बार चलाई होगी । थाईलैंड को छोड़ दूँ तो हर बार बस आस पास ही आना जाना हुआ होगा । स्कूटी के पहिए छोटे होते हैं, इसलिए ब्रेक लगाते ही स्कूटी फिसल जाती थी । शुरू-शुरु में तो बड़ी दिक्कत हुई , लेकिन धीरे-धीरे उस पर अभ्यास हो गया और स्थिति नियंत्रण में आ गई । मैं इतना समझ चुका था कि कुछ भी हो जाए इसको 40 किमी प्रति घंटा के ऊपर नही भगाना है, अन्यथा सावधानी हटी, दुर्घटना घटी वाला कांड हो सकता है ।
अगरतला से चलकर मुझे सबसे पहले मेलाघर में नीरमहल देखने जाना था, लेकिन उससे पहले मैं अपने गुम हो चुके सिम कार्ड की जगह दूसरा सिम कार्ड लेना चाहता था । इसलिए मैं सुबह-सुबह ही अगरतला में स्थित वोडाफ़ोन स्टोर पहुंच गया । गूगल के अनुसार तो स्टोर 9 बजे ही खुलना था, लेकिन जब मैं 9.30 पर वहाँ पहुँचा, तो पता चला कि स्टोर 10 बजे खुलता है । मैं वही पास में ही इंतज़ार करने लगा । थोड़ी देर में वोडाफोन स्टोर में काम करने वाले लड़के-लड़कियाँ वहाँ पहुँचने लगे । लेकिन अभी स्टोर में ग्राहकों को जाने की अनुमति नही थी । स्टोरकर्मियों ने अपने दैनिक कार्यक्रम के अनुसार डेस्क वग़ैरह दुरुस्त की , अपनी आधिकारिक यूनिफ़ॉर्म पहनी और स्टोर को ग्राहकों को उचित सुविधा देने के लिए तैयार किया । फिर 10 बजते ही मुझे और बाहर खड़े 2-3 और ग्राहकों को अंदर बुलाया । वहाँ खोए SIM से सम्बंधित जानकारी के बाद उन्होंने मेरा पहचान पत्र चेक किया , फोटो वगैरह ली और जरूरी जांच के बाद मुझे एक नया सिम दे दिया । 2 घंटे के अंदर ही नंबर दुबारा चालू हो गया । यह मेरे लिए बहुत राहत की बात थी ।
अगरतला से निकलकर मैं अपनी पहली मंजिल मेलाघर की ओर बढ़ चला । अगरतला त्रिपुरा की राजधानी होने के कारण एक बड़ा शहर है, लेकिन फिर भी चौड़ी-चौड़ी सड़कों पर भीड़भाड़ पता नही चलती । ट्रैफ़िक ज़्यादा तो है, लेकिन गाड़ियों के पीछे चिपक-चिपक कर सरकने जैसा हिसाब नही है । 10.30 बजे के क़रीब राजधानी की भीड़भाड़ में ट्रैफ़िक का समय होने के बावजूद मुझे ना तो ज़्यादा रुकना पड़ा और ना ही रास्ते को लेकर ज़्यादा पूछताछ करनी पड़ी । मेलाघर पहुँचने के लिए पहले अगरतला से उदयपुर जाने वाले राजमार्ग पर बिशालगढ़ होते हुए बिश्रामगंज तक जाते हैं, फिर बिश्रामगंज से एक अन्य सड़क सीधे मेलाघर की ओर जाती है । अगरतला के बाहरी हिस्से में स्थित त्रिपुरा विश्वविद्यालय के सामने से गुज़रते हुए मैं उदयपुर की तरफ़ बढ़ चला ।
शहर से बाहर निकलने के बाद राजमार्ग पर ट्रैफ़िक बहुत कम हो गया था । रास्ते के दोनों ओर कटाई हो चुके धानों के खेत, हरे-भरे पेड़ पौधे और कुछ-कुछ दूरी पर गाँव मिल जा रहे थे । बिशालगढ़ एक बड़े क़स्बे जैसा लगा, जहाँ ट्रैफ़िक की भीड़भाड़ भी बहुत थी । आगे चलते-चलते मैं सिपाहीजाला वन्यजीव अभयारण्य (Sipahijala Wlidlife Sanctuary) के प्रवेश द्वार पर पहुँच गया । अभ्यारण्य के प्रवेश द्वार पर स्थानीय पर्यटकों की अच्छी-खासी भीड़ लगी थी । अगरतला शहर के पास में स्थित होने के कारण अभयारण्य में घूमने के लिए लोग बड़ी संख्या में पहुँचते हैं । IUCN की लाल सूची में शामिल मेखला चीता (Clouded Leopard ) यहाँ का एक मुख्य आकर्षण है । यहाँ कई प्रजातियों के पक्षी भी दिख जाते हैं । हालाँकि वन्यजीव अभयारण्य होने के बावजूद ज़्यादातर जानवर एक चिड़ियाघर की तरह बड़े- बड़े पिजड़ों में ही बंद हैं । अभयारण्य में स्थित एक कृत्रिम झील में नौकायन करने की सुविधा भी है ।
सिपाहीजाला से मैं फिर आगे मेलाघर की ओर बढ़ गया । गूगल मैप ने बताया कि बिश्रामगंज से एक सड़क सीधे मेलाघर की ओर जाती है । बिश्रामगंज के छोटे से क़स्बे से होता हुआ मैं उस सड़क पर पहुँच गया । सड़क किनारे खड़ी सवारी जीपों की भीड़ बता रही थी कि बिश्रामगंज से मेलाघर और आगे सोनामुरा ( Sonamura ) तक जाने के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट के बहुतेरे विकल्प मौजूद हैं । बिश्रामगंज से मेलाघर की 16 किमी की यात्रा में कुछ अलग नही था । वैसे ही धान की कटाई के बाद ख़ाली पड़े खेत, सुपारी के पेड़, थोड़ी-थोड़ी दूर पर मिलते गाँव । राष्ट्रीय राजमार्ग से उतर जाने के बाद बस सड़क की चौड़ाई कम हो गई थी और वाहनों की आवाजाही भी, लेकिन राहत की बात यही थी कि सड़क बड़ी अच्छी स्थिति में थी ।
घूमते-घामते, फ़ोटो खींचते मैं मेलाघर पहुँच गया । बाज़ार में दुकाने खुली तो थी, लेकिन ज्यादा भीड़भाड नहीं थी । सड़कों पर वाहनों की ज्यादा चिल्लपों भी नहीं थी । मेलाघर के मुख्य बाज़ार से गुजरते हुए नजरें नीरमहल को खोज रही थी । दिमाग में आया कि एक बार रुककर मैप चेक कर लूँ , लेकिन रुकने का मन नहीं किया । मुझे लगा कि नीरमहल तो प्रसिद्ध जगह है , या तो सड़क से ही दिख जायेगा या फिर कोई साइनबोर्ड मिल जायेगा । मेलाघर एक शांत सा कस्बा लग रहा था । आगे बढ़ने पर मेरा अंदाजा सही निकला । सड़क के किनारे ही नीरमहल की तरफ जाने वाले रास्ते को दर्शाता एक साइनबोर्ड लगा था । मैं उधर मुड़ गया । एक रिहायशी इलाके से होकर करीब एक किमी तक चलने के बाद नीरमहल के पास स्थित पार्किंग क्षेत्र का प्रवेश द्वार दिखा । मैंने स्कूटी एक तरफ खड़ी कर दी । सामने एक झील के दूरस्थ किनारे पर लाल-सफ़ेद रंग से पुता भव्य नीरमहल दिख रहा था ।
पार्किंग एरिया के एक तरफ त्रिपुरा पर्यटन का ‘सागर महल टूरिस्ट लॉज’ था और बाकी तरफ खाने-पीने का सामान बेचती दुकानें, झील को ऊँचाई से निहारने के लिए एक बड़ा सा दो मंज़िला भवन, एक टिकट काउंटर और आगे झील किनारे बनी सीढ़ियाँ । पर्यटकों की ज्यादा भीड़भाड़ नही थी । झील के किनारे बैठने के लिए कुछ सीढ़ियाँ और सीमेंट के लम्बे चौड़े बेंच बने हुए थे । कुछ स्थानीय निवासी सीढियों पर बैठकर नीरमहल की सुन्दरता निहारने में मगन थे । मैं भी वही एक बेंच पर बैठ गया । सामने दूर-दूर तक एक विशाल झील फैली हुई थी, जिसका नाम रुद्रसागर है । झील में पानी प्रचुर मात्रा में है । किनारे से लेकर नीरमहल तक की तरफ के पूरे क्षेत्र में कोई गंदगी भी नहीं नजर आती है । तालाबों में आम तौर पर नजर आ जाने वाली जलकुम्भी का जमावड़ा भी नहीं है । हालाँकि नाव के आने-जाने के रास्ते को छोड़ दें तो झील में हर तरफ घास और काई ही नज़र आती है, जिसके कारण यहाँ मछलियाँ भी प्रचुर मात्रा में मिलती हैं । मुख्य क्षेत्र के परे झील के दूसरे किनारों की तरफ़ मछुवारों की नावें घूमती रहती हैं ।
कभी रुद्रसागर और भी विशाल हुआ करता था । नीरमहल तो सुदूर किनारे पर अपनी पूरी भव्यता के साथ नजर दिखता है, लेकिन चारों तरफ फैले रुद्रसागर की सुन्दरता भी मन को मोह लेती है । बातचीत करने पर पता चला कि रुद्रसागर अपने असली स्वरूप का क़रीब आधा हिस्सा अतिक्रमण की वजह से गवां चुका है । 1940 के दशक में इसके इर्द-गिर्द मात्र 12 परिवार रहते थे, जिन्हें त्रिपुरा के राजपरिवार द्वारा सर्दियों के मौसम में जब रुद्रसागर में पानी कम हो जाता था , तो झील की तलहटी में धान उगाने और बाकी समय में मछली पकड़ने की अनुमति दी गयी थी । आज झील के चारों तरफ दो लाख से अधिक की जनसंख्या निवास करती है । जनसंख्या के इस विस्फोट का एक बड़ा कारण 1971 की लड़ाई के बाद बड़ी संख्या में बांग्लादेश से पलायन किये लोगों का झील के इर्द-गिर्द बस जाना भी है ।
हर साल सिकुड़ते रहने के बावजूद रुद्रसागर का अंधाधुँध दोहन आज भी बदस्तूर जारी है । झील के किनारे कई सारे ईंट भट्टे हैं, जो झील की तलहटी में कचरा जमा करने में मुख्य भूमिका निभाते हैं । सर्दियों में आस-पास के बहुत सारे लोग पानी कम हो जाने से धान की खेती करने झील की तलहटी तक पहुँच जाते हैं और कई बार तो ज्यादा जमीन की चाहत में बचा-खुचा पानी भी उलीचने लगते हैं । मछली पकड़ने का काम भी बेरोकटोक चल रहा है । हालाँकि, किनारे से लेकर नीरमहल तक नावों के चलने के रास्ते में मछली पकड़ने की जगहों को चिन्हित कर उन्हें जाल से घेर दिया गया है । इससे स्थिति काफी हद तक नियन्त्रण में रहती है । झील का विस्तार ज्यादा होने के लिए यहाँ प्रवासी पक्षियों का भी जमावड़ा रहता है । इसलिए इसे ‘रामसर साईट’ का दर्जा भी प्राप्त है । किनारे से बत्तखों के कई झुण्ड पानी में तैरते नजर आ रहे थे ।
मेरी तरफ वाले किनारे से नीरमहल की दूरी कम से कम 500 मीटर तो होगी ही । निर्माण के समय नीरमहल , रुद्रसागर के मध्य में स्थित था । दूर से देखने पर आज भी ऐसा ही प्रतीत होता है । लेकिन बाद में जब नाव से नीरमहल के पास पहुँचते हैं, तब समझ आता है कि रुद्रसागर का एक किनारा सिकुड़ते-सिकुड़ते नीरमहल के बहुत पास तक आ पहुंचा है । यहाँ तक कि स्थानीय गाँव वालों को नीरमहल तक आने-जाने के लिए किसी नाव की जरूरत भी नहीं पड़ती है । जब तक रुद्रसागर में पानी का स्तर बहुत ज्यादा ना हो, वे दूसरे किनारे से अपनी मोटरसाइकिलों द्वारा ही नीरमहल तक पहुँच सकते हैं ।
फिलहाल तो पर्यटकों के लिए नीरमहल तक पहुँचने का एकमात्र विकल्प नाव की सवारी ही है । पतवार वाली छोटी नावों और मोटर से चलने वाली तेज नावों से पर्यटक रुद्रसागर के किनारे से नीरमहल तक आ जा सकते हैं ।
थोड़ी देर किनारे बैठकर रुद्रसागर को निहारने के बाद मैं नीरमहल तक जाने वाली नाव की टिकट लेने काउंटर पर गया । काउंटर वाले ने बोला 600 रूपये । लेकिन वहां रेट चार्ट लगा था । मैंने चार्ट देखा , फिर उसको समझाया कि मुझे अकेले नाव रिज़र्व करके नहीं जाना है । मुझे 30 रूपये वाली टिकट चाहिए । उसने कहा कि उसके लिए इन्तजार करना पड़ेगा , जब कम से कम 20 लोग हो जायेंगे तभी उस नाव का टिकट मिलेगा । मैंने कहा कि कोई बात नही, मेरे पास अभी पर्याप्त समय है और मैं एक तरफ जाकर इन्तजार करने लगा । करीब 5 मिनट बाद ही पर्यटकों का एक बड़ा ग्रुप आया । उन सबके टिकट लेने के बाद मैं भी काउंटर पर गया और 30 रूपये की टिकट ले ली । बाद में मैंने नोटिस किया कि नीरमहल स्थानीय लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण पिकनिक स्थान है और वहां दिन भर पर्यटकों का तांता लगा ही रहता है । इसलिये अगर 2-3 लोग ही नीरमहल घूमने गये हो और 600 रूपये नहीं खर्च करना चाहते तो 5-10 मिनट के इन्तजार से ही पर्याप्त भीड़ हो जाती है और आप 30 रूपये वाली टिकट ले सकते हैं । 30 रूपये की टिकट में नीरमहल आने –जाने का किराया और नीरमहल पहुँचने पर घूमने के लिये 40 मिनट का समय शामिल होता है । 40 मिनट के बाद उसी नाव से वापिस आना होता है । अगर वह नाव छूट गयी तो दूसरी नाव से आने पर 150 रूपये का अतिरिक्त शुल्क (Fine) देना होता है । सामान्य तौर पर टिकट काउंटर सुबह 8.30 से शाम 5 बजे तक खुलता है ।
क़रीब 20 यात्रियों को भरने के बाद हमारी नाव नीरमहल की ओर चल पड़ी । झील में नाव से नीरमहल की तरफ़ बढ़ते हुए रूद्रसागर को पूरी भव्यता के साथ देखने का मौक़ा मिला । कई तरह के पक्षी भी नज़र आए, लेकिन हिचकोले खाती नाव से उनकी तस्वीरें लेना बड़ा कठिन काम था । क़रीब 10 मिनट में हम नीरमहल के पास बाँस से बनी जेटी पर पहुँच गये । एक साथ वहाँ 3-4 नावों के खड़े होने की व्यवस्था है । पुरानी फ़ोटो देखने से नीरमहल उजाड़ सा, बैरंग नज़र आता था, लेकिन अभी तो वहाँ ऐसा लग रहा था जैसे पूरे महल की नई-नई रंगाई-पुताई हुई है ।
जेटी से उतरकर हम नीरमहल के मुख्य प्रवेश द्वार की तरफ़ बढ़े । नीरमहल के मुख्य द्वार से महल में प्रवेश करने के लिए अलग से टिकट लेना पड़ता है, जिसकी क़ीमत 10 रुपए है । कैमरे का 20 रुपए शुल्क अलग से देना पड़ता है। नीरमहल में कुल 24 कमरे हैं और यह मुख्यतः दो भाग में बँटा हुआ है : पश्चिमी भाग और पूर्वी भाग । महल का पश्चिमी भाग वास्तव में राजनिवास जैसा है, जहाँ आगंतुक कक्ष (Visitor’s Room), नृत्य कक्ष (Dance Room), शयनकक्ष (Bedroom) इत्यादि हैं । आगंतुक कक्ष में किसी को भी अपनी फ़रियाद/शिकायत लेकर पहुँचने की सुविधा थी । नृत्य कक्ष के नाम से 2-3 कमरे हैं, जिसमें नृत्य, संगीत के कार्यक्रम होते रहते थे । पश्चिमी हिस्से के सामने ही एक बड़ा सा पार्क जैसा खुला स्थान है, जिससे रुद्रसागर की सुंदरता का आनंद ले सकते हैं । नीरमहल की छत पर जाने के लिए दो पतली घुमावदार लोहे की सीढ़ियाँ भी बनी हैं ।
महल का पूर्वी भाग एक लम्बा और पतला कारिडोर जैसा है, जिसकी छत से नीरमहल की सुंदरता का आनन्द ले सकते हैं । पूर्वी भाग एक ओपन एयर थिएटर की तरह भी प्रयुक्त होता था, जहाँ राजपरिवार के मनोरंजन के लिए नाच, गाना, ड्रामा और बाक़ी सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन होता था । एक पुलनुमा कारिडोर से होकर महल के पश्चिमी हिस्से से पूर्वी हिस्से में आना-जाना कर सकते हैं ।
महल के पूर्वी और पश्चिमी हिस्से को जोड़ने वाले पुल के नीचे खाने पीने का सामान बेचते 4-5 स्टॉल थे । स्टालों के पीछे कुछ मोटरसाइकिल देखकर मन में उत्सुकता जग गयी कि वहाँ तक मोटरसाइकिल कैसे पहुँची। इसी उत्सुकता में मैं पूर्वी हिस्से के पीछे की तरफ़ बढ़ गया । वहाँ झील का विस्तार एकदम सिकुड़ा हुआ था और पास ही गाँव की आबादी दिख रही थी । झील के पतले से सिकुड़े हिस्से को मिट्टी से पाटकर मोटरसाइकिल आने- जाने लायक पतला रास्ता बना लिया गया था । क्या पता एक दिन ऐसे ही पाटते -पाटते गाँव का विस्तार महल के बिल्कुल पास तक आ जाए ?
नीरमहल ( Water Palace ), पूर्वोत्तर भारत में झील के बीचोबीच बना अपनी तरह का अकेला महल है । पानी के बीच में बने वास्तुकला के इस तरह के उदाहरण अन्यत्र भी कम ही देखने को मिलते हैं । भारत में विभिन्न जगहों की यात्राओं के दौरान ऐसे महल मुझे बस जयपुर ( मान सागर झील में जल महल ) और उदयपुर ( पिछोला झील में जग मंदिर और लेक पैलेस ) में देखने को मिले । भारतीय और मुगल शैली के मिश्रण से बने इस महल का निर्माण त्रिपुरा के राजा बीर बिक्रम किशोर माणिक्य बहादुर ने सन 1930 में शुरू करवाया । इसके निर्माण की जिम्मेदारी एक ब्रिटिश कम्पनी मार्टिन एंड बर्न्स को दी गई , जिसने सन 1938 में महल का निर्माण कार्य पूरा कर उसे महाराजा को सौंप दिया । महाराजा ने इस महल का इस्तेमाल अपनी ग्रीष्मक़ालीन पनाहगाह के रूप में किया । पर्यटन को बढ़ावा देने के उद्देश्य से सरकार द्वारा हर साल अगस्त महीने में नीरमहल में नीरमहल वाटर फेस्टिवल का आयोजन भी किया जाता है । इस दौरान यहाँ कई तरह के सांस्कृतिक रंगारंग कार्यक्रम होते हैं । इस अवसर पर रुद्रसागर में नावदौड़ और तैराकी जैसी प्रतियोगिताएं भी कराई जाती हैं ।
आधिकारिक तौर पर नाव पर्यटकों को वापस रुद्रसागर के किनारे तक लाने के लिए 40 मिनट तक इंतज़ार करती है और उसके बाद देरी होने पर अतिरिक्त शुल्क देना होता है। लेकिन वास्तविकता में नीरमहल घूमने के लिए आम तौर पर एक घंटे का समय मिल जाता है, जो कि पर्याप्त है। नीरमहल घूमकर मैं भी नाव द्वारा वापस झील के किनारे आ गया, जहाँ पर्यटकों का एक और बड़ा झुंड नाव में बैठकर नीरमहल जाने की प्रतीक्षा में खड़ा था । किनारे पहुँचकर मैंने स्कूटी उठाई और अपने अगले गंतव्य उदयपुर की ओर रवाना हो गया । उदयपुर में माता त्रिपुरा सुंदरी देवी का पवित्र मंदिर है, जिसकी गिनती 51 शक्तिपीठों में होती है । उदयपुर में कई और प्राचीन मंदिर होने के कारण इसको मंदिरों का शहर भी कह सकते हैं । उदयपुर भ्रमण की कहानी अगले पोस्ट में जारी रहेगी ।
पब्लिक ट्रांसपोर्ट द्वारा नीरमहल कैसे जाएँ? मेलाघर के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट के बहुतेरे विकल्प हैं । ज्यादातर लोग तो अगरतला से ही मेलाघर पहुंचते हैं। अगरतला से मेलाघर जाने के लिए उपलब्ध विकल्प निम्नलिखित हैं :
पब्लिक बस/जीप: अगरतला से मेलाघर बाजार के लिए सीधी बसें मिलती हैं । अगरतला से सोनामुरा को जाने वाली बसें भी मेलाघर होकर जाती हैं । बस से मेलाघर पहुँचने में 2 घन्टे का समय लगता है ।
इसके अलावा अगरतला से उदयपुर की शेयर्ड बस या शेयर्ड जीप पकड़कर बिश्रामगंज में उतर सकते हैं । बिश्रामगंज में स्कूल चौमुहानी के पास मेलाघर को जाने वाली सड़क के किनारे आगे मेलाघर की यात्रा के लिए कई शेयर्ड जीपें खड़ी रहती हैं । यह सारी गाड़ियाँ मेलाघर बाजार में नीरमहल को जाने वाली गली तक छोड़ देंगी, जहाँ से फिर एक रिक्शा लेकर या पैदल चलकर 1 किमी की दूरी तय कर नीरमहल तक पहुँचा जा सकता है ।
ट्रेन: मेलाघर का सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन बिश्रामगंज है । बिश्रामगंज के लिए अगरतला से सुबह 6.30 बजे एक सवारी गाड़ी चलती है , जो आगे उदयपुर और बेलोनिया तक जाती है । पहले यह सवारी गाड़ी अगरतला से गरजी तक ही जाती थी, लेकिन अभी फरवरी में ही इसे बेलोनिया तक बढ़ाया गया है और बाद में इसको दक्षिण त्रिपुरा में स्थित आखिरी कस्बे सबरूम तक बढ़ाया जाएगा । क्या पता भविष्य के इस रूट को बांग्लादेश में चिटगांव के साथ भी जोड़ दिया जाए ? इसी तरह शाम को 5.45 पर भी एक सवारी गाड़ी है । ट्रेन द्वारा अगरतला से बिश्रामगंज पहुँचने में 40 मिनट लगते हैं । बिश्रामगंज स्टेशन से फिर 2 किमी पैदल या रिक्शे से चलकर मेलाघर वाली सड़क से शेयर्ड जीप पकड़ सकते हैं ।
उदयपुर रेलवे स्टेशन से मेलाघर की दूरी 23 किमी के करीब है, लेकिन उदयपुर का रेलवे स्टेशन नितांत एकांत में बने होने के कारण आगे मेलाघर जाने के लिए उचित किराये पर ऑटो या कोई और गाड़ी मिलने में दिक्कत हो सकती है ।
नीरमहल घूमने के दौरान रुकने के विकल्प : मेलाघर में तो रुद्रसागर के किनारे ही त्रिपुरा पर्यटन का ‘सागर महल टूरिस्ट लॉज’ है, जहाँ रुकने की बेहतरीन व्यवस्था है । यहाँ 650 रुपये से लेकर 1000 रुपये तक में कमरा और 150 रुपये में डोरमेट्री में एक बिस्तर मिल जाता है । अगरतला और उदयपुर से पास होने के कारण ज्यादातर लोग तो दिन में नीरमहल घूमकर शाम तक वापस ही हो जाते है । इसलिए अमूमन टूरिस्ट लॉज में अचानक से पहुँचने पर भी कमरा मिल ही जाता है ।
त्रिपुरा राज्य के अगरतला और उसके आसपास के बारे में विस्तार से वहां के दर्शनीय स्थलों के भरपूर जानकारी देता हूँ कोई लेख पहली बार पढ़ा है …. आपको शुभकामनाएं और धन्यवाद ….. लेखन शैली भी बढ़िया है और चित्र भी अच्छे लिए ….. लिखते रहिये…
बहुत-बहुत धन्यवाद सर जी । ऐसे ही उत्साहवर्धन करते रहिए 🙂
आधा घंटा वोडाफोन स्टोर के बाहर wait करने के बदले आप वहां का लोकल food टेस्ट कर सकते थे नाश्ते मे… वैसे त्रिपुरा का लोकल food क्या है ? मेलाघर जाने के सभी ऑप्शन 30 रस3 टिकट के लिए वैट करना या 600 rs में जाने को बचाने का जुगाड़ हो या फिर ट्रैन से लेकर बस के सारे ऑप्शन और बस से उतर कर कितनी दूर कैसे जाना वाह नीर महल से जुड़ी हर जानकारों आपने दी है…बेहतरीन जानकारियां…दक्षिण त्रिपुरा के बाद chittegaon तक ट्रैन चली जाए तो बढ़िया हो जाएगा….