गुवाहाटी में रहने वाले ज्यादातर लोगों का अरुणाचल प्रदेश से पहला परिचय भालुकपांग या नाहरलागुन के रास्ते होता है। लेकिन मेरी किस्मत कुछ ऐसी थी कि मुझे अरुणाचल प्रदेश से रूबरू होने के लिए पश्चिम से पूरब पूरा असम पार करना पड़ा। उगते सूरज की इस धरती की पहली झलक मुझे इतिहास की एक अनमोल धरोहर स्टिलवेल रोड के चक्कर में जयरामपुर चेकपोस्ट पर मिली। लेकिन जयरामपुर और आगे बढ़ते हुए 21 किमी चलकर नामपोंग पहुँचने पर लगा कि यह वह अरुणाचल प्रदेश नहीं है, जिसे मैंने आज तक पढ़ा और समझा है।
मेरे लिए तो अरुणाचल प्रदेश उफनती नदियों , ऊँचे- ऊँचे पहाड़ों और घने जंगलों की भूमि थी । नामपोंग के रास्ते में घने जंगल, पहाड़, नदियाँ सब कुछ हैं, लेकिन फिर भी उतने भव्य और विशाल नहीं, जितना मैंने सोचा था । हो सकता है आगे नामदाफा की तरफ जाने से थोड़ा और भव्यता नजर आ जाती। वैसे भी असम के समतल इलाके से अरुणाचल प्रदेश में मैंने प्रवेश भर ही तो किया था । भौगोलिक दृष्टिकोण जैसा भी हो, लेकिन इतिहास में इस पूरे इलाके का बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है । वो बात दीगर है कि समय के साथ हुए बदलाव में लोगों की स्मृति से द्वितीय विश्व युद्ध की वो कहानियाँ धूमिल होती चली गई ।
ऐसी ही कुछ महत्वपूर्ण लेकिन भूली बिसरी यादों से मिलते-बिछड़ते हुए मैं नामपोंग और जयरामपुर से निकलकर दूसरी तरफ असम और अरुणाचल प्रदेश की सीमा पर स्थित एक अन्य चेकपोस्ट शांतिपुर पहुँच गया । इस बार मुझे असम के तिनसुकिया जिले से निकलकर अरुणाचल के लोअर दिबांग वैली जिले में प्रवेश करना था। असम का तिनसुकिया जिला मार्गरीटा, लीडो, डिगबोई, डूमडूमा, धोला, सदिया जैसे नामों की वजह से इतिहास का एक महत्वपूर्ण हिस्सा नजर आता है।
स्टिलवेल रोड के बारे में यहाँ पढ़ें: Legacy of Stillwell Road
लेकिन तिनसुकिया पार करते ही इतिहास के पन्ने धुंधले पड़ने लगते हैं और हम ऐसे क्षेत्र में प्रवेश करते हैं, जहाँ प्रकृति और इंसान के बीच हर कदम पर एक कशमकश चलती रहती है। दरकते पहाड़ों, भीहड़ जंगलों और रौद्र रूप वाली नदियों का यह क्षेत्र ही भारत के उत्तर पूर्व का एक अनमोल नगीना अरुणाचल प्रदेश है, वो अरुणाचल प्रदेश जिसे मैं जानता था ।
शांतिपुर चेकपोस्ट से थोड़ा पहले , धोला-सदिया पुल पार करने के बाद असम का आखिरी कस्बा चापाखोवा या सैपाखोवा (Chapakhowa) पड़ता है । शुरू से ही यह कस्बा सदिया के साथ मिलकर असम की पूरबी सीमा का प्रवेश द्वार रहा है । यहाँ से थोडा आगे बढ़ते ही असम-अरुणाचल प्रदेश की सीमा पर स्थित शांतिपुर चेकपोस्ट है । चेकपोस्ट के आगे बिना इनर लाइन परमिट के बढना सम्भव ही नही है । चूँकि मेरी योजना शुरू से ही तेजू और रोइंग के आस पास के क्षेत्र में घूमने की थी, इसलिए मेरे पास परमिट पहले से ही था । वैसे अगर परमिट ना हो तो भी शांतिपुर चेकपोस्ट पर तुरंत परमिट इशू करने की व्यवस्था है ।
शांतिपुर चेकपोस्ट से आगे बढ़ते ही सड़क के दोनों तरफ का दृश्य बदल जाता है । असम के चाय बागानों और सुपारी के पेड़ों की जगह अब सड़क के दोनों तरफ हरे-भरे जंगल दिखते हैं । सीधी सड़क पर बहुत दूर नजर आते ऊँचे-ऊँचे पहाड़ों को देखने से पता चलता है कि कुछ ही देर में प्रकृति की मनोरम गोद में पहुँचने वाले हैं । रोइंग तक सड़क बहुत ही अच्छी स्थिति में है । सड़क के दोनों तरफ औरतों का झुण्ड टोकरी में संतरे लेकर बैठा रहता है । पास में ही स्थित डाम्बुक कस्बा संतरा उत्पादन का एक प्रमुख केंद्र है । सीधी सड़क के दोनों किनारे स्थित नयनाभिराम दृश्यों का आनंद लेते हुए मैं शांतिपुर से चलकर थोड़ी ही देर में रोइंग पहुँच गया ।
रोइंग अरुणाचल प्रदेश के दुर्गम क्षेत्रों का एक खूबसूरत प्रवेश द्वार है। रोइंग तो वैसे एक बड़ा कस्बा है, लेकिन मुख्य बाज़ार को पार करने के बाद यह काफी खाली-खाली सा नजर आता है । सड़क के दोनों तरफ लोगों के घर और थोड़ी-थोड़ी दूर पर कुछ दुकानें या रेस्टोरेंट नजर आते हैं । हर जगह की तरह ही रोइंग पहुँचने पर भी मैंने पी डब्ल्यू डी, वन विभाग इत्यादि सरकारी गेस्ट हाऊसों के चक्कर लगाये कि शायद कहीं रात्रि विश्राम का जुगाड़ हो जाये, लेकिन हर जगह की तरह रोइंग में भी मुझे निराशा का सामना करना पड़ा। पता नहीं क्या सोचकर अरुणाचल का पर्यटन विभाग अपनी वेबसाइट पर रात्रि विश्राम के लिए इन गेस्ट हाऊसों का इस्तेमाल करने की सलाह देता है। मुझे तो इनके दरवाजे पर हर बार निराशा ही हाथ लगी है। वैसे अरुणाचल प्रदेश के दूर-दराज के इलाकों में अभी इन गेस्ट हॉउसों में रात्रि विश्राम के लिए कोशिश करना अभी बाक़ी है
खैर, रोइंग में मुझे थोड़े ही प्रयास के बाद रात्रि विश्राम के लिए एक अच्छा होटल मिल गया। रात होने में अभी काफ़ी समय बाकी था, तो थोड़ा विश्राम करने के पश्चात मैंने आस पास घूमने का निर्णय लिया। रोइंग से करीब ५० किमी की दूरी पर ही मयोदिया दर्रा है । ठण्ड के मौसम में बर्फबारी देखने के लिए यह बहुत ही उपयुक्त स्थान माना जाता है । और कोई सड़क होती तो ५० किमी की यह दूरी तय करके मैं मयोदिया भी घूम आता । लेकिन यहाँ तो उस अरुणाचल प्रदेश की एक सड़क थी , जहाँ हर मौसम के बाद सड़कों की हालत बदल जाती है ।
ऐसा सुना था कि रोइंग के बाद मायोदिया पास और अनिनी का रास्ता बहुत ही खतरनाक हो जाता है, लेकिन मैं उसे खुद देखना चाहता था । इसलिए मैंने सोचा कि मयोदिया के रास्ते पर आगे तक चलता हूँ , जहाँ से भी दिक्कत महसूस होगी, वापस रोइंग की तरफ मुड़ जाऊंगा । बस यही सोचकर मैं रोइंग से आगे बढ़ चला।
रोइंग का सबसे प्रसिद्ध आकर्षण , कस्बे की बाहरी सीमा पर स्थित एक पिकनिक स्पॉट देबपानी है। देबपानी नदी को पार करते ही रास्ते का बिगलैड़ स्वरूप नजर आने लगा था। ऊबड़-खाबड़ रास्ते, उनके एक तरफ गहरी खाई और दूसरी तरफ़ गाहे बगाहे खिसकते पहाड़, रोइंग से आगे की यात्रा बहुत जिगर वालों के लिए ही थी।
करीब 5 किमी चलने के बाद मुझे एक दूसरी नदी मिली । रास्ते की हालत आगे भी बहुत खराब थी । ऐसा महसूस हुआ कि बस अब आगे जाने में मजा की जगह सजा ही है ।मैं वहीँ नदी के पास ही रुक गया । कहने को तो मैं रोइंग कस्बे के बाहर उस रास्ते पर मुश्किल से 5 किमी चला होऊँगा, लेकिन अरुणाचल प्रदेश की विश्वप्रसिद्ध ख़ूबसूरती की वास्तविक झलक मुझे उतनी ही दूर में मिल गयी थी । अब तो मेरे सामने दरकते पहाड़ थे , हरे-भरे जंगल भी थे , बस एक ही कमी थी कि नदियाँ अपने रौद्र रूप में नहीं थी , लेकिन नदी के दोनों किनारों के विस्तार को देखकर ही बारिश के मौसम में उसकी भयावहता का अंदाजा लगाया जा सकता था ।
नदी के पास थोड़ा समय बिताने के बाद मैं वापस रोइंग की तरफ़ मुड़ गया । दिल में डर का ऐसा आलम था कि रास्ते में पड़ने वाली सैली झील के सँकरे, खड़ी चढ़ान वाले मोड़ पर गाड़ी चढ़ाने की हिम्मत ही नहीं हुई और मैं बिना सैली झील घूमे ही देबपानी आ गया। देबपानी का पिकनिक स्पॉट पर्यटकों की भीड़ से गुलजार था। धोला-सदिया का पुल आस पास के लोगों के लिए वरदान तो साबित हुआ है , लेकिन उसका एक बहुत बड़ा फायदा रोइंग को भी मिल रहा है । जब तक डिब्रूगढ़ के पास ब्रह्मपुत्र नदी पर बोगीबील पुल पर आवागमन शुरू नहीं हो जाता, पूरबी असम के लोगों के लिए रोइंग ही सबसे महत्वपूर्ण हिल स्टेशन है, जहां बिना किसी दिक्कत के आराम से पहुँचा जा सकता है । इसी वजह से रोइंग में सैलानियों की भीड़ लगातार बढती जा रही है । ज्यादातर लोग असम के आस पास के क्षेत्रों से देबपानी नदी के तट पर पिकनिक मनाने पहुंचते हैं । देबपानी पुल से देखने पर दूसरी तरफ ऊँची-ऊँची पहाड़ियों का एक अंतहीन सिलसिला नज़र आता है। नदी को पार करते ही मैदान अचानक से खत्म हो जाता है और उसकी जगह पहाड़ ले लेते हैं। पहले मैदान, फिर अचानक से उठते पहाड़ असम-अरुणाचल प्रदेश ट्रांजीशन की एक मुख्य खासियत हैं।
देबपानी से होटल लौटते-लौटते हर तरफ अँधेरे का व्यापक साम्राज्य कायम हो गया था। थोड़े विश्राम के बाद तय हुआ कि डिनर करने के लिए थोड़ा दूर पैदल चलकर रोइंग की मुख्य बाजार तक जाना सही रहेगा। लेकिन भाँय-भाँय करती उस वीरानी रात में आधा घन्टा चलने के बाद ही हिम्मत जवाब दे गयी। ठंडी हवाएँ शरीर को अलग से कँपकँपा रहीं थी। इसलिए मैंने मुख्य बाजार में डिनर का विचार त्याग दिया और पास की ही एक दुकान से हल्का-फुल्का खाने का जुगाड़ कराकर वापस होटल में लौट गये।
अगले दिन सुबह पूर्व निर्धारित योजना के अनुसार रोइंग से चलकर थोड़ी ही दूर स्थित तेजू क़स्बे तक पहुँचना था, लेकिन उस सुबह पैरों की चक्करघिरनी ने मुझे कुछ ऐसा घुमाया कि मेरा सामना अरुणाचल प्रदेश की उन विशाल नदियों से हो गया, जो जब अपने रौद्र रूप में आती हैं, तो रास्ते में पड़ने वाली हर चीज को अपने आगोश में समेट लेती हैं। फिर ना तो मैं तेजू पहुँच पाया और ना ही परशुराम कुंड, बल्कि मैं तो अपने जीवन की सबसे यादगार यात्राओं में से एक का लुत्फ़ उठाते हुए दाम्बुक, पासीघाट होते हुए असम के माजुली द्वीप की तरफ़ चल पड़ा । लेकिन अभी माजुली की मंजिल बहुत दूर थी और सफ़र बहुत लंबा, जिसकी कहानी अगली पोस्ट में जारी रहेगी ।