उदयपुर के पास माताबारी में त्रिपुरा सुंदरी माता के दर्शन के बाद मैं वही पास में स्थित त्रिपुरा पर्यटन के गुनाबाती यात्री निवास में रात्रि विश्राम के लिए रुक गया । अगले दिन मेरी योजना त्रिपुरा के पूर्वी छोर पर स्थित दम्बूर झील तक जाने की थी । दम्बूर झील पूर्वी त्रिपुरा की पहाड़ियों में घने जंगलों के मध्य स्थित एक बड़ी सी झील है । मानचित्र में देखने से दम्बूर का सुदूर पूर्वी सिरा बांग्लादेश बॉर्डर के पास तक पहुँचता नज़र आता है । दम्बूर झील तक पहुँचने का विचार रोमांचक तो था, लेकिन दम्बूर की यात्रा में एक दुविधा थी । अमरपुर के बाद कई किलोमीटर तक घने जंगलों के बीच से अकेले यात्रा करनी थी, इसलिए मन में डर भी लग रहा था । मैंने निश्चय किया कि पहले तो अमरपुर क़स्बे तक पहुँचता हूँ और अगर वहाँ तक हालात सही रहे तो आगे बढ़ूँगा , नहीं तो वहीं से वापसी ।
सुबह 8 बजे के क़रीब मैं माताबारी से अमरपुर के लिए निकल पड़ा । शुरू-शुरू में तो रास्ता अच्छा मिलता रहा और आस पास थोड़ी-थोड़ी दूर पर बस्तियाँ भी मिल रही थी । फिर एक बार आबादी ने जो साथ छोड़ा तो बस मैं और जंगल साथ चल रहे थे । सड़क की स्थिति अच्छी थी, लेकिन कहीं -कहीं कुछ दूर तक ख़राब हिस्सा भी मिल जाता था । गाड़ियों का आवागमन ना के बराबर था । गाहे-बगाहे कोई सवारी बस, जीप या फिर पुलिस/सेना की जिप्सी बग़ल से निकल जाती थी । 15-20 मिनट में कोई मोटरसाइकिल भी गुज़र जाती थी । मेरी धड़कनें बढ़ी हुयी थी । यह बड़ामुड़ा (Baramura) के वही जंगल थे, जिसमें कभी लोगों को दिन में आने में भी डर लगता था । यह वो दौर था जब त्रिपुरा में जगह-जगह ट्राइबल-नान ट्राइबल के संघर्ष के कारण उग्रवाद अपने चरम पर था । लेकिन, अब जंगल ख़ामोश हैं और एकांत में रहने पर बस हवाओं की सरसराहट, पत्तियों की खड़खड़ाहट या फिर सड़क पर इक्का-दुक्का गाड़ियों की गड़गड़ाहट ही सुनाई पड़ती है । उसी जंगल में मैं अपने सफ़र पर अमरपुर की तरफ़ बढ़ता जा रहा था । कई बार दिमाग़ में आया कि किसी आर्मी या पुलिस की गाड़ी को रोककर पूछ लूँ कि अमरपुर और आगे दम्बूर तक जाना सुरक्षित है या नहीं, लेकिन बिना किसी से कोई चर्चा किए हिम्मत जुटाकर मैं आगे बढ़ता रहा । अनावश्यक किसी से पूछकर मैं अपना डर भी नहीं ज़ाहिर करना चाहता था, क्यूँकि डरा हुआ इंसान किसी भी ग़लत इरादे वाले व्यक्ति के लिए बड़ा आसान शिकार बन जाता । क़रीब एक-डेढ़ घंटे तक स्कूटी चलाने के बाद मैं अमरपुर पहुँच गया ।
अमरपुर उम्मीद से बड़ा क़स्बा निकला और वहाँ चहल-पहल भी बहुत थी । उदयपुर से अमरपुर के रास्ते में गाड़ियों के आवागमन को देखकर ऐसा नहीं लगा था कि अमरपुर इतना भीड़-भाड़ वाला क़स्बा होगा । वहाँ एक दुकान पर मैंने दम्बूर झील को जाने का रास्ता पूछा तो दुकानदार ने एक रास्ते की तरफ़ इशारा कर दिया । मैं सीलाचरी नामक क़स्बे की तरफ़ जाने वाले उस रास्ते पर बढ़ चला । थोड़ी देर बाद वह रास्ता पहले वाले रास्ते से भी ज़्यादा सुनसान लगने लगा और दिलोदिमाग़ पर डर फिर हावी होने लगा । मैंने एक स्थानीय नागरिक को रोककर दम्बूर के बारे में पूछा । उसने बताया कि दम्बूर वहाँ से क़रीब 40 किमी दूर है और आगे स्थित जतनबारी क़स्बे से वहाँ के लिये एक रास्ता जाता है । मैंने पेट्रोल पम्प के बारे में पूछा तो उसने बताया कि अब आगे पेट्रोल पम्प नहीं मिलेगा, लेकिन जतनबारी में स्थानीय दुकानों पर बोतलों में पेट्रोल बिकता है । उसने यह भी आश्वासन दिया कि दम्बूर तक पहुँचने में कोई दिक़्क़त नहीं होगी और रास्ता सुरक्षित है । थोड़ी ढाँढस मिलने के बाद मैं जतनबारी की ओर बढ़ चला ।
गूगल मैप में देखने पर दम्बूर व्यू पाइंट का रास्ता दलुमा (Daluma) से मुड़ता है, लेकिन उस आदमी के अनुसार दम्बूर का रास्ता जतनबारी से होकर जाता है । मैंने गूगल मैप की जगह स्थानीय आदमी की बात पर भरोसा करना ज़्यादा मुनासिब समझा । दलुमा वाले तिराहे पर खड़े ऑटो वालों से मैंने तसल्ली के लिए एक बार फिर पूछा तो उन्होंने भी जतनबारी वाला रास्ता ही बताया । मैप को ज़ूम करके देखे तो पता चलता है कि दलुमा से शुरू होने वाला रास्ता गंदाछेरा की तरफ़ से होते हुए दम्बूर व्यू पाइंट नामक एक जगह तक जाता है, लेकिन वहाँ से झील का कितना हिस्सा दिखता है, उसके बारे में कुछ कह नही सकता । उस तरफ़ जाने पर झील में नाव की सैर करने की व्यवस्था भी नहीं है । जतनबारी से मिलने वाला रास्ता गुमती वन्यजीव अभयारण्य के घने जंगलों से होते हुए दम्बूर झील के किनारे स्थित मंदिर घाट तक जाता है, जहाँ से दम्बूर झील के अंदरूनी हिस्सों तक जाने के लिए नावें मिलती हैं ।
आगे रास्ते में नूतनबाज़ार नामक एक बड़ी बाज़ार दिखी । इतने सुनसान रास्तों पर चलने के बाद इतनी बड़ी मार्केट का मिलना बड़ा आश्चर्यजनक लगा । उसके बाद जतनबारी तक तो रास्ते पर कार्बुक ( Karbuk) और सीलाचरी (Silachari) की तरफ़ जाने वाली इक्का-दुक्का बसें और जीपें मिलती रही, लेकिन उसके आगे दम्बूर झील की तरफ़ मुड़ते ही घने जंगल शुरू हो गये । कार्बुक और सीलाचरी बांग्लादेश बॉर्डर के बहुत पास स्थित हैं और यहाँ पर बांग्लादेश से पलायन किए हुए शरणार्थियों के शरणार्थी शिविर भी हैं । आगे दम्बूर झील के रास्ते में एक भी गाड़ी नहीं नज़र आ रही थी । घने जंगलों में किसी इंसान का नामोनिशान तक नहीं था । पतझड़ के कारण अधिकांश पेड़ों की पत्तियाँ ज़मीन पर गिरी हुई थी, जिसके कारण आसमान को ढक देने वाली नौबत नही थी, लेकिन उस वीराने की ख़ामोशी से ही डर लग रहा था । घुमावदार पहाड़ी रास्तों पर जंगलों के बीच मैं चुपचाप आगे बढ़ा जा रहा था । यह सारा जंगल गुमती वन्यजीव अभयारण्य का ही एक भाग है । आगे हर क़दम के साथ दिल को मजबूती से समझाना पड़ रहा था कि डरने की ज़रूरत नही है, लेकिन डर तो डर ही है । तभी अचानक से जंगलों के परे गाँव की एक झलक दिखी । डरते-डरते मैं तीर्थामुख नामक जगह तक पहुँच चुका था ।
नीचे घाटी में बहती नदी, नदी किनारे बने पक्के घाट, नदी पर बने बाँस के पुलों को देखकर लग रहा था कि यहाँ ज़रूर कोई मेला लगता होगा । वैसे भी तीर्थामुख नाम से ही लग रहा था कि यह त्रिपुरा का एक महत्वपूर्ण तीर्थस्थान है । सड़क नदी तट से काफ़ी ऊँचाई पर थी और आसपास कोई नज़र नहीं आ रहा था । नदी के दूसरी तरफ़ बने घाट पर कुछ लोग थे, लेकिन मैं वहाँ जाकर उनसे बात करने के मूड में नहीं था । तीर्थामुख में घाट के आगे नदी पर एक बाँध भी बना हुआ है, जहाँ बिजली भी पैदा की जाती है ।
तीर्थामुख पहुँचकर मन में आशा का एक नया संचार हुआ कि अब शायद दम्बूर झील ज़्यादा दूर ना हो और आगे जंगल ना मिलें । मोबाइल डाटा ने तो तीर्थामुख के पहले वाले जंगलों में ही साथ छोड़ दिया था । अब चूँकि मैं गूगल मैप वाले दम्बूर व्यू पाइंट के रास्ते पर नहीं था, तो आगे के रास्ते का अंदाज़ा भी नहीं लग पा रहा था । नए उत्साह और थोड़ा मजबूत दिल के साथ मैं तीर्थामुख से आगे बढ़ा । क़रीब 2 किमी आगे बढ़ते ही सारा उत्साह काफ़ूर हो गया । एक बार फिर घने जंगल मिलने शुरू हो गए । रास्ता भी ऊबड़-खाबड़ था । 3-4 किमी और आगे बढ़ते-बढ़ते डर की भावना अपने चरम पर पहुँच गयी । सच कहूँ तो हिम्मत जवाब देने लगी थी और मन में एक अंतर्द्वंद शुरू हो गया था कि बस अब वापस चलते हैं, आगे जाने का साहस नहीं बन पा रहा था । वैसे भी वापसी में फिर वही जंगल मिलने थे । इसी अंतर्द्वंद में मैं बस एक किमी और, बस एक किमी और करके आगे बढ़ता रहा । जब लगा कि अब हिम्मत जवाब दे गई है और डर ने पूर्णतया क़ाबू कर लिया है, तभी जैसे एक चमत्कार हुआ और मुझे एक बाँध दिखाई पड़ा, जिसके दूसरी तरफ़ पानी से लबालब भरी एक नदी ( या तालाब) थी ।
बाँध के पास दो आदमी थे, एक आर्मी की पोशाक में, दूसरा साधारण कपड़े में । मैंने साधारण कपड़े वाले आदमी से पूछा कि दम्बूर झील अभी कितनी दूर है । उसने जवाब दिया कि दम्बूर झील तो यही है । झील का आकार देखकर मुझे बड़ी निराशा हुयी, लेकिन फिर लगा कि चलो दम्बूर तक तो पहुँच गया । मैंने हँस के आर्मी वाले से कुछ बोला, लेकिन उसने बड़ी रूखाई से जवाब दिया । फिर मैंने साधारण कपड़ों वाले आदमी से पूछा कि पास में क्या कोई अच्छा स्पॉट है, जहाँ से झील थोड़ी और बड़ी दिखे । उसने बताया कि बस थोड़ा ही आगे एक गाँव है, जहाँ से झील का और भी बड़ा विस्तार दिखता है । उसको धन्यवाद बोलकर मैं आगे बढ़ गया ।
आगे एक अच्छी-ख़ासी आबादी वाला गाँव मिला । स्कूटी एक तरफ़ खड़ा कर मैं नीचे झील की तरफ़ जाती सीढ़ियों पर बढ़ चला और मंदिर घाट पहुँच गया । घाट पर बहुत सारी नावें खड़ी थी और काफ़ी चहल-पहल भी थी । घाट के किनारे और किनारे पर लगी नावों में गाँव वाले अपने रोज़मर्रा के कार्यों में तल्लीन थे । झील का पानी बड़ा गंदा लग रहा था, ख़ास तौर पर डीज़ल से चलने वाली नावों की वजह से पानी में तेल की बूँदे बहुत दिख रही थीं ।कुछ जोड़ी आँखें अपने बीच एक अजनबी को पाकर उत्सुक भी थी । वहाँ मेरे अलावा और कोई बाहरी व्यक्ति भी तो नहीं था । पास में एक दुकान पर केले बिक रहे थे । मैं वहीं बैठकर केले खाने लगा । फिर एक व्यक्ति से बातचीत शुरू हो गयी । उसने बताया कि उस सड़क पर स्थित वह आख़िरी गाँव था । उसके आगे कोई सड़क नहीं है ।
वह एक नाव वाला था और मुझे नाव में बैठाकर दम्बूर झील घुमाने की बात करने लगा । उसने बताया कि झील का विस्तृत स्वरूप देखने के लिए नाव से ही जाना होगा । आगे झील में कई छोटे-छोटे आईलैंड हैं, जिनमें कोकोनट आईलैंड ( इसे शायद नरकेलकुंज, Narkel Kunja, भी कहते हैं ) सबसे प्रसिद्ध है । 2 घंटे तक डीज़ल इंजन से चलने वाली तेज़ गति नाव की सवारी करने का किराया 2000 रुपए है और इसमें दम्बूर झील के विस्तृत हिस्से की सैर के साथ- साथ कई आईलैंड और गुमती वन्यजीव अभयारण्य के अनछुए जंगलों की झलक मिलती है । नाव काफ़ी हद तक दक्षिण-पूर्वी एशिया के पर्यटन स्थलों पर सामान्यतया नज़र आ जाने वाली लाँग टेल बोट (Long Tail Boat) जैसी ही होती है, लेकिन इसमें बीच में एक बाँस की बनी एक छत होती है । मैंने कहा कि 2000 रुपए का किराया तो बहुत महँगा है । इतना ख़र्च करके वहाँ कोई नाव की सवारी करता है क्या , तो उसने बताया कि छुट्टियों या फिर सप्ताह के अंत में वहाँ पिकनिक मनाने वाले अच्छी ख़ासी संख्या में पहुँच जाते हैं, तब 200 रुपए प्रति व्यक्ति ख़र्च कर 2 घंटे तक नाव द्वारा दम्बूर झील की सैर की जा सकती है । लेकिन उसके लिए कम से कम 10 व्यक्तियों का होना ज़रूरी है । फ़िलहाल तो मैं वहाँ अकेला ही था । थोड़ा मोलभाव की गुंजाइश तो थी और ज़ोर देने पर नाव वाला 1500 रुपए में झील की सैर करवा देता, लेकिन मेरे साथ एक और दिक़्क़त समय की कमी थी । मैं डेढ़-दो घंटे अगर दम्बूर में ख़र्च कर देता तो फिर वापसी में देर हो जाती । यही सब सोचकर मैंने नाव की सवारी नहीं की और थोड़ा फ़ोटो खींचकर वापसी की राह पकड़ ली। दम्बूर झील की सैर तो नहीं हो पायी थी, लेकिन झील की अच्छी ख़ासी झलक मिल चुकी थी ।
वापस लौटते समय मैं तीर्थामुख से थोड़ा पहले स्थित गाँव की कुछ फ़ोटो खींच रहा था, तभी जंगल से तीन लड़के हाथ में खुख़री लेकर आते दिखे। उन्होंने दूर से ही मुझे हाथ से इशारा करके रुकने को कहा । मैं अभी सोच में ही था कि उनके लिए रुकूँ या स्कूटी लेकर आगे भाग लूँ, तभी एक लड़के ने इशारे से कुछ कहा, मुझे बस इतना समझ आया कि वो मुझे अपने मोबाइल में कुछ दिखाना चाहते थे । मैं रुककर उनका इंतज़ार करने लगा । पास आने पर पता चला कि उनके मोबाइल में 10 मिनट की एक विडियो क्लिप थी । क्लिप में वही लड़के जंगल के अंदरूनी हिस्से में जाते हैं, जहाँ उन्हें एक जगह पानी में उठते बुलबुले दिखते हैं । जब वो बाँस के गोल सिरे को पानी के अंदर डालकर उसके ऊपर लाइटर जलाते हैं, तो बाँस के ऊपर एक लौ सी जलने लगती है । इससे लगता है कि त्रिपुरा के उन जंगलों के नीचे गैस का भंडार होगा । लड़कों के मुताबिक़ वहाँ रहने वाले बहुत लोगों को उस बात की जानकारी थी । वैसे उदयपुर के पास पालटाना में ONGC की एक इकाई भी है, तो त्रिपुरा में गैस भंडार की बात बहुत आश्चर्यजनक नही लगती है ।
उसके बाद मैं वहाँ से जतनबारी होते हुए अमरपुर वापस आ गया । उस यात्रा के एक महीने बाद इस पोस्ट को लिखते समय जब मैं इंटरनेट पर तीर्थामुख के बारे में कुछ सूचना खोज रहा था, तो मुझे कई ऐसी बातें पता चली, जो मुझे अपनी यात्रा के दौरान पता ही नहीं चल पाई थी । तीर्थामुख का छोटा सा गाँव त्रिपुरा का एक प्रमुख तीर्थस्थल है, जहाँ मकर संक्रान्ति के अवसर पर एक विशाल मेला लगता है । पौष संक्रान्ति मेला के नाम से प्रसिद्ध इस मेले का प्राचीन काल से ही त्रिपुरा के आदिवासी समुदाय में बड़ा ही महत्व है । त्रिपुरा के कोने-कोने से लोग सूर्य उत्तरायण के अवसर पर यहाँ गुमती नदी में डुबकी लगाने पहुँचते हैं । मैं फ़रवरी के पहले हफ़्ते में वहाँ पहुँचा था और जनवरी में मकर संक्रान्ति को बीते अभी कुछ दिन ही हुए थे, इसीलिए तीर्थामुख को देखकर मुझे लगा था कि वहाँ कोई बड़ा मेला लगा रहा होगा । लेकिन सबसे आश्चर्यजनक जानकारी तो मुझे गुमती नदी के बारे में पता चली, जिसका मुझे ज़रा भी आइडिया नहीं था । तीर्थामुख में नीचे बहती दिख रही नदी, त्रिपुरा की सबसे प्रमुख नदी थी, जिसका नाम गुमती नदी (या गोमती नदी ) है । तीर्थामुख को गुमती नदी का उद्गम स्थल माना जाता है, इसीलिए यहाँ की धार्मिक महत्ता अधिक है । तीर्थामुख के आगे स्थित दम्बूर झील वास्तव में तीर्थामुख और उसके आगे मंदिर घाट के पास स्थित बाँध के कारण एक बड़ा रिजर्वायर (Reservoir) है, जहाँ बारिश का पानी इकट्ठा होता है (यह मेरा अनुमान है ) और फिर आगे गुमती नदी निकलती है । गुमती नदी आगे अमरपुर, उदयपुर और सोनामुरा होते हुए बांग्लादेश में जाती है, जहाँ अंत में यह मेघना नदी में मिलती है ।
अमरपुर के पास ही गुमती नदी के किनारे छबिमुड़ा (Chabimura) नामक एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक स्थल है । जब मैं सुबह दम्बूर झील के लिए निकला था, तो लगा कि सारा दिन उधर ही निकल जाएगा, इसलिए उस दिन मेरी छबिमुड़ा घूमने की कोई योजना नहीं थी । लेकिन दम्बूर से वापस लौटते समय अमरपुर पहुँचकर लगा कि अभी उदयपुर वापस लौटने के लिए बहुत समय बचा है, तो क्यों ना लगे हाथ छबिमुड़ा की तरफ़ भी निकल लूँ । बाद में यह निर्णय त्रिपुरा यात्रा का सबसे अच्छा अनुभव साबित हुआ । छबिमुड़ा की यात्रा अगले पोस्ट में जारी रहेगी ।
पब्लिक ट्रांसपोर्ट द्वारा दम्बूर झील कैसे जाएँ? दम्बूर झील मुख्य सड़क से दूर जंगलों के बीच में एक छोटे से गाँव के पास स्थित है, जहाँ पहुँचने के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट के विकल्प लगभग नगण्य हैं । अगरतला से दम्बूर जाने के लिए उपलब्ध विकल्प निम्नलिखित हैं :
पब्लिक बस/जीप: अगरतला से उदयपुर के लिए सीधी बसें मिलती हैं । कुछ बसें आगे अमरपुर तक भी जाती हैं । दिन में 2-4 बसें होंगी जो और आगे सीलाचरी तक जाती होंगी । सबसे अच्छा है कि अगरतला से बस पकड़कर अमरपुर पहुँच जाएँ और वहाँ से सीलाचरी के लिए बस या शेयर्ड जीप पकड़कर जतनबारी तक चले जाएँ । जतनबारी से पूरे दिन में 1-2 शेयर्ड जीप ही मंदिर घाट/तीर्थामुख तक जाती हैं । इसलिए बेहतर है कि जतनबारी से एक ऑटो/जीप रिज़र्व करके आगे की यात्रा की जाए । फिर मंदिर घाट से ज़्यादा भीड़ रहने पर 200 रुपए प्रति व्यक्ति या अकेले रिज़र्व करने पर 2000 रुपए प्रति मोटरबोट देकर दम्बूर झील की सैर कर सकते हैं ।
दम्बूर झील घूमने के दौरान रुकने के विकल्प : दम्बूर झील के पास रुकने का कोई विकल्प नही है, लेकिन गाँव में कई घर हैं तो इमरजेंसी में शायद उनमें ही कहीं शरण मिल जाए । इसके अलावा रुकने के लिए निकटतम गेस्ट हाउस जतनबारी, अमरपुर और उदयपुर में मिल सकता है । जतनबारी के पास नूतन बाज़ार में जतनबारी गेस्ट हाउस (Jatanbari Guest House) है । अमरपुर में फटिक सागर के किनारे ही सागरिका पर्यटन निवास (Sagarika Parjatan Niwas) है । अगर गूगल मैप देखकर दम्बूर व्यू पाइंट के चक्कर में गंदाछेरा की तरफ़ निकल गए हैं, तो वहाँ भी साईमा टूरिस्ट लॉज (Saima Tourist Lodge) में रहने की व्यवस्था कर सकते हैं ।
अपनी भाषा हिन्दी में भारत के सुदूर पूर्वी छोर त्रिपुरा का यात्रा वर्णन पढ़ने को मिल रहा है इसके लिए आप धन्यवाद के पात्र …… आपकी दम्बुर झील तक की यात्रा बेहद रोमांचक रही …. आप डरे खूब …..बहुत डरे ….पर वापिस नही लौटे…क्योकि डर के आगे जीत वाली बात थी ….
एक सवाल ये की इस जगह के लोगो से आपने किस भाषा में जानकारी ली थी ?
बाकी लेख और फोटो अच्छे रहे वो जानकारी पूर्ण …
त्रिपुरा में अधिकांश लोग हिंदी बोलते और समझ जाते हैं । ज़्यादातर लोग बंगाली बोलते हैं । पूर्वोत्तर में भाषा की यह समस्या मुझे अभी तक थोड़ा बहुत मेघालय के गाँवों में नज़र आयी है, नागालैंड और मिज़ोरम के अंदरूनी इलाक़ों में अभी जाना बाक़ी है ।
अमरपुर से आगे कई किलोमीटर जंगल मे अकेले घुमक्कड़ी वाह आईडिया ही रोमांचित करने वाला है….वाकई पहले शायद दिन में इस रोड पर रिस्क थी लेकिन आपने काफी हिम्मत करि….मताबारी से अमरपुर कितना होगा वहां से दांबुरा 40 km… सुनसान जंगल का रोड….जतिन बारी….दाम्बुर झील की यात्रा काफी रोमांचक रही…हमने इन जगहों के नाम नही सुने और आप यात्रा करवा रहे है…बहुत ही बेहतरीन पोस्ट…
माताबारी से अमरपुर तो 25 किमी के आसपास है, लेकिन घने जंगलों से होकर पहाड़ी रास्ते पर क़रीब एक-डेढ़ घंटे लग जाते हैं । उत्साहवर्धन के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद 🙂