अप्रैल के महीने में व्लाडिवॉस्टोक (Vladivostok) की एक ख़ुशनुमा शाम । रुस के सुदूर दक्षिण पूर्व में स्थित इस शहर में सर्दियाँ ख़त्म हो चुकी थी और दिन भर की बूँदाबूँदी ने मौसम को ख़ुशगवार कर दिया था । व्लाडिवॉस्टोक में आने के पहले मैं बस यही सोच रहा था कि सुबह-सुबह यहाँ हवाई जहाज से पहुँचकर मैं शाम वाली ट्रेन से ही अपनी ट्रांस-साइबेरियन रेल यात्रा (Trans-Siberian Railway Journey) का श्रीगणेश कर दूँगा। लेकिन समय सारिणी के चक्कर में कुछ ऐसा उलझा कि मुझे अपनी बहुप्रतिक्षित यात्रा शुरू करने से पहले व्लाडिवॉस्टोक में दो दिन घूमने का मौक़ा मिल गया ।
देखा जाए तो व्लाडिवॉस्टोक शहर की पहचान का सबसे प्रमुख कारण यही है कि यह ट्रान्स-साइबेरियन रेलवे का आखिरी छोर है । बावजूद इसके कि यह साइबेरिया के परे पूर्व में स्थित रूस का सबसे महत्वपूर्ण शहर है । यहाँ रूस की प्रशांत महासागरीय नौसेना का मुख्य बेस है । व्लाडिवॉस्टोक की महत्वपूर्ण स्थिति का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि रूस के इस शहर की दूरी जापान से क़रीब 500 मील, उत्तर कोरिया से क़रीब 150 मील और चीन से क़रीब 50 मील होगी । यह ऐसा शहर था जहाँ से अमेरिका की दूरी रूस की राजधानी मॉस्को की तुलना में ज्यादा पास थी ।
सच पूछिये तो मॉस्को से व्लाडिवॉस्टोक की लगभग नौ घंटे की हवाई यात्रा एक जहाज में बैठकर की गई मेरी सबसे लम्बी हवाई यात्रा थी । जितना समय मैंने रूस की राजधानी से उसके एक कोने में स्थित शहर व्लाडिवॉस्टोक तक पहुँचने में लगाया, उतनी देर की हवाई यात्रा में आप दिल्ली से लन्दन (साढ़े नौ घंटे में ) पहुँच सकते हैं । रूस के भौगोलिक विस्तार का अंदाजा आप इसी बात से लगा सकते हैं । 11 समय ज़ोन में फैला हुआ एक ऐसा देश जिसकी ऊत्तरी-पश्चिमी सीमा फ़िनलैंड को तो दक्षिणी-पूर्वी सीमा ऊत्तर कोरिया को छूती है, जिसका एक सिरा अमेरिका और जापान तक भी पहुँच जाता है । ट्रान्स-साइबेरियन रेलवे मार्ग पर मेरी यह यात्रा रूस के इसी भौगोलिक विस्तार से परिचित होने का एक प्रयास मात्र था ।
इस यात्रा के दौरान मुझे व्लाडिवॉस्टोक से मॉस्को होते सेंट पीटर्सबर्ग तक जाना था । व्लाडिवॉस्टोक से मॉस्को तक एक ट्रेन पकड़कर सीधी यात्रा में 7 से 8 दिन लगते हैं और फिर मॉस्को से सेंट पीटर्सबर्ग तक तेज़ रफ़्तार रेलगाड़ियों से 5 घंटे में पहुँचा जा सकता है । लेकिन मैंने इस यात्रा के दौरान मंगोलिया सीमा के पास स्थित शहर उलान-उदे (Ulan Ude) में एक विश्राम लिया था ताकि मैं रूस में बौद्ध संस्कृति और पास में ही स्थित ताज़े पानी की दुनिया की सबसे गहरी झील बैकाल झील (Baikal Lake) से रूबरू हो सकूँ। इस तरह मुझे व्लाडिवॉस्टोक से मॉस्को पहुँचने में 10 दिन लग गए ।
वैसे तो ज़्यादातर मुसाफ़िर पश्चिम से पूर्व की यात्रा करते हुए मॉस्को से ट्रेन पकड़कर व्लाडिवॉस्टोक पहुँचते हैं और फिर वहाँ से फ़्लाइट पकड़कर वापस हो जाते हैं, लेकिन मैंने इस यात्रा को उलटी दिशा में किया । मैंने मॉस्को से व्लाडिवॉस्टोक की फ़्लाइट ली और फिर व्लाडिवॉस्टोक से ट्रेन द्वारा मॉस्को की यात्रा की । इसका कोई विशेष कारण नही था, बस मुझे यह अपनी सुविधा के अनुसार ज़्यादा सही लगा । रोमाँच के बेहद शौक़ीन लोग ट्रान्स-साइबेरियन की यात्रा के दौरान उलान उदे से मंगोलिया और चीन वाली रेलवे लाइन पकड़कर बीजिंग़ भी जाते हैं ।
वास्तव में ट्रान्स-साइबेरियन रेलवे की सुविधा के कारण आप लंदन से ट्रेन पकड़कर यूरोप के पूर्वी भाग से होते हुए रूस में घुसकर मंगोलिया, चीन होते हुए वियतनाम के हो ची मिन्ह शहर तक पहुँच सकते हैं । वियतनाम से थाईलैंड, मलेशिया होते हुए सिंगापुर तक पहुँचा जा सकता है । बस वियतनाम से थाईलैंड के बीच कम्बोडिया में रेलवे सेवा नही है। लंदन से हो ची मिन्ह शहर या सिंगापुर की इस पूरी यात्रा में आपको कई ट्रेनें बदलनी पड़ेंगी । वैसे यह यात्राएँ रोमाँच का चरम है और बहुत कम लोग ही ऐसी यात्राएँ करते हैं ।
वापस आते हैं मेरी ट्रान्स-साइबेरियन रेल यात्रा पर । व्लाडिवॉस्टोक में मेरा होटल रेलवे स्टेशन के बिल्कुल पास में ही था, लेकिन मैं एक चक्कर लगाने के उद्देश्य से शाम को ही वहाँ पहुँच गया । आबादी कम होने के कारण भारत के रेलवे स्टेशनों की तरह वहाँ प्लेटफ़ॉर्म टिकट लेने की झंझट नही है और आप किसी भी समय जाकर प्लेटफ़ॉर्म के इर्द-गिर्द घूम सकते हैं ।
प्लेटफ़ॉर्म पर घूमते हुए मेरी नज़र एक खम्बे पर पड़ी, जिस पर 9288 लिखा हुआ था । पहले तो उन अंकों का महत्व समझ में नहीं आया, लेकिन फिर ध्यान आया कि वे तो ट्रान्स-साइबेरियन यात्रा की दूरी बताने वाले किलोमीटर मार्कर हैं । 9288 का मतलब है कि व्लाडिवॉस्टोक से मॉस्को के बीच ट्रान्स-साइबेरियन रेल यात्रा की कुल दूरी 9288 किलोमीटर है । वह मार्कर इसी यात्रा के अंतिम पड़ाव के रूप में व्लाडिवॉस्टोक स्टेशन के प्लेटफ़ॉर्म पर लगा हुआ था । इसीलिए ट्रान्स-साइबेरियन रेलवे की यह यात्रा दुनिया की सबसे लम्बी रेल यात्रा मानी जाती है और जिस रूस के पूर्व से पश्चिम तक ट्रेन जिन विभिन्न प्रकार के क्षेत्रों से गुजरती है, वो इस यात्रा का बेहद रोमाँचक बना देते हैं । ऐसी यात्राओं से ज़िंदगी में एक बार ही रूबरू हो जाना बड़ा सार्थक प्रतीत होता है ।
इस यात्रा के आखिरी मार्कर की फ़ोटो लेकर मैं वापस स्टेशन की मुख्य इमारत की तरफ़ गया । वैसे तो मेरे पास अपनी पूरी यात्रा के लिए ऑनलाइन बुक किए हुए टिकट के प्रिंट आउट थे, लेकिन मैंने काउंटर पर जाकर उन सारे टिकट को बिना किसी अतिरिक्त शुल्क के रूसी रेलवे के पेपर टिकट में बदलवा लिया । प्रिंट आउट वाले टिकट भी मान्य होते हैं, लेकिन मेरे पास विकल्प मौजूद था तो मैंने रेलवे के वास्तविक पेपर टिकट ले लेना ज़्यादा उचित समझा । यही सिस्टम इंडोनेशिया में भी है, जहाँ आपको अपने इलेक्ट्रॉनिक टिकट को स्टेशन पर लगी वेण्डिंग मशीनों में मिलने वाले पेपर टिकट से बदलना पड़ता है ।
ट्रान्स-साइबेरियन रेलवे यात्रा में एक और ख़ास बात पर ध्यान देना बहुत ज़रूरी है । इलेक्ट्रॉनिक टिकट हो या रेलवे का पेपर टिकट, ट्रेन का प्रस्थान समय मॉस्को के लोकल समय के अनुसार होता है । एक ऐसी ट्रेन जिसको कि कम से कम सात समय ज़ोन से गुज़रना हो, वहाँ यह ध्यान रखना बहुत ज़रूरी है । उदाहरण के लिए व्लाडिवॉस्टोक से मेरी ट्रेन का प्रस्थान टिकट पर समय 16 बजकर 52 मिनट लिखा हुआ था, लेकिन वास्तव में ट्रेन का वास्तविक प्रस्थान समय 23 बजकर 52 मिनट का था ( व्लाडिवॉस्टोक का समय मॉस्को से 7 घंटे आगे है) ।
ट्रान्स-साइबेरियन यात्रा की पहली कड़ी में व्लाडिवॉस्टोक से उलान-उदे की ट्रेन पकड़ने के लिए मैं एक बार फिर रात को नियत समय पर रेलवे स्टेशन पहुँच गया । मेरे एक बड़े सपने को साकार करने वाली ट्रेन पहले से ही प्लेटफ़ॉर्म पर खड़ी थी । ट्रेन के जाने में अभी एक घंटा बाक़ी था और वातावरण में ठंड बढ़ती जा रही थी । मैंने रात के अन्धेरे में प्लेटफ़ॉर्म और ट्रेन की कुछ और तस्वीरें ली और अपनी बोगी की तरफ़ बढ़ गया । ऑनलाइन टिकट बुक करते समय आपको ट्रेन के डिब्बे की श्रेणी, डिब्बे की ट्रेन में स्थिति, सीट नम्बर, बेडिंग रोल इत्यादि अपनी सुविधा और बज़ट के हिसाब से चयन करने की पूरी सुविधा होती है । ट्रान्स-साइबेरियन रेलवे की टिकट यात्रा से 45 दिन पहले से बुक कर सकते हैं। शाम को जिस 9288 किमी मार्कर की फ़ोटो मैं बड़े चाव से ले रहा था, वह प्लेटफ़ॉर्म पर वीरान सा खड़ा था। ऐसा लग रह था कि मेरे अलावा और किसी को उसमें कोई रूचि ही नही थी। ज़्यादातर स्थानीय यात्रियों के लिए यह रेल यात्रा उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का एक हिस्सा थी।
मेरी बोगी के बाहर रूसी रेलवे की यूनिफ़ॉर्म पहने एक महिला खड़ी थी । भारतीय रेलवे की तरह रूस की ट्रेनों में टीटीई नही होते हैं । भारतीय रेल के ए सी डिब्बों में जैसे अटेंडेंट होते हैं, वैसे ही रूस की ट्रेनों के हर डिब्बे में सामान्यतः एक अटेंडेंट (महिला या पुरुष) होता है, जिनको प्रोवोदनिक (Provodnik or Provodnitsa) कहते हैं । ट्रेन के प्रस्थान के पहले Provodnik मुख्य दरवाज़े के पास खड़े रहते हैं और टिकट चेक करते हैं । ट्रेन के अंदर सिर्फ़ उनको ही जाने की अनुमति होती है, जिनके पास एक वैध यात्रा टिकट होता है । एक बार अपनी सीट पर बैठ जाने के बाद फिर कहीं भी टिकट चेक नही होती है । व्लाडिवॉस्टोक के रेलवे प्लेटफ़ॉर्म पर मेरे डिब्बे के बाहर खड़ी महिला को मैंने अपना टिकट और पासपोर्ट दिखाया । सब चेक करने के बाद मुझे अंदर बोगी में जाने की अनुमति मिल गयी । चूँकि ऑनलाइन टिकट बुक करते समय ही सीट का चयन करने की सुविधा थी तो मैंने तृतीय श्रेणी में एक नीचे की सीट बुक कर ली थी । रूस की ट्रेनों में तृतीय श्रेणी भारतीय रेल की 2nd AC जैसा होता है, जिसमें मुख्य भाग में आमने-सामने 2 सीट का ब्लॉक ऊपर-नीचे और साइड में ऊपर-नीचे दो सीट होती हैं । ट्रेन के हर डिब्बे में AC और ब्लोअर की सुविधा होती है ।
लोअर बर्थ के नीचे समान रखने से पहले बर्थ को ढक्कन की तरह उठाना पड़ता है, जिसके नीचे बने कंपार्टमेंट में अपना सामान रखा जा सकता है । अपना बैकपैक रखकर मैं भी आराम से खिड़की के पास बैठ गया । थोड़ी देर बाद प्रोवोदनिक ने आकर मुझे चादर, कम्बल, तकिया इत्यादि पकड़ा दिया । नियत समय पर ट्रेन चल पड़ी । रात के 12 बज रहे थे और मैं दिन भर इधर-उधर घूमने के कारण थकान महसूस कर रहा था, तो मुझे नींद आने लगी । मैं बिना चादर बिछाए आँख मूँदकर लेट गया । क़रीब पाँच मिनट बाद प्रोवोदनिक ने मुझे जगाया और ग़ुस्से जैसी सूरत बनाकर सीट से उतरने को कहा । मेरे उठते ही उसने फटाफट चादर बिछा दी । मुझे ज़्यादा तो समझ नही आया, लेकिन लगा कि यहाँ बिना चादर बिछाए सोने पर लोग सोचते हैं कि कहीं सीट ना गंदी हो जाए ।
मैंने अपने इर्द-गिर्द नज़र डाली तो मेरे कम्पार्ट्मेंट में और कोई नज़र नही आया । सामने वाले बर्थ पर दो रूसी लड़के (मिखाइल और सर्गेई ) थे, जो बहुत शोर कर रहे थे । उन्होंने मुझसे कुछ कहा लेकिन मुझे समझ नही आया । उन लड़कों के शोर की वजह से नींद में ख़लल पड़ा तो मैं भी थोड़ी देर के लिए बैठ गया । बग़ल वाले कम्पार्ट्मेंट में एक जापानी लड़का और एक रूसी लड़की थी । संयोग से रूसी लड़की को अंग्रेज़ी आती थी, इसलिए वो हम लोगों के लिए एक अनुवादक की तरह काम करने लगी । जापानी लड़के और उस लड़की (नताशा) को खाबरोवस्क (Khabarovsk) तक जाना था, जहाँ हमें अगली सुबह पहुँचना था ।
मिखाइल और सर्गेई के साथ मुझे खाबरोवस्क से चलने के बाद क़रीब 12 घंटे तक रहना था । थोड़ी देर बाद मिखाइल ने वोदका की 2 लीटर की बोतल निकाली और पैग बनाना शुरू कर दिया । बहुत ज़ोर देने पर जापानी लड़का भी साथ में बैठ गया। ज्योंही उन लोगों ने पहला घूँट पीया, प्रोवोदनिक ग़ुस्से में आई और उस 2 लीटर की बोतल को उठाकर कूड़े में फेंक दिया । जापानी लड़का तो इस बात के लिए बिल्कुल तैयार नही था, इसलिए इस अप्रत्याशित घटना से डर गया । उसने जल्दी से अपना पैग ख़त्म किया और अपनी सीट पर वापस लौट गया ।
प्रोवोदनिक वोदका की बोतल फेंक कर चली रूसी भाषा में कुछ बड़बड़ाती हुई चली गयी । नताशा ने बताया कि वह रात को वोदका पीने के लिए मना कर रही थी । नताशा का घर खाबरोवस्क में था और 2 दिन के लिए वह भी व्लाडिवॉस्टोक घूमने गयी हुई थी । उसी से पता चला कि रूस में फ़ेसबुक ज़्यादा लोकप्रिय नही है, लेकिन ज़्यादातर लोग इन्स्टाग्राम और व्हाट्सएप का प्रयोग करते हैं । उसने बताया कि वह खाबरोवस्क में कोई कम्प्यूटर कोर्स कर रही थी ।
खाबरोवस्क और चीता जैसी जगहों से ज़्यादातर लोग छुट्टियाँ मनाने के लिए व्लाडिवॉस्टोक ही जाते हैं । प्रशांत महासागर के तट पर स्थित व्लाडिवॉस्टोक रूस के पूर्वी अंदरूनी ठंडे इलाक़ों के लिए सबसे पास में स्थित एक शानदार शहर है । मिखाइल और सर्गेई अंग्रेज़ी जानते नही थे तो उनसे ज़्यादा बात नहीं हो पा रही थी। वैसे भी वो दोनों दोस्त अपनी वोदका में ही मस्त थे । प्रोवोदनिक द्वारा पहली बोतल फेंक देने के बाद उन्होंने बैग से फिर 2 लीटर की एक और बोतल निकाली और चोरी से छुपा-छुपाकर वोदका का आनंद लेने लगे । थोड़ी देर बाद हम सब सो गए ।
सुबह शोरगुल सुनकर मेरी नींद खुल गयी । मिखाइल और सर्गेई सुबह-सुबह ही वोदका का लुफ़्त उठा रहे थे और बहुत शोर मचा रहे थे । उनके बोलने का लहजा ऐसा था कि मुझे बहुत डर लग रहा था । रूस जाने से पहले से ही मेरे मन में एक ऐसी छवि थी कि रूस के नौजवान कहीं नशे में धुत्त ना रहते हो और विदेशी पर्यटकों के साथ बदसलूकी ना करते हों । मॉस्को में तीन दिन और व्लाडिवॉस्टोक में दो दिन बीताने के बाद थोड़ी राहत ज़रूर महसूस हुयी थी, लेकिन फिर भी मन में एक डर बैठा हुआ था ।
एक छोटे से स्टेशन पर हमारी ट्रेन रुकी । नताशा भी अपनी बर्थ से उठकर हमारे कम्पार्ट्मेंट में आ गई । दोनों दोस्तों में से मिखाइल उतरकर डिब्बे से बाहर चला गया । उसके जाते ही सर्गेई एक चाक़ू निकालकर इधर-उधर फिराने लगा। मुझे कुछ समझ तो नही आ रहा था, लेकिन मन में डर सा बना हुआ था । मैंने कुछ नही कहा और चुपचाप बैठा रहा । कुछ देर बाद मिखाइल एक बड़ी सी उबली हुयी मछली लेकर आया और दोनों ने एक पेपर में लपेटकर चाक़ू से उसको कई हिस्से में बाँट दिया। फिर उन्होंने एक-एक टुकड़ा हमें भी दिया और हम सभी धीरे-धीरे स्वादिष्ट मछली का लुफ़्त उठाने लगे । रात से लेकर अब तक डरावना लग रहा डिब्बे का माहौल अचानक से दोस्ताना लगने लगा था । फिर तो मैं, मिखाइल और सर्गेई भाषा के अवरोध के बावजूद एक दूसरे से बात करने लगे थे । संकेतों की भाषा के लिए कोई अवरोध नही है । ज़रूरत पड़ने पर नताशा अनुवादक का काम कर देती थी ।
इस यात्रा से से पहले मुझे हमेशा से यही लगता था कि यूरोप और एशिया की सीमारेखा बनाने वाली यूराल की पहाड़ियों के परे रूस का सारा इलाक़ा ही साइबेरिया है लेकिन फिर ट्रान्स-साइबेरियन रेल यात्रा के दौरान पता चला कि नोवोसिबिरस्क (Novosibirsk) से बैकाल झील तक पहुँचते पहुँचते ही आधिकारिक रूप से साइबेरिया की सीमा ख़त्म हो जाती है और आगे व्लाडिवॉस्टोक तक के सारे इलाक़े को सुदूर पूर्व रूस (Far East Russia) के नाम से जाना जाता है । लेकिन सुविधा के लिए बड़े दृष्टिकोण में मॉस्को के आगे ओमस्क (Omsk) से लेकर एकदम पूर्व में स्थित व्लाडिवॉस्टोक तक का सारा क्षेत्र ही साइबेरिया समझ लिया जाता है।
ट्रेन की खिड़की के बाहर रूस की प्राकृतिक सुंदरता के दर्शन हो रहे थे। दूर- दूर तक फैले हुए घास के हरे- भरे मैदान और बीच-बीच में मिलते घने जंगलों (Aspen Trees वाले Taiga प्रदेश के वन ) के अलावा कुछ और नही नज़र आ रहा था। मिखाइल और सर्गेई की हरकतों के अलावा ज़्यादातर समय तो नज़र खिड़की से बाहर ही रहती थी । कभी कुछ अच्छा दृश्य दिखने पर चलती ट्रेन के अंदर से ही फ़ोटो खींच लेता था । कभी ट्रेन किसी स्टेशन से गुज़रती तो कोई छोटा सा गाँव नज़र आ जाता था । बड़े स्टेशनों पर तो ट्रेन का ठहराव 20-30 मिनट तक था, लेकिन छोटे स्टेशनों पर ट्रेन 2 मिनट से ज़्यादा नही रूकती थी ।
थोड़ी देर में ही हम नताशा के गंतव्य खाबरोवस्क पहुँच गए । दासविदानियाँ के साथ हमने नताशा को विदाई दी । जापानी लड़का भी अपने गिटार के साथ वहीं उतर गया। वहाँ ट्रेन काफ़ी देर तक खड़ी रही । प्लेटफ़ॉर्म पर रूसी सेना की यूनिफ़ॉर्म पहने बहुत सारे नौजवान खड़े थे । ज़्यादातर नौजवानों को इसी ट्रेन से आगे की यात्रा करनी थी और उनके परिवार वाले उन्हें विदा करने स्टेशन तक आए हुए थे । इस भीड़ के एक कोने में एक लड़की अपने पति (या ब्वायफ़्रेंड) के साथ चिपकी हुई रो रही थी । ट्रेन की खिड़की से दिख रहा विदाई का वह दृश्य बड़ा ही मार्मिक था । थोड़ी देर बाद सभी लड़के एक-एक कर ट्रेन के डिब्बों में घुसने लगे । मेरे डिब्बे में भी क़रीब 15-20 लोग चढ़े । व्लाडिवॉस्टोक से ख़ाली चल रही ट्रेन में अचानक से भीड़भाड़ हो गयी थी । उन नौजवान रूसी सैनिकों के साथ मेरा यह सफ़र क़रीब दो दिन तक रहने वाला था ।
अमूर नदी के किनारे बसा खाबरोवस्क कुछ साल पहले तक सुदूर पूर्व रूस का सबसे बड़ा शहर और प्रशासनिक केंद्र था, लेकिन अब इस क्षेत्र का सबसे बड़ा शहर और प्रशासनिक केंद्र व्लाडिवॉस्टोक है। खाबरोवस्क से चीन की सीमा मात्र 30 किमी दूर है । बल्कि व्लाडिवॉस्टोक से खाबरोवस्क तक के सफ़र में ट्रेन ज़्यादातर समय चीनी सीमा से 25-30 किमी दूर ही समानांतर चलती रहती है। खाबरोवस्क से निकलकर हमने अमूर नदी पर बने पुल को पार किया । पुल से अमूर नदी का विहंगम विस्तार नज़र आता है । क़रीब 100 साल पहले जब अमूर नदी पर पुल नहीं था तो ट्रान्स-साइबेरियन यात्रा के दौरान अमूर नदी के इस हिस्से को बड़ी नावों से पार करना पड़ता था । सर्दियों में जमी हुई अमूर नदी पर अस्थायी रेलवे पटरियाँ बिछाई जाती थी। लेकिन फिर इस पुल के बन जाने से यह यात्रा एकदम सुगम हो गई।
खाबरोवस्क से चलने के बाद मेरे कम्पार्ट्मेंट में अब सफ़र के साथी के रूप में मिखाइल और सर्गेई के अलावा बहुत सारे नौजवान सैनिक थे । वैसे तो तृतीय श्रेणी में कम्पार्ट्मेंट जैसा कुछ नही होता है, लेकिन फिर भी सहयात्रियों से ज़्यादा बातचीत तभी होती है, जब वो आपके आमने-सामने वाली सीटों पर यात्रा कर रहे हों। मिखाइल और सर्गेई का वोदका पीना और शोरगुल करना रूक ही नही रहा था । प्रोवोदनिक शायद इस बात से ज़्यादा परेशान हो गयी थी, इसलिए उसने इसकी शिकायत एक स्टेशन पर पुलिस से कर दी। कुछ देर बाद दो पुलिस वाले आए, उन लड़कों से कुछ पूछताछ की और फिर कुछ समझाकर चले गए । मेरे पल्ले कुछ भी नही पड़ा ।
इस घटना के बाद सर्गेई और मिखाइल थोड़ा शांत तो हो गए, लेकिन उनका वोदका का दौर बदस्तूर जारी रहा । बीच-बीच में सेना के नए रंगरूट भी उनके पास आकर वोदका के एक-दो पैग लगा लेते थे और दोनों अपनी बोतलों को खुले दिल से ख़ाली कर रहे थे । ट्रान्स-साइबेरियन यात्रा के दौरान हमें ट्रेन में चार-चार, पाँच-पाँच दिन तक लगातार सफ़र करना पड़ता है । अगर मॉस्को तक बीच में कही रुकने का मन नही हो तो यह सफ़र क़रीब आठ दिन का होता है । इसलिए इस यात्रा के दौरान खाने-पीने का प्रबंध विशेष रूप से करना पड़ता है । ट्रेन के अंदर भी कुछ कर्मचारी खाने-पीने का सामान घूम-घूमकर (भारतीय रेल के पैंट्री कार की तरह) बेचते रहते हैं, लेकिन उसकी क़ीमत बहुत ही ज़्यादा होती है । ऐसे कर्मचारी हर डिब्बे का दिन भर में ज़्यादा से ज़्यादा तीन चक्कर लगाते हैं ।
इस यात्रा के दौरान खाने-पीने के लिए या तो पहले से व्यवस्था करनी पड़ती है या फिर किसी स्टेशन पर ट्रेन के रुकने से प्लेटफ़ॉर्म पर उतरकर कुछ ख़रीदना पड़ता है । बड़े स्टेशनों पर तो खाने-पीने का अच्छा सामान मिल जाता है, लेकिन कई सारे छोटे स्टेशनों पर खाने-पीने के विकल्प बहुत कम होते हैं और ज़्यादातर समय उबली मछली, अंडे या सैंडविच से काम चलाना पड़ता है । कई बार तो दो स्टेशनों के बीच में 6-7 घंटे का अंतराल होता है, इसलिए सबसे बढ़िया उपाय यही है कि यात्रा शुरू करने के पहले ही खाने-पीने का कुछ सामान रख लिया जाए ।
ट्रांस-साइबेरियन यात्रा की योजना बनाने के लिए कुछ महत्वपूर्ण जानकारियाँ : Preparation For Trans-Siberian Railway Journey
ट्रान्स-साइबेरियन रेलमार्ग पर चलने वाली ट्रेनों के हर डिब्बे में साफ़ गरम पानी की आपूर्ति के लिए गीज़र जैसा एक बड़ा सा उपकरण लगा रहता है, जिसको स्थानीय भाषा में समोवर (Samovar) कहते हैं । समोवर से 24 घंटे खौलते हुए गरम पानी की आपूर्ति होती रहती है । इसलिए ज़्यादातर यात्री अपनी यात्रा के दौरान इंस्टैंट नूडल्स, टी बैग, शुगर क्यूब जैसी चीज़ों का स्टॉक लेकर चलते हैं । हर यात्री को रेलवे की तरफ़ से पानी लेने या चाय बनाने के लिए एक गिलास भी मिलता है । इस यात्रा में ज़्यादातर समय खाने के लिए नूडल्स और पीने के लिए चाय का विकल्प ही होता है । अगर कुछ अलग से खाने का मन करने लगे तो किसी स्टेशन पर ट्रेन के रुकने से प्लेटफ़ॉर्म पर उतरकर कुछ ख़रीदा जा सकता है । यात्रा शुरू करने से पहले कुछ फल भी ख़रीदकर रखा जा सकता है ।
खाबरोवस्क से चलने के बाद भीड़ ज़्यादा हो जाने के कारण मैं ज़्यादातर समय खिड़की के पास बैठा बाहर के नज़ारों का आनंद लेता रहा । बीच-बीच में झपकी भी ले लेता था । ऐसी ही ऊनींदी अवस्था में शाम के समय मिखाइल और सर्गेई ने दासविदानियाँ कहा और अपनी मंज़िल पर पहुँचकर उतर गए। तब तक मेरी अन्य सैनिकों के साथ दोस्ती भी हो चुकी थी । ज़रूरत पड़ने पर मैं समोवर से गरम पानी लेकर नूडल्स और चाय बना लेता था । उन रूसी सैनिकों को अंग्रेज़ी बिल्कुल नही आती थी, लेकिन हमने गूगल ट्रान्स्लेट का उपयोग करके बात करना शुरू किया ।
उन सभी नौजवानों की उम्र बीस-बाइस साल के आसपास थी । उन लोगों ने बताया कि कॉलेज ख़त्म करने के बाद वो सरकारी नियमों के अनुसार एक साल की अनिवार्य सैन्य सेवा के लिए नियुक्त किए गए हैं । अपनी इस यात्रा में उन्हें चीता के पास स्थित रूस-मंगोलिया-चीन सीमा के पास किसी निर्माण कार्य में हाथ बँटाना था। कॉलेज से निकलने के बाद नौजवानों का अनिवार्य सैन्य सेवा के लिए सेना में भर्ती होना व्यक्तिगत तौर पर जीवन बदलने वाला अनुभव होता है । सैन्य ज़िंदगी की विषम परिस्थितियाँ उन्हें भविष्य में जीवन की कठिनाइयों का सामना करने के लिए तैयार कर देती हैं । सैन्य सेवा से जुड़ने के बाद नौजवानों में देशभक्ति की भावना भी प्रबल हो जाती है । इन नए रंगरूटों में कई ऐसे भी थे, जो इस अनिवार्य सैन्य सेवा के नियम से ख़ुश नही थे । उनकी तनख़्वाह बहुत कम थी और भविष्य को लेकर मन में कई सारी आशंकाएँ भी थी ।
उनमें से दो-तीन नौजवान ऐसे भी थे, जिन्हें भारतीय फ़िल्मों में रुचि थी और वो अमिताभ बच्चन और शाहरुख़ खान जैसे अभिनेताओं की फ़िल्में देख चुके थे । बच्चन जी के देश से होने की वजह से हमारी बातों में बॉलीवुड भी घुस गया था और शाम ढलते-ढलते हम सब दोस्त बन चुके थे । मैंने रूस में यह बात नोटिस की कि एक भारतीय के नाते मैं रूसी युवाओं के व्यवहार को लेकर जितना डर रहा था, वैसे वहाँ कुछ भी नही था । भारतीय लोगों के साथ रूस के नागरिकों का व्यवहार बहुत ही आत्मीयता भरा था । आत्मीयता की इन कड़ियों को जोड़ने में मुख्य योगदान गोवा के समुद्री किनारों और अमिताभ बच्चन/शाहरुख़ खान की फ़िल्मों का है ।
रात को सबने अपनी सुविधानुसार डिनर किया और अपनी-अपनी सीटों पर जाकर सो गए । सुबह उठने पर एक बार फिर गहमाग़हमी शुरू हो चुकी थी । कोई समोवर से पानी लाकर चाय बना रहा था, तो कोई केवल गरम पानी के घूँट लगा रहा था , कुछ लोग नूडल्स भी बना रहे थे, तो कुछ ने पिछले स्टेशन से एक उबली मछली का जुगाड़ कर लिया था । मैंने भी गिलास में गरम पानी लिया और चाय बनाने लगा । सामने की सीट पर बैठे नौजवान ने पूछा कि टी बैग इंडिया से लाएँ हैं क्या, तो मैंने बताया कि नही, व्लाडिवॉस्टोक से ख़रीदा है । उसने भी चाय पीने की इच्छा ज़ाहिर की तो मैंने एक टी बैग उसको दे दिया । थोड़ी देर बाद मेरे टी बैग्स की माँग बढ़ गयी और मुझे उन लोगों को कई सारे टी बैग्स देने पड़े । बदले में उन्होंने मुझे शरबत जैसी कोई लाल रंग की चीज़ पीने को दी । तब मुझे पता चला की वो सब सुबह-सुबह चाय ना पीकर वो शरबत जैसी चीज़ पी रहे थे ।
खिड़की से बाहर एक के बाद एक छोटे-छोटे गाँवों , पहाड़ियों और जंगलों के बीच से गुज़रती जा रही थी । बाहर के नज़ारों का आनंद लेते-लेते मेरी एक बार फिर आँख लग गयी ।
क़रीब तीन घंटे बाद जब मेरी आँख खुली तो खिड़की से बाहर का नज़ारा देखकर मैं स्तब्ध रह गया । व्लाडिवॉस्टोक से दो दिन के सफ़र में मुझे घास के हरे-भरे मैदान, दूर-दूर तक फैले जंगल (जिन्हें हम भूगोल की किताबों में टैगा प्रदेश के नाम से जानते हैं), कई सारी नदियाँ और अनगिनत छोटे-छोटे गाँवों से गुज़रना पड़ा था, लेकिन यहाँ तो बाहर बर्फ़ की सफ़ेद चादर हर तरफ़ फैली हुयी थी ।
जिधर नज़र जाती उधर सिर्फ़ बर्फ़ से ढके जंगल, नदियाँ और पहाड़ नज़र आते थे । अचानक से ऐसा लगा कि मैंने किसी स्वप्नलोक में पहुँच गया हूँ। खिड़की से बाहर की सुंदरता से अभिभूत मैंने चली ट्रेन से ही बहुत सारी तस्वीरें खिंची । थोड़ा और आगे बढ़ने पर ट्रेन एक स्टेशन पर रूक गयी । हम सब अपने डिब्बे से बाहर निकलकर बर्फ़ के साथ खेलने लगे । ट्रेन की यात्रा के एक पड़ाव पर बर्फ़बारी का वह अद्भुत दृश्य था । बर्फ़ से तो मेरा पाला वैसे लेह और गुलमर्ग में पहले भी पड़ चुका था, लेकिन किसी ट्रेन यात्रा के दौरान पहली बार ऐसा हुआ जब अप्रत्याशित रूप से बर्फ़बारी देखने को मिली । उस दिन क़रीब पाँच घंटे तक हमारी ट्रेन बर्फ़ के प्रदेश से गुज़रती रही ।
सहयात्रियों से थोड़ी बातचीत, खिड़की से बाहर की तस्वीरें लेना, समोवर से पानी लेकर चाय-नूडल्स बनाना और बीच-बीच में झपकी ले लेना, हमारा पूरे दिन का रूटीन ऐसे ही चलता था । अगले दिन सुबह चीता पहुँचने पर रूसी सैनिकों ने विदा ली और अपने अगले गंतव्य उलान-उदे तक मैं अकेला ही रह गया । विदा होने से पहले यादगार के तौर पर वो लोग मुझे कुछ देना चाहते थे, लेकिन उनके पास था क्या उस समय? फिर एक सैनिक ने मुझे रूस की सेना का एक छोटा सा फ़्लैग भेंट किया जिसे बैज की तरह टाँक सकते थे । दूसरे सैनिक ने मुझे अपने सामान में से चार फ़्यूल सेल भेंट की । उन फ़्यूल सेल का वैसे तो कोई उपयोग नही था, लेकिन उनकी इस मिलनसारिता से मैं अभिभूत हो उठा ।
चीता से उलान-उदे के सफ़र में अभी भी दस घंटे बचे हुए थे। लेकिन आगे का पूरा सफ़र सूरज की रोशनी में हो रहा था और बाहर के नज़ारे बोरियत जैसी चीज़ होने नही दे रहे थे । चीता के बाद फ़र के जंगल और भी सुंदर नज़र आने लगे थे । बीच-बीच में पड़ने वाली छोटी-छोटी नदियाँ दिन के उजाले में उस पूरे इलाक़े की सुंदरता में चार चाँद लगा रही थी ।
चीता के बाद बस्तियाँ भी थोड़ा जल्दी-जल्दी नज़र आने लगीं । इन बस्तियों में सारे घर लकड़ी के बने थे, जिनके ऊपर टिन की ढलवाँ छतें बनी हुयी थी । इस तरह की ढालूदार छतें होने से बर्फ़बारी के दौरान बर्फ़ फिसलकर नीचे गिर जाती है । घरों के बाहर के ख़ाली इलाक़ों को लकड़ी की बल्लियों से घेरकर ख़ाली जमीन में रोज़मर्रा के काम जैसे सब्ज़ी उगना, लकड़ी काटना इत्यादि किए जाते थे ।
जिधर भी नज़र जाती थी उधर बस लकड़ियाँ ही नज़र आती थी, जिससे समझ में आता है कि इन जंगलों का यहाँ के निवासियों की ज़िंदगी में कितना महत्वपूर्ण योगदान है । बीच में लकड़ी के लट्ठों से लदी ट्रेनें भी बग़ल वाले ट्रैक से गुज़र जाती थी। कहीं-कहीं लकड़ी के कारख़ाने भी मिल जाते थे।
मेरे डिब्बे में अब इक्का-दुक्का लोग ही थे और बातचीत ना होने के कारण में बस बाहर के नज़ारों का आनंद लेता रहा । यह उस रेल यात्रा का जादू ही था जो क़दम-क़दम पर मंत्रमुग्ध किए पड़ा था । रोमांच के उन पलों में ना मैं अकेला था और ना ही भीड़ से भरा । सबसे कम आबादी वाले उन निर्जन जंगलों और मैदानों से गुज़रती ट्रेन में मैं अपनी ही धुन में मस्त खिड़की से बाहर देखे जा रहा था । दोपहर के 2 बजे मैं उस यात्रा के अंतिम पड़ाव पर पहुँच गया- उलान उदे ।
लेकिन उलान-उदे तक की यात्रा तो इस पूरी यात्रा का पहला भाग ही थी, क्योंकि उलान-उदे और उसके आसपास घूमने के बाद इस यात्रा का एक और चरण शुरू होने वाला था । किसी ट्रेन में बिना परिवार या साथी के साथ अकेले यात्रा करना बोरिंग हो सकता है, लेकिन ट्रांस-साइबेरियन रेल यात्रा का अपना एक रोमांच है । रूस के लोगों के लिए वह भले ही उनकी रोज़मर्रा की ज़िंदगी का एक हिस्सा हो, लेकिन बाक़ी दुनिया के लिये निश्चित रूप से ना भुला पाने वाली यादें हैं । उलान-उदे से आगे का सफ़र जारी रहेगा इस यात्रा के अन्य लेखों में ।
wait for next part keep it up
बेहतरीन जितनी सुलभ इस ट्रांस siberian रेलवे लाइन की यात्रा होने वाली है वो आपके लेख की शुरुआत पढ़ते ही संमझ में आ रहा है….कुछ महीनो पहले हमारे प्रधान मंत्री।मोदी जी जब vladivostak गए थे तब पहली बार मेने google करके इस शहर को जाना और तब में हैरान रह गया था कि यह कोरिया के पास है फिर ट्रांस साइबेरियन रेल के बारे में पढ़ते पढ़ते ullan ude को भी जाना
Tt के बदले क्या कहते है वो बताना या फिर भौगोलिक स्थिति बताना या फिर लंदन से वियतनाम का ट्रैन रूट…क्या कुछ नही है भाई इस लेख में..आपकी रिसर्च घूमक्कड़ी लेखन सबको सलाम भाई…. आप जबरदस्त हो…मजा आ गया पढ़ कर…
आपका लेख मेरी उसी study को आगे बढ़ाता लग रहा है…
बहुत अच्छा लिखा है दोस्त।
एक बार पढ़ना शुरू किया तो पढ़ता ही गया। आपके साथ हम पाठक भी यात्रा का आनंद ले रहे हैं। बेहतरीन, लाजबाब…..
अगली कड़ी का इंतजार रहेगा। ट्रांस साइबेरियन रेलवे के किराए और यात्रा में लगने वाले खर्च के विषय में भी थोड़ी जानकारी देने का कष्ट करें।
बहुत ही उम्दा यात्रा विवरण.. पढ़कर नजरे टैगा-2 हो गई.. अगले भाग की प्रतीक्षा में..
बहुत बढिया विवरण लिखा है आपने,,,बहुत वितार से । आपको जब भी पढता हूँ,,,अछा लगता है। वियालयी दिनों से इस रेल मार्ग के बारे जानता था,,भूगोल का student होने के कारण उन सभी station का नाम सुना था। पर आने सचित्र वर्णन कर आँखों के सामने लगा वो दृश्य पैदा कर दिए।