मेलाघर में स्थित नीरमहल घूमने के बाद मैं अपनी अगली मंज़िल उदयपुर के लिए निकल पड़ा, जो कि मेलाघर से 22 किमी की दूरी पर स्थित है । उदयपुर में मुझे मुख्य रूप से त्रिपुरा सुंदरी माता के दर्शन करने थे और क़स्बे के अंदर स्थित कुछ प्राचीन मंदिरों का भ्रमण करना था । राजस्थान वाले प्रसिद्ध उदयपुर की तर्ज़ पर त्रिपुरा के उदयपुर को भी झीलों का शहर कह सकते हैं, साथ ही साथ कई पुराने मंदिरों का शहर भी । त्रिपुरा सुंदरी माता ( त्रिपुरेश्वरी माता) का मंदिर उदयपुर ही नहीं बल्कि पूरे त्रिपुरा का सबसे पवित्र धार्मिक स्थल है। यह असम के गुवाहाटी में स्थित माँ कामाख्या धाम और मेघालय की जयन्तिया पहाड़ियों में स्थित माता जयंती मंदिर के बाद पूर्वोत्तर भारत में स्थित तीसरा शक्तिपीठ है ।
मेलाघर बाज़ार की बाहरी सीमा पर स्थित एक पेट्रोल पम्प के पास से सीधा रास्ता उदयपुर की ओर जाता है । अगरतला से चलते समय ही मेरे दोस्त ने मुझे बता दिया था कि किसी से रास्ता पूछते समय उदयपुर की जगह माताबारी पूछने से मैं त्रिपुरा सुंदरी माता के मंदिर तक आराम से पहुँच सकता हूँ । उदयपुर के बाहरी इलाक़े में स्थित इस मंदिर के आसपास का क्षेत्र माताबारी के नाम से ज़्यादा प्रसिद्ध है । स्कूटी चलाते समय बार-बार मोबाइल निकालकर गूगल मैप देखने की जगह मैं स्थानीय लोगों से ही रास्ता पूछना ज़्यादा पसंद करता हूँ । इससे एक तो फ़ालतू की असुविधा नही होती, दूसरे इसी बहाने स्थानीय लोगों से बातचीत करने का एक अवसर मिल जाता है ।
ऐसे ही एक तिराहे पर रास्ता पूछते समय एक ऑटो वाले ने सुन लिया और कहा कि मेरे पीछे-पीछे चलो, मैं भी उधर ही जा रहा हूँ । बस फिर मैं ऑटो के पीछे-पीछे चल पड़ा । मैं स्कूटी पर आराम से चल रहा था । ऑटो ख़ाली सड़क पर पूरी रफ़्तार से दौड़ रहा था । 2-3 बार तो ऐसा भी हुआ कि ऑटो 3-4 किमी आगे निकल जाता और फिर सड़क किनारे रुककर मेरे पहुँचने का इंतज़ार करता मिल जाता । ऑटो वाले को मेरी कुछ ज़्यादा ही परवाह हो रही थी । सच पूछो तो ऑटो वाले द्वारा इतना ध्यान दिए जाने से मुझे घबड़ाहट होने लगी थी । रास्ते को अंदाज़ा तो मुझे लग ही चुका था और किसी दुविधा की स्थिति में गूगल तो था ही । मैंने स्पीड और कम कर ली ताकि ऑटो वाला मुझे अनदेखा कर आगे निकल जाए । धीरे-धीरे वह मुझसे काफ़ी आगे निकल गया ।
लेकिन जब मैं धीरे-धीरे चलता उदयपुर से थोड़ा पहले रेलवे लाइन के किनारे पहुँचा तो वहाँ फिर ऑटो वाले को इंतज़ार करते पाया । उसने मुझे रेलवे लाइन के किनारे- किनारे एक सुनसान सड़क पर चलने को कहा । मैं दुविधा में फँस गया कि जाऊँ या ना जाऊँ । फिर उसने कहा कि मुख्य रास्ते से जाने से माताबारी दूर पड़ेगा और उसके बताए रास्ते से बहुत पास है । शाम को ४ बजे थे और अँधेरा होने में अभी क़रीब डेढ़ घंटे बचे थे । थोड़ी हिम्मत करके मैं ऑटो के पीछे हो लिया । मैंने स्पीड फिर कम कर ली, ताकि आगे सुनसान रास्ते पर कोई गड़बड़ समझ आए तो धीरे से कट लूँ । लेकिन वह सब बस मेरे मन का एक वहम ही था । उधर कोई भी दिक़्क़त नही थी । लेकिन फिर भी मेरा मानना है कि अकेले दूरदराज़ के सफ़र में किसी पर तुरंत भरोसा कर लेने से ज़्यादा अच्छा है कि थोड़ी सावधानी बरत ली जाए । थोड़ा आगे बढ़ते ही मुझे उदयपुर का रेलवे स्टेशन दिख गया । ऑटो वाला भी रेलवे स्टेशन ही जा रहा था ।
नया-नया बना उदयपुर रेलवे स्टेशन नितांत निर्जन इलाक़े में है । स्टेशन की इमारत की बनावट त्रिपुरा सुंदरी मंदिर की तरह ही है । मैं वहाँ रुककर स्टेशन की फ़ोटो खींचने लगा । त्रिपुरा सुंदरी मंदिर का शिखर रेलवे स्टेशन से ही नज़र आ जाता है । ऑटो वाले ने वही से मुझे मंदिर का शिखर दिखाकर रास्ता बता दिया, जो कि मुश्किल से डेढ़-दो किमी दूर रहा होगा, लेकिन अगर गूगल मैप पर देखे तो रेलवे स्टेशन से मंदिर की दूरी लगभग 8 किमी लम्बे रास्ते से तय करनी पड़ती है । मैंने ऑटो वाले को दिल से धन्यवाद दिया और आगे बढ़ गया । 10 मिनट से भी कम समय मे मैं त्रिपुरा सुंदरी माता मंदिर के सामने स्थित कल्याण सरोवर तक पहुँच गया ।
सरोवर के किनारे खड़ा मैं सोच ही रहा था कि पहले मंदिर के दर्शन कर लूँ या कहीं ठहरने का जुगाड़ करूँ कि तभी मेरी नज़र गुनाबाती यात्री निवास के साइनबोर्ड पर पड़ी ।मैं सबसे पहले वहीं चला गया । गुनाबाती यात्री निवास त्रिपुरा टूरिज़्म की प्रॉपर्टी है । ऑफ़ सीज़न होने के कारण वहाँ कोई भीड़ नहीं थी । यात्री निवास में रात्रि विश्राम के लिए कमरा क़रीब 600-800 रुपए में और डॉर्मिटॉरी में एक बिस्तर 100 रुपए में मिल जाता है । डॉर्मिटॉरी में 6 बिस्तर हैं, जिनपर मच्छरदानियाँ लगी रहती हैं। डॉर्मिटॉरी के अंदर ही क़रीब तीन शौचालय और तीन नहाने के कमरे हैं, जिन्हें 6 लोग साझा कर सकते हैं । सामान रखने के लिए दीवार में लकड़ी की कुछ आलमारियाँ बनी हैं, जिनमें सामान रखकर आप अपना ताला लगा सकते हैं । आलमारियाँ तो पर्याप्त संख्या में हैं, लेकिन उनमें से कई टूटी हुई थी । डॉर्मिटॉरी में उस समय कोई नहीं था, इसलिए सामान की सुरक्षा को लेकर मुझे ज़्यादा चिंता करने की ज़रूरत नहीं थी । वैसे किसी अन्य शहर में मैं जब भी हॉस्टल में रुका हूँ तो ज़्यादातर समय मैंने साथी घुमक्कड़ों को ईमानदार ही पाया है और आज तक मुझे अपने सामान की सुरक्षा को लेकर कोई बुरा अनुभव नहीं हुआ है ।
रात्रि विश्राम का जुगाड़ हो जाने के बाद मैंने उदयपुर घूमने की सोची । अँधेरा होने में अभी भी काफ़ी देर थी, तो मैंने सोचा की उदयपुर क़स्बे में स्थित कुछ प्राचीन मंदिरों का भ्रमण कर लूँ । त्रिपुरा सुंदरी माता का मंदिर रात को क़रीब 9 बजे तक खुलता है, और भीड़ ना होने के कारण वहाँ दर्शन करने में कोई समय नहीं लगना था, इसलिये मैंने सोचा कि वहाँ का दर्शन तो उदयपुर से आकर भी हो जाएगा ।
उदयपुर प्राचीन काल में त्रिपुरा राजघराने की राजधानी रही है और शहर का इतिहास कम से कम 1000 वर्ष पुराना है । पहले इसका नाम रंगामाटी था, जो बाद में रतनापुर के नाम से जाना गया । सोलहवीं शताब्दी में इसका नाम उदयपुर पड़ा । लम्बे समय तक त्रिपुरा राजघराने की राजधानी रहने के कारण उदयपुर में प्राचीन काल से ही बहुत सारे मंदिरों और सरोवरों का निर्माण किया जाता रहा है, जिनका अस्तित्व समय के साथ बनता -बिगड़ता रहा ।
मैं माताबारी से निकलकर उदयपुर के मुख्य क़स्बे की ओर बढ़ गया, मंज़िल थी भुवनेश्वरी मंदिर । लेकिन, भुवनेश्वरी मंदिर की तलाश में चलते-चलते मैंने एक सड़क पर ग़लत मोड़ लिया और मेरे सामने आ गया चतुर्दश देवता मंदिर । मंदिर के प्रांगण में पुराने बने हुए 3-4 छोटे-छोटे मंदिर थे, जिनके दरवाज़ों पर ताला लगा हुआ था । वहीं बैठे एक व्यक्ति से पूछने पर पता चला कि इन प्राचीन मंदिरों के द्वार बंद ही रहते हैं । इन सबके बग़ल में एक नया मंदिर बनाकर अब वहाँ पूजा-अर्चना होती है । प्राचीन समय से ही चतुर्दश देवता की पूजा पूरे त्रिपुरा में बहुत धूम-धाम से होती रही है । राज्य में चतुर्दश देवता के भूले-बिसरे अनेकों मंदिर हैं, जिनमें सबसे प्रमुख मंदिर प्राचीन अगरतला शहर में स्थित चतुर्दश देवता मंदिर है ।
मंदिर से बाहर निकलते ही सामने एक बड़ा सा सरोवर धानी सागर दिखा । तालाब तक पहुँचने के लिए पक्की सीढ़ियाँ बनी हुयी हैं । तालाब के किनारे सीढ़ियों पर कोई कपड़े धुल रहा था, दूसरी तरफ़ कोई बर्तन माँज रहा था , पास में ही कुछ लोग नहा भी रहे थे । इस तरह के सरोवरों में स्थानीय लोगों के रोज़मर्रा के जीवन की एक झलक दिख जाती है । उदयपुर में ऐसे कई सरोवर हैं । त्रिपुरा राजवंश के राजा शुरू से ही बहुत धार्मिक प्रवृत्ति वाले रहे हैं, इसलिए उन्होंने अपनी राजधानी में सरोवरों और उनके किनारों पर मंदिरों का जमकर निर्माण करवाया । उनमें से कुछ सरोवर जैसे धानी सागर, अमर सागर, जगन्नाथ दिघी, महादेव दिघी इत्यादि तो समय के थपेड़ों में ख़ुद का अस्तित्व बचाने में सफल रहे, लेकिन ज़्यादातर छोटे तालाब और सरोवर या तो कचरा डालने के स्थान बन गए या फिर अंधाधुँध अवैध निर्माण की भेंट चढ़ गए ।
धानी सागर से मैं एक बार फिर भुवनेश्वरी मंदिर की ओर बढ़ा । रास्ते में सड़क के किनारे ही तीन छोटे-छोटे प्राचीन मंदिरों का एक समूह मिला । पहले तो मुझे लगा कि वही भुवनेश्वरी मंदिर है, लेकिन फिर वहीं मंदिर प्रांगण में घूम रहे एक सज्जन ने बताया कि वह गुनाबाती मंदिर समूह है । मंदिर आकर में छोटे-छोटे ही थे और उनकी संरचना लगभग एक जैसी थी । हर मंदिर के ऊपर एक अर्धवृत्ताकार आकृति जैसी छत है और फिर उनके ऊपर स्तूप जैसा बड़ा सा मुकुट । तीनों मंदिरों के दरवाज़ों पर ताला लगा हुआ था, पता चलता है कि अब उनमें पूजा नही की जाती है ।
गुनाबाती से आगे चलकर मैं भुवनेश्वरी मंदिर पहुँच गया । क़रीब तीन फ़ुट ऊँचे चबूतरे पर बना यह मंदिर आकर और संरचना में गुनाबती समूह के मंदिरों से ही मिलता जुलता है । मंदिर के रखरखाव का ज़िम्मा पुरातत्व विभाग के पास है और ऐसा लगा रहा था जैसे कि कुछ समय पहले ही भुवनेश्वरी मंदिर का व्यापक तौर पर जीर्णोधार किया गया है । मंदिर के दरवाज़े पर लगा ताला इस बात की तस्दीक़ कर रहा था कि अब वहाँ पूजा-अर्चना नहीं की जाती । इस मंदिर का ज़िक्र गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने अपने उपन्यास ‘राजश्री’ और ड्रामा ‘बिसर्जन’ में करके इसकी मौजूदगी को सदा के लिए अमर कर दिया । मंदिर के सामने ही गुरुदेव के सम्मान में उनकी एक प्रतिमा भी लगी हुई है ।
भुवनेश्वरी मंदिर के सामने एक विस्तृत क्षेत्र में कभी पर्यटक सुविधाओं जैसे पर्यटक शेल्टर, शौचालय, वॉच टावर इत्यादि को विकसित किया गया था, जो कि उचित रखरखाव के अभाव में अब टूट-फूट गयी हैं । वॉच टावर से नीचे बहती गुमती नदी की घाटी का विहंगम दृश्य दिखता है । अभी तो ठंड और पतझड़ का मौसम होने के कारण सामने पहाड़ी पर स्थित जंगल और नीचे बहती नदी वीरान से लग रहे थे, लेकिन बारिश के मौसम में इनकी ख़ूबसूरती देखते ही बनती होगी ।
भुवनेश्वरी मंदिर के सामने सड़क के दूसरी तरफ़ महाराजा गोविंद माणिक्य के महल के खंडहर हैं । खंडहर की एकदम जीर्ण शीर्ण अवस्था में है, उनकी जानकारी देने के लिए कोई सूचना पट्ट भी नही है । इससे पता चला है कि खंडहरों की देखभाल उचित तरीक़े से नही की जाती है ।
भुवनेश्वरी मंदिर के आस पास घूमने के बाद मैं वापस माताबारी आ गया । अँधेरा घिरने के साथ ही मंदिर परिसर में श्रद्धालुओं की भीड़ ना के बराबर हो गई थी । मंदिर कहने को तो एक पहाड़ी के ऊपर बना है, लेकिन पहाड़ी की ऊँचाई मुश्किल से 100 फ़ीट होगी । यह मंदिर हिंदू धर्म के 51 शक्तिपीठों में से एक है । ऐसा माना जाता है कि भगवान शिव के तांडव नृत्य के दौरान माता सती का दाहिना पैर यहाँ गिरा था । इस मंदिर का निर्माण 15वीं शताब्दी के अंत में राजा धन्य माणिक्य द्वारा करवाया गया । घनाकार कमरे के ऊपर गुम्बद और उसके ऊपर एक कलशनुमा संरचना वाले मुख्य मंदिर आकार में बहुत बड़ा नही है । मंदिर जिस पहाड़ी पर बना है, उसकी संरचना कछुए ( कूर्मा) के कूबड़ की तरह है, इसलिए इस मंदिर को कूर्मा पीठ भी कहा जाता है । कहा जाता है कि मंदिर में प्रतिष्ठित माता त्रिपुरेश्वरी की मूर्ति वर्तमान में बांग्लादेश में स्थित चिटगाँव से लाकर यहाँ स्थापित की गई ।
मंदिर तक जाने वाली सीढ़ियों के पास ही प्रसाद बेचने वाली कई दुकाने हैं, जहाँ जूता- चप्पल उतार सकते हैं और फिर प्रसाद लेकर आगे जा सकते हैं । प्रसाद के रूप में मुख्यतः पेड़े का चढ़ावा चढ़ता है । वहीं स्थित एक दुकान से मैंने प्रसाद के रूप में पेड़ा ख़रीदा और त्रिपुरेश्वरी माता के दर्शन के लिए आगे बढ़ गया । भीड़भाड़ ना होने के कारण दर्शन करने में मुझे मुश्किल से दस मिनट का समय लगा होगा । मंदिर प्रांगण में पशुओं की बलि देने की भी परम्परा है, जो प्राचीन समय से ही चली आ रही है ।
त्रिपुरा सुंदरी मंदिर के सामने सड़क के दूसरी ओर एक विशाल सरोवर है, जिसे कल्याण सागर के नाम से जाना जाता है । मंदिर के समान ही कल्याण सागर भी यहाँ पहुँचने वाले श्रद्धालुओं के लिए बहुत पूज्यनीय है । प्रसाद बेचने वाली दुकानों पर इस सरोवर का जल रखा रहता है । दुकानदार दर्शन के लिए जाने से पहले उस जल से हाथ धुलवाते हैं । कल्याण सागर में मछली पकड़ने पर पूर्णतया पाबंदी है, इसलिए यहाँ कई प्रजातियों की मछलियाँ और कछुये तैरते हुए दिख जाते हैं । कहते हैं कि कुछ कछुओं का आकार तो बहुत विशाल है । सरोवर परिसर की सुंदरता को बढ़ाने के लिए इसको हर तरफ़ से पक्की सीढ़ियों से घेर दिया गया है, जहाँ अक्सर श्रद्धालु बैठकर मछलियों को चारा खिलाते या सरोवर की सुंदरता को निहारते दिख जाते हैं । दीवाली के समय यहाँ एक विशाल मेला लगता है, जिसमें त्रिपुरा के कोने-कोने से लोग माता त्रिपुरेश्वरी के दर्शन के लिए पहुँचते हैं ।
कल्याण सागर घूमने के पश्चात मैं वापस गुनाबाती यात्री निवास गया । वहाँ पता चला की डॉर्मिटॉरी में मेरे अलावा कोई नहीं था और अब किसी के आने की उम्मीद भी नहीं थी । मंदिर परिसर के आस पास ही खाने-पीने की कई सारी दुकानें हैं । खाने के लिए चाऊमीन, रोल्स, पराँठा से लेकर चावल-दाल और माँस-मछली जैसे विकल्प हैं, लेकिन मुझे त्रिपुरा में पिछले 2 दिन के अनुभव से लगा कि चावल- दाल खा लेना ज़्यादा सही है । डिनर करके निकलते समय तक सड़कों पर हर तरफ़ सन्नाटा पसर चुका था, इसलिए वहाँ अब बाहर रहने का कोई मतलब नहीं था । मैं भी यात्री निवास के अपने बिस्तर में घुस गया ।
अगले दिन मैंने माताबारी से दम्बूर झील की राह पकड़ी, जो कि गुमती नदी का उद्गम स्थल भी है । दम्बूर झील के बाद मैंने अमरपुर के पास स्थित छबिमुड़ा का भ्रमण किया और अनछुए जंगलों के बीच बहती गुमती नदी में नाव की सवारी भी की । वो सब अनुभव अगली पोस्ट में साझा करूँगा ।
मुझे भी आपके जैसी आदत है मुझे गूगल मैप की बजाए लोकल से रास्ता पूछना अच्छा लगता है इसकी वजह से कई बार मुझे लोकल रास्ता बताने के साथ साथ कई ऐसी जानकारी देते है जो मुझे बहुत helpful लगती है…माता बारी बोलना सही input था ऐसा ही लोकल जैसा….ऑटो वाले से डर सही है…उदयपुर स्टेशन की building बहुत ज्यादा पसंद आयी…त्रिपुरा का नाम शायद त्रिपुर सुंदरी से ही पढ़ा है ऐसा कही पढ़ा था….ग़ज़ब किस्मत है डोरमेट्री में कोई नही मिला और ऐसे अकेले फककड़ो की तरह घूमने में अलग ही मजा है…मुझे भी बहुत मजा आता है ऐसे ही घूमने में….कुर्मा पीठ और उसका कछुए की पीठ जैसा पहाड़ का होना आपकी जानकारी को बहुत अच्छा बना देती है….दाम्बुर झील जंगल अनछुए छबिमुडा गुमटी नदी में नाव की सवारी क्या रोमांचक यात्रा लगती है…त्रिपुरा में सिर्फ अगरतला पता था और नीर महल भी में अगरतला में ही समझता था…मेलाघर विश्रामगढ़ उदयपुर मताबारी त्रिपुर मंदिर और जो आप त्रिपुरा घुमा रहे हो अब मेरे जेहन में यह त्रिपुरा हमेशा के लिए अंकित हो गया और कोई यचेगा6तो बता भी सकूंगा अब अच्छे से जानकारी…बेहद उम्दा जानकारियो से भरा लेख….उनाकोटी का कही कोई जिक्र नही…अगले भाग की प्रतीक्षा में
जी ज़रूर, जल्दी ही उनकोटी के बारे में भी लिखूँगा 🙂
वाह…… त्रिपुरा की आपकी यात्रा बहुत अच्छी चल रही है ….. आपने सही कहा की किसी अंजान पर आसानी से भरोसा नहीं करना चाहिए…. पर उस ऑटो चालक ने आपको त्रिपुरेश्वरी मन्दिर तक जाना आसान कर दिया…. आपने उदयपुर के छोटे छोटे बंद हो चुके मंदिरों का वर्णन करके सही किया …. बाकी आपकी यात्रा आपके लिए खूबसूरत चित्रों से झलक रही है …. मेरे ख्याल से त्रिपुरा में दिन जल्दी ढल जाता होगा….
हाँ, यहाँ भी उत्तर-पूर्व वाला ही हिसाब है । शाम को अँधेरा जल्दी हो जाता है । अकेले चलने में भरोसे वाला जोख़िम रहता ही है । इसलिए कई बार कदम फूँक-फूँक कर रखने पड़ते हैं।
अहा. बहुत विस्तार से उदयपुर की यात्रा कराई है आपने. ये ऑटो वाला क़िस्सा मेरे साथ भी हो चुका है. दुनिया के अनुभव तो सावधान रहना ही सिखाते हैं. मैं अभी तक त्रिपुरा नहीं जा पाया हूँ. सो आपकी नज़र से ही त्रिपुरा दर्शन होंगे. अच्छा लिखा है आपने
धन्यवाद सौरभ जी, आप तो इधर-उधर उड़ते ही रहते हैं । आशा है कि जल्दी ही पहुँच जाएँगे त्रिपुरा भी 🙂