इस बार गुवाहाटी से जब अपने पैतृक घर जाने की योजना बना रहा था तो दिमाग में अचानक से एक विचार आया कि क्यूँ ना दो दिन की छुट्टी बढ़ाकर रास्ते में ही पड़ने वाले बोधगया और आस पास के स्थानों का भ्रमण करता चलूँ। सामान्यता मैं गुवाहाटी से कोलकाता फ्लाइट द्वारा और फिर कोलकाता से बनारस ट्रेन द्वारा जाता हूँ। बनारस की सीधी फ्लाइट ना होने से भी इस तरह से हम शाम को गुवाहाटी से चलकर सुबह-सुबह बनारस पहुँच जाते हैं। इससे जेब पर भी ज्यादा भार नहीं पड़ता और समय भी बच जाता है। गुवाहाटी से बनारस का सीधा ट्रेन का सफ़र वैसे तो 20-22 घंटे का है, लेकिन अक्सर ट्रेनों की लेटलतीफी के कारण इसको 30 घंटे में बदलते देर नही लगती।

मैंने गया में रहने वाले अपने दोस्तों से बात की, फटाफट एक योजना बनी और टिकट बुक हो गई। तय हुआ कि किसी दोस्त से स्कूटी या बाइक लेकर एक दिन बोधगया और बराबर (वाणावर) की गुफाएं घूम लूंगा, फिर अगले दिन नालन्दा, पावापुरी और राजगीर निपटा दूँगा। उसके बाद रात में किसी ट्रेन से वाराणसी के लिए निकलना था। इस तरह दो दिन की छुट्टियां भगवान बुद्ध के नाम कर देने से बिहार के विश्वप्रसिद्ध बौद्ध परिपथ की एक झलक मिल जाती।

नियत दिन पहले हवाई जहाज से कोलकाता और फिर वहाँ से रात वाली एक ट्रेन पकड़कर मैं अगले दिन सुबह-सुबह गया जंक्शन पहुँच गया। रुकने की व्यवस्था स्टेशन पर ही स्थित रेलवे के अधिकारी विश्राम कक्ष में होने से रात्रि विश्राम की बहुत चिंता नही थी। लेकिन स्टेशन पर रुकने की वजह से किसी दोस्त से स्कूटी या मोटरसाइकिल लेकर घूमने की योजना में एक बदलाव आ गया था। अब जब मैं गया पहुँचा, तो वहाँ मुझे घुमाने के लिए एक ड्राइवर कार के साथ पहले से ही मौजूद था। ऐसा बहुत कम होता है जब मैं इतनी लक्ज़री के साथ घूमता-फिरता हूँ। यह सारी व्यवस्था पटना में रहने वाले हमारे जीजा जी की मेहरबानियों की वजह से थी।

पहले दिन के कार्यक्रम में सुबह-सुबह बोधगया और दोपहर में बराबर की गुफाओं का भ्रमण करना था। लेकिन नाश्ता करते-करते जीजा जी भी साथ घूमने के लिए बोलने लगें। अपने तय कार्यक्रम में थोड़ा सा बदलाव करते हुए हमने पहले बराबर की गुफायें घूमने का निर्णय लिया।

नाश्ते के बाद हम बराबर की तरफ निकल पड़े। इस यात्रा के पहले भी 2-3 बार ट्रेन में बैठकर मैं बिहार से गुजर चुका था, लेकिन हर बार बिहार से रात के अँधेरे में ही गुजरना हुआ था। इस तरह गया से बराबर गुफाओं की वह यात्रा बिहार से मेरा पहला वास्तविक परिचय थी।

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मानसून के दौरान सड़क के दोनों किनारे जगह-जगह धान के ताजा-ताजा पानी से भरे खेत नज़र आ रहे थे। बीच-बीच में पड़ती बस्तियों और बाजारों की भीड़भाड़ के मध्य से सड़क का यातायात धीरे-धीरे निकलता जा रहा था । फिर भी एक पर्यटक के दृष्टिकोण से ऐसा कुछ भी नहीं था कि मन एकदम प्रसन्न हो जाए। गया से बेलागंज की तरफ का वह सफ़र मन को बिल्कुल भी नहीं भा रहा था, इसलिए मैं तो ज्यादातर समय ऊँघता ही रहा ।

बिहार में धान के हरे-भरे खेत
बिहार में धान के हरे-भरे खेत

बेलागंज पार करने के बाद सड़क श्रीपुर की ओर घूम जाती है, जहाँ सड़क पर यातायात थोड़ा कम हो जाता है। सड़क की स्थिति अच्छी ही रहती है और सरपट भागती गाड़ी से सड़क के दोनों तरफ के दृश्यों में छोटी-छोटी पहाड़ियाँ भी नजर आने लगती हैं। खेतों के बीच अचानक से उठती पत्थरों से भरी एक छोटी पहाड़ी एकदम अलग ही लग रही थी। फिर उस पहाड़ी के परे छोटी-छोटी पहाड़ियों का एक जाल फैला हुआ था। हम अंदाजा लगा रहे थे कि बराबर की गुफाएं उन पहाड़ियों में से किसमें हो सकती हैं। निर्जीव से लगने वाले दृश्यों में जैसे किसी चित्रकार ने जान फूँक दी थी और आँखों की नींद एकाएक गायब हो गई।

श्रीपुर की मुख्य सड़क से दिखती बराबर की पहाड़ियाँ
श्रीपुर की मुख्य सड़क से दिखती बराबर की पहाड़ियाँ

श्रीपुर से थोड़ा पहले हम बराबर वाली सड़क पर घूम गए। मुख्य सड़क से जाफरा गाँव होते हुए बराबर की दूरी मुश्किल से डेढ़ किमी होगी। जाफरा गाँव के कच्चे-पक्के मकानों, गोबर के उपलों को बारिश से बचाने के लिए बनाये गए फूस के छप्परों, हरे-भरे खेतों के बीच से निकलती सड़क पर बस इक्का-दुक्का गाड़ियाँ ही नजर आती थी। थोड़ी देर में हम बराबर पहाड़ियों के नीचे उस प्रवेश द्वार पर थे जहाँ गाड़ियों से पार्किंग शुल्क वसूला जाता है।

जाफरा गाँव की झलक
जाफरा गाँव की झलक

बराबर पहुँचते ही हमें एक झटका सा लगा। रास्ते में सड़कों पर तो ज्यादा भीड़भाड़ नहीं दिखी थी, लेकिन वहाँ बराबर में तो हर तरफ केसरिया कपड़े पहने कांवड़ियों का हुजूम नजर आ रहा था। सड़क से तो लगा ही नही था कि वहाँ इतना बड़ा मेला लगा हो सकता है। जिधर देखो उधर ही लोगों का समूह दिख रहा था। जगह-जगह लगे हुए सूचना बोर्ड से पता चला कि वह भीड़ बराबर (बाणावर) के श्रावणी मेले की थी। उन सूचना बोर्डों से ही यह भी समझ आया कि इस जगह के नाम का उच्चारण ‘बराबर’ नही बल्कि ‘बाणावर’ है।

बराबर की पहाड़ियाँ
बराबर की पहाड़ियाँ

कांवड़ियों का हुजूम देखकर हमें लगा कि हम गलत साइड में आ गए हैं। बराबर की गुफाएँ उधर ना होकर पहाड़ी के दूसरी तरफ कहीं और ही होंगी। कुछ लोगों से बराबर की गुफाओं के बारे में पूछताछ की तो उन्होंने अनभिज्ञता जाहिर कर दी। फिर एक महाशय ने कहा कि शायद आप लोग सतघरवा (सात घर शब्द का ग्रामीण रूप) की बात कर रहे हैं। तब जाकर पता चला कि बराबर की पहाड़ियों में 3-4 नहीं , बल्कि सात गुफाएँ हैं, जिन्हें स्थानीय लोग सतघरवा के नाम से जानते हैं। इनमें से चार गुफायें तो बराबर की पहाड़ी में हैं और बाकी की तीन गुफाएँ करीब 2 किमी की दूरी पर स्थित नागार्जुन पहाड़ी पर हैं। सम्मिलित रूप से सातों गुफाओं को सतघरवा का नाम दे दिया गया है।

यह तो समझ आ गया कि हम बराबर की गुफाओं तक पहुँच गयें, लेकिन सतघरवा में ऐसा क्या है, जो कावड़ियों का जत्था का जत्था वहाँ चला आ रहा है? फिर पता चला कि गुफाओं से आगे सिद्धनाथ पहाड़ी पर भगवान शिव का एक मन्दिर, बाबा सिद्धनाथ मंदिर है । वह सारी भीड़ सावन के महीने में शिव मंदिर में जल चढ़ाने जा रहे श्रद्धालुओं की थी। केसरिया टोली के उस सैलाब में हम भी आगे बढ़ते रहे। एक लंबे अरसे के बाद शुद्ध देशी मेले में घूमने का अवसर मिला था। सालों पहले जब दिल्ली की गलियों ने अपने मायाजाल में नहीं फँसाया था तो गाहे बेगाहे अपने कस्बे और गाँव के मेलों में ऐसी ही अनुभूति होती थी।

बाणावर श्रावणी मेले का एक दृश्य
बाणावर श्रावणी मेले का एक दृश्य

कुछ देर बाद बिहार पर्यटन का सरकारी गेस्ट हाऊस दिखा, जिसपर जगह का नाम बराबर लिखा था। दिमाग फिर से घूम गया कि यह जगह ‘बराबर’ है या ‘बाणावर’। फिर याद आया कि नाम में रखा ही क्या है? यह बराबर हो या बाणावर हो, इससे फर्क नहीं पड़ता । यह पहाड़ियाँ तो भारतीय इतिहास के भूले-बिसरे पन्नों की एक अत्यंत ही दुर्लभ झलक है। मुझे पूरा विश्वास है कि बाणावर श्रावणी मेले की उस भीड़ में आने वाले 90 प्रतिशत लोगों को सतघरवा की महत्ता का तनिक भी अंदाजा नहीं रहा होगा। वो तो भगवान शिव की साधना में लीन सिर्फ सिद्धनाथ मंदिर के दर्शन की चाह में वहाँ पहुँच जाते हैं। ज्यादातर तो मंदिर के रास्ते से बिल्कुल सटे होने के बावजूद बराबर की गुफाओं का रूख भी नही करते हैं ।

हाथ में जल लिये शिवभक्त
हाथ में जल लिये शिवभक्त

मेले की झलकियों का आनन्द लेते-लेते थोड़ी देर में ही हम बराबर की गुफाओं के पास पहुँच गए। बराबर में कर्ण गुफ़ा, सुदामा गुफ़ा, विश्वझोपड़ी और लोमस नाम की चार गुफाएँ हैं। चारों गुफाएँ ग्रेनाइट की एक ही बड़ी सी चट्टान के अंदर अलग-अलग बनाई गई हैं। गुफाओं का निर्माण काल करीब 2400 वर्ष पुराना सम्राट अशोक के समय का है। इतिहासकार मानते हैं कि बराबर की गुफाएँ चट्टानों को काटकर इंसान के द्वारा बनाई गई पहली गुफाएँ हैं और इनके अस्तित्व में आने के बाद ही गुफा निर्माण की कला को बढ़ावा मिला। कुछ इतिहासकार राजगीर में स्थित सोन भंडार के पहली गुफा होने का दावा भी करते हैं । लेकिन इसमें कोई मतभेद नहीं कि यह बराबर का सतघरवा ही था, जिसने कालांतर में अजंता, एलोरा और बाघ की विश्वप्रसिद्ध गुफाओं का मार्ग प्रशस्त किया ।

बराबर गुफाओं वाली ग्रेनाइट की बड़ी चट्टान
बराबर गुफाओं वाली ग्रेनाइट की बड़ी चट्टान

ईसा पूर्व तीसरी शताब्दी में सम्राट अशोक का शासनकाल बौद्ध धर्म का स्वर्णिम युग था और बौद्ध धर्म का प्रचार-प्रसार अपने चरम पर था । लेकिन बावजूद इसके सम्राट अशोक के समय समाज में धार्मिक सहिष्णुता भी व्याप्त थी और अशोक की तरफ से हर तरह के सम्प्रदायों को प्रश्रय मिला । हर धर्म-सम्प्रदाय को अपनी-अपनी क्षमता से बढ़ने की पूर्ण आजादी थी । उसी समय काल में बिहार की सरजमीं से ही निकलकर जैन धर्म भी प्रसिद्ध हो रहा था। लेकिन इन दोनों महान विचारकों के साथ-साथ ही समाज के एक बड़े वर्ग पर महान विचारक मक्खलि गोसाल का भी प्रभाव था । गोसाल के विचारों ने एक अन्य सम्प्रदाय को जन्म दिया जिसे आजीवक या अजीविका (ajivika) का नाम दिया गया ।

ऐसा माना जाता है कि आजीविक नग्न रहते और परिव्राजकों की तरह घूमते थे। ईश्वर, पुनर्जन्म और कर्म यानी कर्मकांड में उनका विश्वास नहीं था। आजीवक मानते थे कि संसारचक्र नियत है, वह अपने क्रम में ही पूरा होता है और मुक्तिलाभ करता है। आजीवक पुरुषार्थ और पराक्रम को नहीं मानते थे। उनका मानना था कि मनुष्य की सभी अवस्थाएं नियति के अधीन है। कालांतर में तो अजीविका का नामोनिशान ही खत्म हो गया, लेकिन ऐसा समझ जाता है कि चार्वाक, कबीर और रैदास जैसे मध्यकालीन दार्शनिक भी इसी नास्तिकवादी और भौतिकवादी परंपरा के थे ।

सम्राट अशोक के समय में आजीविकों के सामाजिक प्रभाव का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि सम्राट अशोक ने अजीविका धर्म के अनुयायियों को प्रश्रय देने के लिए ही बराबर की इन चार गुफाओं का निर्माण करवाया। बाद में अशोक के पुत्र दशरथ ने नागार्जुन पहाड़ी पर तीन और गुफाओं का निर्माण करवाया और इस तरह से इतिहास में एक अध्याय सतघरवा के नाम से जुड़ गया।

गुफाओं के पास पहुँचते ही सबसे पहले कर्ण चौपर गुफा के दर्शन होते हैं। गुफा का प्रवेश द्वार मिश्र (Egypt) शैली में बना हुआ है । प्रवेश द्वार से ही गुफा की चमचमाती दीवार दिखती है। मैं और मेरे सहयात्री अंदाजा लगाते हैं कि गुफा को पानी के रिसाव से बचाने के लिए पुरातत्व विभाग ने गुफा की अंदरूनी दीवारों पर पॉलिश करवा दी होगी । वो तो थोड़ी देर बाद हमें वहाँ कार्यरत एक बुजुर्ग ने बताया कि पॉलिश पुरातत्व विभाग ने नहीं , बल्कि सम्राट अशोक ने ही निर्माण के दौरान करवाई थी । हम सब अवाक रह गये । कर्ण चौपर गुफा की वो दीवार 2400 वर्षों से वैसे ही चमक रही है ।

कर्ण चौपर गुफा की चमचमाती पॉलिश वाली भीतरी सतह
कर्ण चौपर गुफा की चमचमाती पॉलिश वाली भीतरी सतह

कर्ण चौपर गुफा के बगल में ही एक छोटी सी चट्टान पर दो मानव आकृतियाँ और एक शिवलिंग उकेरा गया है । वही एक शिलालेख के अनुसार इस पहाड़ी को सलाटिका के रूप में जाना जाता था । बराबर की गुफाओं का समय काल तो सम्राट अशोक के समय का है, लेकिन इनका नामकरण तो निश्चित ही बाद के वर्षों में हुआ है । कर्ण चौपर गुफा वाली साइड में ही एक और गुफा है, जिसको विश्व झोपड़ी के नाम से जाना जाता है ।

कर्ण चौपर गुफा के पास चट्टान  पर उकेरे गये चित्र
कर्ण चौपर गुफा के पास चट्टान पर उकेरे गये चित्र

कर्ण चौपर गुफा के बगल से थोड़ी सीढियाँ चढ़कर हम गुफा के दूसरी तरफ पहुँच गये। उधर लोमस गुफा और सुदामा गुफा नाम की दो गुफाएँ हैं । पहले हम अंतिम छोर पर स्थित लोमस ऋषि की गुफा की तरफ जाते हैं । यह बराबर की चारों गुफाओं में सबसे भव्य है और इसका श्रेय जाता है गुफा के मेहराबदार प्रवेश द्वार को । चट्टानी गुफाओं के सर्वप्रथम उदाहरण और वो भी इतने भव्य मेहराबदार (Chaitya Arch) के साथ, भारतीय वास्तुकला का यह अत्यंत ही उत्कृष्ट नमूना है । गुफा का प्रवेश द्वार लोहे के एक बड़े से पोर्टेबल बैरियर को अड़ाकर बंद किया गया था , लेकिन तभी एक बुजुर्ग ने आकर ताला खोल दिया और हमें अंदर घूमने का मौका मिल गया ।

लोमस ऋषि गुफा का मेहराबदार द्वार
लोमस ऋषि गुफा का मेहराबदार द्वार

गुफा के अंदर अजंता या एलोरा की तरह कोई कलाकृतियाँ नही हैं। ग्रेनाइट की कठोर चट्टानों को काटने के अलावा और कुछ भी विशेष बात नजर नही आती है। हर गुफा का सबसे मुख्य आकर्षण उच्च-स्तरीय पॉलिश युक्त आतंरिक दीवार और गुफा के अन्दर गूंज का रोमांचक प्रभाव है। ऐसी ही उच्च-स्तरीय पॉलिश सम्राट अशोक के भारत भर में मिलने वाले अशोक स्तम्भों में भी नजर आती है ।

लोमस ऋषि गुफा का अंदरूनी हिस्सा
लोमस ऋषि गुफा का अंदरूनी हिस्सा

लोमस ऋषि गुफा में दो कक्ष हैं । पहला कक्ष उपासकों के लिए एक बड़े आयताकार हॉल में एकत्र होने के इरादे से बनाया गया था । दूसरा एक छोटा, गोलाकार, गुम्बदयुक्त कक्ष पूजा के लिए था । दोनों ही कक्ष अब बिल्कुल खाली पड़े हैं । लोमस ऋषि की गुफा चारों गुफाओं में एकमात्र गुफा है, जहाँ सम्राट अशोक का कोई शिलालेख नहीं है । ऐसा समझा जाता है कि सम्भवतः लोमस गुफा का निर्माण पूरा नहीं हो पाया होगा । लेकिन इस गुफा की दीवार पर 5वीं शताब्दी में अनंतवर्मन द्वारा खुदवाया गया भव्य शिलालेख मौजूद है ।

लोमस ऋषि गुफा के प्रवेश द्वार पर अनंतवर्मन का लेख
लोमस ऋषि गुफा के प्रवेश द्वार पर अनंतवर्मन का लेख

लोमस ऋषि गुफा के पास में एक अन्य गुफा है, जिसे सुदामा गुफा कहते हैं । बराबर की गुफाओं में यह सबसे प्राचीन गुफा है । अशोक के समय का शिलालेख आज भी गुफा की दीवारों पर मौजूद है । अंदर वाले हिस्से में इसमें भी दो कक्ष हैं और चमचमाती पॉलिश वाली दीवार बरबस ही ध्यान आकृष्ट करती है । गुफा के अंदर दीवार पर घोड़ों के लगभग चार चित्र भी उकेरे गये हैं ।

सुदामा गुफा में घोड़ों का चित्रण
सुदामा गुफा में घोड़ों का चित्रण

गुफाओं से निकलकर हम सिद्धनाथ मंदिर के रास्ते पर आगे बढ़ गए। सावन के महीने में बराबर के भूले-बिसरे गाँव में वो चहल -पहल गुफाओं की वजह से नहीं बल्कि पहाड़ी पर स्थित उस प्राचीन मंदिर की वजह से ही थी । मंदिर की प्राचीनता के बार में कई मतभेद हैं, लेकिन मंदिर परिसर में स्थित एक शिलालेख के अनुसार मंदिर निर्माण की प्रक्रिया सम्भवतः गुप्त काल में ही शुरू हो गयी थी । बाबा सिद्धनाथ के मंदिर की बहुत मान्यता है । शिव पुराण के अनुसार भगवान शिव के अलग-अलग क्षेत्रों में नौ अवतार हुए हैं । बाबा सिद्धनाथ भी शिव के ऐसे ही अवतार थे, जिन्होंने बराबर की पहाड़ियों को अपना निवास बनाया । बाबा सिद्धनाथ को नाथों का नाथ मना जाता है । सच्चे मन से मंदिर में पूजा-अर्चन करने से भक्तों की मनोकामना अवश्य पूर्ण होती है । साल में दो बार सावन के महीने में और नागपंचमी के अवसर पर बराबर गाँव शिव के भक्तों के जयकारों से गुंजायमान हो उठता है ।

बराबर गुफाओं से दिखता बाबा सिद्धनाथ मंदिर
बराबर गुफाओं से दिखता बाबा सिद्धनाथ मंदिर
बाबा जी की बूटी: बाणावर मेले में बिकती भांग

बराबर के सतघरवा की बाकी तीन गुफाएँ नागार्जुन पहाड़ी पर स्थित हैं, जो बराबर से करीब 2 किमी दूर हैं । बाद में सम्राट अशोक के पुत्र दशरथ द्वारा बनवाई गई नागार्जुनी गुफाएँ बराबर गुफाओं से छोटी हैं और उतनी भव्य भी नहीं हैं । समयाभाव के कारण हम नागार्जुनी गुफाओं की तरफ नहीं जा पाए और बराबर के मेले में घूमकर वापस गया आ गए ।

विश्वप्रसिद्ध अजंता की गुफ़ाओं से एक मुलाक़ात: Trip To Ajanta Caves in Maharashtra

गया से बराबर (बाणावर) के लिए पब्लिक ट्रांसपोर्ट : गया से बराबर पब्लिक ट्रांसपोर्ट से जाना हो तो पहले गया बस स्टैंड से श्रीपुर की बस लेनी पड़ती है। बराबर मोड़ से श्रावणी मेले के समय तो ऑटोरिक्शा मिल जाता है, लेकिन बाकी के महीनों में श्रीपुर तक जाकर वहाँ से ऑटोरिक्शा रिज़र्व करके ही बराबर पहुँच सकते हैं। श्रीपुर से रिज़र्व ऑटोरिक्शा का किराया 100-150 रूपये एक तरफ का लगता है । मुख्य सड़क से डेढ़ किमी पैदल चलकर ऑटोरिक्शा रिज़र्व किए बिना भी बराबर पहुँचा जा सकता है ।

बराबर में रात्रि विश्राम: अगर बराबर की गुफाओं का विस्तार से अध्ययन करना हो तो सबसे उपयुक्त विकल्प बराबर में स्थित बिहार टूरिज्म का गेस्ट हाउस है । वैसे गया और बराबर के बीच की दूरी ज्यादा नहीं होने से गया में रहकर भी बराबर की गुफाओं को घूमा जा सकता है, लेकिन बराबर की पहाड़ियों के पास स्थित गेस्ट हाउस में रहने से गया शहर की भीड़ भाड़ से बचा जा सकता है ।

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  1. बराबर पर्वत भारतवर्ष के पुरातन ऐतिहासिक पर्वतों में एक है। 1100 फुट ऊंचे बराबर पर्वत को मगध का हिमालय भी कहा जाता है। यहां सात अदभुत गुफाएं भी बनी हुई है। जिनका पता अंग्रेजों के कार्यकाल में चला । इनमें से चार गुफाएं बराबर गुफाएं एवं बाकी तीन नागार्जुन गुफाएं कहलाती है।

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