अपनी त्रिपुरा यात्रा के दौरान दम्बूर झील , अमरपुर और छबिमुड़ा घूमकर मैं वापस उदयपुर पहुँच गया था । त्रिपुरा एक छोटा सा राज्य है, जिसके कारण 5-7 दिन में यहाँ के कई पर्यटन स्थलों का भ्रमण हो जाता है । उदयपुर में त्रिपुरा सुंदरी माता मंदिर के पास स्थित गुनाबाती यात्री निवास पिछले दो दिन से मेरा ठिकाना था । अब सुबह मुझे फिर अपने अगले गंतव्य की ओर निकलना था । हर दिन की तरह उस सुबह भी गंतव्य को लेकर संशय की स्थिति थी । जब हम बिना किसी योजना के यात्रा करते हैं और अपनी अगली मंज़िल का पता नही होता है, तो हर सुबह ऐसी ही दुविधा सामने आती है कि आज कहाँ जाएँ? मेरे साथ भी यही होता है । लेकिन ऐसे बिना ज़्यादा योजना बनाए बस झोला उठाकर चल देने में ही एक अलग मज़ा है । इस तरह की यात्रा में दिल भी आज़ाद और पैर भी आज़ाद, बस दिमाग़ को थोड़ा काम करना पड़ता है, अन्यथा पूरी यात्रा गुड़गोबर हो सकती है ।
बिना योजना बनाए झोला उठाकर निकल पड़ने वाली यात्राएँ भी दो प्रकार की होती हैं, एक तो जिसमें वापस लौटने की कोई जल्दी नही होती है और जब तक बजट साथ दे, हम सड़कों की ख़ाक छानते रहते हैं । इस तरह वाली यात्रा में तो दिमाग को भी ज़्यादा चिंता करने की ज़रूरत नही होती है, कहीं भी पड़े रहो, किधर भी बढ़ते रहो । लेकिन ऐसी यात्राएँ सबके नसीब में कहाँ होती हैं ? ज़्यादातर लोग तो दूसरी वाली श्रेणी में आते हैं, जो बिना किसी योजना के निकल तो पड़ते हैं, लेकिन उनके पास वापसी का एक टिकट होता है । उस दिन उन्हें वापसी करनी ही होती है, क्योंकि उसके बाद रोज़ी-रोटी चलाने के लिए ऑफ़िस जाना होता है । ऐसी यात्राओं में पूर्व योजना भले ना बनी हो, लेकिन यात्रा के दौरान दिमाग़ खुला रखना होता है, ताकि तय समय में जहाँ तक सम्भव हो घूम के वापस आ जाएँ । अगर इस श्रेणी वाले लोग भी पहली श्रेणी वाले लोगों की तरह बेतकल्लुफ़ हो जाएँ, तो अनुभव खराब रहने की सम्भावना बढ़ जाती है । एक अन्य श्रेणी वाले लोग भी होते हैं , जिनका यात्रा के दौरान एक-एक मिनट का हिसाब और गंतव्य सब घर से निकलने से पहले ही तय होता है । ऐसे लोगों को चिंता करने की कोई ज़रूरत नही रहती है, क्योंकि उनकी सहायता के लिए टूर ऑपरेटरों की पूरी फ़ौज ही खड़ी है ।
अब वापस अपने सफ़र की तरफ़ चलता हूँ । त्रिपुरा में मेरे पास बस एक दिन का समय बचा था, जिसमें मुझे उदयपुर से अगरतला पहुँचकर अगरतला के स्थानीय आकर्षणों का भ्रमण करना था । लेकिन साथ ही साथ जब भी मैं गूगल मैप देखता था, तो दिल में एक विचार आता था कि जैसे भी हो उदयपुर से सबरूम जाने वाले NH-8 पर स्कूटी दौड़ा लूँ और त्रिपुरा के दक्षिण में स्थित आख़िरी क़सबे सबरूम की सैर करता चलूँ । सबरूम, उदयपुर से मात्र 80 किमी दूर है । अपने रात्रि पड़ाव के दौरान आसपास वालों से पूछताछ की तो लोगों ने बताया कि सड़क की स्थिति तो बड़ी अच्छी है, लेकिन ऐसी स्थिति सबरूम तक है या उसके पहले तक, यह कोई बता नही पा रहा था । उदयपुर में NH-8 पर अच्छा ख़ास निर्माण कार्य चल रहा था, जिसके कारण मन में संशय था कि उदयपुर से आगे सबरूम तक की तरफ़ रास्ता अच्छा होगा या नहीं । काफ़ी सोचविचार के बाद यह तय किया कि मैं NH-8 पर सबरूम की तरफ़ बढ़ूँगा । अगर रास्ता अच्छा हुआ तो सबरूम जाने और वापस आने में 4 घंटे लगेंगे और अगर रास्ता अच्छा नहीं हुआ तो जहाँ से भी ख़राब रास्ता मिलेगा वही से वापस आ जाऊँगा ।
उदयपुर से सबरूम के रास्ते पर बढ़ते हुए मैं इंतज़ार ही करता रह गया कि रास्ता अब ख़राब होगा, अब ख़राब होगा । लेकिन, इस पूरे सेक्शन में NH-8 बहुत ही उम्दा हालत में है । फ़र्राटे से दौड़ती स्कूटी से मैंने इस तरफ़ स्थित आख़िरी रेलवे स्टेशन वाले क़सबे गरजी को पार किया । मेरी यात्रा के दौरान तो अगरतला से आने वाली सवारी गाड़ी गरजी तक ही चलती थी, लेकिन फ़िलहाल पिछले महीने ही इसका विस्तार बेलोनिया तक किया जा चुका है । जल्दी ही रेलवे लाइन का विस्तार सबरूम तक हो जाएगा और फिर अगरतला से सबरूम की यात्रा रेलगाड़ी से भी सम्भव हो जाएगी । ऐसा भी सुना है कि भविष्य में इस रेलवे लाइन को बांग्लादेश के चिटगाँव रेलवे लाइन से जोड़ा जा सकता है । फिर तो यहाँ से चिटगाँव और कॉक्स बाज़ार की यात्रा बड़ी आसान हो जाएगी। सबरूम से चिटगाँव लगभग 100 किमी दूर है ।
थोड़ा और आगे जाने पर सड़क किनारे एक बोर्ड मिला, जिससे पता चला कि मैं कर्क रेखा ( Tropic of Cancer ) को पार कर रहा था । कर्क रेखा भारत में गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, पश्चिम बंगाल, मिज़ोरम इत्यादि राज्यों से भी गुज़रती है और मैंने इसको अनजाने में 2-3 बार पहले भी सड़क मार्ग द्वारा पार किया होगा, लेकिन इस तरह का साइन बोर्ड मुझे पहली बार मिला । बाक़ी अन्य जगहों पर मैं इसको नोटिस करना भूल गया । वैसे कर्क रेखा को पार करना कोई विशेष घटना नही है और ना ही कर्क रेखा पार करते ही दूसरी तरफ़ कोई परिवर्तन दिखने लगता है ।यह सड़क किनारे लगा एक साइन बोर्ड मात्र है, लेकिन ऐसे साइन बोर्ड से बस यह पता चलता है कि हाँ, कर्क रेखा भी कोई चीज़ होती है, और फिर उसके बारे में थोड़ा पढ़ने और जानने का मन करने लगता है । मैंने भी वापसी के बाद इसी बहाने कम से कम कर्क रेखा (Tropic of Cancer) , भूमध्य रेखा (Equator)और मकर रेखा (Tropic of Capricon) जैसे टॉपिक की थोड़ी-बहुत पढ़ाई कर उन्हें समझने की कोशिश की ।
आगे बढ़ता मैं जोलाइबारी तक पहुँच गया । वहाँ पहुँचकर मन में ख़याल आया कि पिलक गाँव में स्थित बौद्ध विहार के अवशेष भी देखता चलूँ। सड़क किनारे खड़े 2-3 लोगों से पिलक के बारे में पूछा तो वो बता नही पाए । एक ने जोलाइबारी मार्केट के अंदर पहुँचने का रास्ता दिखा दिया । एक जीप स्टैंड को पारकर मैं जोलाइबारी क़स्बे में दाख़िल हुआ तो मुझे सबसे पहले त्रिपुरा टूरिज़्म का एक गेस्ट हाउस मिला, जिसका नाम ही पिलक टूरिस्ट लॉज (Pilak Tourist Lodge) है । मुझे लगा कि पिलक अग़ल-बग़ल ही कहीं है । लेकिन कही कोई साइन बोर्ड नही दिख रहा था । थोड़ा आगे बढ़ने पर लगा कि मैं फिर NH-8 पर ही पहुँचने वाला हूँ । तभी 2 लड़के आते हुए दिख गए । उनमें से एक ने बताया कि NH-8 पर ही क़रीब 2 किमी और आगे जाने पर पिलक गाँव को जाने वाला रास्ता है और वहाँ एक साइन बोर्ड मिलेगा । मैं फिर पिलक गाँव की ओर बढ़ गया ।
पिलक में मिलने वाले पुरातात्विक अवशेषों का त्रिपुरा के इतिहास में बड़ा महत्व है । आमतौर पर त्रिपुरा का इतिहास त्रिपुरा के माणिक्य राजवंश के इतिहास के साथ लगभग 15वीं शताब्दी से शुरू होता है, लेकिन पिलक में मिलने वाले बौद्ध और हिन्दू धर्म से जुड़ी मूर्तियाँ और अन्य अवशेष 8वीं से 12वीं शताब्दी के हैं । पिलक में मिले इन अवशेषों से यह ज़ाहिर होता है कि माणिक्य राजवंश शुरू होने के पूर्व भी त्रिपुरा में बौद्ध और हिन्दू धर्म का अच्छा प्रचार-प्रसार था और दोनों का समन्वय भी बहुत बेहतरीन था ।
सबसे पहले मैं सड़क के किनारे ही स्थित एक बौद्ध विहार के अवशेषों को देखने गया, जिसको श्याम सुंदर टीला के नाम से जाना जाता है । ईटों से बने इस बौद्ध विहार के निचले हिस्से पर कई सारे पैनल हैं, जिनपर पशु-पक्षियों और फूल-पत्तियों के चित्र उकेरे गए हैं । इसी जगह से भगवान बुद्ध की एक 3 सेमी ऊँची ताँबे की प्रतिमा भी मिली, जो आजकल त्रिपुरा राजकीय संग्रहालय की शोभा बढ़ा रही है । बौद्ध विहार के खंडहर के बग़ल में एक टीन शेड के नीचे अवलोकितेश्वर की एक मूर्ति भी रखी हुई है, जो यहीं खुदाई के दौरान प्राप्त हुई थी । उपेक्षित से रहने वाले इस खंडहर में मेरे अलावा और कोई भी पर्यटक नही था ।
वहाँ से निकलकर मैं गाँव में अंदरूनी हिस्से में आगे बढ़ा । सड़क के दोनों तरफ़ ताड़ के छोटे-छोटे पेड़ लगे हैं । पेड़ों के बीच से गुज़रता रास्ता और किनारे-किनारे धान के काट जाने के बाद सुनहले दिख रहे या पानी से भरे खेत बड़े ही सुहाने लग रहे थे । सड़क के किनारे 2-3 जगह छोटी-छोटी पुरातात्विक महत्व के अवशेषों वाली जगहें हैं ।
पिलक आडिटोरियम से आगे बढ़ने पर सड़क के किनारे ही एक अन्य पुरातात्विक स्थल नज़र आता है । अंदर जाने पर बरगद का एक विशाल पेड़ है और चारों तरफ़ अलग-अलग टीन शेडों के नीचे खंडित मूर्तियाँ हैं । यह स्थल पुरातत्व विभाग द्वारा संरक्षित तो है, लेकिन इस स्थान के बारे में किसी तरह की सूचना देने वाली कोई सामग्री मौजूद नही है । मैं टीन शेडों के पास घूम-घूमकर कुछ समझने की कोशिश कर ही रहा था कि एक सज्जन आए और उस स्थान के बारे में बताने लगे । उनके अनुसार वहाँ स्थित 9 टीन शेडों में पहले 9 देवताओं के मंदिर थे । अब तो मूर्तियाँ देखकर कुछ समझ नही आता, लेकिन एक टीन शेड के नीचे देखने से शिवलिंग ज़रूर समझ में आया । मंदिरों वाले उस पुरातत्व स्थल को देखकर मैं वापस NH-8 की तरफ़ चल पड़ा ।
पिलक घूमने के बाद सबरूम जाने की इच्छा ख़त्म हो गई । NH-8 पर जोलाइबारी तक पहुँचने में ही मज़ा आ गया था । कर्क रेखा को पार कर ही चुका था । समय ज़्यादा बचा नहीं था और अगरतला की तरफ़ भी जगह -जगह बांग्लादेश बॉर्डर ही दिखना था, इसलिए बॉर्डर का भी कोई क्रेज़ नहीं था। यही सब सोचकर मैंने सबरूम जाने का इरादा त्याग दिया । इससे मेरे डेढ़- दो घंटे बच जाने थे । सबरूम NH-8 के आख़िरी छोर पर स्थित भारत का अंतिम क़स्बा है । आज से 4-5 साल पहले तक सबरूम एक छोटा सा क़स्बा था, जहाँ पहुँचने तक अच्छी सड़क ना होने के कारण विकास की कोई सम्भावना नहीं थी । यहाँ फेनी नदी भारत और बांग्लादेश के बीच एक बॉर्डर का काम करती है । फेनी नदी पर पुल बनाकर सबरूम को बांग्लादेश के चिटगाँव बंदरगाह से जोड़ने की तैयारी चल रही है । चिटगाँव से जुड़ जाने के बाद सबरूम के रास्ते अंतराष्ट्रीय व्यापार करने की सम्भावनाएँ बढ़ जाएँगी । पतले से सिलीगुड़ी कॉरिडोर द्वारा शेष भारत से जुड़े पूर्वोत्तर भारत के विकास के लिए इस तरह के व्यापारिक मार्ग बहुत ही महत्त्वपूर्ण हैं । यहीं वजह है कि त्रिपुरा का यह उनिंदा सा क़स्बा सबरूम आज पूर्वोत्तर के विकास की एक महत्त्वपूर्ण कड़ी साबित होने जा रहा है ।
पिलक के बौद्ध अवशेषों को देखकर मैं वापस उदयपुर की तरफ़ चल पड़ा । जोलाइबारी से थोड़ा आगे सड़क किनारे एक बोर्ड दिखता है : मुहूरिपुर, 6.5 किमी । मुहूरिपुर में एक राज राजेश्वरी मंदिर है, जिसके बारे में मुझे अपनी यात्रा के बाद पता चला । अगर पहले पता होता तो मैं वहाँ भी ज़रूर जाता, क्योंकि राज राजेश्वरी देवी की मूर्ति भी अपने आप में बड़ी अनोखी है । टाइम्स ऑफ़ इंडिया की एक रिपोर्ट के अनुसार पिलक के पुरातात्विक अवशेषों में एक नाम चण्डी ( Chundi) देवी की मूर्ति का भी है । पहले यह मूर्ति एक स्थानीय अखाड़े के सन्यासी को मिली, जिन्होंने अपने शिष्यों के साथ उसे ‘राज राजेश्वरी’ देवी का नाम देकर कई सालों तक विधि-विधान से पूजा अर्चना की । फिर उस मूर्ति को मुहूरिपुर (Muhuripur) में राज राजेश्वरी मंदिर बनवाकर वहाँ स्थापित कर दिया गया । 6 फ़ीट लम्बी इस मूर्ति का वज़न काम से कम से एक टन है । कई विशेषज्ञ यह मानते हैं कि 18-भुजाओं वाली वह मूर्ति वास्तव में 8वीं सदी की एक महायान बौद्ध प्रतिमा है, जिसकी पूजा अब एक हिन्दू देवी के रूप में की जाती हैं । 18-भुजाओं वाली किसी और मूर्ति के बारे में कोई भी जानकारी नही है ।
उदयपुर से अगरतला के रास्ते में मुझे सड़क के किनारे ही क़स्बा कालीबारी में स्थित काली माँ के मंदिर की ओर जाने का रास्ते दिखाता एक बोर्ड नज़र आया, तो मैं अगरतला ना जाकर भारत-बांग्लादेश की सीमा पर स्थित इस पवित्र मंदिर की ओर बढ़ गया । इस मंदिर के बारे में अगले पोस्ट में लिखूँगा ।
पब्लिक ट्रांसपोर्ट द्वारा पिलक कैसे जाएँ? अगरतला से सबरूम का रास्ता बड़ी उत्तम स्थिति में होने के कारण इस रूट पर शेयर्ड बसें और जीप बड़े आराम से मिल जाते हैं । अगरतला से पिलक जाने के लिए उपलब्ध विकल्प निम्नलिखित हैं :
पब्लिक बस/जीप: अगरतला या उदयपुर से शेयर्ड बस/जीप पकड़कर सीधे जोलाइबारी जा सकते हैं । अगर रात्रि विश्राम का कार्यक्रम ना हो तो जोलाइबारी उतरने की जगह जोलाइबारी से क़रीब 2 किमी आगे उतरना ज़्यादा अच्छा रहेगा । सड़क पर बने एक लोहे के बड़े से पुल के आगे से ही पिलक के लिए रास्ता मिल जाता है । मुख्य सड़क से श्याम सुंदर टीला तो मुश्किल से आधा किमी की दूरी पर होगा, लेकिन मंदिरों वाला खंडहर वहाँ से क़रीब 3-4 किमी दूर है । उधर जाने के लिए साधन मिलने में दिक़्क़त हो सकती है । सबसे अच्छा तो यही होगा कि जोलाइबारी से ही एक रिज़र्व ऑटो करके पिलक का भ्रमण किया जाए।
ट्रेन: पिलक का सबसे नजदीकी रेलवे स्टेशन जोलाइबारी है । अभी यहाँ तक ट्रेन का विस्तार नही हुआ है, क्योंकि अभी रेलवे ट्रैक का निर्माण कार्य चल रहा है । अभी तो ट्रेन फ़िलहाल बेलोनिया तक ही चलती है । शीघ्र ही यह ट्रेन सेवा जोलाइबारी और आगे सबरूम तक बढ़ा दी जाएगी ।
पिलक घूमने के दौरान रुकने के विकल्प : पिलक तो एक गाँव है, जहाँ रुकने की कोई व्यवस्था नही है । निकटतम गेस्ट हाउस 2 किमी दूर स्थित जोलाइबारी में त्रिपुरा टूरिज़्म का ‘पिलक टूरिस्ट लॉज’ है , जहाँ 100 रुपए में डोरमेट्री में एक बिस्तर और 600 -900 रुपए में एक कमरा मिल जाता है ।
जब मंजीलो का पता नही और झोला उठा कर चलो तो उसका मजा ही कुछ और है….सबरूम जाने की इच्छा पुरी नही हो सकी आपकी…पिलक ही दिखा दिया यही क्या कम है….त्रिपुरा तक बोध धर्म का विस्तार था उस जमाने में भी…बहुत बढ़िया त्रिपुरा घुमाया भाई आपने बस उनाकोटी ही रह गया….बढ़िया जानकारियो से भरी बेहद उम्दा पोस्ट….