मेघालय की गारो पहाड़ियों का प्रमुख शहर तुरा वैसे तो गुवाहाटी से मात्र दो सौ किमी दूर है, लेकिन इस सफ़र को तय करने के लिए मुझे लगभग तीन साल तक इंतज़ार करना पड़ा। ऐसा नही था कि गारो पहाड़ियों में घूमने का मन नही कर रहा था। मैंने तो जब से सीजू गुफ़ा के बारे में पढ़ा था, तभी से वहाँ पहुँचने की प्रबल इच्छा थी। फिर भी वहाँ पहुँच नही पाया था।
गारो पहाड़ियों में ना घूमने का प्रमुख कारण मन में एक डर का होना था । जब भी मैं मोटरसाइकिल से ऊधर घूमने की अपनी योजना के बारे में गुवाहाटी में स्थानीय दोस्तों या सहकर्मियों को बताता, तो सब यही सलाह देते थे कि गारो पहाड़ियों में अकेले घूमना ख़तरनाक है। गारो पहाड़ियाँ लम्बे समय तक जनजातीय संघर्ष की गवाह रही हैं । इस सदी के शुरुआती दशक, बल्कि वर्ष 2015 तक गारो पहाड़ियों के कई हिस्सों में लोग जाने से कतराते थे, क्योंकि अपहरण और फिरौती जैसी घटनाएँ चरम पर थी। जब सरकार ने रैट होल माइनिंग (Rat-Hole Mining) पर प्रतिबन्ध लगाकर अवैध कोयला खदानों को बन्द करवाया तब जाकर राज्य की समानांतर अर्थव्यवस्था की कमर टूटनी शुरू हुयी और गारो पहाड़ियों में शान्ति आनी शुरू हुई।
जनजातीय संघर्ष के समय मुख्य तनाव गारो (Garo) और राभा (Rabha) जनजातियों के बीच था। राभा मुख्यतः मेघालय-असम के सीमावर्ती इलाक़ों में रहते हैं, इसलिए असम के गोआलपारा, बोको जैसे इलाक़ों के दोस्तों की बातें माननी ही पड़ी। उन्होंने हमेशा यही समझाया कि गारो पहाड़ियों में स्थानीय लोगों का व्यवहार मित्रवत नही है और अकेले में मोटरसाइकिल छीन भी सकते हैं। बस यही वजह थी कि मैं कभी तुरा की तरफ़ नही गया। पिछले तीन साल ले मैंने पूर्वोत्तर भारत के हर राज्य में क़दम रखे, कई जगह अच्छे से घूम आया, लेकिन गारो पहाड़ियाँ अछूती ही रही। हालाँकि इस बीच मैंने असम की सीमा से लगे गारो पहाड़ियों में स्थित मलंग झरने और धूपधारा के इर्द-गिर्द मेघालय की पहाड़ियों में एक चक्कर ज़रूर लगा लिया। बाद में एक चक्कर गोआलपारा का लगाया और फिर द्विज़िंग फ़ेस्टिवल के चक्कर में बोंगाईगाँव की तरफ़ भी गया। गारो पहाड़ियों की सीमा असम के इन हिस्सों से मिलती है , इसलिए इन हिस्सों में घूमने से थोड़ा-थोड़ा अंदाज़ा हो गया कि मेघालय की गारो पहाड़ियों में कैसा स्वागत मिलेगा।
आख़िर एक दिन मन बनाकर मैंने मोटरसाइकिल उठायी और चल पड़ा पश्चिमी मेघालय के सफ़र पर। मंज़िल थी गारो पहाड़ियों का केंद्र तुरा। गुवाहाटी से छायगाँव, बोको होते हुए धूपधारा तक तो सब कुछ जाना पहचाना ही था, क्योंकि तीन महीने पहले ही इसी रास्ते से बोंगाईगाँव गया था । इस पूरे हाईवे पर गुवाहाटी से अगिया (Agia) तक के सफ़र में असम-मेघालय की सीमा रेखा लगभग दस से बीस किमी के बीच की दूरी पर ही रहती है। अधिकांश इलाक़ों में असम के मैदान ख़त्म होते ही मेघालय की पहाड़ियाँ शुरू हो जाती हैं। वैसे तो गुवाहाटी से शिलाँग हाईवे और फिर ख़ासी पहाड़ियों के मुख्य पर्यटन क्षेत्रों में सड़कें बहुत ही अच्छी स्थिति में हैं , लेकिन असम की सीमा से लगे गारो पहाड़ियों के क्षेत्र में सड़कों की हालत अपेक्षाकृत ज़्यादा ख़राब है ।
बोको के बाद इस चमचमाते हाईवे पर जब दोनों तरफ़ सागौन के कतारबद्ध खड़े पेड़ों के जंगल मिलते हैं, उस समय इसकी ख़ूबसूरती देखते ही बनती है। मैं दो-तीन बार हाईवे को छोड़कर 20-25 किमी अंदर तक के गाँवों में भी गया हूँ। इन सीमावर्ती पहाड़ियों में बहने वाली ज़्यादातर नदियाँ असम के मैदानों में आकर ब्रह्मपुत्र से मिल जाती है। लेकिन असम-मेघालय की सीमा के पहाड़ी वाले हिस्से में इन नदियों के किनारे नयनाभिराम पर्यटन स्थल या आलीशान झरने दिख जाते हैं, जैसे उकिआम, मलंग झरना, हाहिम पर्यटन स्थल, राशिनी झरना इत्यादि ।
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राष्ट्रीय राजमार्ग होने के कारण सड़क पर और कुछ ख़ास नही नज़र आता है। सड़क पर ट्रैफ़िक कम रहने से गाड़ियाँ सर्राटे से दौड़ती हैं । ख़ास तौर से असम में चलने वाली प्राइवेट बसें और सवारियों को ढोते टेम्पो ट्रैवलर, इन दोनो से मुझे शुरू से ही डर लगता है । इन गाड़ियों के ड्राइवरों में पता नही कौन सी सनक रहती है। सड़क पर गाड़ी की रफ़्तार कम ही नही करते हैं। इसलिए इन्हें देखते ही मैं तुरंत रास्ता छोड़ देता हूँ।
बिना किसी दिक़्क़त के मैं पैकन (Paikan) पहुँच गया । पैकन कृष्णाई क़स्बे के पास एक छोटा सा बाज़ार है , जहाँ से गोआलपारा वाले मुख्य हाईवे को छोड़कर तुरा जाने वाले हाईवे पर मुड़ना होता है। हाईवे के किनारे ही बहुत सारे टेम्पो ट्रैवलर और बसें खड़ी रहती है, जो नियमित अंतराल पर कृष्णाई (पैकन) से तुरा के बीच चलती हैं। अगर किसी को गुवाहाटी या बोंगाईगाँव की तरफ़ से पब्लिक ट्रांसपोर्ट द्वारा तुरा जाना हो तो सबसे अच्छा यही रहेगा कि वह कृष्णाई पहुँच जाए और फिर वहाँ से तुरा के लिए कोई भी बस पकड़ ले । गुवाहाटी हवाई अड्डे से कृष्णाई की दूरी 104 किमी और कृष्णाई से तुरा की दूरी 96 किमी है । कृष्णाई से पैकन की दूरी दो किमी है ।
पैकन से शुरू होकर तुरा होते हुए दालू (Dalu) तक जाने वाला पैकन-तुरा-दालू हाईवे शुरू में मैदानी इलाकों से गुज़रता है, फिर आगे पहाड़ियों के घुमावदार रास्ते मिलने शुरू हो जाते हैं। हालाँकि सड़क की स्थिति बहुत ही बेहतरीन है । शुरू-शुरू में तो सड़क पर फैले सन्नाटे की वजह से बड़ा डर लग रहा था, फिर धीरे-धीरे सब कुछ सामान्य लगने लगा । सड़क के दोनों तरफ सुपारी, केले और संतरे के पेड़ों का झुरमुट ही दिखता है, जिनमें सुपारी के पेड़ों की बहुतायत है । ऐसा लगता है जैसे हम किसी सुपारी के जंगल में घूम रहे हो। जिधर नज़र दौड़ाओ उधर बस सुपारी के पेड़ ही नज़र आते हैं। गारो पहाड़ियों के संतरे भी अपने रसीलेपन और मिठास के लिए प्रसिद्ध हैं ।
पैकन से चलकर क़रीब एक घंटे में मैं अनोग्रे (Anogre) में स्थित दाची लेक रिसार्ट के पास पहुँच गया। झील की स्थिति बहुत अच्छी नही लग रही थी। पानी तो अच्छी खासी मात्रा में था, लेकिन वहाँ कोई चहल-पहल नही थी । झील के किनारे दस मिनट रुकने के बाद मैं आगे बढ़ गया।
जेंगजल के पास शिलाँग-तुरा हाईवे, पैकन-तुरा-दालू हाईवे से जुड़ जाता है। जेंगजल के बाद सड़क की चौड़ाई थोड़ी कम हो जाती है और पहाड़ी ढलान बढ़ जाती है । सड़क पर ट्रैफ़िक भी बढ़ जाता है । मेरा पहला पड़ाव असानांग था, क्योंकि मेघालय पर्यटन की वेबसाइट के मुताबिक़ वहाँ एक टूरिस्ट गेस्ट हाउस मौजूद था। असानांग में प्रवेश करते ही Welcome to Tura लिखा एक प्रवेश द्वार मिलता है, जो यह दर्शाता है कि आप अधिकारिक रूप से तुरा में प्रवेश कर रहे हैं। प्रवेश द्वार के मेहराब के मध्य में एक ढोलक (Wangala Drum) लटकी हुयी है और ऊपरी हिस्से में एक झोपड़ी बनी हुई है ।
ढोलक गारो निवासियों की संस्कृति का एक प्रमुख हिस्सा है । प्रवेश द्वार से इसका लटका होना ही इसके महत्व को दर्शाता है । प्रवेश द्वार के थोड़ा सा ही आगे दाहिनी तरफ़ एक बड़ा सा मैदान (Wangala Festival Venue) है, जहाँ हर साल नवम्बर महीने के दूसरे हफ़्ते में तीन दिन तक वंगाला फ़ेस्टिवल का आयोजन होता है । इस त्यौहार के द्वारा गारो जनजाति के लोग चावल का सबसे पहला हिस्सा सूर्य देवता (Misi Saljong) को समर्पित करते हैं और अच्छी फ़सल के लिए उनका धन्यवाद ज्ञापन करते हैं । वंगाला फ़ेस्टिवल को सौ ढोलकों का त्यौहार (The Hundred Drums Festival) भी कहते हैं ।
फ़ेस्टिवल वेन्यू तो ख़ाली पड़ा था, इसलिए वहाँ स्थानीय युवक फुटबाल खेल रहे थे। वही एक तरफ ऑर्किड रिसार्ट (Orchid Resort) का बोर्ड दिखने पर मैं उधर बढ़ गया। गेस्ट हाउस में इधर उधर देखने पर भी कोई नज़र नही आया, तो मैंने कुछ दूरी पर काम कर रहे एक आदमी को आवाज़ लगाई। फिर उसने फुटबाल का आनंद ले रहे केयरटेकर को बुलाया। वहाँ एक बिस्तर वाले कमरे जैसा कुछ नही था, इसलिए उसने मुझे दो बिस्तरों वाला कमरा दिखाया, जिसकी एक रात की कीमत बारह सौ रुपए थी । अपने व्यक्तिगत अनुभव से मुझे पता था कि पूर्वोत्तर भारत में मोलभाव की ज़्यादा गुंजाइश नही रहती है, फिर भी मैंने कोशिश की । लेकिन वह बारह सौ रुपए पर अड़ा रहा। बारह सौ रुपए तक के कमरे की आशा तो मैंने कर ही रखी थी, क्योंकि आमतौर पर मेघालय में रात्रि विश्राम के लिए साधारण होटल या गेस्ट हाउस की कीमत औसतन पंद्रह सौ से दो हज़ार रुपए तक होती है ।
फिर भी दिमाग में आया कि तुरा तो बस 18 किमी दूर है, इसलिए एक बार वहाँ भी जाकर देखना चाहिए। मैंने केयरटेकर का मोबाइल नम्बर लिया और तुरा की तरफ़ चल पड़ा। तुरा की तरफ़ जाते हुए सड़क ज़्यादा संकरी लगने लगी और ट्रैफ़िक भी बढ़ता जा रहा था। मोटरसाइकिल एक किनारे लगाकर गूगल मैप में देखा तो कुछ समझ नही आ रहा था कि किधर जाऊँ। तुरा एक भूलभुलैया जैसा लग रहा था। शहर के अंदर पहाड़ी रास्ते इधर-उधर घूम रहे थे और साथ में मेरा दिमाग़ भी। फिर मुझे लगा कि जब कुछ समझ ना आ रहा तो बस मुख्य सड़क पर ही बढ़ते रहना चाहिए। क़रीब एक किमी बढ़ने के बाद तुरा का डी सी ऑफ़िस और एस पी ऑफ़िस आया तो लगा कि मैं सही दिशा में ही जा रहा हूँ। मुख्य बाज़ार में दालू की तरफ़ जाने का रास्ता दर्शाता एक बोर्ड दिखा तो मैंने उधर ही मोटरसाइकिल मोड़ ली।
रास्ते से ही थोड़ा ऊँचाई पर बना एक होटल दिख रहा था, लेकिन वहाँ जाने का कोई मार्ग नही नज़र आ रहा था। क़रीब दो किमी तक चलने पर बाज़ार समाप्त होने लगा, तो मैं फिर वापस आ गया । एक बार फिर गूगल मैप के सहारे ऊपर नज़र आ रहे होटल का रास्ता देखा और आगे बढ़ गया। तुरा बाज़ार में घुमावदार रास्ते ऐसे थे कि कहीं-कहीं केवल एक तरफ़ से ही ट्रैफ़िक को निकलना होता था। गूगल से यह नही समझ आ रहा था कि ट्रैफ़िक एक तरफ वाला है या दोनों तरफ वाला। इधर-उधर घूमते फिरते मैं होटल तक पहुँच ही गया। रास्ते में दो होटल और मिले जो बाहर से देखने में तो साधारण से लग रहे थे, लेकिन उनका एक रात का किराया तीन हज़ार रुपए था।
मैं उस होटल में पहुँच गया, जो मुझे नीचे सड़क से दिखा था। होटल ठीकठाक स्थिति में था, लेकिन वहाँ भी एक बिस्तर वाला कमरा उपलब्ध नही था। बाकि कमरों में टायलेट साथ में नही था। कॉमन टायलेट की हालत देखकर वहाँ रुकने का मन नहीं कर रहा था। इसलिए मैं वहाँ से निकल गया। ढंग का होटल ना मिलने की स्थिति में रात्रि विश्राम का मेरे पास एक और जुगाड़ था। जब यह समझ आ गया कि बाज़ार में होटल सही दाम पर नही मिलेगा तो मैं वहाँ चला गया। सौभाग्य से वहाँ एक कमरा उपलब्ध था और पाँच सौ रुपए में रात्रि विश्राम की बेहतरीन व्यवस्था हो गई। थोड़ी देर आराम करके जब उठा तो शाम घिरने को आयी थी ।
सूर्यास्त के बाद तो कही घूमने फिरने का सवाल था नही, इसलिए मैं तुरा बाज़ार की तरफ़ निकल गया। मोबाइल चार्जर भी भूल गया था तो एक USB वॉयर (Wire) भी ख़रीदनी थी। मुख्य बाज़ार के केंद्र में तुरा की सुपरमार्केट है। चार मंज़िला यह इमारत मिठाई, घड़ी, खिलौने,कपड़ों, जूतों इत्यादि की दुकानों का एक केंद्र है। सबसे निचले स्तर पर सब्ज़ी और फलों की कई दुकानें हैं ।
सुपरमार्केट के बाहरी प्रांगण में कई सारे छोटे-छोटे फ़ूड स्टॉल हैं; जहाँ मैगी, चाऊमीन, समोसा, मोमो इत्यादि मिलता है। फ़ूड स्टॉलों पर भीड़ देखकर मैं भी उधर ही चला गया। वहाँ मैंने एक प्लेट मोमो मँगवाई । आमतौर पर हम जब भी मोमो खाते हैं, तो एक प्लेट में मोमो और साथ में चटनी मिलती है। लेकिन तुरा में मोमो के साथ प्याज़, धनिया, इत्यादि काटकर ऊपर से ही हरी चटनी और नींबू डालकर पेश किया जाता है। यह मोमो खाने का एक अलग अन्दाज़ था।
मुख्य बाज़ार के आसपास थोड़ा घूम फिरकर मैं वापस गेस्ट हाउस आ गया। इस प्रकार शाम को बाज़ार की तरफ़ जाने से एक फ़ायदा यह हुआ कि मुझे तुरा की सड़कें समझ में आ गई थीं और भूलभुलैया सा लगने वाला तुरा अब जाना पहचाना लगने लगा था।
तुरा मेघालय का दूसरा सबसे बड़ा शहर है । यह गारो जनजाति का सबसे प्रमुख सांस्कृतिक केंद्र भी है । मेघालय के अन्य हिस्सों की तरह ही यहाँ भी ईसाई धर्म को मानने वालों की संख्या अधिक है । पर्यटन के लिहाज़ से तुरा में पर्यटकों के लिए कोई ख़ास आकर्षण नही है, लेकिन गारो पहाड़ियों में आसपास के क्षेत्रों को घूमने के लिए तुरा एक बेस कैम्प की तरह है। पर्यटकों की आवाजाही ख़ासी पहाड़ियों की तुलना में बहुत ही कम है , इसलिए यहाँ पर्यटन सुविधाओं का विकास भी थोड़ा कम ही हुआ है।
अगले दिन सुबह उठकर नाश्ता करने पहुँचा तो गेस्ट हाउस के केयरटेकर ने पूछा कि आगे किधर जाना है । मैंने बताया कि पेल्गा फ़ॉल्स (Pelga Falls) जाना है। उसने पूछा कि अकेले जाओगे। मैंने जब हाँ में सिर हिलाया तो उसको पता नही क्यों बड़ा आश्चर्य सा हुआ। मैंने आश्चर्य की वजह पूछी तो उसने बस यही कहा कि अकेले वहाँ तक पहुँचना कठिन है। मैंने कहा कि मैप तो है ही। देखते हैं कि क्या होता है।
नाश्ता करने के बाद मैंने मोटरसाइकिल उठायी और पेल्गा फ़ॉल्स (गेस्ट हाउस से 7 किमी दूर) की तरफ बढ़ गया । तुरा के रेडियो केंद्र के आगे एक रिहायशी इलाक़े के पास एक पतली सी ढालू सड़क पर काफी नीचे उतरकर मैं रिंगरे नदी (Ringre River) के किनारे पहुँचा । यह तुरा की सीमा में बहने वाली एक छोटी सी नदी है । जब मैं नीचे उतरकर पानी की उस पतली धारा के पास पहुँचा तो माथा ठनक गया, क्योंकि आगे रास्ता बंद था । नदी में जगह-जगह गाँव वाले कपड़े और बर्तन धो रहे थे। पास खेल रहे दो बच्चों से मैंने आगे का रास्ता पूछा तो वो भी कुछ जवाब नही दे पाए। शायद हमारे बीच में भाषा का अवरोध था, हालाँकि संकेतों से इतना समझ में आ गया कि नदी के दूसरी तरफ़ जो सड़क की ढलान पर नया निर्माण हो रहा है, उसके कारण सड़क आगे बन्द है।
कहने को तो वो एक नदी थी, लेकिन उस समय पानी की गहराई मुश्किल से दो फ़ीट रही होगी। पैदल आने जाने वालों के लिए बाँस का एक झूला पुल (Hanging Bridge) बना हुआ था, लेकिन उसकी जीर्ण-शीर्ण अवस्था से लग रहा था कि अब वह प्रयोग में नही है । बरसात के समय में स्थानीय निवासियों के लिये नदी के आर-पार आने जाने में निश्चय ही मुश्किलें आती होंगी। अभी तो बस दो फ़ीट पानी में मोटरसाइकिल को डालकर दूसरी तरफ निकल जाना था। लेकिन आगे रास्ता बन्द होने के कारण मैं वापस गेस्ट हाउस आ गया।
अपने कमरे में लेटकर मैं आगे की योजना बनाने लगा। तुरा पीक (Tura Peak) की चढ़ाई का ख्याल दिमाग़ में आ तो रहा था, लेकिन पता नही क्यों ट्रेकिंग करने का मन नही कर रहा था। दूसरा विकल्प नोक्रेक राष्ट्रीय पार्क की तरफ जाने का था, जहाँ से मैं शाम तक वापस तुरा आ जाता या आगे विलियमनगर की तरफ बढ़ जाता, लेकिन उस स्थिति में मैं शायद बाघमारा या सीजू गुफ़ा की तरफ नही बढ़ पाता, जबकि मेरा सीजू तक पहुँचने का बड़ा मन था । फिर मैंने निश्चय किया कि उस समय इमिल-चांग फ़ॉल्स (Imil-Chang Falls)और चोपतोक (Choptok) होते हुए बाघमारा (Baghmara) के लिए ही निकलना सही रहेगा । इन सबके बीच मैंने एक बार फिर पेल्गा फ़ॉल्स तक जाने का निश्चय किया।
पूर्वोत्तर भारत के एक और नगीने त्रिपुरा राज्य के प्रमुख क़स्बे उदयपुर का सफ़र : मंदिरों और तालाबों का शहर उदयपुर
इस बार मैंने गूगल मैप की सलाह पर भरोसा ना करके पेल्गा फाल्स के पास तक जाने वाली एक अन्य सड़क खोजी । मैप के अनुसार वह सड़क मुझे झरने तक तो नही, लेकिन उसके काफी पास तक ज़रूर पहुँचा रही थी। नये दिशानिर्देश के तहत मैं आगे बढ़ता रहा । इस रास्ते से भी झरने की दूरी सात किमी ही थी, लेकिन सड़क की बेहतरीन स्थिति की वजह से सात किमी की उस दूरी का कुछ पता ही नही चला। आगे एक गाँव के बीच से होते हुए मैं उन जंगलों तक पहुँच गया, जहाँ पेल्गा फाल्स लिखा साइनबोर्ड लगा हुआ था । मतलब कि मैं सही रास्ते पर था । क़रीब एक किमी और चलने के बाद सड़क ख़त्म हो गई । आगे का सफ़र मुझे पैदल ही तय करना था। पानी के गिरने की आवाज़ों से समझ आ रहा था कि झरना कहीं आस पास ही है। मैंने मोटरसाइकिल एक तरफ़ खड़ी की और नीचे की तरफ जाती पगडंडी पर बढ़ गया।
आगे मुझे कुछ बच्चे स्कूल की वेशभूषा में ऊपर की तरफ़ आते हुए मिले। उन्होंने बताया कि झरना बस पास में ही है। आगे एक बोर्ड मिला जिसपर लिखा था PelgaDare View Point । गारो पहाड़ियों में दारे (Dare) शब्द झरने (Waterfalls) के लिए प्रयोग करते हैं । व्यू प्वाइंट वाले बोर्ड को अनदेखा कर मैं नीचे दिख रही गनोल नदी (Ganol River) की तरफ़ बढ़ गया। नदी पर एक बाँस का पुल बना हुआ था । जब मैं उस पुल के पास पहुँचा तो पता चला कि पुल की हालत बहुत ही ख़राब थी और वह आने-जाने के लिए बन्द कर दिया गया था।
असम में स्थित दुनिया के सबसे बड़े नदी द्वीप माजुली का सफ़र: माजुली द्वीप की यात्रा डायरी
नीचे बहती नदी को पार करने के लिए बाँस के तीन अस्थायी पुल बने हुए थे। बाँस के इन पुलों को पार कर छोटे-छोटे बच्चे स्कूल जा रहे थे । अभी तो नदी में पानी कम होने से मामला ठीक ही लग रहा था, लेकिन बारिश के समय में उफ़नाती नदी पर बाँस के इन पुलों को पार करना निश्चय ही जोखिम भरा काम होता होगा। यह भी एक विडम्बना ही है कि देश के कई हिस्सों में आज भी छोटे-छोटे बच्चों को इसी तरह स्कूल पहुँचना पड़ता है। कहीं वो जान जोखिम में डालकर नदी पार करते हैं, तो कहीं सुबह शाम पहाड़ों को लाँघते हैं। नदी के दूसरी तरफ़ सुपारी के पेड़ों का झुरमुट था जिससे इतना तो समझ आ रहा था कि उधर कोई गाँव है, लेकिन सामने एक भी घर दिखाई नही दे रहा था। दो बच्चों को रोककर मैंने बात करने की कोशिश ज़रूर की, लेकिन भाषा का अवरोध सामने आने पर मैंने चुप रहना ही ज़्यादा मुनासिब समझा।
नदी के प्रवाह और पत्थरों में शोर तो था, लेकिन ऐसा नही था कि उसे एक झरना समझा जाए । मैंने कोशिश करके एक बच्चे से झरने के बारे में पूछा, तो उसने इशारे से समझाया कि पहले थोड़ा ऊपर जाकर फिर दूसरी तरफ़ से नीचे उतरना है । मैं समझ गया उसका इशारा व्यू प्वाइंट वाले बोर्ड की तरफ़ ही था । मैं उधर ही बढ़ चला। सर्दियों में पानी कम होने के बावजूद झरने का पानी चट्टानों से तीव्र प्रवाह के साथ नीचे गिर रहा था। आसपास फेंकी हुई बीयर की बोतलों से लग रहा था कि झरना तुरा के लोगों के लिए एक महत्वपूर्ण पिकनिक स्थल है, हालाँकि कचरे ने आसपास की स्थिति बड़ी दयनीय बना दी थी। कचरे के उस ढेर से थोड़ी देर तक झरने की कुछ तस्वीरें लेकर मैं वापसी की राह पर बढ़ गया।
रास्ते से ही तुरा पीक (872 m) का मनोरम दृश्य दिख रहा था, तो मैं वही रुककर कुछ फ़ोटो खींचने लगा। एक बार तो विचार बना कि तुरा पीक की चढ़ाई कर ही लेता हूँ । तुरा पीक की ट्रेकिंग का रास्ता डी सी ऑफ़िस के पास बने डी सी पार्क से शुरू होता है। वहाँ से पहाड़ की चोटी तक पाँच किमी की दूरी तय करने में क़रीब दो घंटे लगते हैं। चोटी से तुरा शहर का विहंगम दृश्य नज़र आता है। ट्रेकिंग के रास्ते में ऑर्किड की विभिन्न प्रजातियाँ मिलती हैं । तुरा पीक की ट्रेकिंग का ख्याल आ तो रहा था लेकिन फिर सड़क पर मोटरसाइकिल खड़ी कर चार घंटे तक ट्रेक करने का विचार कुछ जमा नही। इसलिए मैंने तुरा पीक की ट्रेकिंग का विचार त्याग दिया और वापस गेस्ट हाउस आ गया ।
अब मुझे अपनी पुरानी योजना पर अमल करते हुए बाघमारा के लिए निकलना था । बाघमारा जाने का एक रास्ता दालू होकर जाता था और दूसरा रास्ता चोकपोत होकर । चोकपोत वाला रास्ता मुझे ज़्यादा अंदरूनी हिस्सों में ले जाता, जिससे मन में एक डर सा आ रहा था, लेकिन फिर मैंने उसी रास्ते से बाघमारा की तरफ़ बढ़ने का निर्णय किया । तुरा से बाघमारा का सफ़र और फिर बाघमारा भ्रमण की यादें अगले पोस्ट में जारी रहेंगी ।
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तुरा मेने भी सुना है थोड़ा रिस्की है लेकिन तुरा का shopping complex देख कर लग रहा है शहर अच्छा है…drum फेस्टिवल तुरा के संतरे…कृष्णई किलोमीटर टैक्सी का आईडिया….पेल्गा fall जाने पे guest house वाले का आश्चर्य स्व देखना विलियम नगर यह सब नाम सिर्फ मैप में ही सुनता रहा दुसरे फॉल्स सीजी।।।वाह मजा आ गया…बहुत कुछ add करता है knowledge आपका लेख….