यह पूर्वोत्तर भारत से मेरी विदाई की एक फेयरवेल पोस्ट है, जिसे कायदे से पाँच माह पूर्व आना चाहिए था, लेकिन देर से ही सही इसको आना ही था। करीब पाँच महीने पहले गुवाहाटी छोड़ते समय दिल में एक कसमकश सी थी। सात वर्षों तक कर्मभूमि रही गुवाहाटी से बहुत सारी यादें जुड़ चुकी थीं, जिसमें सबसे खास है मेरी छोटी बिटिया का जन्म। पूर्वोत्तर भारत में रहने के दौरान हमारी नन्हीं परी हमारे जीवन में माता कामाख्या का वरदान बनकर आई।
इन सात वर्षों में मैने पूर्वोत्तर भारत को पूरे दिल से जिया। इसके सारे हिस्से तो नहीं घूम पाया, लेकिन जहां तक सम्भव हुआ सातों बहनों (असम, मेघालय, त्रिपुरा, मिजोरम, अरुणाचल प्रदेश, नागालैंड और मणिपुर) से रूबरू होने के हर मौके का लाभ उठाया। कोविड महामारी की वजह से करीब दो डेढ़ साल तो बिना घूमे-फिरे ही निकल गए, लेकिन हम उस महामारी से आगे बढ़ गए, यही बहुत है। सात सालों के इस सफ़र में बहुत कुछ छोड़ भी दिया, ताकि दुबारा लौटने की इच्छा बरकरार रहे। असम और मेघालय तो जैसे चहलकदमी के स्थान बन गए थे। जब मन किया घूमने, फिरने, नदी-झरनों में नहाने निकल जाओ।
पूर्वोत्तर में घूमने की शुरुआत मेघालय से हुई। आगमन के दो महीने के भीतर ही मैने पहले जोवाई और फिर शिलांग – चेरापूंजी का चक्कर लगाया। बाद में, मेघालय में शिलांग-चेरापूंजी-डावकी की प्रसिद्ध तिकड़ी के साथ ही साथ जोवाई, नर्तियांग, मावसिनराम, मावफुलनूर, मावलिंगबा, तुरा, बाघमारा इत्यादि की वादियों में घूमने का सौभाग्य मिला।
असम में गुवाहाटी, काजीरंगा, मानस, सिबसागर, तेजपुर, डिब्रूगढ़ जैसे प्रसिद्ध स्थानों को देखा तो साथ ही साथ धुबरी, गोलपाड़ा, जोरहाट, तिनसुकिया, डिगबोई, लीडो, लुमडिंग, हाफ़लांग, उमरांग सो, पानीमूर, होजाई, नगांव जैसी जगहों पर भी गया।
नागालैंड में जूको वैली की ट्रैकिंग तो शुरू के दिनों में ही कर ली थी। लेकिन साथियों और दोस्तों ने नागालैंड के अंदरूनी हिस्सों में अकेले घूमने को लेकर सुरक्षा कारणों से कई बार चेतावनी दी। इस वजह से नागालैंड में जाना नहीं हो पा रहा था। फिर एक दिन हिम्मत जुटाकर तन्हा ही मोटरसाइकिल से कोहिमा, वोखा, मोकोकचुंग, ट्वेंसांग, किफिरे, फुटसेरो इत्यादि को भी निबटा आया। नागालैंड की आखिरी यात्रा के दौरान मोन और लुंगवा जैसी जगहों से रूबरू होने का सुख प्राप्त हुआ।
त्रिपुरा की दो यात्राओं में से पहली में तो अगरतला ही घूम पाया, लेकिन दूसरी यात्रा के दौरान पिलक, डम्बूर, अमरपुर, छबिमुड़ा, कालीबाड़ी, माताबाड़ी, मेलाघर, उनकोटी जैसे पर्यटक स्थानों का भ्रमण करने को मिला।
मिज़ोरम की एक ही यात्रा कर पाया जिसमें कोलासिब होते हुए आइजोल में प्रवेश किया और रेइक गांव की खूबसूरती से प्रत्यक्ष हुआ। आइजोल से तेंजावल, लुंगलेई, लावंगतलाई होते हुए नयनाभिराम तुईपुई नदी को पार करके साइहा और फिर सुदूर दक्षिण में स्थित फुरा गांव और पलक दिल (झील) का सफ़र पूरा किया।
मणिपुर की दो यात्राएं करने को मिली, जिसमें एक बार तो सिर्फ राजधानी इम्फाल ही घूम पाया। लेकिन दूसरी यात्रा के दौरान मोटरसाइकिल से माओ बॉर्डर से प्रवेश कर सेनापति, इम्फाल होते हुए उखरुल, सिरुही गांव, थाउबल, वार मेमोरियल, मोरे-तामू बॉर्डर की यात्रा को पूरा किया। यह उन दिनों की बात है जब मणिपुर आजकल की दिल दुखाती घटनाओं से परे एक शांत राज्य हुआ करता था।
असम, मेघालय के बाद मैंने अरुणाचल प्रदेश के सबसे ज्यादा चक्कर लगाए । प्रकृति के खजानों से भरा यह राज्य कुछ प्रसिद्ध जगहों को छोड़कर आज भी पर्यटन की भीड़ से एकदम अछूता है, जहां पहुंचने के लिए अभी भी नाकों चने चबाने पड़ते हैं। इस राज्य की कई यात्राओं के दौरान मैने शेरगाँव, दिरांग, मंडाला टॉप, बोमडिला, बसर, तेजू, परशुराम कुंड, पासीघाट, रोइंग, डांबुक, म्याओ, नमसाई इत्यादि कई जगहों को करीब से देखा।
घूमने-फिरने से इतर पूर्वोत्तर के सात सालों ने मुझे जीवन में बहुत कुछ सीखने का मौका दिया। इसने एक एयर ट्रैफिक कंट्रोलर के रूप में मुझे बहुत कुछ सीखने और परिपक्व होने का मौका तो दिया, साथ ही साथ एक इंसान के रूप में बहुत कुछ अनुभवों से अवगत कराया।
एयर ट्रैफिक कन्ट्रोलर होना कैसा लगता है? What It’s Like To Be An Air Traffic Controller?
गुवाहाटी में रहने के दौरान मैने बचत करना सीखा, अपने भविष्य के प्रति थोड़ा गंभीर बना। दिल्ली में रहते हुए कभी बचत करने का विचार नहीं आता था, लेकिन गुवाहाटी में शहर से थोड़ा दूर रहने से हर बात पर शॉपिंग मॉल्स या खाने-पीने की चीजों पर पैसे उड़ाने का प्रयोजन नहीं किया । पूर्वोत्तर भारत में ही घूमने को इतना कुछ था कि थाईलैंड की एक 15-दिवसीय यात्रा के अलावा विदेश भ्रमण की और कोई गुंजाइश नहीं बन पाई। सात साल सिर्फ पूर्वोत्तर भारत में ही घूमता रहा। पहले कोविड महामारी और फिर बिटिया के आने से यात्राओं पर थोड़ा ब्रेक भी लगा। इन सबकी वजह से रूपए-पैसे के मामले में जीवन में थोड़ा स्थायित्व आया।
पूर्वोत्तर भारत में घूमने के दौरान यह भी समझ आया कि हम कितना भी कोशिश कर लें, कुछ ना कुछ तो छूटेगा ही। इस समझ ने एक घुम्मकड़ के तौर पर मुझे ठहरना सिखाया। नई जगहों और लोगों को छूकर भाग लेने की जगह उनसे घुलना-मिलना सिखाया। लोगों के आचार-विचार, लोक व्यवहार, संस्कृति जैसी चीजों से परिचित कराया।
सुन रखा था कि पूर्वोत्तर भारत में अकेले घूमने में बड़ा खतरा है, लेकिन हर राज्य में अकेले घूमा, बीवी और बच्चों के साथ घूमा, दोस्तों के साथ घूमा, बाइक से घूमा, कार से घूमा और पब्लिक ट्रांसपोर्ट से घूमा, सुनसान-निर्जन इलाकों में गया, कुख्यात घने जंगलों से गुजरा, दिन में और देर रात के अंधेरे में निकला, भारत बंद के अनुभवों से भी गुजरा, लेकिन यकीन मानिए इन सात सालों के सफ़र में मुझे, मेरे परिवार या दोस्तों को यकीनन किसी तरह का डर नहीं लगा।
पूर्वोत्तर भारत के सुदूर ग्रामीण इलाकों में घूमने के दौरान अनुभव हुआ कि निम्न मध्यमवर्गीय परिवार से होने के बावजूद मैं कितना भाग्यशाली हूँ। यहाँ तो जीवन जीने के संघर्ष में ही लोगो की जिन्दगी खत्म हो जाती है, कम से कम मुझे नई-नई जगह देखने और समझने का मौका तो मिल रहा है। नागालैंड के अंदरूनी जिलों में कई लोगों का पूरा जीवन निकल जाता है, लेकिन वो एक जिले से दूसरे जिले का सफ़र नहीं कर पाते हैं। कई इलाकों में सड़कों के नाम पर सिर्फ कीचड़ है, जहाँ फिसलने से बचने के लिए हर कदम फूंक-फूंक कर रखना पड़ता है।
गारो पहाड़ियों में तुरा से बाघमारा तक का सफ़र यहाँ पढ़ें : तुरा से बाघमारा की यात्रा
मिज़ोरम के लोगों की आवभगत ने दिल को छू लिया। एक अकेले मुसाफ़िर को बिना किसी होटल-ढाबे वाले सुदूर गाँव में देखकर कई लोगों ने खाने-पीने का आमंत्रण दे दिया। शेयर्ड वाहनों में लोग यादें संजोने के लिए ऐसे ग्रुप फोटो खिंचवाते हैं, जैसे एक दूसरे को बरसों से जानते हों और आगे भी मिलते रहेंगे, जबकि सबको पता है कि अब शायद कभी दुबारा मिलना ना हो। पूर्वोत्तर भारत के राज्यों में कई ऐसे होमस्टे मिले जहाँ लगा ही नहीं कि मैं कही और से आकर यहाँ ठहरा हूं। इन सारी बातों ने एक इंसान के तौर पर मुझे विनम्र और आभारी बनाया।
मेघालय और अरुणाचल प्रदेश ने मुझे जीवन के संघर्षों के बीच प्रकृति से प्यार करना सिखाया। कल-कल बहते रमणीक झरनों ने हमें जिन्दगी के छोटे-छोटे वो हसीन पल दिए, जिन्हें दुबारा जी लेने के लिए मैं आज भी इधर-उधर भागता रहता हूं। साफ सुथरी नदियों ने कभी भी गाड़ी उठाकर निकल पड़ने का एक बहाना दिया, जहाँ कभी भी दोस्तों के साथ पिकनिक मनाई जा सके।
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गुवाहाटी ने मुझे सबसे अच्छी नेमत दोस्तों के रूप में दी, सहकर्मी जो घुमंतू जीवन का एक हिस्सा बन गए, राह चलते यात्री जो कई यात्राओं के साथी बन गए और आभासी दुनिया के दोस्त, जो सोशल मीडिया से बाहर निकलकर यादों का कारवां बनाने लगें। पिकनिक, घूमना-फिरना और मस्ती करना गुवाहाटी के जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन गई।
सात वर्षों के बाद गुवाहाटी को छोड़ते समय मिश्रित भाव थे। जहाँ एक तरफ घर के पास आने की खुशी थी, तो दूसरी तरफ बहुत पलों को यादों के रूप में संजोते हुए कई सारे अपनों से बिछड़ने का ग़म। पूर्वोत्तर भारत की कर्मभूमि जीवन का एक अभिन्न अंग बन चुकी है। भारत के इस हिस्से की अलबेली, अमिट यादों के साथ हमारे सफ़र की अगली मंजिल है गंगा, जमुना और सरस्वती की पावन धरती प्रयागराज। लेकिन पूर्वोत्तर भारत से हमारा लगाव अटूट है, कुछ तस्वीरों के रूप में और बहुत कुछ हमारी नन्हीं कामाक्षी के रूप में।