जोशीले राजस्थान के राजपूतों की वीरता की गाथाओं, आलीशान महलों और दुश्मन की कड़ी परीक्षा लेने वाले किलों के बीच में भानगढ़ या ज्यादा प्रचलित नाम भूत भानगढ़ (Bhangarh Fort) की कहानियों की एक अलग ही दुनिया है। अन्य जगहों की तरह यहाँ भी एक किला है, एक राजा और एक रानी हैं, रानी का अप्रतिम सौंदर्य भी है, लेकिन एक तांत्रिक की उपस्थिति की वजह से एक दिलचस्प मोड़ भी है। यही मोड़ इसे भारत की सबसे रहस्यमयी या सीधे शब्दों में कहें तो भारत की सबसे भुतहा जगहों में से एक बना देता है। भूत भानगढ़ के भूतों का ऐसा असर है कि 21वीं सदी की तकनीकी दुनिया में राजस्थान के इस किले के बाहर एक सरकारी बोर्ड पर लिखा है कि भानगढ़ की सीमा में सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय से पहले प्रवेश प्रतिबंधित है। वैसे इस बोर्ड के असली मायने तो पुरातत्व विभाग ही बता सकता है, लेकिन मुझे लगता है कि भारत में वैसे भी लगभग सारे ऐतहासिक स्थान सूर्यास्त के बाद आम जनता के लिए बन्द ही हो जाते हैं। फिर भानगढ़ में लगे इस बोर्ड में तो कोई अलग बात लिखी नहीं है ।
बावजूद इसके आप कही भी भारत की सबसे प्रसिद्ध भुतहा जगहों के नाम खोज लीजिए, अधिकांशतः भानगढ़ का नाम सबसे ऊपर ही रहता है। मैं जितना उस जगह के बारे में पढ़ता, उतना ही वहाँ पहुँचने की उत्सुकता बढ़ जाती । फिर वो दिन भी आ गया, जब मैं भानगढ़ की रहस्यमयी दुनिया में पहुँच ही गया। अपनी मोटरसाइकिल से पश्चिमी राजस्थान की यात्रा करने के बाद मैं अजमेर से दिल्ली आ रहा था। जयपुर पहुँच कर लगा कि क्यों न थोड़ा लम्बा चक्कर लगाकर भानगढ़, अलवर होते हुए दिल्ली चला जाये । बस मैंने मोटरसाइकिल दौसा जाने वाली सड़क पर मोड़ दी। बारिश के उस मौसम में जब देखो तब बूंदाबादी शुरू हो जाती थी। अजमेर से जयपुर तक का सफर तो बिना किसी परेशानी के बीत गया, लेकिन जयपुर से दौसा और फिर आगे भानगढ़ के सफर में कई बार बारिश का सामना करना पड़ा। बारिश की वजह से जगह-जगह रुकना पड़ा और काफी समय बर्बाद हो गया।
पश्चिमी राजस्थान की उस यात्रा की एक झलक : Riding Solo In Western Rajasthan
दौसा शहर को पारकर मैं किसी तरह बारिश से बचते-बचाते भानगढ़ की तरफ बढ़ता रहा। दौसा के बाद भानगढ़ की तरफ जाने वाली सड़क कुछ अलग ही एहसास दे रही थी। कहा मुझे लगता था कि भानगढ़ वीराने में स्थित एक उजाड़ सा गाँव होगा और आसपास भी कुछ नही होगा। लेकिन बारिश के उस मौसम में हरे-भरे पेड़, अगल-बगल फैली अरावली की पहाड़ियाँ और खेतों में फैली हरियाली एक अलग ही दुनिया का एहसास करा रही थी। भानगढ़ से बिल्कुल पहले एक गाँव पड़ता है, गोला का बस, वहाँ लगभग हर घर के बाहर ही नक्काशी की हुयी मूर्तियां रखी हुई हैं। सड़क से ही दिख जाता है कि मूर्तिकला के बहुत बड़े केंद्र से गुजर रहे हैं।
उन हरे भरे नजारों का आनन्द लेते हुए जब मैं भानगढ़ पहुँचा तो दंग रह गया। सूरज ढलने में मुश्किल से एक घंटे बचे थे। लेकिन भानगढ़ में यात्रियों की चहल-पहल अपने चरम पर थी। हर तरफ बस लोगों का झुण्ड नजर आ रहा था। उनमें ज्यादातर संख्या पास के प्रोफेशनल कालेजों से आये छात्र-छात्राओं की थी, जो बारिश के उस मौसम में भानगढ़ घाटी की सुंदरता का आनन्द लेने पहुँचे थे। मैंने सपने में भी भानगढ़ घाटी के इतने नयनाभिराम होने की कल्पना नहीं की थी। हरी-भरी अरावली पहाड़ियों में नीचे तक उतर आये बादलों की छटा देखते ही बनती थी।
राजस्थान का एक और भव्य क़िला : The Great Wall of India at Kumbhalgarh Fort
भानगढ़ का किला मुख्य सड़क से करीब एक किमी की दूरी पर पहाड़ की तलहटी में है। किले के अंदर प्रवेश करने के लिए कोई शुल्क नहीं लगता है। भानगढ़ किला भले ही खंडहर में तब्दील हो गया हो, लेकिन उन पहाड़ियों के बीचोबीच उसकी स्थिति बारिश के मौसम में बहुत ही सुंदर दृश्य उपस्थित करती है। भानगढ़ किले के खण्डहरों को चारो तरफ से चहारदीवारी बनाकर घेर दिया गया है । प्रवेश द्वार से किले तक के बीच में करीब 400-500 मीटर की दूरी है । चहारदीवारी के पार जगह-जगह किले के अंदर स्थित भवनों के खंडहर, मन्दिर, तालाब इत्यादि बिखरे पड़े हैं।
प्रवेश द्वार से थोड़ा आगे बढ़ते ही खंडहर में तब्दील बाजार का लंबा हिस्सा नजर आता है । कभी गुलजार रहने वाले इस बाजार के खंडहर ही इसकी भव्यता की कहानी बयाँ करते हैं। ठीक इसी तरह के बाजारों के खण्डहर चित्तौड़गढ़ और फतेहपुर सीकरी के किले में भी नजर आते हैं, लेकिन भानगढ़ के किले का यह खंडहर उनसे ज्यादा बड़ा और भव्य है।
बाजार से आगे बढ़ने के बाद एक और द्वार आता है । बरगद के बड़े-बड़े पेड़ों के बीच से होते हुए हम ऐसे प्रांगण में पहुंचते हैं, जहाँ दोनों तरफ भव्य मंदिर बने हुए हैं। बायीं तरफ एक कुण्ड के पास स्थित सोमेश्वर महादेव मंदिर में तो अभी भी पूजा होती है, लेकिन रास्ते के दाईं तरफ स्थित गोपीनाथ मन्दिर वीरान पड़ा रहता है। हालाँकि किले के अन्य खण्डहरों की तुलना में इन दोनों मन्दिरों की हालत बहुत ही अच्छी है।
किले में और भी कई सारे मंदिर बने हुए हैं। इनमे से ज्यादातर मंदिरों में कोई पूजा-अर्चना नहीं होती है। किले में स्थित अन्य प्रमुख मंदिर मंगला देवी मंदिर, केशव राय मंदिर, हनुमान मंदिर, गणेश मंदिर, सोमेश्व्र मंदिर इत्यादि हैं।
मन्दिरों वाले प्रांगण से आगे बढ़ने पर भानगढ़ किले के महल में प्रवेश करने के लिए एक और द्वार आता है, जिसे त्रिपोलिया द्वार के नाम से जाना जाता है । बाकि खण्डहरों की तरह महल में भी कुछ स्पेशल नही लगता है, ना कोई परालौकिक शक्ति का एहसास और ना ही कोई भुतहा दुनिया। हाँ, किले में प्रवेश करने के बाद से छत तक पहुँचने के रास्ते और आस पास के कमरों के अँधेरे, किले के भुतहा होने की कहानियाँ पढ़कर आये लोगों को डरा जरूर देती हैं। छत के रास्ते में चमगादड़ो के लटके होने से उठने वाली तीक्ष्ण बदबू का ऐसा आलम है कि मेरे आगे चल रही लड़की को चक्कर आने लगा ।
किले की छत पर पहुँचकर उस बदबू भरे रास्ते से एक अलग ही राहत मिलती है। छत से आस- पास फैले खण्डहरों, दूर तक फैली भानगढ़ घाटी और पहाड़ियों का एक भव्य नजारा मिलता है। लेकिन नजर टिकती है एक पहाड़ी के ऊपर स्थित एक छोटे से गुम्बदनुमा खंडहर पर । भानगढ़ के बरबाद होने की सारी कहानी उस छोटे से खण्डहर से ही शुरू होती है । भानगढ़ के किले और भुतहा कहानियों से जुड़े उस छोटे से गुम्बदनुमा खंडहर तक पहुचने के लिए पहाड़ी पर 30-40 मिनट की चढ़ाई करनी पड़ती है। लेकिन वहाँ बहुत कम लोग ही जाते हैं, क्योंकि भानगढ़ घाटी का विहंगम दृश्य तो किले की छत से ही नजर आ जाता है।
भानगढ़ के बसने और बिगड़ने के इतिहास का कोई स्पष्ट प्रमाण उपलब्ध नहीं है, लेकिन इसके खण्डहर होने की दो कहानियाँ मुख्य रूप से प्रचलित है:
पहली कहानी: सबसे ज्यादा प्रसिद्ध किवदन्ती के अनुसार भानगढ़ की राजकुमारी रत्नावती बहुत ही सुन्दर थी। एक दिन वह बाजार में अपनी सहेलियों के साथ एक इत्र की दुकान से इत्र ले रही थी। वही से गुजर रहा एक तांत्रिक सिंघिया उनकी सुंदरता पर मोहित हो गया और अपनी तंत्रशक्ति से उसने उस इत्र को अभिमन्त्रित कर दिया, ताकि उसका उपयोग करने के बाद राजकुमारी उसकी तरफ खींची चली आयें। लेकिन राजकुमारी भी तन्त्र विद्या में माहिर थी । वो तुरन्त समझ गयी कि वह इत्र अभिमन्त्रित हो चुका है। उन्होंने उस बोतल को पास पड़े एक पत्थर पर पटक दिया। राजकुमारी की तंत्रशक्ति के कारण वह पत्थर उड़ कर तांत्रिक की तरफ बढ़ चला। तांत्रिक ऊपर पहाड़ की चोटी पर स्थित कुटिया में रहता था । पत्थर अपनी तरफ आता देखकर वह सब समझ गया। लेकिन उसके बचने का कोई उपाय नहीं था। पत्थर के नीचे दबकर मरते-मरते उसने भानगढ़ के उजड़ जाने का श्राप दे दिया। तांत्रिक के श्राप के कारण भानगढ़ कुछ ही दिनों में बरबाद हो गया।
दूसरी कहानी: इस कहानी का सम्बन्ध बाबा बालकनाथ से है। बाबा पहाड़ की चोटी पर बनी कुटिया में रहते थे । भानगढ़ का किला बनवाने से पहले राजा ने बाबा से किला बनवाने की अनुमति मांगी। बाबा ने अनुमति इस शर्त के साथ दी कि जिस दिन राजमहल की छाया कुटिया के ऊपर पड़ेगी, भानगढ़ तबाह हो जायेगा। काफी दिनों के बाद तत्कालीन राजा ने एक और मंजिल बनवा दी और राजमहल की छाया कुटिया के ऊपर पड़ने लगी। बस बाबा बालकनाथ के श्राप के कारण भानगढ़ की बर्बादी शुरु हो गयी। अजबगढ़ ने भानगढ़ पर चढ़ाई कर दी। युद्ध के दौरान भयंकर कत्लेआम हुआ और भानगढ़ बर्बाद हो गया।
बर्बादी की सच्चाई: भानगढ़ के खण्डहरों की असली सच्चाई का कही भी उल्लेख नहीं है। लेकिन ऐसा लगता है कि अजबगढ़ या फिर मुग़लों से युद्ध के बाद राज्य की स्थिति बहुत ही ख़राब हो गई। इस वजह से यहाँ रहने वाले लोग आस पास की दूसरी रियासतों जयपुर और अलवर की तरफ पलायन कर गए और कालान्तर में यह पूरा किला ही खण्डहर बन गया।
वैसे तो भानगढ़ के महल में दिन के समय मुझे किसी परलौकिक शक्ति का अनुभव नहीं हुआ, लेकिन ऐसी कहानियाँ भी हैं , जो यह बताती हैं कि रात के अँधेरे में यहॉँ भूत घूमते हैं। ऐसा समझा जाता है कि युद्ध के समय जब भानगढ़ बर्बाद हुआ तो मारे गए योद्धाओं की आत्मा को शान्ति नहीं मिली और वही भूत बनकर इन वीरानों में भटकते हैं। इन कहानियों में कुछ रोल तांत्रिक सिंधु देवड़ा के शाप का भी है। इन भूतों की कहानियों को ही ASI के उस सरकारी बोर्ड से जोड़ दिया जाता है , जहाँ लिखा है कि भानगढ़ की सीमा में सूर्योदय से पहले और सूर्यास्त के बाद प्रवेश वर्जित है। यह बात अलग है कि भारत में ज्यादातर पुरातात्विक स्थान सूर्योदय से सूर्यास्त तक ही खुले रहते हैं। भूतों का होना या ना होना अलग बात है, लेकिन बरसात के मौसम में भानगढ़ घाटी की सुंदरता बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करती है।
सब कुछ घूमने के बाद जब मैं बाहर आया तो सूर्यास्त हो चुका था। मेरे पास रात बिताने का कोई जुगाड़ नहीं था। बाहर खड़े गॉर्ड से पूछने पर पता चला कि भानगढ़ या आसपास के गांवों में ठहरने का कोई प्रबन्ध नहीं है। मेरा एकमात्र सहारा आठ किमी दूर स्थित नारायणी माता का मंदिर या फिर तीस किमी दूर स्थित एक छोटा सा कस्बा थानागाजी था। फिर किसी ने राय दी कि किले से मात्र डेढ़ किलोमीटर दूर स्थित सरसा देवी के मंदिर के पुजारी से बात करने पर वहाँ भी ठहरने का प्रबन्ध हो सकता है।
राजस्थान में ही स्थित एक अन्य क़िले का भ्रमण : पोखरण, जहाँ भगवान बुद्ध मुस्कुराए थे
पहले मैंने सोचा कि आठ किमी दूर स्थित नारायणी माता के मंदिर में शरण ले लूँगा। इसलिए मैं भानगढ़ से आगे बढ़ चला । सबसे ज्यादा डर कभी भी आ जाने वाली बारिश और ख़राब रास्ते का था । भानगढ़ से 2 किमी आगे जाने के बाद पता नहीं क्यों मैंने आगे बढ़ने का विचार त्याग दिया और वापस सरसा देवी के मंदिर में लौट आया। पुजारी जी से बात करने पर रात को वही खाने और ठहरने का जुगाड़ भी हो गया। सुबह जब मैं अलवर की तरफ बढ़ा तब पता चला कि वो अनजाने में लिया गया बहुत ही अच्छा निर्णय था। उस ख़राब सड़क पर रात के अँधेरे में चलना बहुत भारी पड़ जाता।
भूत भानगढ़ से प्रत्यक्ष रूबरू होने के बाद मुझे इसका भुतहा कहानियों से अलग एक प्राकृतिक सुंदरता वाले रूप का पता चला । गर्मियों में वीरान लगने वाले इन खण्डहरों की असली सुंदरता देखनी हो तो जुलाई से सितम्बर के बीच में जाइए । बारिश में हर तरफ दिखने वाली हरियाली इसकी सुंदरता में चार चाँद लगा देती है और दिन के समय यह क्षेत्र पर्यटकों की चहल-पहल से गुलजार हो जाता है। सरिस्का टाइगर रिज़र्व के पास में स्थित होने के कारण भानगढ़ की यात्रा को सरिस्का के साथ भी किया जा सकता है। अगली बार जब आप भानगढ़ जाएँ तो भूतों के अलावा इसकी सुंदरता को देखने की कोशिश करियेगा । फिर भानगढ़ घूमने का आनंद जरूर बढ़ जायेगा।