अरुणाचल प्रदेश को प्रकृति ने इतनी खूबसूरती बख़्शी है कि दिल करता है बस उन्हीं वादियों में भटकता रहूँ। बावजूद इसके सच्चाई यही है कि ये वादियाँ घूमने के लिए ही अच्छी लगती है, और यहाँ जीने के लिए कई सारे और संघर्ष करने पड़ते हैं । यह भारत के सबसे दूर-दराज के क्षेत्रों में से एक है, जहाँ इंसान और कुदरत के बीच हर कदम पर एक संघर्ष चलता रहता है। जब बात दूर-दराज की हो तो, यह उन क्षेत्रों से भी ज्यादा दूर-दराज वाला लगता है, जिनका जिक्र हम अक्सर सुनते रहते हैं। लेह और स्पीती जैसे इलाके वाकई में बहुत अलग-थलग लगते हैं, लेकिन उनकी तुलना में ज्यादा नज़दीक होने के बाद भी अरुणाचल प्रदेश घूमना उनसे ज्यादा कठिन लगता है।
अरुणाचल प्रदेश में तवांग वाले इलाके को छोड़कर ज्यादातर क्षेत्रों में सड़कों की हालत ख़राब ही है और टूरिस्ट इंफ्रास्ट्रक्चर भी बहुत अच्छा नही है। घने जंगल, ऊँचे पहाड़ और उफ़नती नदियाँ इस प्रदेश में घूमना दुसाध्य बना देते हैं। सबसे ज्यादा दिक्कत तो सड़कों की ही है। अरुणाचल प्रदेश में किसी बारिश के मौसम में अच्छी दिख रही सड़क बारिश के बाद भी अच्छी रहेगी, इसकी कोई गारण्टी नही है। तेज़ बारिश और भूस्खलन यहाँ बहुत ही आम बात है। राहत की बात यह है कि अब सरकारों ने अरुणाचल प्रदेश के विकास पर ध्यान देना शुरू किया है, जिसकी वजह से असम से सटे इलाकों में सड़कों का निर्माण तेजी से हुआ है और इन निचले इलाकों की चमचमाती सड़कों पर घूमना थोड़ा आसान हो गया है।
अरुणाचल प्रदेश की यात्रा पर जाने वाले ज्यादातर लोग बारिश के मौसम में उधर का रुख करना पसंद नहीं करते, लेकिन हालात कुछ ऐसे बने कि मेरे पास छुट्टियां जुलाई के ही महीने में ही थीं। किसी भी स्थिति में मुझे जुलाई की बारिश में ही कहीं जाना था। पूर्वोत्तर भारत में बारिश के मौसम में अगर कही घूमना हो तो सबसे बढ़िया गंतव्य मेघालय है। बारिश के मौसम में मेघालय की हरी-भरी पहाड़ियों और उनसे गिरने वाले अनगिनत झरनों की सुन्दरता देखते ही बनती है।
लेकिन मुझे मेघालय नहीं जाना था। असम में भी बहुत विकल्पों को खोजा, लेकिन समझ में नहीं आ रहा था कि किधर जाऊं। काफी उधेड़बुन के बाद सोचा कि भालुकपोंग से अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश करके सेप्पा घाटी और यूपिया होते हुए ईटानगर के रास्ते वापस आ जाऊँगा। बस एक अड़चन सामने दिख रही थी। बारिश के मौसम में सेप्पा घाटी की सड़कों की सही स्थिति बताने वाला कोई नही मिल रहा था। काफी खोजबीन के बाद भी पता नहीं चल सका कि उधर सड़कों की वास्तविक स्थिति कैसी है। सबने यही सलाह दी कि बारिश में अरुणाचल प्रदेश ना जाना ही बेहतर होगा।
लेकिन अब कही ना कही तो जाना ही था। इसलिए मैं गुवाहाटी से भालुकपोंग के लिए निकल पड़ा। भालुकपोंग, तेज़पुर के आगे असम और अरुणाचल प्रदेश की सीमा पर स्थित एक छोटा सा कस्बा है। गुवाहाटी से नगाँव का सफ़र हमेशा से सुहावना रहा है । खानापारा के ट्रैफिक से जूझते हुए सोनापुर की हरियाली तक पहुँचना ही भारी लगता है । फिर उसके बाद तो नगाँव तक मक्खन जैसे चिकने हाईवे पर कार या मोटरसाइकिल फर्राटे से दौड़ती है । अगर कहानियों की तलाश करें तो जोगीरोड की मछली मार्केट, विश्वप्रसिद्ध लेकिन अब बीमार पड़ी नगाँव पेपर मिल, नेल्ली के भयानक दंगे, कपिली नदी का खूबसूरत किनारा..गुवाहाटी से नगाँव तक के करीब 110 किमी लम्बे सफ़र में कहानियाँ कदम दर कदम बिखरी पड़ी हैं, लेकिन इस बार मुझे उन कहानियों से आगे के सफ़र पर जाना था ।
बिना किसी परेशानी के मैं तेज़पुर पहुँच गया। उसके बाद तेज़पुर शहर की भीड़भाड़ से निकलकर थोड़ी ही देर में मैं बालीपारा जाने वाली सड़क पर था। बालीपारा तक तो सड़क पर लोगों की भीड़भाड़ दिखती है, लेकिन बालीपारा के आगे रेलवे लाइन क्रॉस करते ही सब कुछ अचानक से बदल जाता है।
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सड़क के दोनों तरफ नामेरी नेशनल पार्क इलाके में हरे-भरे पेड़ों के जंगल हैं। थोड़ी देर बाद कामेंग नदी (असम में जिया भोरेली नदी के नाम से जानी जाती है) की पहली झलक मिलती है। एकदम अनछुए से लग रहे जंगलों के बीच बहती नदी का दृश्य बहुत ही सुहावना था। प्राकृतिक सुन्दरता ऐसी कि मुझसे रहा नही गया और मैने मोटरसाइकिल सड़क से परे नदी की तरफ उतार दी। कीचड़ से भरे घास के मैदान को पार कर अकेले अकेले भटकता मैं नदी किनारे काफी देर तक प्रकृति की खूबसूरती को निहारता रहा। इस पूरे नेशनल पार्क की हरियाली देखते ही बनती है। इसमें कोई संदेह नही कि नामेरी नेशनल पार्क असम के बेहतरीन जंगलों में से एक है।
नदी किनारे से वापस सड़क पर पहुँचकर मैं फिर से भालुकपोंग की तरफ बढ़ चला। नामेरी के जंगलों से गुजरती चिकनी सड़क पर मोटरसाईकिल चलाने का एक अलग ही मजा है। दिल में बार बार इच्छा होती थी कि कहीं जंगली हाथियों का एक झुंड नजर आ जाये या कोई जंगली जानवर ही दिख जाए। लेकिन इक्का-दुक्का नजर आने वाले वाहनों से भरी सड़क पर आवागमन फिर भी पर्याप्त मात्रा में था, इसलिए जंगली जानवरों को ना तो सड़क की तरफ आना था और ना ही वो आये।
थोड़ा आगे बढने पर एक मुख्य रास्ते से निकलता एक दूसरा रास्ता नजर आता है । यह पतला रास्ता नामेरी के जंगलों में अंदर स्थित नामेरी ईको कैंप तक जाता है । यह ईको कैंप नामेरी नेशनल पार्क के अंदरूनी क्षेत्र में ठहरने का एक अति उत्तम विकल्प है । ईको पार्क में ठहरने के लिए साधारण कॉटेज और टेंट जैसे विकल्प हैं । यहाँ ठहरने से नामेरी पार्क के जंगली जानवरों और चिड़ियों से रूबरू होने की संभावना बढ़ जाती है । कैंप में राफ्टिंग, फिशिंग और ट्रैकिंग जैसी सुविधाएँ भी उपलब्ध हैं ।
3 बजते-बजते मैं भालुकपोंग पहुँच गया। भालुकपोंग में असम-अरुणाचल प्रदेश के बॉर्डर पर स्थित चेकपोस्ट से आगे जाने के लिए इनर लाइन परमिट की जरूरत पड़ती है। उस दिन तो मुझे रात में भालुकपोंग में ही रुकना था, इसलिए मैं चेकपोस्ट से ठीक पहले असम पर्यटन द्वारा संचालित प्रशांति टूरिस्ट लॉज की तरफ़ घूम गया। प्रशान्ति टूरिस्ट लॉज में दो तरह की प्रॉपर्टी हैं। दोनों जगह कमरों का प्रति रात्रि किराया अलग-अलग है। एक प्रॉपर्टी में प्रति रात्रि किराया 1500 रुपये से शुरू होता है, वहीं दूसरी वाली प्रॉपर्टी का किराया 700 रुपये से शुरु होता है। मैंने दूसरी प्रॉपर्टी में एक कमरा बुक किया। लॉज के ज्यादातर कमरे खाली ही पड़े थे, इसलिए मुझे कमरा मिलने में कोई दिक्कत नही हुई। कमरा साफ़ सुथरा और काफी बड़ा था।
वैसे तो टूरिस्ट लॉज में भी खाने-पीने की व्यवस्था है, लेकिन लॉज के प्रवेश द्वार पर भी 3-4 दुकानें हैं जहाँ खाने-पीने की सुविधा मिल जाती है। भालुकपोंग का मुख्य बाजार भी पास में ही है, इसलिये खाने-पीने की कोई दिक्कत नही है।
थोड़ी पेट पूजा करके मैं एक बार फिर कामेंग नदी के किनारे की तरफ चल पड़ा। टूरिस्ट लॉज के सामने से ही एक रास्ता नदी की तरफ जाता है। रास्ते की ढलान पत्थरों से भरी-पड़ी है और नीचे आगे बढ़ने के लिए पानी की एक धारा से गुजरना पड़ता है। लॉज से नदी तट की दूरी बमुश्किल 400 मीटर ही होगी और पैदल चलकर हरे-भरे रास्ते का आनन्द ले सकते हैं। लेकिन फिर भी कई सारे लोग पहले पथरीले ढलान और फिर नदी की धारा में अपनी कार और मोटरसाइकिल कूदा-कूदाकर नदी की तरफ जाते हैं।
करीब 15 मिनट में मैं नदी तट पर पहुँच गया। सर्दियों में शान्त सी दिखने वाली कामेंग नदी का बहाव बहुत ही तेज था, इतना तेज की नहाने की तो सोच ही नही सकते थे। नदी के किनारे कुछ लोग मछली पकड़ रहे थे। बहुत सारे नौजवान लड़के समूहों में बैठकर बीयर का आनन्द उठा रहे थे। कचरा फेंकने की कोई व्यवस्था नही होने से सब लोग बीयर के कैन और बोतलें इधर-उधर फेंक रहे थे। कई लोगों ने तो कैन और बोतलें नदी में ही फेंक दी। थोड़ी दूरी बना बनाकर बहुत सारे परिवार वाले भी नदी तट का आनन्द ले रहे थे। नदी के दूसरे किनारे पर नामेरी पार्क के घने जंगलों का विस्तार नज़र आ रहा था।
सर्दियों में जब कामेंग नदी में पानी की मात्रा कम हो जाती है और नदी का बहाव धीमा होता है, तब भालुकपोंग पूर्वोत्तर भारत में रिवर राफ़्टिंग का एक प्रमुख केंद्र बन जाता है। फिर यह छोटा सा कस्बा पर्यटकों की भीड़ से गुलज़ार हो उठता है।
नदी तट पर कुछ समय बिताकर मैं वापस आ गया। मैंने सोचा कि अगले दिन की यात्रा पर जाने से पहले मोटरसाइकिल की टँकी पूरी भरवा लेता हूँ, क्योंकि मेरे हिसाब से एक बार भालुकपोंग से निकलने के बाद फिर पेट्रोल करीब 130 किमी दूर स्थित सेप्पा कस्बे में ही मिलने की संभावना थी। पेट्रोल लेने के लिए भालुकपोंग कस्बे में चेकपोस्ट के आगे जाना पड़ता। कायदे से तो बिना परमिट के चेकपोस्ट से आगे जाना सम्भव नही है, लेकिन भालुकपोंग में नियम-कानून इतने सख़्त नही हैं। वैसे मेरे पास तो परमिट पहले से ही मौजूद था।
चेकपोस्ट के आगे ही एक पेट्रोल पम्प है। जब वहाँ गया तो पता चला कि उनके पास पेट्रोल ही नही था। पूछने पर पता चला कि 5 किमी आगे टिप्पी के पहले एक और पेट्रोल पंप मिलेगा। मैं उधर ही बढ़ चला। भालुकपोंग के बाहर निकलते ही लगा कि जन्नत उधर ही कही थी। हरी-भरी वादियों में सड़क के बगल में नीचे बहती नदी के ऊपर सफ़ेद बादलों का झुंड मंडरा रहा था। नदी से उठती कुहरे की धुंध वातावरण की खूबसूरती में चार चांद लगा रही थी। सड़क पर गाड़ियों की आवाजाही ना के बराबर थी, इसलिए स्थानीय लोग सड़क किनारे ही टहल रहे थे।
थोड़ी देर में मैं दूसरे पेट्रोल पंप पर पहुँच गया, लेकिन वहाँ भी पेट्रोल नही था। अब तो मेरी टेंशन बढ़ गयी थी। बिना टंकी भरे सेप्पा तक का सफ़र करना बेवकूफी थी। इसकी कोई गारंटी नहीं थी कि सुबह-सुबह ही उन पेट्रोल पंपों पर पेट्रोल आ जाएगा। एक ऑप्शन और था कि मैं सड़क के किनारे बोतलों में खुदरा पेट्रोल बेच रही दुकानों से पेट्रोल भरवा लूँ, लेकिन उनकी शुद्धता को लेकर मेरे मन में बहुत संशय था। अंत में मैंने सोचा कि 30 किमी पीछे जाकर बालीपारा के पेट्रोल पंप पर पेट्रोल भरवा लेता हूँ। बस फिर मैं वापस बालीपारा की तरफ गया और टंकी पूरी भरवा कर दुबारा भालुकपोंग आ गया। इन परिस्तिथियों में सबसे अच्छा तरीका मुझे समझ आया कि तेज़पुर के आस पास से 10 लीटर की पेट्रोल कैन ही लटका लो अपनी बाइक पर, ताकि आगे अरुणाचल प्रदेश में थोड़ा निश्चिन्त होकर जा सकें।
वापस भालुकपोंग पहुँचन तक अंधेरा घिरने लगा था, इसलिये एक दुकान पर जाकर मैंने डिनर का जुगाड़ किया। अगले दिन मुझे जाना तो सेप्पा था लेकिन भालुकपोंग के आगे 20 किमी की दूरी में ही सड़क की हालत ने मेरे सारे उत्साह पर पानी फेर दिया। ऐसे हालात बन गए कि सेप्पा की तरफ जाने की हिम्मत ही नही हुई और मैं तवांग वाले रास्ते पर बोमडीला की तरफ बढ़ गया। भालुकपोंग से बोमडीला और फिर आगे दिरांग घाटी के सफ़र की कहानी अगली पोस्ट में जारी रहेगी।