असम के आर पार की हमारी यात्रा अपने आखिरी पड़ाव पर पहुँच चुकी थी। पिछले 5-6 दिन से जारी अपनी यात्रा में गुवाहाटी से चलकर हम जोरहट, शिवसागर, चराईदेव, डिगबोई, मार्गेरीटा, लीडो, जगुन जैसे शहरों और कस्बों से होते हुए पूरा असम पार कर अरुणाचल प्रदेश में भारत-म्यानमार सीमा पर स्थित नाम्पोंग कस्बे तक गए। इस दौरान विश्व युद्ध II के समय निर्मित, भारत से बर्मा होते हुए चीन तक जाने वाली स्टीलवेल रोड के भारतीय हिस्से पर घूमने का हमारा सपना भी पूरा हो गया । उसके बाद डिगबोई के तेल संग्रहालय, डूमडूमा के चाय बागानों से होकर धोला-सदिया पुल होते हुए हमने एक बार फिर अरुणाचल प्रदेश में प्रवेश किया और खूबसूरत से कस्बे रोइंग की सैर की। रोइंग से चलकर अरूणाचल प्रदेश की उन्मादी नदियों से होकर पासीघाट तक का कभी ना भूलने वाला सफ़र तय किया और फिर आगे बढ़ते हुए असम के धेमाजी पहुँच गए।
धेमाजी से गुवाहाटी के लिए प्रस्थान करने से पहले अब सिर्फ एक ही पड़ाव और बचा रह गया था। वह पड़ाव था असम में ब्रह्मपुत्र नदी के बीच में स्थित दुनिया का सबसे बड़ा द्वीप माना जाने वाला माजुली द्वीप। थोड़ी ही दूरी पर स्थित माजुली द्वीप से रुबरु हुए बिना इस यात्रा की इतिश्री करना गलत था, इसलिए हम सुबह-सुबह ही धेमाजी से एक बार फिर अपने आगे के सफ़र पर माजुली के लिए निकल पड़े। किस्मत देखिए कि अभी मैंने आपको जितने भी शहरों और कस्बों के नाम गिनवाए, 7-8 महीने पहले तक मैंने इनमें से सिर्फ जोरहट, माजुली और डिगबोई का ही नाम सुन रखा था। घुम्मकड़ी सिर्फ यहाँ से वहाँ भागने का नाम थोड़े है, इससे हमें इतिहास, भूगोल, समाज और संस्कृति जैसी बहुत सी बातें भी पता चलती हैं। 7-8 महीने पहले तक मैंने जिन जगहों का नाम भी नही सुना था, अब उन्हीं जगहों के बारे में मैं विस्तार से लिख रहा हूँ। यही तो घुमक्कड़ी का कमाल है।
धेमाजी से माजुली में स्थित गारमुर की दूरी करीब 90 किमी है। लेकिन रास्ता खराब होने के कारण इस दूरी को तय करने में हमें 5 घण्टे लग गए । फिर गारमुर पहुँच कर अपना पहले से बुक किया हुआ गेस्ट हाऊस खोजने में एक घंटा अतिरिक्त लग गया । जब हम धेमाजी से निकले तो गूगल मैप देख कर यह तय हुआ कि नारुथान (Naruathan), घिलामोरा (Ghilamora ) से होते हुए धकुआखाना (Dhakuakhana ) में थोड़ी देर रुकेंगे, फिर जेन्ग्रैमुख (Jengraimukh) से होते हुए माजुली द्वीप में प्रवेश करेंगे । लेकिन जब हम आगे बढ़े, तो रास्तों की भूलभुलैया में ऐसे उलझे कि दो बार तो गलत रास्ता पकड़ लिया। जब समझ में आया कि मैप वाले रास्ते पर नहीं हैं, तो एक बार सोचा कि वापस मुड़ लूँ , फिर मैप में देखा तो पाया कि हम जिस रास्ते पर थे, वह भी आगे धकुआखाना पहुँचता ही है। इसलिए वापसी का इरादा त्याग कर उसी रास्ते पर आगे बढ़ते रहे। घिलामोरा की तरफ से जाने के बजाय अब हम मचखोवा चरिआली से होते हुए धकुआखाना की तरफ जा रहे थे।
असम में तिनसुकिआ और शिवसागर जिले के अंदरूनी गांवों में हम पहले ही इतना चल चुके थे कि मन से सारा डर गायब हो गया था। पहले तो रास्ते के दोनों तरफ फैले हरे-भरे खेतों और जगह-जगह मिलते पानी के बड़े-बड़े तालाबों ने मन को मोह लिया, लेकिन बाद में रास्ता बहुत ही खराब हो गया। कुछ जगह तो छोटे नदी-नालों पर बाँस और लकड़ी के पुल बने थे, जिनसे होकर बड़ी सावधानी से गुजरना पड़ता था। उबड़-खाबड़, धूल और पत्थरों से भरे रास्ते पर गाड़ी की स्पीड 10-20 किमी/घण्टे से ऊपर जा ही नहीं पाती थी। कहीं-कहीं अच्छी सड़क मिल जाने पर गाड़ी थोड़ा भगा लेता था। वह तो अच्छा था कि बारिश का मौसम नहीं था, नहीं तो उस सड़क पर चलने में बहुत पापड़ बेलने पड़ते। किसी तरह गिरते-पड़ते हम धकुआखाना पहुँच गए।
थोड़ी देर मुख्य बाजार में रुकने के बाद हम जेन्ग्रैमुख की तरफ चल पड़े। मंजिल अभी भी दूर थी, लेकिन अब रास्ते के दोनों तरफ पीले-पीले सरसों के खेत, हरे-भरे प्राकृतिक नजारे दिखने से मन प्रसन्न था। छोटी-छोटी नदियाँ और तालाब भी मिलें, जिसमें मछली पकड़ने के जाल लगे हुए थे। कभी सड़क अच्छी मिल जाती तो , कभी उबड़-खाबड़, लेकिन फिर भी सड़क पर ट्रैफिक ना के बराबर ही था। हर तरफ फैले सन्नाटे में गाहे-बगाहे छोटे-छोटे बाज़ार और इक्का-दुक्का गाँव मिल जाते थे। जहाँ भी दृश्य अच्छा लगता, वहीं रुककर कुछ तस्वीरें खींच लेते थे।
फिर एक थोड़ी बड़ी नदी मिली, लगा कि बस पुल पार करते ही माजुली की सीमा में पहुँच जाएंगे। फिर मैप देखा तो माजुली और जेन्ग्रैमुख थोड़ी ही दूर लगे। हम आगे बढ़ते गए, फिर पता नहीं क्यों लगा कि जेन्ग्रैमुख जितनी जल्दी पहुँच जाना चाहिए था, उतनी जल्दी पहुंच नहीं पा रहे हैं । जब मैप चेक किया तो पता चला कि जेन्ग्रैमुख की तरफ ना जाकर हमने एक दूसरा रास्ता पकड़ लिया और उस गलत रास्ते पर करीब 10 किमी तक आगे बढ़ गए थे। मोबाइल नेटवर्क रह-रहकर साथ छोड़ देता था और ऑफलाइन मैप डाउनलोड करना हम भूल गए थे, इसकी वजह से भी बड़ी दिक्कत हो जा रही थी। हमने गाड़ी फिर से वापस मोड़ ली।
वैसे तो गाँवों के बीच में से छोटे-छोटे रास्ते भी मैप में दिख रहे थे, लेकिन असम में नदियों का जो जाल है, उसकी एक बड़ी दिक्कत है नदियों पर पर्याप्त पुलों का ना होना। ज्यादातर जगहों पर पुल ना होने की वजह से ग्रामीणों ने बाँस और लकड़ी के पुल बनाये हुए हैं। यह पुल इतने मजबूत होते हैं कि इनके ऊपर से छोटी कारें और SUV आराम से निकल जाती हैं, लेकिन कई बार ऐसा भी होता है कि गूगल मैप में दिखा रहा पुल या तो होता ही नही है , या फिर अगर वहाँ पुल होता है, तो बस इतना मजबूत कि उस पर से बाइक और साईकल निकल सके। ऐसा अनुभव मुझे असम और मेघालय में कई बार हुआ है। इसलिए असम में मुख्य हाईवे और बड़ी सड़कों के अलावा और कहीं शॉर्टकट मारते समय पूरी जानकारी रखनी चाहिए, अन्यथा आगे रास्ते में गुगली होने की संभावना हो सकती है।
माजुली का पूरा क्षेत्र भी छोटी-छोटी नदियों से भरा पड़ा है। इसलिए बिना कोई शॉर्टकट लिए हम सिर्फ मुख्य रास्तों पर ही चल रहे थे। थोड़ी देर में हम वापस सही रास्ते पर जेन्ग्रैमुख की तरफ बढ़ने लगे।
जेन्ग्रैमुख के तिराहे से पहले एक छोटी नदी है। जब हमने उसके पुल को पार किया तो हमें एक बोर्ड मिला, जिस पर लिखा था “वेलकम टू माजुली’ । अन्ततः हमने अपने कदम माजुली में रख ही दिए। उत्साह और आनन्द की कोई सीमा नहीं थी। इसलिए नही कि हम माजुली में थे, बल्कि इसलिए कि हम माजुली के उत्तरी भाग से बिना किसी नाव की सवारी किये सड़क मार्ग द्वारा वहाँ पहुँच गए थे, और ऐसा बहुत कम लोग ही करते हैं। ज्यादातर पर्यटक तो जोरहट के निमतीघाट से नाव पकड़ते हैं और माजुली पहुँच जाते हैं। ब्रह्मपुत्र को पार करने के लिए चलने वाली बड़ी-बड़ी नावों में 7-8 कारें भी आराम से लद जाती हैं। हमें सड़कें जरूर थोड़ी खराब मिली, लेकिन अपने यात्रा के आखिरी पड़ाव माजुली तक हम पहुँचकर हम बहुत खुश थे।
जेन्ग्रैमुख से आगे बढ़ते हुए हम गारमुर की तरफ चल दिये, जहाँ हमने पहले से ही एक बैम्बू हाऊस बुक किया हुआ था। माजुली के अंदर भी रास्ते की स्थिति में कोई खास परिवर्तन नहीं नजर आया। वही धूल-पत्थर और ऊबड़-खाबड़ रास्ता। बारिश होने लगे तो उन कीचड़ भरे रास्तों पर चलने में नानी याद आ जाएं।
गारमुर तक पहुँचने में कोई दिक्कत नहीं हुई। अगला काम था अपने गेस्ट हाऊस (बैम्बू हाऊस) को खोजना। गूगल मैप जहाँ दिखा रहा था , वहाँ तो कोई रास्ता ही नहीं नजर आ रहा था और वहाँ का कोई फ़ोन नंबर भी नही था। चूँकि गेस्ट हाऊस के विवरण में साफ-साफ लिखा था कि बैम्बू हाऊस नदी के किनारे है, तो हम गारमुर से नदी की तरफ वाले रास्ते पर मुड़ गए। दोनों तरफ खेतों के बीच से जाता ऊँचा लेकिन पतला सा रास्ता था। सड़क पर बिछे पत्थर इतने ढीले थे कि चलने में डर ही लग रहा था। पहला बैम्बू हाऊस मिलते ही हमने गाड़ी सड़क से नीचे उतार दी कि शायद वही हमारा ठिकाना हो। लेकिन वहाँ पूछने पर पता चला कि वह कोई दूसरा गेस्ट हाऊस था। जिस गेस्ट हाऊस में हमारी बुकिंग थी, वह अभी नया-नया ही था, इसलिये कोई उसके बारे में बता नही पा रहा था।
हम आगे नदी की तरफ बढ़ गए। नदी किनारे पहुँचते ही फिर से कंफ्यूज़न शुरू। दो रास्ते थे। समझ मे नही आ रहा था कि किधर जाएँ। कुछ देर सोच विचार करके नदी के किनारे बढ़ते रहे। रास्ता खराब ही होता जा रहा था, लेकिन दिशा निर्देशन देने वाला कोई मिल नही रहा था। करीब 1 किमी गए होंगे तभी बाइक पर 2 आदमी आते हुए दिखे। उन्होंने बताया कि उस साइड में अब कोई गेस्ट हाऊस नही है। फिर उनके पीछे-पीछे हम दुबारा उस स्थान पर आ गए, जहां से दो रास्ते थे। अब हम दूसरे रास्ते पर चल दिये। पहले एक बैम्बू हाऊस मिला । वहाँ पूछने पर पता चला कि हमारा वाला गेस्ट हाऊस थोड़ा आगे ही है। नदी के किनारे रास्ता बहुत ही खराब था। एक जगह तो ऐसा भी लगा कि गाड़ी अब पलटी कि तब पलटी। फिर किसी तरह धीरे-धीरे चलते हुए हम अपने गेस्ट हाऊस पहुँच ही गए। गाड़ी की तो हालत सड़क की वजह से ख़राब थी। पूरा बाहरी हिस्सा धूल से अटा पड़ा था।
हमें अपना गेस्ट हाऊस खोजने में थोड़ी दिक्कत जरूर हुई और समय भी करीब एक घण्टे का लग गया, लेकिन नदी के किनारे वीराने में बनी सिर्फ 2 बैम्बू हाउसों वाली प्रॉपर्टी अच्छा एहसास दे रही थी। कमरा भी साफ-सुथरा और बड़ा था। अभी दोपहर के 1 बजे थे, इसलिए हमने तरोताजा होकर माजुली में आस पास घूमने का निश्चय किया। माजुली में अपनी यात्रा के बारे में अगले पोस्ट में बातें करेंगे।