गया..बिहार की राजधानी पटना से लगभग 100 किमी की दूरी पर बसा एक भीड़ भाड़ वाला शहर । जिधर देखो उस तरफ साइकिलों, रिक्शों, कारों और बसों में एक होड़ लगी है। बिना हॉर्न बजाये किसी को चैन नही है। सड़क के दोनों तरफ अस्त-व्यस्त फैली दुकानों पर खरीददारों की भीड़ । शहर में प्रवेश करते ही एक बोर्ड मिलता है कि ज्ञान और मोक्ष भूमि गया में आपका स्वागत है । गया की धरती पर कदम रखना एक हिन्दू के लिए बड़े पुण्य का काम है । मुख्य शहर से थोड़ी दूर पर स्थित बोधगया में पीपल के पेड़ (जिसे बाद में बोधि वृक्ष का नाम मिला) के नीचे भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई । पुराने शहर के पास बहती फल्गु नदी के किनारे हर साल पितृपक्ष के 15 दिनों में लाखों लोग गया तीर्थ की धरती पर अपने पितरों का पिंडदान, श्राद्ध और तर्पण करके उनके मोक्ष की कामना करते हैं । पितृपक्ष के परे भी यह सिलसिला साल भर चलता ही रहता है । ज्ञान और मोक्ष के इसी संगम ने गया को मुक्तिधाम बना दिया । यह बौद्ध धर्म के अनुयायियों के लिए ज्ञान का सागर है और हिन्दू धर्म को मानने वालों के लिए मोक्ष का द्वार है ।
गया के इसी मुक्तिधाम के दर्शन की इच्छा ने मुझे फल्गु नदी के तट की तरफ खींच लिया । भगवान विष्णु का नगर समझा जाने वाला गया तीर्थ बहुत ही पुराना शहर है । इसका जिक्र पुराणों और अन्य हिन्दू धर्मग्रन्थों में प्राचीन काल से ही चला आ रहा है । गया के पुराने शहर को अंदर (inner) गया के नाम से जाना जाता है और उसके परे बसे शहर के विस्तार को साहेबगंज के नाम से । अंदर गया में में बसने वाले निवासियों को, जिन्हें गयापाल (या गयावाल) कहते हैं, पिंडदान और श्राद्ध का सारा विधि विधान पता है और इसीलिए इस कार्य में उनकी मुख्य भूमिका रहती है।
गया शहर की महत्ता इसी बात से है कि शास्त्रों में इसे गया तीर्थ का दर्जा दिया गया । माना जाता है कि स्वयं विष्णु यहां पितृ देवता के रूप में मौजूद हैं, इसलिए इसे ‘पितृ तीर्थ’ भी कहा जाता है । इस तीर्थ के बनने की कहानी भी बड़ी अनोखी है:
गया धाम की कहानी: प्राचीन काल में गयासुर नाम के एक राक्षस ने कठिन तप किया और ब्रह्मा जी को प्रसन्न करके उनसे एक वरदान मांगा कि उसका शरीर देवताओं की तरह पवित्र हो जाये । उसको देखने मात्र से ही लोगों के पाप कट जाएं और उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति हो । गयासुर को मिले उस वरदान ने सृष्टि का संतुलन बिगाड़ दिया । लोग बिना किसी डर के पाप कार्यों में लिप्त होने लगे, क्योंकि उसके बाद गयासुर के दर्शन मात्र से ही उनके सारे पाप दूर हो जाते थे और उन्हें स्वर्ग की प्राप्ति होती थी । स्वर्ग और नर्क का सन्तुलन बिगड़ने पर देवताओं ने भगवान विष्णु से मदद माँगी । तब भगवान विष्णु की सलाह से देवताओं ने गयासुर से यज्ञ करने हेतु पवित्र जमीन की मांग की । गयासुर की नजर में उसके शरीर से पवित्र कुछ नही था, इसलिए वह भूमि पर लेट गया और बोला कि आप लोग मेरे शरीर पर ही यज्ञ कर लीजिये । गयासुर का शरीर पाँच कोस जमीन पर फ़ैल गया । गयासुर के समर्पण से प्रसन्न होकर विष्णु भगवान ने वरदान दिया कि अब से यह स्थान जहां तुम्हारे शरीर पर यज्ञ हुआ है वह गया के नाम से जाना जाएगा । यहां श्राद्ध करने वाले को पुण्य और पिंडदान प्राप्त करने वाले को मुक्ति मिल जाएगी ।
गयासुर का पूरा शरीर ही आज का गया तीर्थ है। उसकी पीठ पर बने विष्णु भगवान के पैरों के निशान के ऊपर बनवाया गया भव्य मंदिर विष्णुपद मन्दिर के नाम से जाना जाता है। विष्णुपद मंदिर में भगवान विष्णु के पैरों के निशान आज भी देखे जा सकते हैं।
फल्गु नदी का किनारा : विष्णुपद मन्दिर के पास पहुँचकर मैं सीधे मन्दिर में ना जाकर फल्गु नदी की तरफ बढ़ चला। विष्णु मशान धाम यानि श्मशान भूमि के बगल से होते हुए मैं नदी के किनारे पहुँच गया। नदी के किनारे लकड़ियों के ढेर से परे 2-3 चिताएं जल रहीं थी। बनारस में गंगा किनारे का महाश्मशान मणिकर्णिका हो या गया में फल्गु किनारे का श्मशान.. लकड़ियों के इस ढेर ने मुझे हमेशा ही जिंदगी का एक सार समझाया है कि जिंदगी में बिस्तर चाहे जैसा हो, लेकिन मरने के बाद का बिस्तर यह लकड़ियों का ढेर ही है। जीवन की नश्वरता को समझने के लिए एक श्मशान से बेहतर जगह कुछ नहीं हो सकती है।
नदी के किनारे कूड़े का अंबार बिखरा पड़ा था। करीब 400-500 मीटर चौड़ी नदी की धारा किनारे से बहुत दूर बह रही थी। यह विडम्बना ही है कि जिस फल्गु नदी को मोक्षदायिनी गंगा से भी पवित्र माना गया, वह गया धाम में अपने अस्तित्व के लिए ही जूझती मिली । लोग कहते हैं कि फल्गु की यह दशा सीता के श्राप के कारण है। लेकिन बरसात के मौसम में भी सूखी सी लगती नदी के किनारे सड़ांध मारते कूड़े का ढेर बताता है कि बहुत कुछ समस्याएं मानवजनित भी है । बाद में अखबार के पुराने पन्नों से गुजरा तो पता चला कि गया शहर के सारे नालों का कचरा फल्गु नदी में ही गिरता है। ऐसी भी खबर मिली कि इस साल सर्दियों में फल्गु में श्राद्ध करते समय पानी की ऐसी किल्लत हुई कि रेत खोदकर पानी निकालना पड़ा और पानी का एक लोटा 15 से 20 रुपये में बिका।
गया तीर्थ की पौराणिक कहानियाँ कुछ अलग किस्म की ही हैं । गयासुर के कारण सृष्टि का संतुलन बिगड़ गया, लेकिन उसी गयासुर के कारण गया अजर-अमर हो गया। सीता के श्राप ने फल्गु को अंतः सलीला (सतह के नीचे से बहने वाली) बना दिया, लेकिन फिर उसी फल्गु को गंगा से भी पवित्र माना गया। यही फल्गु नदी बोधगया में निरंजना के नाम से जानी गयी । कहते हैं निरंजना के तट पर स्थित पीपल के वृक्ष के नीचे भगवान बुद्ध को ज्ञान की प्राप्ति हुई थी ।
थोड़ा आगे चलकर मैं फल्गु के रेतीले किनारे की ओर बढ़ गया। नदी में पानी बहुत कम था और बड़ी दूर तक रेत नजर आ रही थी। बालू से पिंड बनाकर नदी की तलहटी में पिंडदान करने वालों की अच्छी खासी भीड़ थी। हर दिन दिखने वाले इस मेले में सिर्फ भारत के अलग-अलग हिस्सों से ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में फैले हिन्दू अपने परिवार के मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति और मोक्ष की कामना से पिंडदान, श्राद्ध और तर्पण करते दिख जाते हैं ।
गया शहर के बसने से लेकर फल्गु की रेती पर पिंडदान तक के सफर में अनगिनत कहानियाँ जुड़ी हैं। नदी किनारे सीढियों पर बैठे एक बुजुर्ग से बात की तो पता चला कि बरसात के मौसम में किसी-किसी साल फल्गु में पानी की मात्रा बढ़ जाती है, लेकिन साल में ज्यादातर समय नदी में पानी का स्तर ना के बराबर ही होता है । फिर उन्होंने भी फल्गु नदी को सीता माता द्वारा मिले श्राप की कहानी दुहरा दी ।
माता सीता का श्राप : अपने वनवास के दौरान पिता राजा दशरथ की मृत्यु के पश्चात भगवान राम, माता सीता और भाई लक्ष्मण के साथ पितृपक्ष के दौरान गया पिंडदान करने के लिए पहुंचे। फल्गु के किनारे माता सीता को अकेले छोड़कर दोनों भाई पिंडदान की सामग्री का जुगाड़ करने नगर में चले गए। उन्हें आने में काफी देर हो गई और इधर सीता की व्यग्रता बढ़ती जा रही थी। थोड़ी देर में राजा दशरथ की आत्मा ने प्रकट होकर शीघ्र पिंडदान की मांग की, क्योंकि शुभ मुहूर्त निकला जा रहा था । तब असमंजस में पड़ी सीता ने और कोई उपाय ना देखकर गया ब्राह्मण, फल्गु नदी, वट वृक्ष, गाय और तुलसी को साक्षी मानकर नदी की रेत के ही छोटे-छोटे पिंड बनाकर पिंडदान कर दिया । थोड़ी देर बाद जब भगवान राम वापस आये, तो उनको सारी बात का पता चला । लेकिन दोनों भाइयों को भरोसा नही हुआ कि बिना उचित पूजा सामग्री के पिंडदान कैसे सम्भव है? सीता से प्रमाण माँगा गया। जब पिंडदान का गवाह बनने की बात आई तो ब्राह्मण, फल्गु नदी, गाय और तुलसी सब मुकर गए। केवल वट वृक्ष ने ही पिंडदान की बात को स्वीकार किया। निराश माता सीता ने राजा दशरथ की आत्मा का ध्यान किया और उनसे खुद उपस्थित होकर प्रमाण देने की प्रार्थना की । फिर उनकी आत्मा ने खुद प्रकट होकर पिंडदान की बात को स्वीकार किया।
लेकिन इस सारी घटना से क्षुब्ध होकर माता सीता ने फल्गु नदी को श्राप दिया कि उसमें पानी हमेशा कम रहेगा और वह सदा जमीन के नीचे बहेगी । तुलसी को श्राप मिला कि वह कभी गया में पल्लवित नही हो पायेगी । गाय को श्राप दिया कि पूज्यनीय होकर भी वो सबका जूठा ही खाएगी और उसके केवल पिछले हिस्से की ही पूजा होगी । सीता के श्राप के कारण ही गया के पण्डों को चाहे जितनी दान-दक्षिणा दे दो, लेकिन वो कभी सन्तुष्ट नहीं होते। केवल वट वृक्ष को आशीर्वाद मिला कि वो सदा हरा भरा रहेगा और सुहागिने उसकी पूजा किया करेंगी।
विष्णुपद मंदिर: वहाँ से आगे बढ़ते हुए मैं विष्णुपद मन्दिर में प्रवेश कर गया । यह मन्दिर हिन्दू मान्यताओं में भगवान विष्णु के सबसे पवित्र मंदिरों में से एक है । गया के पास ही स्थित पाथेरकट्टी पहाड़ी से लायी गई ग्रेनाइट की चट्टानों से इंदौर की महारानी अहिल्या बाई होल्कर ने 18वी शताब्दी में इस मन्दिर का निर्माण राजस्थान से ख़ास तौर से बुलाये गये लगभग 1200 शिल्पकारों से करवाया । मंदिर के निर्माण में लगभग 12 वर्ष लगे ।
मुख्य मंदिर के बरामदे में लोगों की भीड़ बढ़ती जा रही थी। अभी तो 7.30 बजे थे। मन्दिर के गर्भगृह के खुलने का समय 08.00 बजे से है। मन्दिर के अंदर गर्भगृह में एक बेसाल्ट की चट्टान के उपर भगवान विष्णु के पैर के निशान आज भी मौजूद हैं, जिसको धर्मशिला के नाम से जाना जाता है ।
मंदिर के प्रांगण में हर तरफ कई सारे देवी – देवताओं के छोटे- छोटे मन्दिर बने हैं । अपने देश में कई सारे मन्दिरों में ऐसा ही होता है, एक मुख्य देवता और उसके इर्द-गिर्द सैकड़ों हजारों देवी -देवता । तैंतीस करोड़ देवी-देवताओं को एडजस्ट भी तो करना है ना । हर मन्दिर का अपना एक पुजारी और हर पुजारी की यही चाह कि भक्त गण उसके मन्दिर में कुछ ना कुछ जरूर अर्पण करे ।
मंदिर के प्रांगण में एक तरफ विशाल बरामदा है । जिसमें पंक्तिबद्ध होकर बहुत सारे लोग बैठे थे । उनके आगे पत्तलों में पूजन सामग्री और छोटे-छोटे पिंड रखे हुए थे । वो सभी लोग पुरखों के मोक्ष की प्राप्ति के लिए वहाँ पिंडदान कर रहे थे । गया तीर्थ में पिंडदान के लिए सिर्फ फल्गु नदी का किनारा ही नहीं है, बल्कि ऐसी कई सारी वेदियाँ हैं, जहाँ पिंडदान और श्राद्ध के कार्यक्रम विधिपूर्वक संपन्न होते हैं । विष्णुपद मंदिर से परे भी कई सारे पवित्र स्थान हैं, लेकिन हर जगह जाने का समय नहीं था ।
कुछ अनसुलझे सवाल: कुछ देर विष्णुपद मंदिर परिसर में व्यतीत कर मैं फल्गु के किनारे से होकर वापस अपने गेस्ट हाउस आ गया । मन में तब भी कई सारे सवाल घुमड़ रहे थे । मेरा अपना घर बनारस के पास में हैं । मोक्षदायिनी गंगा तो और भी पास से बहती है। जहाँ तक मुझे याद है तो मेरे जानने वालों में ज्यादातर लोगों का अंतिम संस्कार बनारस से बाहर गंगा किनारे स्थित एक घाट पर हुआ। अविमुक्तक्षेत्र बनारस के तारक मन्त्र की कभी उनको लालसा नहीं रही, मतलब किसी बड़े-बुजुर्ग ने ऐसी इच्छा नहीं जाहिर की कि मरने के बाद उनका अन्तिम संस्कार काशी में मणिकर्णिका या हरिश्चन्द्र घाट पर ही किया जाए । बनारस की महिमा हमारे लिए आम ही रही और शिव की नगरी काशी कम से कम मोक्ष प्राप्ति की दृष्टि से हमारे यहाँ खास नही बन पाई।
गया के पास में स्थित एक और ऐतिहासिक स्थान: बराबर की प्राचीन गुफाएँ
लेकिन गया तीर्थ के साथ ऐसा नही है। गया का नाम आज भी मेरे यहाँ बड़े-बुजुर्ग ‘गया जी’ बोलकर बड़ी इज्जत से लेते हैं । पितरों की मोक्ष प्राप्ति के लिए गया में पिंडदान करना बहुत ही पुण्य का काम समझा जाता है। ये गया धाम की महिमा ही थी, जो मैं वहाँ फल्गु के किनारे कुछ उत्तर तलाश रहा था । काशी की महिमा अपरम्पार है। शिव के धाम में मरने से मुक्ति मिलती है, ऐसा हमेशा से ही सुनता आया हूं। हिन्दू धर्म में मणिकर्णिका के महाश्मशान की भी बड़ी महत्ता है, शायद तभी वहाँ चिताओं की आग कभी ठंडी नही पड़ती है। अगर काशी में ही पुण्य मिल जाता है, तो फिर गया में पिंडदान की जरूरत क्यों पड़ गयी ? कई और सवाल हैं। काशी में मरने से स्वर्ग मिलता है और मगहर में मरने से नरक, इसी बात को झुठलाने के लिए संत कबीर को मगहर में मरना पड़ा, तो क्या उन जैसी विभूति को स्वर्ग नही मिला होगा? फल्गु सूखी तो है, लेकिन वो इसलिए कि वह एक बरसाती नदी है, उसका सीता के श्राप से क्या लेना देना? ब्राह्मणों को मैंने हमेशा ही और दक्षिणा की ख्वाहिश रखते देखा है, यह तो मानव स्वभाव है । अक्षयवट केवल गया ही नहीं; बल्कि इलाहाबाद, जोशीमठ और कुरुक्षेत्र में भी मिल गया । ऐसे और भी बहुत सारे वटवृक्ष हैं, जो सैकड़ों सालों से आज भी हरे-भरे हैं । गाय के माथे पर तिलक लगाते बहुत सारे श्रद्धालु दिख जाते हैं । गया में तुलसी के पौधे भी प्रचुर मात्रा में मिलते हैं । तो क्या माता सीता के सारे श्राप झूठे हो गये ? गया तीर्थ में बहने वाली फल्गु और बोधगया की निरंजना एक ही कैसे हो गई ? पहले बौद्ध धर्म के प्रवर्तक गौतम बुद्ध का विरोध और फिर उन्ही को हिन्दू धर्म में भगवान का एक अवतार बताकर उनसे जुड़ी हर बात को हिन्दू धर्म में ही समाहित करने की कोशिश, क्या प्राचीन समय से ही ऐसा नहीं हो रहा है ?
तर्क करें तो आस्था को चोट पहुँचने लगती है। लेकिन जब हम भगवान का नाम लेते हैं तो सिर्फ आस्था और विश्वास से लेते हैं। यही कारण है कि बनारस का मणिकर्णिका हो या गया में फल्गु का किनारा, मोक्ष की चाह में सिर्फ समाज के कम-पढ़े लिखे लोग ही नही, बल्कि बड़े-बड़े विद्वान भी पहुँच जाते हैं। मोक्ष की इस दुनिया में कोई तर्क नही है, कोई कारण नही है… है तो बस संसार के सबसे शाश्वत सत्य से रूबरू होते हाड़-माँस के बने इंसान, उनकी अनन्त इच्छाएं और लोगों के अंदर बैठा लोक-परलोक का एक डर । कई सवालों के जवाब कहीं नहीं हैं, ना तो गया तीर्थ के मुक्तिधाम में और ना ही काशी के शिवधाम में। वैसे एक बात ये भी है कि मैंने शास्त्रों, पुराणों और अन्य धर्मग्रन्थों का कभी अध्ययन नहीं किया, धर्म को लेकर मेरी जानकारी एकदम सतही ही है । इसलिए कई सारे प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाते हैं । फिर भी यह जरूर कहूँगा कि गया के लोगों और वहाँ पहुँचने वाले श्रद्धालुओं को एक सवाल पर जरूर गौर करना चाहिए- अगर फल्गु नदी का अस्तित्व ही नहीं रहेगा तो फिर हमारे पितरों को मुक्ति कैसे मिलेगी ? शायद तब गया में फल्गु नदी को बचाने के लिए कुछ आवश्यक कदम उठने लगें ।