त्रिपुरा यात्रा में भटकते-भटकते पता ही नहीं चला कि कब वापसी की तारीख आ गई । अगरतला, माताबारी, नीरमहल, दम्बूर झील, छबिमुड़ा, पिलक जैसे त्रिपुरा के प्रमुख स्थलों का भ्रमण करने के बाद मैंने अगरतला से वापसी की राह पकड़ी । लेकिन कमाल की बात यह थी कि इतना भटकने के बाद भी मैंने भारत के सुदूर कोने में स्थित इस प्रदेश के सबसे प्रमुख पर्यटन स्थल का दीदार नहीं किया था । उनकोटी (Unakoti) के पथरीले देवताओं से मिले बिना त्रिपुरा की यह यात्रा अधूरी ही रह जानी थी । इसलिए वापसी में त्रिपुरा से निकलते-निकलते मैंने उनकोटी का रुख कर लिया ।
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सुबह-सुबह मैंने अगरतला से धरमनगर जाने के लिए कंचनजँघा एक्सप्रेस पकड़ी । अगरतला से धरमनगर पहुँचने में क़रीब ढाई घंटे लगते है । उनकोटी (Unakoti), धरमनगर से कैलाशशहर के रास्ते में घने जंगलों के बीच में स्थित है । ट्रेन से उनकोटी जाने के लिए जरूरी है कि पहले धरमनगर या फिर कुमारघाट स्टेशन तक जाएँ । धरमनगर स्टेशन पर ज्यादातर ट्रेनों के रुकने से आगे के लिए यातायात के साधन ज्यादा आराम से मिल जाते हैं । धरमनगर पहुँचकर स्टेशन के बाहर निकलते ही मुझे एक ई-रिक्शा मिल गया, जिसने 20 रुपये में बस स्टैंड तक छोड़ने का आश्वासन दिया । बस स्टैंड से मुझे कैलाशशहर की बस पकड़नी थी, जो मुझे रास्ते में ही स्थित उनकोटी तक छोड़ देती । धरमनगर से उनकोटी की दूरी करीब 20 किमी है और कैलाशशहर उनकोटी से करीब 10 किमी दूर है । गूगल मैप में उनकोटी खोजने पर गलती से कुमारघाट के बिलकुल पास में दिखा देता है, जबकि उनकोटी ईको पार्क खोजने से सही जगह पता चलती है ।
स्टेशन वाले ई- रिक्शॉ से जाना तो मुझे बस स्टैंड तक था , लेकिन रास्ते में एक जीप स्टैंड पर कैलाशशहर की जीप देख कर रिक्शॉ चालक ने मुझे वहीं उतार दिया । बस की तुलना में सवारी जीप से जाना ज़्यादा सुलभ और तीव्र विकल्प था । धरमनगर से जंगलों के बीच स्थित उनकोटी तक तो कोई सवारी गाड़ी जाने से रही, इसलिए सारी गाड़ियाँ कैलाशशहर तक जाती हैं । किराया भी पूरा कैलाशशहर तक का लिया जाता है । यह व्यवस्था धरमनगर से उनकोटी जाने के लिए तो अच्छी है , लेकिन वापसी के समय उनकोटी से धरमनगर के लिए सवारी गाड़ी मिलने में बड़ी दिक्कत होती है । सभी ऑटो और सवारी गाड़ियाँ कैलाशशहर से धरमनगर के लिए सारी सीटों पर सवारियां लेकर चलते हैं , जिससे उनकोटी से खाली सीट मिलना मुश्किल हो जाता है ।
धरमनगर से निकलने के बाद थोड़ी देर तक तो मैदानी इलाक़े से गुज़रते रहे । रास्ते के दोनों तरफ चाय के बागान भी खूब मिले । लेकिन उसके बाद पहाड़ी रास्ता शुरू हो गया । जीप से मैं उनकोटी उतर गया ।
मुख्य सड़क से उनकोटी (Unakoti) की पुरातात्विक धरोहर क़रीब एक किमी दूर है । मैं पैदल ही उधर चल पड़ा । सुबह के 9 बजे 2-4 लोगों के अलावा वहाँ और कोई पर्यटक नही था । मुख्य दरवाज़े पर खड़े गार्ड से पूछा कि अंदर जाने के लिए कोई टिकट है क्या, तो उसने बताया कि टिकट तो नही है, लेकिन बैग चेक कराना पड़ेगा । अंदर किसी भी तरह का खाद्य पदार्थ ले जाने पर पूर्णतया रोक है। प्लास्टिक की बोतल ले जाने की अनुमति भी नही है । मेरे बैग में माताबारी और कालीबारी मंदिरों के प्रसाद वाले पेड़े रखे हुए थे, जिसे उन्होंने बैग से बाहर निकालकर एक तरफ़ रख दिया और बोला कि वापसी में इन्हें लेकर जा सकता हूँ ।
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वो दो बड़ी-बड़ी आँखें ही तो उनकोटी (Unakoti) की पहचान हैं । पास जाने पर पत्थरों पर सुंदर नक़्क़ाशी कर उकेरा गया एक विशालकाय चेहरा नज़र आता है, जिसके दोनों कानों से बड़े-बड़े गोलाकार कुंडल लटक रहे हैं, सिर पर एक मुकुट शोभायमान है और गले में एक विशाल हार सुशोभित है । मस्तक पर बनी तीसरी आँख से पता चलता है कि यह अद्भुत आकृति भगवान शिव का प्रतीक है । उनकोटी का अस्तित्व और सारी दंतकथायें भगवान शिव के इर्द-गिर्द ही घूमती हैं । पहली नक़्क़ाशीदार प्रतिमा (bas-relief) के बग़ल में उसी तरह की एक और प्रतिमा है ।
सीढ़ियों से उतरकर थोड़ा और आगे बढ़ा तो उनकोटी का विस्तार समझ आया। सामने से नीचे , ऊपर , दाएँ -बाएँ गुज़रती सीढ़ियों को देखकर समझ आता है कि उनकोटी की यह अमूल्य धरोहर कितने विशाल क्षेत्र में फैली हुयी है । विडम्बना यह है कि भारत के सुदूर उत्तर-पूर्व के जंगलों में स्थित इतिहास की इस अनूठी विरासत उनकोटी के बारे में अभी भी पुख़्ता जानकारी का अभाव है । अंदाजा लगाया जाता है कि उनकोटी की यह पथरीली कलाकृतियाँ करीब 7वीं से 9वीं शताब्दी के बीच की हैं । भारतीय पुरातत्व विभाग द्वारा उनकोटी के उत्खनन का कार्य है, ताकि इस महान विरासत के बारे में ज़्यादा से ज़्यादा जानकारी मिल सके।
वापसी में दूसरी तरफ की सीढ़ियों से नीचे उतरकर मैं एक पानी की धारा, धालूछोरा, के पास पहुँचा जहाँ विशाल पत्थरखंडों पर क़रीब 30 फ़ीट ऊँचा चेहरा उकेरा गया है । यह आकृति उनकोटी के सबसे आराध्य देव “उनकोटिश्वर काल भैरव” का प्रतीक है । इस आकृति के सिर पर क़रीब 10 फ़ीट लम्बा मुकुट है, जिसके दोनो तरफ़ अपने-अपने वाहनों पर सवार गंगा और जमुना की सुंदर नक़्कशियाँ हैं । उनकोटिश्वर के सामने ही एक विशाल प्रस्तर खंड के रूप में नंदी की प्रतिमा है । पानी की छोटी धारा के पास ही एक पंडित जी बैठे रहते हैं, और स्थानीय निवासियों की पूजा-अर्चना में सहायता प्रदान करते हैं ।
साल में दो बार, जनवरी (मकर संक्रान्ति) और अप्रैल में सात दिन तक अशोक अष्टमी के अवसर पर उनकोटी में विशाल मेले का आयोजन होता है । तब त्रिपुरा और असम के समीपवर्ती क्षेत्रों से हज़ारों की संख्या में लोग उनकोटी पहुँचते हैं । हरे-भरे जंगलों से घिरी पहाड़ियों के बीच में आयोजित इन मेलों में इन भूली-बिसरी पहाड़ियों की सुंदरता देखते ही बनती है।
काल भैरव की प्रतिमा से आगे बढ़ते हुए सीढ़ियों द्वारा ऊपर पहुँचने पर एक प्राचीन मंदिर के अवशेष मिलते हैं । वहीं पास में ही एक कमरे के अंदर कई शिला-खंडों पर बनी मूर्तियों को सुरक्षित रखा गया है । उनकोटी में आराध्य देव तो महादेव ही हैं, लेकिन उनके अलावा देवी पार्वती, देवी दुर्गा, भगवान विष्णु, भगवान राम, हनुमान जी , भगवान नरसिंह, गणेश भगवान, रावण इत्यादि की प्रतिमायें भी हैं । पास ही एक टिन शेड के रूप में एक अन्य मंदिर के अवशेष हैं जहां पाँच आकृतियों वाला एक शिवलिंग विद्यमान है ।
सीढ़ियों से नीचे उतरकर मैं धालूछोरा के निचले हिस्से की तरफ़ गया। वहाँ एक छोटे से तालाब के ऊपर पत्थरों से धालूछोरा की धारा एक झरने के रूप में गिरती है । बहुत सारे पर्यटक झुलसती गरमी से निजात पाने के लिए तालाब में नहाते भी हैं । फ़िलहाल तो फ़रवरी की सर्दियों में झरना लगभग सूख सा गया था । लेकिन वहाँ का मुख्य आकर्षण तो झरने के पास स्थित भगवान गणेश की तीन बड़ी-बड़ी आकृतियाँ हैं। भगवान गणेश की लम्बोदर छवि के उलट इन आकृतियों में बड़े-बड़े सूँड़ और दाँतों के कारण उनका उग्र रूप देखने को मिलता है । इन आकृतियों के बगल में भगवान् विष्णु की एक प्रतिमा है । पास ही थोड़ी दूर पर जमीन में गड़ा एक विशाल शिवलिंग भी है । वहाँ से सीढ़ियों द्वारा ऊपर चढ़कर मैं उनकोटी की पथरीली दुनिया से बाहर निकल गया ।
उनकोटी की पौराणिक कहानी : उनकोटी का शाब्दिक अर्थ होता है – एक करोड़ से एक कम (कोटी : करोड़) । माना जाता है कि उनकोटी में पत्थरों पर उकेरी गयी 99,99,999 आकृतियाँ ( एक करोड़ से एक कम) हैं ।
पहली कहानी :कहा जाता है कि एक बार भगवान शिव अपने दल-बल और देवताओं के साथ काशी (या कुछ लोग कहते हैं कि कैलाश पर्वत) जा रहे थे । पूरे समूह में कुल मिलकर एक करोड़ लोग थे ।उनकोटी के जंगलों में पहुँचते-पहुँचते रात हो जाने पर निश्चय हुआ कि रात्रि विश्राम वहीं कर लिया जाए । भगवान शिव ने बाक़ी सभी देवी-देवताओं और दल के सदस्यों को सुबह सूर्योदय से पहले उठने का आदेश दिया ताकि नियत समय पर आगे की यात्रा प्रारम्भ की जा सके । अगले दिन जब भगवान शिव सोकर उठे तो देखा कि बाक़ी सभी लोग सो ही रहे थे । इससे क्रुद्ध होकर उन्होंने सबको वही पत्थर में बदल जाने का श्राप दिया और आगे बढ़ गये । इस तरह वहाँ 99,99,999 पत्थर के देवी-देवता बन गये ।
दूसरी कहानी : एक स्थानीय शिल्पकार, कालू कुम्हार, माता पार्वती का बहुत बड़ा भक्त था । एक बार जब भगवान शिव, माता पार्वती और अपने विशाल दल-बल के साथ उधर से गुज़र रहे थे तो रात्रि विश्राम करने के लिए उनकोटी में रुक गये । पूरे समूह में कुल मिलकर एक करोड़ लोग थे । कालू कुम्हार ने यह सुना तो वह दौड़ा-दौड़ा भगवान शिव के पास गया और उनके साथ कैलाश जाने की ज़िद करने लगा । माता पार्वती से विचार-विमर्श करने के बाद भगवान शिव ने यह शर्त रखी कि अगर वह सुबह उनके प्र्स्थान करने से पहले साथ के सारे लोगों की अलग-अलग मूर्तियाँ बनाकर दिखा देगा, तो वो लोग उसे अपने साथ ले जायेंगे । शिल्पकार अपने काम में जी-जान से जुट गया, लेकिन सुबह भगवान शिव के प्रस्थान करने से पहले तक वह केवल 99, 99, 999 आकृतियाँ ही बना सका, इसलिए भगवान उसको वहीं छोड़ कर आगे की यात्रा पर निकल गए ।
एक अन्य कहानी में यह भी कहा जाता है कि कालू कुम्हार को सपने में भगवान शिव ने उनकोटी के प्रस्तर खंडों पर एक करोड़ देवी-देवताओं की आकृतियाँ बनाने का आदेश दिया । 99,99,999 आकृतियाँ बनाने के बाद कालू कुम्हार ने एक आकृति अपनी ख़ुद की बना दी। इस प्रकार से वहाँ सिर्फ़ 99,99,999 देवी-देवता रह गए ।
कहानियां चाहे जितनी भी हो और लोक कथाओं की सच्चाई जो भी हो, लेकिन उनकोटी के पत्थरों पर उकेरे गए देवी-देवताओं के ये विशाल चित्र अपने आप में बेमिसाल हैं । कानों के बड़े-बड़े कुण्डलों और गले के हारों में स्थानीय जनजातियों के जीवन की भरपूर झलक नजर आती है । उनकोटी के ये प्रस्तर खंड किसी एक व्यक्ति की रातों-रात की गई मेहनत का नतीजा नहीं लगते हैं , बल्कि ऐसा प्रतीत होता है कि आसपास के गाँवों में रहने वाली जनजातियों के सैकड़ों शिल्पकारों ने साल दर साल , पीढ़ी दर पीढ़ी अपनी विरासत को अक्षुण्ण रखते हुए घने जंगलों के बीच में स्थित इन सैकड़ों पत्थरों को मूर्त रूप दिया होगा ।
उनकोटी की विरासत घूमने के बाद वापस धरमनगर जाने के लिए मैं पैदल चलकर मुख्य सड़क पर आ गया । लेकिन असली दिक़्क़त तो बस शुरू हुयी थी । 11 बज चुके थे । शाम को 8 बजे मेरी सिलचर से गुवाहाटी के लिए ट्रेन थी । मुझे किसी भी हालत में समय से सिलचर तो पहुँचना ही था । लेकिन वहाँ उनकोटी में मुझे वापसी के लिए कोई गाड़ी ही नही मिल रही थी । कैलाशशहर से धरमनगर के लिए जो भी इक्का – दुक्का ऑटो निकल रहे थे, वो सब सवारियों से भरे रहते थे । आधा घंटा ऐसे ही निकल गया । अब दिमाग़ में टेन्शन शुरू हो गई । फिर सोचा कि अब तो जो भी गाड़ी आएगी, उससे लिफ़्ट माँगने की कोशिश करूँगा । तभी एक ऑटो उधर आया । ऑटो में जगह नही रहने के बावजूद उसने किसी तरह मुझे लटका लिया । थोड़ा आगे जाकर एक यात्री के उतरने के बाद मैं आराम से बैठ गया ।
लेकिन ऑटो भी धरमनगर तक नही जा रहा था । धरमनगर से क़रीब 8 किमी पहले ही ऑटो ड्राइवर ने मुझे एक गाँव में उतार दिया । वहाँ से धरमनगर पहुँचने के लिए मुझे एक अन्य ऑटो पकड़ना पड़ा । धरमनगर के बस स्टैंड पर सिलचर के लिए कोई बस नही थी, इसलिए मैंने करीमनगर की एक बस पकड़ ली। पास ही स्थित जीप स्टैंड से सिलचर के लिए सीधी जीप मिल सकती थी, लेकिन मैंने बस से करीमगंज जाना और वहाँ से सिलचर जाना ज़्यादा उचित समझा, क्योंकि इस बहाने मुझे करीमगंज को देखने का मौक़ा भी मिल जाता । अपनी अब तक की त्रिपुरा यात्रा में मुझे सड़कें बहुत अच्छी मिली थी और दिमाग़ में बार-बार यही ख़याल आता था कि यहाँ तो अपनी कार से भी आ सकते थे । वैसे मुझे यह तो पता ही था कि गुवाहाटी से सिलचर तक हाइवे बहुत ही उम्दा हालत में है, लेकिन असली चिन्ता सिलचर के बाद और त्रिपुरा के अंदरूनी हिस्सों को लेकर थी । त्रिपुरा में तो ख़ैर सड़कें बहुत ही अच्छी स्थिति में हैं, लेकिन धरमनगर से करीमगंज की उस बस यात्रा में मुझे समझ में आ गया कि अपनी गाड़ी से ना आकर मैंने बहुत अच्छा काम किया । धरमनगर से करीमगंज के बीच सड़क की स्थिति बहुत ही दयनीय है और अगर यात्रा के दौरान बारिश हो जाए तो उस कीचड़ और गड्ढों से युक्त सड़क पर फिर भगवान ही मालिक है ।
बारिश ना होने की स्थिति में सड़क धूल से भरी पड़ी थी । सड़कों की धूल फाँकते और खाँसते हुए हम ढाई घंटे में करीमगंज पहुँच गये । करीमगंज बराक नदी के किनारे भारत-बांग्लादेश की सीमा पर बसा एक क़स्बा है । शाम का समय होने के कारण यहाँ बाज़ार में बहुत चहल-पहल थी। करीमगंज से बांग्लादेश में स्थित सिलहट की दूरी मात्र 58 किमी है, इसलिए अंतराष्ट्रीय सीमा की ओर जाने वाली सड़क पर भी ख़ूब चहल-पहल रहती है । बस स्टैंड से क़रीब आधा किमी दूर बाज़ार से बाहर निकलते ही बराक नदी के दर्शन होते हैं । यहाँ बराक नदी, भारत-बांग्लादेश की सीमारेखा बनाती है । बराक नदी के एक तरफ़ भारत है और दूसरी तरफ़ बांग्लादेश । भारत की तरफ़ तारों की बाड़ लगाकर अंतराष्ट्रीय सीमा को सुरक्षित किया गया है । लेकिन सीमा के दूसरी तरफ़ बांग्लादेश के घर, बराक में चलती नावें, नदी किनारे कपड़े धोते लोग, पानी में खेलते बच्चे सब कुछ साफ़-साफ़ नज़र आता है । लेकिन यहाँ भारतीय सीमा से बराक के पानी को छूने की कोई अनुमति नही है ।
वापस बस स्टैंड आकर मैंने सिलचर की बस पकड़ी। करीमगंज से सिलचर का रास्ता बहुत अच्छी स्थिति में है और शुरू-शुरू में 3-4 किमी तक अंतराष्ट्रीय सीमा के पास बराक का साथ भी बना रहता है ।शाम 6 बजे तक मैं सिलचर पहुँच गया । अभी ट्रेन जाने में 2 घंटे का समय था तो मैं स्टेशन के आसपास ही टहलने लगा । रेलवे स्टेशन के बाहर बाजार में कुछ ख़ास नहीं था । एक बात जो मैंने नोटिस कि वो यह थी कि वहाँ एक लाइन से बहुत सारे हेअर ड्रेसर थे । मैंने भी सोचा कि 5-6 दिन से शेव नहीं किया था, तो शेविंग करवा लेता हूँ और बाल भी कटवा लेता हूँ । बस यहीं मुझे चूना भी लग गया । दुकान वाले की बातों से लगा कि वह मुझे बांग्लादेशी समझ रहा था, लेकिन मैंने भी कोई सफ़ाई नही पेश की । बाल काटने के बाद वह चेहरे पर मसाज करने के लिए ज़ोर डालने लगा, तो मैंने कहा कि ठीक है कर दो। बाद में बिल बनाया 350 रुपए का । मुझे लगा कि फ़र्ज़ी में इतना बिल बनवा दिया । फिर वहाँ से आठ बजे की ट्रेन पकड़कर मैं वापस गुवाहाटी पहुँच गया और इस तरह मेरी त्रिपुरा यात्रा पूरी हो गयी ।
भाई बहुत दिनों बाद आखरी क़िस्त लिखी….चलो कोई नही उनाकोटी का wait तो था ही….उनाकोटी की बहुत ही बेहतरीन जानकारी….. उनाकोटी ड्रीम लिस्ट में है….आपकी पोस्ट से डिटेल जानकारी पता चली और त्रिपुरा काफी आसान हो गया…सिलचर पहुचने में एडवेंचर हो गया और बढ़िया करीमगंज बराक नदी काफी बढ़िया जानकारी युक्त लेख है मजा आ गया पढ़कर..
वाह !
बहुत सुंदर लेखनी है पढ़कर जिज्ञासाओं का जन्म हो जाता है पूर्वोत्तर के बारे में ।
बहुत-बहुत धन्यवाद सर 🙂
बहुत अच्छी जानकारी दी है आपने यह सब जानकारियां पढ़कर मुझे भारतीय होने पर गर्व होता है
jankari ke liye dhanyawad